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खुद को शूद्र मानें ओबीसी और गैर-ओबीसी पिछड़े

आरएसएस-भाजपा सरकार शिक्षा व्यवस्था में प्राचीन संस्कृत ग्रंथों पर आधारित परंपराओं और वर्ण-धर्म विचारधारा का समावेश कर रही है। ऐसे में यह आवश्यक है कि अन्न-उत्पादक और राष्ट्र-निर्माण करने वाली शूद्र जातियां अपने इतिहास, विचारधारा और पहचान को पुनर्स्थापित करें। बता रहे हैं कांचा इलैया शेपर्ड

क्या पहचान के लिए पिछड़े वर्गो के लोगों को एक नये शब्द की दरकार है? 

‘पिछड़ा वर्ग’ पिछड़ा क्यों है? भारत की आधी से अधिक आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले इन समुदायों के लिए प्रयुक्त ‘पिछड़ा वर्ग’ और ‘ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग)’ शब्द इनकी वर्तमान स्थिति के बारे में तो हमें बताते हैं, परंतु यह नहीं बताते कि वे इस स्थिति में कैसे पहुंचे। लेकिन ‘शूद्र’ शब्द शायद इसकी अभिव्यक्त करता है। इस शब्द को ब्राह्मणवादी ग्रंथों के रचयिताओं ने इसलिए गढ़ा ताकि इन उद्यमी लोगों को उनकी औकात बताई जा सके। शूद्र शब्द में इन वर्गों, उनकी जीवनशैली, उनके उद्यम और उनकी शिल्पकला के प्रति इस शब्द को गढ़ने वालों का तिरस्कार भाव समाहित है और यह शब्द इन वर्गों के दमन और शोषण को वैधता प्रदान करता है। यह तब जबकि उद्यम और शिल्प ही किसी समाज या देश को आगे ले जा सकते हैं। लेकिन क्या वे उसी शब्द को अपनी पहचान बनाना चाहेंगे जो उनके शोषकों ने दिया है ताकि वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलाम बने रहें? क्या वे नहीं चाहेंगे कि जैसे पूर्व अछूतों ने अपने लिए दलित शब्द का चयन किया, उनके लिए भी वैसा ही एक शब्द हो? हम इस विमर्श में भागीदारी के लिए आपको आमंत्रित करते हैं। कृपया अपने लेख editor@forwardpress.in पर प्रेषित करें। इस विमर्श की शुरुआत कांचा इलैया शेपर्ड अपने इस लेख से कर रहे हैं      


जब मेरी नवीनतम पुस्तक, “द शूद्रज: विज़न फॉर ए न्यू पाथ”, जिसे मैंने कार्तिक राजा करुप्पुसामी के साथ संपादित किया है, के शीर्षक को अंतिम रूप दिया जा रहा था, उस समय एक गंभीर राय यह थी कि ‘शूद्र’ की अवधारणा से बचा जाना चाहिए, क्योंकि वह अब स्वीकार्य नहीं है। उत्तर-औपनिवेशिक भारत में धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों ने शिक्षण और लेखन में जाति / वर्ण की विभिन्न श्रेणियों का नाम तक लेने से इस तरह परहेज किया मानो भारत में कभी उनका अस्तित्व रहा ही न हो। मंडल के बाद संबंधित सामाजिक शक्तियों ने नागरिक समाज विमर्श में ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) और ‘दलित’, इन दो श्रेणियों के नामों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। इस बीच धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी बड़ी चतुराई से एक नया शब्द ले आए – सबाल्टर्न। इस शब्द को इतालवी मार्क्सवादी दार्शनिक अंतोनियो ग्राम्सी ने गढ़ा था। परंतु भारत में जिन लोगों के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जा रहा था, वे इसका मतलब तक नहीं जानते थे।  

एक तर्क यह दिया गया कि किताब के शीर्षक में ‘ओबीसी’ शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए क्योंकि किसी वर्ग के लिए शूद्र शब्द का इस्तेमाल न तो मीडिया में हो रहा है और ना ही अकादमिक विमर्शों में। इसके विपरीत, दलित शब्द पूरी दुनिया में जाना जाने लगा है और इसमें सभी ‘अछूत’ जातियां शामिल हैं। 

