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झारखंड के आदिवासी गीतों में हूल विद्रोह और मांदर की थाप

वरिष्ठ साहित्यकार वंदना टेटे के मुताबिक, किसी भी आदिवासी आंदोलन में सीधा संघर्ष नहीं हुआ। कहने का अर्थ है कि आदिवासी सीधे भाला, तीर-कमान लेकर विरोध करने नहीं उतरे। पहले गीतों के जरिये अपने संदेश को पहुंचाया और लोगों को जागरूक किया। बता रही हैं प्रियंका

हूल विद्रोह दिवस (30 जून, 1855) पर विशेष

जल-जंगल-जमीन की लड़ाई सदियों पुरानी है। आज भी आदिवासी समुदाय के लोग अपनी मूलभूत मांगों को लेकर संघर्षरत हैं। हूल दिवस हमें हमारे ऐसे ही संघर्ष की याद दिलाता है। जब करीब 150 साल पहले झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था। हालांकि इतिहासकारों ने 1857 के सिपाही विद्रोह को अंग्रेजों के खिलाफ पहली लड़ाई की उपमा दी हो, लेकिन झारखंड के आदिवासियों ने 30 जून,,1855 को ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ झंडा बुलंद कर दिया था। सिदो और कान्हू के नेतृत्व में मौजूदा साहेबगंज जिले के भगनाडीह गांव से हूल विद्रोह शुरू हुआ था। इस मौके पर सिदो ने नारा दिया था, “करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो”। 

हूल विद्रोह में आदिवासियों का एक और नारा था– “जुमीदार, महाजन, पुलिस राजदेन आमला को गुजुकमाड़” अर्थात “जमींदार, महाजन, पुलिस और सरकारी अमलों का नाश हो।” अपनी अस्मिता और अपनी धरती की रक्षा में किया गया यह विद्रोह भारतीय इतिहास के यादगार विद्रोहों में से एक रहा, जिसमें सैकड़ो लोग शहीद हुए थे।

बेशक, लिखित दस्तावेजों में तो यह आंदोलन सफल नहीं हुआ। करीब 20 हजार आदिवासी अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के शिकार हुए। लेकिन आंदोलन के नायक चार भाई सिदो, कान्हू, चांद और भैरव ने अंग्रेजों में खौफ भर दिया था। साथ ही हजारों की संख्या में लोगों का विद्रोह से जुड़ना कोई छोटी बात नहीं थी। वह भी उस जमाने में जब आज के जैसे संचार माध्यम नहीं थे। जाहिर तौर पर उस दौर में लोकगीतोंनाट्य के माध्यम से विद्रोह को गति मिली। वैसे भी मुंडारी में कहावत है– सेन गी सुसुन, काजी गी दुरंग, डूरी गी दुमंग”। अर्थात् उनका चलना ही नृत्य है, बोलना ही गीत है और शरीर ही मांदर है”। यही आदिवासी जीवन दर्शन है।

गीत और मांदर आदिवासियों की ताकत हैं और इनका इस्तेमाल उन्होंने अपने आंदोलन उलगुलान में भी किया। इस प्रकार, फिर चाहे संताल परगना में हुआ हूल विद्रोह हो, बिरसा मुंडा का उलगुलान या अलग राज्य की मांग को लेकर झारखंड आंदोलन। आदिवासियों के विद्रोह की कथा तो कही-सुनी जाती है, लेकिन उनके गीतों के बगैर बात पूरी नहीं होती। फिर चाहे औपनिवेशिक समय में बिरसा मुंडा का उलगुलान हो या आजाद भारत में आदिवासी प्रतिरोध, हमेशा उनके एक कंधे पर मांदर रहा है, दूसरे कंधे पर तीर-धनुष और होठों पर गीत। प्रतिरोध की यह संस्कृति मानव इतिहास में विलक्षण है। आदिवासी समाज की ऐसी संस्कृति है जहां संघर्ष, प्रेम, जीवन के सभी आयामों की अभिव्यक्ति गीतों के जरिये होती है। चूंकि हूल क्रांति संथाल में हुई थी, इसलिए संथाली भाषा में कई गीत बनाये गये जो वीररस से ओतप्रोत थे, जिनके सुनने से आज भी लोगों में उत्तेजना का संचार होता है। आदिवासी गीतों में नायक की भूमिका का हमेशा जिक्र रहा है। मसलन, संथाली भाषा में लिखे गीत में भी विद्रोह के नायक रहे कान्हू का जिक्र है। 

