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ओबीसी नेताओं ने दिया होता आंबेडकर का साथ तो भारत की दूसरी होती तस्वीर : बुद्ध शरण हंस

बुद्ध शरण हंस की पहचान देश के अग्रणी दलित-बहुजन विचारक के रूप में होती है। उनके मुताबिक, ओबीसी के नेताओं की चुप्पी का ही कुफल है कि आज भी ब्राहणवाद का सबसे बड़ा पैरोकार पिछड़ा वर्ग ही बना हुआ है। पढ़ें, बुद्ध शरण हंस और युवा समालोचक अरुण नारायण की यह खास बातचीत

[8 अप्रैल, 1942 को बिहार के गया जिले के वजीरगंज अंचल के तिलोरा गांव में जन्मे बुद्ध शरण हंस हिन्दी साहित्य के उन दुर्लभ लेखकों में हैं, जिनके जीवन और साहित्य दोनों में कोई फांक नजर नहीं आती। उन्होंने कहानी, कविता, जीवनी, आत्मकथा, संपादन और प्रकाशन की दुनिया में फुले और आंबेडकरवाद की वैचारिकी को लेकर जो काम किया है, वह आमतौर पर साहित्य में बहुत कम देखने को मिलता है। उनके अबतक चार कथा संग्रह, आत्मकथाओं के पांच संग्रह, एक कविता संग्रह, और धार्मिक यथास्थितिवाद पर चोट करती दर्जनों पुस्तिकाएं छप चुकी हैं। वे अरसे से ‘आंबेडकर मिशन’ पत्रिका का प्रकाशन करते रहे हैं और इसी नाम से प्रकाशन भी चलाते रहे हैं। वे सन् 1969 से 2000 तक बिहार प्रशासनिक सेवा में रहे। भारतीय दलित अकादमी, दिल्ली द्वारा आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार और बिहार सरकार द्वारा वर्ष 2002 में भीमराव आंबेडकर पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया है। बिहार के युवा समालोचक अरुण नारायण ने उनसे विशेष बातचीत की। प्रस्तुत है संपादित अंश]

साहित्यकार बुद्ध शरण हंस से अरुण नारायण की बातचीत

अरुण नारायण (अ.ना.) : दलित पासवान से बुद्ध शरण हंस बनने की जो यात्रा है, उसके विभिन्न पड़ावों के बारे में आपसे जानना चाहूंगा?

बुद्ध शरण हंस (बु. श. हं.) : मेरा जन्म एक महागरीब परिवार में हुआ। बड़े भाई भागीरथ पासवान पढ़े-लिखे थे। उन्होंने हमारा नाम रख दिया दलित प्रसाद। इस नाम के पीछे ब़ड़े भाई की यह सोच थी कि चूंकि हम विपन्न परिवार में जन्मे हैं, इसलिए यह नाम इस परिवेश को स्पष्ट करता था। जब मेरा दाखिला आठवीं कक्षा में होने को था तो हेडमास्टर ने हमारा नाम पूछा। मैंने कहा कि दिलीप कुमार राय नाम लिख लिया जाए। उन्होंने पूछा कि घर का नाम क्या है? हमने दलित प्रसाद बतलाया तो उन्होंने कहा कि एक नेता हैं भोला पासवान। आज से तुम्हारा नाम दलित पासवान हो गया। और यही नाम आगे की शैक्षिक डिग्रियों में भी चलता रहा।

जब नौकरी में आया तो रांची में आयोजित एक सभा में पहली बार आंबेडकर का नाम सुना। मैंने राजनीति शास्त्र में एम.ए. किया, लेकिन तब तक किसी अध्यापक या किसी अखबार में आंबेडकर का नाम तक नहीं सुना था। उसके बाद आंबेडकर के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ती गई। फिर तो छुआछूत, अपमान और जातिभेद से लेकर उनके धर्मांतरण तक के विचारों का मुझपर ऐसा असर पड़ा कि मैं भी बौद्ध बनने की कल्पना करने लगा। उन दिनों बोधगया में राष्ट्रपाल भिक्षु साधना केंद्र चलाते थे। उन्हें पत्र लिखा कि सपरिवार बौद्ध धर्म अपनाना चाहता हूं। उन्होंने लिखा कि किसी भी समय आ जाइए। वर्ष 1978 में मैं सपरिवार वहां गया। उस समय मेरी पत्नी और एक बच्ची थी। वहां के आश्रम में मुझे दो रात ठहराया गया। भोजन दिया गया व विश्राम की व्यवस्था उपलब्ध करायी गई। वहां के मुख्य बौद्ध मंदिर में दो मिनट में हमें बौद्ध बना लिया गया। उस समय मुझसे कुछ संकल्प कराए गए कि चोरी, व्यभिचार न करो, झूठ न बोलो, शराब का सेवन न करो, ब्राहण से कोई धार्मिक मांगलिक न करवाओ। यज्ञ, पूजा और तीर्थस्थान ब्राह्मणों के अड्डे हैं।