जिन शूद्र जातियों जैसे जाट, मराठा, गुज्जर और पटेल (पाटीदार), जिन्हें ओबीसी की श्रेणी में शामिल नहीं किया गया था, वे भी सन् 1990 के दशक में अपने आप को शूद्र की बजाय क्षत्रिय कहलवाना पसंद करते थे। सन् 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार सत्ता में आई। यह पार्टी सिद्धांत के स्तर पर प्राचीन संस्कृत ग्रंथों पर आधारित परम्पराओं और वर्ण-धर्म विचारधारा को शिक्षा व्यवस्था का भाग बनाने की पैरोकार रही है। इससे एक नयी स्थिति पैदा हुई। भाजपा और उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के संस्कृत विमर्श में शूद्र के लिए कोई जगह नहीं है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में केवल क्षत्रिय राजाओं और ब्राह्मण ऋषियों की चर्चा है। जाहिर है कि हड़प्पा की नागरी सभ्यता के दिनों से भारतीय अर्थव्यवस्था का निर्माण करने वाले उत्पादक शूद्रों को राष्ट्रीय विमर्श में स्थान नहीं मिलेगा। दलितों पर थोड़ी-बहुत चर्चा की इज़ाज़त मिल सकती है, परंतु शूद्र अन्न उत्पादकों और शिल्पकारों का तो कोई नामलेवा ही नहीं होगा। वो तो भारत के शब्दकोष से शूद्र शब्द को ही गायब कर देना चाहते हैं। 

किसी भी देश की समृद्धि और विकास के लिए ज़रूरी है कि उत्पादक समुदायों को आगे रखा जाये न कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, कायस्थों और खत्रियों जैसे आरामतलब वर्गों को। शूद्रों के साथ-साथ, दलित और आदिवासी भी उत्पादक वर्ग हैं। अगर शूद्रों को ‘पिछड़ा वर्ग’ मान लिया जाएगा, जैसा कि भारत सरकार के नामकरण से लगता है, तो राष्ट्रनिर्माता और उत्पादक के रूप में उनकी ऐतिहासिक भूमिका न तो पाठ्यक्रमों का हिस्सा बन सकेगी और ना ही बौद्धिक व दार्शनिक चर्चाओं की। आज भी किसी भी शूद्र – चाहे वो जाट हों, गुज्जर, कुर्मी, पटेल या फिर यादव – को हिंदू मंदिरों में पुजारी बनने का हक नहीं है. और ये वही मंदिर हैं जिन पर संघ / आरएसएस व द्विज शक्तियां अपना मालिकाना हक जताती रही हैं। धर्मनिरपेक्ष द्विज लेखक इस व्यवहार को हिंदू बहुसंख्यकवाद बताते हैं। कृष्ण एक शूद्र (यादव) देवता हैं, परंतु मथुरा, उत्तर प्रदेश में स्थित कृष्ण मंदिरों पर ब्राह्मणों का कब्ज़ा है और वे यादवों को वहां पुजारी नहीं बनने देते। राम, एक क्षत्रिय राजा और देवता हैं और क्षत्रिय और ब्राह्मण अयोध्या के राम मंदिर पर काबिज़ हो गए हैं। परंतु क्या कारण है कि यादव मथुरा के कृष्ण मंदिर पर अपना दावा नहीं ठोकते जबकि कृष्ण एक मवेशी पालक परिवार से हैं और उनके देवता हैं। उत्तर प्रदेश के जाट, यादव, कुर्मी और अन्य यह भूल गए हैं कि वे और उनकी तरह की अन्य जातियां – जिन्हें पिछड़ा कहा जाता है – अन्न उत्पादक, मवेशी पालक और कृषि तकनीकों के निर्माता रहे हैं। इन सभी जातियों का द्विज शोषण करते हैं। अब आरएसएस/भाजपा उन्हें प्राचीन काल की तरह गुलाम बनाना चाहते हैं। इन जातियों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा नहीं मिली, जो द्विजों ने सुनियोजित तरीके से हासिल की। आज ज़रुरत इस बात की है कि उत्तर भारत के सभी सरकारी स्कूलों को अंग्रेजी माध्यम का बना दिया जाए ताकि दिल्ली में द्विजों का प्रभुत्व ख़त्म हो सके। 

