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सवर्ण संस्कृति में क्षमा भाव क्यों नहीं हैं?

जार्ज फ्लॉयड की हत्या की पहली बरसी के मौके पर अमेरिकी नागरिकों द्वारा सामूहिक रूप से श्रद्धांजलि देना और घुटनों के बल बैठना वहां की संस्कृति का द्योतक है। जबकि भारत में न कालांतर में हुए नरसंहारों के लिये और ना ही वर्तमान में की जा रही जुल्म व ज्यादतियों के लिये भारत की महान संस्कृति के वारिस कभी शर्मसार होते है। माफ़ी मांगने का तो सवाल ही नहीं उठता है। भंवर मेघवंशी का विश्लेषण

गत 25 मई, 2021 को अमेरिकी अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लॉयड की हत्या की पहली बरसी पर लोग मिनेसोटा में उस जगह एकत्र हुए ,जहां मिनीपोलिस पुलिस के एक श्वेत अफसर डेरेक शॉविन ने फ्लॉयड को घुटने के नीचे नौ मिनट दबा कर मार डाला था। श्वेत व अश्वेत सभी लोगों ने इकट्ठा हो कर घुटनों के बल बैठकर नौ मिनट मौन रखा। मृतक फ्लॉयड के परिजन भी इस शोक सभा में मौजुद रहे। यह अमेरिकन समाज के उस राष्ट्रीय चरित्र की अभिव्यक्ति थी, जो उन्हें गलती पर क्षमा मांगना सिखाता है। इसी तरह फ़्रांस के प्रधानमंत्री एम्मानुएल मैक्रो ने भी नेपोलियन की समाधि पर पुष्पांजलि से उभरे विवाद के पश्चात 1994 में रवांडा में हुए नरसंहार और उसमें नौ लाख लोगों के मारे जाने में फ़्रांस की भूमिका के लिये क्षमा प्रार्थना की।

हाल ही में जर्मनी ने स्वीकार किया है कि उसकी औपनिवेशिक शक्तियों ने वर्ष 1904 से 1908 के दौरान तत्कालीन दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका जो अब नामीबिया कहलाता है, वहां की हेरेरा और नामा जाति के करीब 75 हजार लोगों को मार दिया और बहुतों को यातना शिविरों में धकेल दिया था। इस नरसंहार के घटित होने की एक सदी से अधिक का समय बीत जाने के बाद एक संवेदनशील राष्ट्र की भूमिका अदा करते हुए न केवल जर्मनी ने अपने मुल्क की इस गलती को स्वीकार किया है, बल्कि इसकी क्षतिपूर्ति करने के लिये पीड़ितों के वंशजों के विकास के लिये एक बिलियन डॉलर खर्च करने का भी एलान किया है।

मूल बात यह कि हम पश्चिम से इस तरह की स्वीकारोक्तियों और क्षमा प्रार्थना की खबरें अकसर पढ़ते हैं, कईं बार इस तरह की खबरें वेटिकन सिटी से कैथोलिक ईसाईयों के सर्वोच्च धर्मगुरु पोप के हवाले से भी सुनते-पढ़ते हैं, जहां वे अतीत में उनके समुदाय द्वारा किसी से भी की गई ज्यादतियों के बारें क्षमा मांगते दिखाई पड़ते हैं।

पश्चिम का समाज क्षमा मांगने, पाप स्वीकार करने और माफ़ करने के जिस मानवीय उद्दात्त गुण से ओत प्रोत दिखलाई पड़ता है और बेहिचक गलती स्वीकारता है और उसका परिमार्जन भी करता है, वैसा दुनिया की कथित रूप से सबसे सहिष्णु और क्षमाशील कही जाने वाली भारत की सनातनी सवर्ण हिन्दू संस्कृति में कहीं नजर नहीं आता है। न कालांतर में हुए नरसंहारों के लिए और ना ही वर्तमान में की जा रही जुल्म व ज्यादतियों के लिये भारत की महान संस्कृति के वारिस कभी शर्मसार होते है। माफ़ी मांगने का तो सवाल ही नहीं उठता है। 

जार्ज फ्लॉयड की हत्या की पहली बरसी के मौके पर घुटनों के बल होकर श्रद्धांजलि देते अमेरिकी लोग

तो क्या यह माना जा सकता है कि सनातन वैदिक संस्कृति में क्षमा के लिये कोई जगह नहीं है? जैसे ही आप ऐसा कहते हैं तो संस्कृति के ध्वजवाहक सिद्धांतत: बहुत सारे उद्धरण खोज लाते हैं, जो यह साबित करते हैं कि “क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात” की रट लगाने लगते हैं। किन्तु वे अपने पुरखों के अपराधों के लिये शर्मिंदा नहीं होते और माफ़ी तो कतई नहीं मांगते।

मुझे कहीं भी यह देखने को नहीं मिला कि भारत के सवर्ण समुदाय ने इस देश के अस्पृश्य वर्ग से इस बात के लिये कोई माफ़ी मांगी हो कि उनके पुरखों ने छुआछुत व भेदभाव की अमानवीय व्यवस्था को स्थापित किया। इंसान और इंसान में गैर बराबरी रखने वाली संस्कृति में इस गलती को महसूस तक नहीं किया जाता है।

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में पिछले वर्ष रामनवमी के मौक पर जुलूस के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

क्या यह किसी सभ्य समाज का लक्षण है कि जो अमानवीय अछूत प्रथा उनके पूर्वजों ने शुरू की, वे उस पर शर्म नहीं करते और आज भी खुद उसका पालन करते हैं? स्वयं को श्रेष्ठ और शेष इंसानों को हीन बताते हैं। उंच-नीच को धर्म मानना और वर्णव्यवस्था का निर्माण क्या महान काम है? लोगों को जाति-उपजाति में विभाजित करके ऊपर और नीचे का दर्जा देना क्या किसी भी सभ्य और सुसंस्कृत समाज की निशानियां हैं?