नोड़ाक् खोनिञ उडुङेन छाटका रेञ तेंगुयेन
कन्हू होहो लेकाञ नाञजोम केदा
मासे माराङ दादा नुसाराते बेरेत् में कपि दो साजावते नुङुङमे
लड़हई दिन दो (२) पासेच् सेटेरेना।

जिसका अर्थ है–

घर से निकलकर मैं आँगन में खड़ी हो गई
कान्हू के पुकारने जैसा मुझे लगा
ओ बड़े भैया जल्दी से उठो
कपि (धारदार हथियार) तैयार कर निकलो
युद्ध का समय शायद आ गया है।

लोकनृत्य करते झारखंड के आदिवासी

झारखंड मामलों के जानकार और जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता फैसल अनुराग का कहना है कि आदिवासियों का गौरव हो, दुख हो, उनका संघर्ष हो या जीवन की कोई समस्या, हर पहलू को लोकगीतों और लोककथाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। हालांकि आदिवासियों के ऐतिहासिक पहलू लिखित दस्तावेज में दर्ज नहीं है। अगर किसी ने जो कुछ लिखा भी है तो उनका अपना नजरिया उनकी लेखनी पर हावी रहा।

लेकिन आदिवासी गीत उनके इतिहास, उनकी संस्कृति, सामाजिक चेतना का एक ऐसा आईना है, जिसमें वे अपने अतीत की बुनियाद पर वर्तमान को जीने की बेहतरीन कोशिश करते हैं और बेहतर भविष्य का सपना बुनते हैं। इस समाज के गीतों में प्रेम-दुख का सम्मिश्रण होता है। दुखी होने पर भी आदिवासी अपने नायकों को याद करते हैं। जल-जंगल-जमीन के लिए इनके नायकों ने संघर्ष किया। और आदिवासी आज उन्हें याद करते हैं। क्षेत्रीय भाषाओं उरांव, मुंडा, कुड़ुख, हो, संथाली हर भाषा के गीतों में नायक उभर कर आता है। आदिवासी गीतों में युद्ध कौशल भी नजर आता है। 

आगे वे कहते हैं कि विद्रोह में गीतों की प्रसांगिकता इस बात से भी समझी जा सकती है कि आज के समाज में हो रहे संघर्ष में भी ये गीत इन्हें प्रेरणा देते है। इन गीतों में आदिवासी समाज के संघर्ष को समाहित किया गया है। उन्हें जीवित रखा, ताकि जब उनकी संस्कृति पर प्रहार हो तो ये गीत उन्हें प्रभावित करते हैं। उनका मानना है कि आदिवासी समाज में विस्थापन, भाषा, सामाजिक संरचना को बचाने के लिए कई संघर्ष हुए। इन संघर्षों में गीतों की अहम भूमिका रही। नेतरहाट आंदोलन का जिक्र करते हुए कहा कुड़ुख भाषा में अद्भूत गीत लिखे गये। कोयलकारो आंदोलन हो, या संतालों में हुई कई लड़ाईयां सभी में गीतों की भूमिका रही।