उसी समय हमने अपना नाम कर लिया बुद्ध शरण हंस। वे (राष्ट्रपाल भिक्षु) बंगाली थे। उन्होंने कहा कि इसका मतलब क्या होता है? तो हमने बतलाया कि बुद्ध के युवावस्था में उनके भाई देवदत ने हंस को तीर मारा था तो उन्होंने उस हंस को बचाया। हमारा शरीर ब्राह्मणों के छुआछूत और तरह-तरह के सामाजिक, आर्थिक शोषण से घायल है। घायल होकर ही मैं बुद्ध की शरण में आया हूं। मैं उनके धार्मिक पाखंड से घायल होकर उनके शरण में आया हूं। मैं उसी हंस की तरह घायल होकर बुद्ध की शरण में आया हूं। मेरे इस उत्तर से वे बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा कि मैंने ऐसा धर्मांतरण कहीं नहीं देखा।

अ.ना. : आंबेडकर मिशन पत्रिका के प्रकाशन की शुरूआत कब से हुई? उसमें किस तरह की परेशानी आई?

बु. श. हं. : आंबेडकर मिशन पत्रिका का प्रकाशन मैंने 1993 में आरंभ किया था। पहले वर्ष हमने इसे त्रैमासिक के रूप में निकाला। एक वर्ष बाद द्विमासिक आवृति में निकाला। उसके बाद इसे मासिक कर दिया। इस तरह की पत्रिकाओं की अवधि मासिक न हो तो बात नहीं बनती। हमारे पाठक यह उम्मीद करते हैं कि हम अपने आसपास की घटनाओं पर भी हस्तक्षेप करें ताकि उनका मागदर्शन हो। पाठक को यह बात प्रभावित करती है जब हम सामयिक घटनाओं पर, रोज-रोज की घटनाओं पर अपनी राय रखते हैं।

आंबेडकर मिशन पत्रिका के एक अंक का कवर पृष्ठ

अ.ना. : पत्रिका की वैचारिक सोच क्या रही और इसे निकालने में आर्थिक संकट का सामना हुआ या नहीं? इसकी प्रसार संख्या कितनी है और कहां-कहां यह प्रसारित की जाती रही है? 

बु. श. हं. : पत्रिका आंबेडकरवाद और जोतीराव फुले की वैचारिकी पर काम करती रही हैै। हमने आंबेडकर, जोतीराव, सावित्रीबाई, फातिमा शेख, ललई सिंह यादव और अभी-अभी मान्यवर कांशीराम पर इसके विशेषांक निकाले हैं। धार्मिक आडंबर, जातिवाद, मृत्युभोज आदि कुरीतियों पर हमने हमेशा अपने आपको केंद्रित किया है और लोगों में स्वस्थ वैज्ञानिक सोच पैदा हो इसकी कोशिश हमारी रही है। किसी भी तरह के सरकारी या निजी विज्ञापन कभी हमने नहीं लिया। पत्रिका निकालने में आरंभिक दिनों में ज्यादा दिक्कतें सामने आईं, लेकिन बाद के दिनों में हमें ऐसे बहुत सारे मिशनरी लोग मिलते गए, जिन्होंने थोक में पत्रिका की खरीद की हमें उसके बदले राशि दी। साथ ही वे उसे अपने प्रभाव वाले इलाके में वे पहुंचाते रहे। इसकी प्रसार संख्या अभी पांच हजार है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, झारखंड और बिहार में इसका अच्छा प्रसार है।  

अ.ना. : क्या आपको लगता है कि बहुजन समाज के तौर पर उसका एक वर्ग इस तरह के कामों में दीक्षित होना चाहता है?

बु. श. हं. : हां बिल्कुंल। बहुजन समाज का एक वर्ग हमारे इस तरह के कामों में जर्बदस्त दिलचस्पी लेता है। लेकिन गाइड के रूप में बहुजन समाज के बौद्धिकों को जिस रूप में आना चाहिए वह नहीं हो पा रहा है। अगर इस मोर्चे पर बहुजन समाज के बौद्धिक लोग आगे आते तो समाज में बहुत बड़ा बदलाव परिलक्षित हो गया होता। आज बहुजन समाज को ट्रेनिंग देने की जरूरत है। आज अगर मृत्युभोज, शादी, गृहप्रवेश आदि पाखंडों के खिलाफ उनकी सामूहिक ट्रेनिंग होती, तो यह समाज बहुत आगे गया होता। लेकिन इस समाज के बौद्धिक लोगोें की अकर्मण्यता के कारण आज भी यह समाज ब्राहणवाद के जाल में बुरी तरह उलझा हुआ है। गांव में जब तक फुले, आंबेडकर, ललई, जगदेव प्रसाद की चर्चा नहीं होगी, तब तक आप यह कैसे उम्मीद करेंगे कि वह सत्यनारायण कथा और ब्राहणवाद से बाहर निकलेगा? 