दुनिया के कईं धर्मों, समाजों और संस्कृतियों में क्षमा एक बड़ा शब्द ही नहीं है, बल्कि जीवन आचरण भी है। कुछ धर्मों में तो क्षमा याचना और क्षमा करने को धार्मिक व्यवहार माना जाता है, लेकिन क्या भारत की वैदिक ब्राह्मण धर्म, संस्कृति और धार्मिक ग्रंथों में ऐसी मिसालें मिलती हैं, जहां कमजोर और पराजित समूहों के साथ रहम की गई हो या उनसे की गई बेरहमी पर बाद में कभी गलती स्वीकारी गई हो?

‘वैदिक हिंसा न हिंसा भवेत्’ के सिद्धांत के साथ कईं अन्य प्रजातियों के साथ क्रूर यातनाएं दी गई और उनके क़त्ल को वध कहकर महिमामंडित किया गया। इतिहास के लाखों चरित्र आज भी है जिनके साथ की गई अमानवीयता की कहानी दिल दहला देती है, लेकिन जिन्होंने इस प्रकार की क्रूरताएं की, उनको महानायक और अवतार तथा देवता मान लिया गया और वे अब पूज्य हैं।

अब यह सवाल बहुत प्रमुखता से उठ रहे हैं कि पराजितों की गाथा क्यों पढ़ने को नहीं मिलती? शंबूक का सिर क्यों काटा गया और एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा में ले लेने वाले छली द्रोण की करतूत के लिये क्या कभी कोई इस देश के आदिवासी समाज से माफ़ी मांगेगा? क्या होलिका के दहन के लिये कभी माफ़ी मांगी गई? क्या अब भी हर साल रावण दहन का तमाशा जरुरी है? क्या करोड़ों करोड़ अछूतों के गले में हांडी और पीछे झाड़ू लटकाने पर पेशवा ब्राहमण शर्मिंदा हैं? इस देश से बुद्ध और उनके धम्म को नेस्तनाबूद करने का धतकर्म करने के अपराधी लोगों के वंशज अपने पुरखों के कुकृत्यों पर शर्मिदा हैं? मानव मल सिर पर ढ़ोने के लिये मजबूर किए गए समुदाय से माफ़ी मांगने के बजाय हमने उनको अब तक सीवरेज में धकेलने का काम जारी रखा हुआ है। मरे पशुओं का चमड़ा उतार रहे लोगों को गाड़ियों के पीछे बांधकर घसीटा जाता है और गाय के नाम पर भीड़ आज भी हत्यायें करके गर्व की अनुभूति करती हैं। कालांतर से लेकर अबतक किए गए और किए जा रहे जनसंहारों के लिये ज़िम्मेदार लोगों, समुदायों और संस्कृतियों ने भूल सुधार की कोशिश क्यों नहीं की?

भारत के सवर्णों ने अपने धर्म ग्रंथों और स्मृतियों में स्त्री व शूद्रों के लिये लिखी गई अपमानजनक बातों और विषमतामूलक संहिताओं में आज तक सुधार क्यों नहीं किया? अपने आपको सबसे सहिष्णु समाज कहने वाले सनातनी क्या वाकई सहिष्णु रहे हैं और अगर रहे हैं तो उनकी सहिष्णुता किनके लिये थी? वे आज भी सहिष्णु नहीं है तो उन्हें कैसे सहिष्णु कहा जा सकता हैं? 

1984 में भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने और गोलीबारी करवाने को भूल मानते हुए सोनिया गांधी और उनके परिजनों ने सिख समुदाय से क्षमा मांगी थी। शायद यह संस्कार सोनिया गांधी पश्चिम से लाई होंगीं, अन्यथा भारत की सवर्ण वैदिक ब्राह्मण सनातनी संस्कृति में तो इस तरह के जनसंहारों और ऐतिहासिक भूलों को स्वीकारने और उनके लिये क्षमा याचना करने की कोई परंपरा नहीं रही है।

अगर सवर्णों में क्षमा की भावना भर जाए तो वे बहुत सारी बातों के लिये क्षमा मांग सकते हैं और भूल सुधार तथा गलतियों की स्वीकारोक्ति करके एक संवेदनशील राष्ट्र व समाज बना सकते हैं। वैसे भीकिसी भी देश को आगे बढ़ने के लिये बहुत सारी कड़वी बातें भूलनी होती हैं और बहुत सारी कड़वाहटो को कम करने के लिये क्षमा प्रार्थना करके आगे जाना होता है। दुनिया भर में यह होता रहा है। लेकिन भारत में क्षमा को वीरों का आभूषण बताने और क्षमायाचना को धार्मिक रस्म बनाने जैसा दोहरा रवैया तो चलता है, लेकिन वास्तविक भूलों और अमानवीय कार्य व्यवहारों के लिए माफ़ी मांगने का प्रयास कहीं होता नजर नहीं आता है। यह भारत की सवर्ण संस्कृति का पाखंडी चरित्र है, जो अब देश का राष्ट्रीय चरित्र बनता जा रहा है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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