समय के साथ आदिवासी समाज में हुए बदलाव को स्वीकारते हुए अनुराग ने कहा कि, आदिवासी समाज के लोकगीत, संगीत, कथाएं इतनी समद्ध हैं कि वे (आदिवासी) एक कदम आगे जाते हैं, तो भी वो अपने इतिहास को खंगालने लगते हैं। बड़े ओहदे पर बैठने के बाद भी ये अपनी परंपरा से जुड़े रहते हैं। समय आने पर ये गांव में अपने परिवेश में ढल जाते हैं। और मांदर पर थाप देने को मचल उठते जाते हैं।

झारखंड के आंदोलन, आदिवासियों के संघर्ष में गीतों की भूमिका पर बात करते हुए जाने-माने झारखंडी फिल्मकार मेघनाद का कहना है कि पुराने समय में लिखित साहित्य नहीं था, तब मौखिक किस्से-कहानियां हमारी जिंदगी का हिस्सा बने। ऐसे ही आदिवासी गीत यहां के लोगों की क्रांति, उनके संघर्ष का माध्यम बने। झारखंड के महानायक बिरसा मुंडा का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि बिरसा मुंडा के बारे में पहली जानकारी भी गीतों से ही मिलती है, जिसका कुमार सुरेश सिंह ने अपनी किताब में जिक्र भी किया है। मुंडारी भाषा में लिखे एक गीत के बोल कुछ ऐसे हैं–

डोम्बारी बुरू चेतन रे
ओकेए दुमड़ रूतनाको सुसन तना
डोम्बारी बुरू लतर रे
निमए बिंगुल सड़ी तना को

जिसका हिन्दी में अर्थ है–

डोम्बारी पहाड़ पर कौन मांदर बजा रहा है,
लोग नाच रहे हैं।
डोम्बारी पहाड़ के नीचे कौन बिगुल बजा रहा है
लोग ऊपर ताक रहे हैं।

झारखंडी गीतों से जनआंदोलन को पहले भी गति मिली और आज भी मिल रही है। मेघनाद का खुद का लिखा हुआ गीत गांव छोड़ब नाहीं आज राष्ट्रीय स्तर पर जन आंदोलन, जनचेतना को बढ़ाने का काम कर रहा है। इस गीत के बोल हैं–

गाव छोड़ब नही, जंगल छोड़ब नही,
माय माटी छोड़ब नही लडाय छोड़ब नही।
बाँध बनाए, गाँव डुबोए, कारखाना बनाए,
जंगल काटे, खदान खोदे, सेंक्चुरी बनाए,
जल जंगल जमीन छोडी हमिन कहा कहा जाए,
विकास के भगवान बता हम कैसे जान बचाए॥
जमुना सुखी, नर्मदा सुखी, सुखी सुवर्णरेखा,
गंगा बनी गन्दी नाली, कृष्णा काली रेखा,
तुम पियोगे पेप्सी कोला, बिस्लरी का पानी,
हम कैसे अपना प्यास बुझाए, पीकर कचरा पानी?
पुरखे थे क्या मूरख जो वे जंगल को बचाए,
धरती रखी हरी भरी नदी मधु बहाए,
तेरी हवसमें जल गई धरती, लुट गई हरियाली,
मचली मर गई, पंछी उड गई जाने किस दिशाए॥
मंत्री बने कम्पनी के दलाल हम से जमीन छीनी,
उनको बचाने लेकर आए साथ में पल्टनी
हो अफसर बने है राजा ठेकेदार बने धनी,
गाँव हमारी बन गई है उनकी कोलोनी ॥
बिरसा पुकारे एकजुट होवो छोडो ये खामोशी,
मछवारे आवो, दलित आवो, आवो आदिवासी,
हो खेत खालीहान से जागो नगाडा बजाओ,
लडाई छोडी चारा नही सुनो देस वासी ॥