कई तरह के वंचनाओं से जूझ रहे अन्न उत्पादक व राष्ट्र निर्माता शूद्र

अन्न उत्पादक और राष्ट्र निर्माता शूद्रों को यह अहसास ही नहीं हुआ कि शूद्र के रूप में उनका सामाजिक-आध्यात्मिक दर्जा, अन्य तीनों वर्णों, बनिया, क्षत्रिय और ब्राह्मण, जो द्विज कहलाते हैं, के समकक्ष नहीं है। आरएसएस/भाजपा नियंत्रित सामाजिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संस्थाओं में भी वे असमान वर्ण/जातियां हैं। मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी उनके प्रतिनिधि नहीं है। अगर आरएसएस उत्तर प्रदेश के जाटों, यादवों और कुर्मियों को शूद्र न मानता होता तो इन जातियों के किसी व्यक्ति को आरएसएस का सरसंघचालक बनने का अवसर ज़रूर मिलता। सन् 1925 में आरएसएस के गठन के समय से ही इसका नेतृत्व ब्राह्मण करते रहे हैं। केवल एक बार एक क्षत्रिय को इसका सर्वेसर्वा बनाया गया था। अगर आरएसएस वर्ण और जाति के आधार पर संचालित नहीं है तो उसने कभी किसी शूद्र को मुखिया क्यों नहीं बनने दिया। अगर इस देश की 52 प्रतिशत आबादी के मन में ये प्रश्न नहीं उपजते तो इस विशाल सामाजिक ताकत की बौद्धिक क्षमता में निश्चय ही कोई मूलभूत कमी है। 

शूद्रों ने अपना इतिहास नहीं पढ़ा। इस चर्चा का उद्देश्य उन्हें यह अहसास दिलाना है कि वे ही इस देश के असली मालिक रहे हैं। यही कारण है कि शूद्रों की सामूहिक अस्मिता को आगे लाया जाना चाहिए। शूद्रों की लड़ाई महात्मा जोतीराव फुले की 1873 में प्रकाशित पुस्तक गुलामगिरी से हुई थी। आज 2021 में, जिस समय देश में आरएसएस/भाजपा का शासन है, “द शूद्रज : विज़न फॉर ए न्यू पाथ” का प्रकाशन हो रहा है। यह समय इस लड़ाई को दिल्ली के हृदय तक ले जाने का है।

जो कृषक समुदाय कृषि कानूनों की खिलाफत कर रहे हैं, उन्हें मंडल आंदोलन के समय आरक्षण की ज़रुरत का अहसास नहीं हुआ था। उनमें से कई भूस्वामी थे और मानते थे कि उच्च शिक्षा और सार्वजनिक नियोजन में आरक्षण माँगना उनकी इज्ज़त के खिलाफ है। 

ओबीसी एक संवैधानिक वर्ग है, जो उन लोगों की पहचान करने के लिए बनाया गया है, जो ‘सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हैं”। परंतु बनिए, जो वैदिक वैश्य हैं, भी ओबीसी का प्रमाण पत्र हासिल करने में सफल हो गए हैं और कुछ मुस्लिम भी, जो निम्न जातियों के धर्मपरिवर्तित हिंदू हैं, परंतु आज भी ऐसे काम करते हैं, जिन्हें मुस्लिम सामंत और श्रेष्ठी वर्ग सम्मान की निगाहों से नहीं देखता। परंतु ये लोग उस अर्थ में शूद्र नहीं हैं, जिस अर्थ में हम इस शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। 

जिस तरह अलबरूनी (13वीं सदी) द्वारा सिंधु नदी के पार रहने वाले भारतीयों के लिए प्रयुक्त शब्द ‘हिंदू’, उस शब्द का उलट है जिसका अर्थ ‘जंगली’ है। उसी तरह शूद्र शब्द को भी गुलाम के उसके मनुवादी अर्थ से मुक्त कर अन्न-उत्पादक राष्ट्रवादी के रूप में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए। अंग्रेजी भाषा की बदौलत शोषित शक्तियों ने ब्लैक (अश्वेत) और दलित जैसी अवधारणाओं का अर्थ पलटना सीख लिया है, तो शूद्र का क्यों नहीं?  

आरएसएस/भाजपा, धर्मनिरपेक्ष नागरिक समाज और राज्य के विमर्श को परे खिसका कर और हिंदू समाज और हिन्दू राष्ट्र की अवधारणाओं के बल पर सत्तासीन बने हैं। ऐसे में शूद्र के विचार का भी पूरी ताकत से वापस आना स्वाभाविक है। यह एक सामाजिक समूह है, जो देश की कुल आबादी का 52 प्रतिशत है। अगर शूद्र आज के पूर्णतः पूंजीवादी और वैश्विकृत भारत में आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए नहीं लड़ेंगे, तो वे फिर से गुलाम के अपने पुराने दर्जे में धकेल दिए जाएंगे।  

एक श्रेणी के रूप में ओबीसी कोई विचारधारात्मक लड़ाई नहीं लड़ सकते। और ना ही शशि थरूर नुमा “मैं अच्छा हिंदू हूं, तुम सांप्रदायिक हिंदू हो’ विमर्शों से कृषक और अन्न उत्पादक शूद्र और दलित इस लड़ाई को जीत सकते हैं। संघ/भाजपा आसानी से इस तरह के संघर्ष को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं या उसे अपनी विचारधारा की दूसरे शब्दों में अभिव्यक्ति मान सकते हैं। शूद्र किसानों के आंदोलन ने यह सिद्ध कर दिया है कि संघ और भाजपा का इतिहास और विचारधारा शूद्रों और दलितों के विरोध का इतिहास रहा है। 

उत्तर प्रदेश में आरएसएस/भाजपा के सत्ता में आने के तुरंत बाद, अपनी जाति पर मोहित योगी आदित्यनाथ राज्य के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने सबसे पहले मुख्यमंत्री के आधिकारिक निवास का शुद्धिकरण किया। इससे उस राज्य – जहां चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, मायावती और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री रहे हैं – में जाटों, यादवों और जाटवों की हैसियत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। संघ ने शुद्धिकरण की निंदा नहीं की। मौनं स्वीकृति लक्षणं। राजस्थान में राजवंश की क्षत्रिय महिला नेता वसुंधरा राजे को बार-बार मुख्यमंत्री बनाया गया। हरियाणा में जाटों को सत्ता से बाहर रखने के लिए मनोहरलाल खट्टर, जो कि खत्री हैं, को मुख्यमंत्री बनाया गया। महाराष्ट्र में ब्राह्मण पुत्र देवेन्द्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया ताकि शूद्र उभार को रोका जा सके। इन द्विज नेताओं का सत्ता में आना शूद्र/दलित बहुसंख्यकों की कीमत पर आरएसएस/भाजपा द्वारा वर्णधर्म परंपरा को बढ़ावा देने के परिणाम हैं।

जिस समय सरकार द्वारा शूद्र समुदाय को अनारक्षित (सामान्य) और आरक्षित श्रेणियों में बांटा गया, उस समय उच्च शूद्रों ने सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का विरोध का रहे द्विजों का साथ दिया था। अब हालात बदल गए हैं. जैसे, कृषि कानूनों का विरोध करने वालों में उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के जाट और गुज्जर शामिल हैं जो केंद्र सरकार की ओबीसी सूची में नहीं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में निवासरत ओबीसी समुदाय, यादवों और कुर्मियों से लेकर नीचे तक, कृषक और शिल्पकार हैं। कई शिल्पकार समुदाय जो कृषि उत्पादन में योगदान देते हैं। जैसे बढ़ई, कुम्हार, लोहार, मछुआरे, फलों का संग्रहण करने वाले और कृषि श्रमिक – भी शूद्र हैं।

वर्तमान सत्ताधारी नेहरूवादी सेक्युलर पैकेज को हटा कर अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवादी पैकेज के अंतर्गत, प्राचीन सोच को फिर वापस ला रहे हैं। ऐसे समय में भारतीय बौद्धिक विमर्श को सभी वर्गों की बात करनी चाहिए। शूद्रों द्वारा अन्न उत्पादन और राष्ट्रनिर्माण को सभी विमर्शों में जगह मिलनी चाहिए – चाहे वे शैक्षणिक हों या कोई और। 

(अनुवाद अमरीश हरदेनिया, संपादन : अनिल/नवल)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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