आदिवासी समाज और उसके गीतों से खास लगाव रखनेवाले, झारखंड के जानेमाने गायक और गीतकार मधू मंसूरी हंसमुख का मानना है कि गीत सीधे लोगों के दिल में उतरते हैं। किसी भी भाषा में, कोई भी संवाद, भाषण वो असर नहीं दिखा सकता जो गानों से हो सकता है। आप एक बड़े जनसमूह को भाषण के माध्यम से नहीं जोड़ सकते। आदिवासी समाज की क्रांति हो, संघर्ष हो गीतों के बगैर इनकी कल्पना बेमानी है। गाने आदमी के खून में उत्तेजना भरते हैं। गाने के बोल दिल से निकलते हैं, और दिल में उतरते हैं। 

मधु मंसूरी के गानों में भी विद्रोह और शोषण की दास्तां एक साथ दिखायी देती है। वे कहते हैं कि झारखंड में इतनी दौलत है, इसके बावजूद पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा। इसी दर्द का बयां करता एक नागपुरी गीत है–

साहित्य मशाल धरा, सिंह लखे गरज परा,
बाधिन कर कोरा से छऊवा लम्हा लूटत है,
सूरवीर सुना मह भाग्य हमार फूटत है।।

साद्री भाषा में मधू मंसूरी का लिखा वीररस का गीत–

डुम्बारी बुरू बोली सुनब सिखन कान खोली,
जब चुटुपालू खिसे कापी, जंगल लगान कृपाण पजाये के,
तब वीर बांका रन में चल दलबदल सजाये के।
संताल सपरत है, अंग-अंग चीरकत है,
भूमि पूता पाछे नहीं, घुरी आगु आये के,
तब वीर बांका रन में चल दलबदल सजाये के।।

झारखंड आंदोलन से जुड़े इस वरिष्ठ गीतकार ने जनचेतना को जगाने के लिए कई गीत लिखे। इनमें नागपुरी भाषा में लिखा गया बाघिन कर कोरा को झारखंड आंदोलन का जयघोष गीत माना जाता है–

साहिक मशाल धरू, सिंह लखे गरइज पर
बाघिन कर कोरा से, छउवा लम्भा लुटथे
सूर वीर सुन मायक भइग फूटथे-2।
धुवा सुन्दर बन प्रान्त, जहां हवा रहे शांत
धुर घुंगा भरल देखू मत फूटथे
सूर वीर सुन मायक भाइग फूटथे-2।
जेकर रोटी से बने बने कान्दो
केशवाली लिलके मुड़ली खोपा बांधे
घर कुन्दल खखरा कर उल्टी पीठ पोड़थे
सूर वीर सुन मायक भाइग फूटथे-2।
कुमती अंधार घरे जिनगी कर रोना
भूखल गंवार छउ जोहे जूठा दोना
नाचथे बाम्हन पूत अहीर देखथे
सूर वीर सुन मायक भाइग फूटथे-2।
दश मास पेटे राखी करे माय भगती
सत पुत मानव मधु देबे मुकती
सावन से भादो दुबर होवथे
सूर वीर सुन मायक भाइग फूटथे-2।।

यह भी पढ़ें : प्रकृति पर केंद्रित हैं असुरों की परंपराएं व गीत

आदिवासियों के हर पहलू के लिए गीत है। फिर अधिकारों के लिए संघर्ष हो, समाज में फैली बुराईयों के खिलाफ चेतना जगाने का काम गीतों ने किया। नागपुरी भाषा में लिखा गया सांप्रदायिकता विरोधी कविता इसका उदाहरण है–

पात्र (आकाश)
ऐ तापस बाला तपस्विनी, चतुर नयना भाव सयानी,
जतइ बुढ़िया वोचइ जवानी,
सब तोर निमन हउ, काके सिइसल,
मातीसल न पियास भागे काके पिइसल।।
ऐ जसस्वी तपस्वी, वीतरागी, मौन संन्यासी समाधिस्थ
तकदीर मोर फाइट हे सेके मोंय सियोना,
बिपइत मोर झरनेल सेके मोंय पियोना।
ई हामर नहीं माटी कर पुकार है
लुकल नहीं छिपल नहीं, ठापल नहीं, तोपल नहीं
खुलमखुला दिसतार है, झारखंड कर छाती में
छिटकल है चिनगी, सलगेल, कहरेल, धधकेल
जब होवी विकराल होस तब आकास उड़ी
तांडव कर नाच, बाजी प्रलय कर ताल,
जखन जखन होलवेल गद्दी कर सवाल,
खून आउर खराबी, जुलुस आउर हड़ताल
वैर भी कुरान होवेला, बैरिनी गीता,
कान्देल जुलेखा तो कान्देल सीता
लाखों का मांग धोवाल
जखन जखन होवेल गद्दी कर सवाल
झूठ आउर बइमारनी कर बहेल सुरसरी,
सेठ आउर साहूकारी कर, देखु तो फरहरी
ई आदमी तो आदमी से करेल इसन वदी।

झारखंड की प्रसिद्ध साहित्यकार वंदना टेटे आंदोलनों से जुड़ी रही हैं। उनका मानना है कि किसी भी समय, परिस्थिति जैसे वो दुख हो, सुख हो, संघर्ष हो, या प्रेम हो, आदिवासी समाज इसे गीत के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। और आदिवासी समाज में संघर्षों के गीतों की खास भूमिका रही है।

आदिवासी समाज की विशेषता बताते हुए उन्होंने कहा कि किसी भी आदिवासी आंदोलन में सीधा संघर्ष नहीं हुआ। कहने का अर्थ है कि आदिवासी सीधे भाला, तीर-कमान लेकर विरोध करने नहीं उतरे। पहले गीतों के जरिये अपने संदेश को पहुंचाया, लोगों को जागरूक किया। आदिवासी समाज की सारी अभिव्यक्ति गीतों के माध्यम से की। लेकिन जब सामान्य तरीके से बात नहीं बनी तभी शस्त्र उठाया। आंदोलन में महिलाओं का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि संघर्ष के दौरान महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और गीत भी बनाये। और इसके जरिये लोगों तक बात पहुंचायी। हूल विद्रोह के गीत, झारखंड आंदोलन, विस्थापन को लेकर आंदोलन इन सभी जनमानसके आंदोलनों में गीत एक शस्त्र की तरह इस्तेमाल हुए है। झारखंड के आदिवासी समाज में गीतों की प्रसांगिकता पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि, ये एक ऐसा समाज है जहां गांव का हर शख्स भाषण नहीं दे सकता, लेकिन आदिवासी समाज में गीत हर कोई बनाता है और गाता है। गीत उन्हें स्फूर्ति देते हैं। उनमें ऊर्जा भरते हैं। संदेश दूर-दूर तक पहुंचाते हैं।

बहरहाल, जल-जंगल-जमीन, माय-माटी की बात करनेवाला आदिवासी समाज प्रकृति से जुड़ा है। उसकी पूजा करता है। रम्य जंगल, पहाड़-पठार, कल-कल करते निश्छल झरनों के स्वर, पहाड़ी नदियों का अंकारण थोड़े ही जल में उन्माद, पक्षियों के कलख, जंगली जानवरों की आवाज, फूलों के खिलते सौन्दर्य, मनमोहक सुगंध आदि इनके हर क्षण में संगीत है। ऐसे में कहना अतिशोक्ति नहीं कि झारखंड के ऐसे ही रम्य वातावरण में निवास करने वाले आदिवासी भी गीतों ताने-बाने में अपनी सांस्कृतिक धरोहर के साथ जागते, गाते, नाचते और जीते रहते हैं। गीत-संगीत और नृत्य इनके जीवन को गतिमान बनाता है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

प्रियंका

रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर प्रियंका झारखंड में पिछले एक दशक से विभिन्न मीडिया संस्थानों से संबद्ध रही हैं। इन संस्थानों में देशलाइव टीवी, नक्षत्र न्यूज, कशिश न्यूज और न्यूजविंग डॉट कॉम आदि शामिल हैं।

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