मेरा अनुभव कहता है कि आम आदमी जागरूक है। उसका चिंतन साफ है। हमारे नेता और तथाकथित बुद्धिजीवी ही गड़बड़ हैं। इस संदर्भ ने नेताओं ने सबसे ज्यादा गड़बड़ी फैलाई। कोई क्वालिटी स्कूल, हास्पिटल तो बनाया नहीं, उन्होंने अपनी सारी ताकत अर्थोपार्जन में लगा दी। अगर वे आम आदमी के अनुकूल होटल, प्याउ या इस तरह की छोटी पूंजीवाले बहुजन के अनुकूल नीतियां बनाते तब तो यह समाज आगे बढ़ता। आज पलायन में सबसे अधिक इसी वर्ग के लोग तबाह हुए।अच्छी कृषि और अच्छा गांव की कोई योजना ही नहीं रही है इन नेताओं के पास। यहां तो मायावती शाहू महाराज की मूर्ति बनवाती है तो अखिलेश किंग जाॅर्ज का बनवाते हैं। जनार्दन मिश्र के नाम पर पार्क बनवा दिया। जब तक इस तरह के बदले का खेल चलता रहेगा बहुजन समाज कभी भी ब्राहणवाद से नहीं लड़ पाएगा।

अ.ना. : आंबेडकर के बौद्ध धर्मांतरण और पिछड़े वर्ग के नेताओं की इस संदर्भ में तटस्थता को आप किस रूप में देखते हैं?

बु. श. हं. : आंबेडकर जिस समय बौद्ध धर्म का आंदोलन चला रहे थे, अगर पिछड़े वर्ग के नेताओं ने उनका साथ दिया होता तो आज स्थिति दूसरी होती। यह उन नेताओं की चुप्पी का ही कुफल है कि आज भी ब्राहणवाद का सबसे बड़ा पैरोकार पिछड़ा वर्ग ही बना हुआ है। उस समय बाबा साहब ने पेरियार रामासामी नायकर से भी अनुरोध किया था कि वे बौद्ध धर्म में धर्मांतरण की पहल करें। लेकिन नायकर ने यह कहते हुए कि जब हम धर्म परिवर्तन कर ही लेंगे तब फिर ब्राहणवाद की आलोचना किस आधार पर करेंगे। उनका यह तर्क सही नहीं था। हालांकि वे ब्राहणवाद के आंबेडकर से ज्यादा आक्रामक आलोचक थे । उन्होंने राम-कृष्ण की मूर्ति पर जूते मारे थे। लेकिन उनका यह तर्क कि धर्मांकरण कर लूंगा तो ब्राहणों के खिलाफ बोलूंगा कैसे, मुझे सही नहीं लगता। क्या भारत की आलोचना के लिए भारत में ही रहना सही है? उससे बाहर रहकर हम उसकी आलोचना नहीं कर सकते। आलोचना तो हम गलत का ही करेंगे न! हालांकि यह सही है कि वर्मा के बौद्ध धर्म सम्मेलन में आंबेडकर और नायकर दोनों गए। इसके पहले इरोड में नायकर ने बौद्ध धर्म का एक बड़ा आयोजन किया और उसके बारे में जमकर बोला, जो उनकी रचनावली में शामिल है। उनके इस कदम के कारण ही दक्षिण में बौद्ध धर्म नहीं फैला। आज नास्तिक ‘नो रिलीजन’ लिखते हैं, उनका अलग से कोई काॅलम नहीं बन पाया। इसी तरह उतर भारत में रामस्वरूप वर्मा, महाराज सिंह भारती और शिवदयाल सिंह चौरसिया जैसे नेताओं ने अर्जक संघ बना लिया। ललई सिंह यादव बीमार पड़ गए, नागपुर नहीं जा सके। इसी तरह बिहार में आर.एल. चंदापुरी (रामलखन चंदापुरी) और जगदेव प्रसाद इस धर्मांतरण में नहीं गए। अगर इन पिछड़े नेताओं ने आंबेडकर का साथ दिया होता तो पूरी हिन्दी पट्टी बुद्धमय हो गई होती।

अ.ना. : शासन-प्रशासन में काम के अनुभव किस तरह के रहे?

बु. श. हं. : शासन-प्रशासन में मेरा काम शानदार रहा। मैं मिहनत से काम करता था। उच्च अधिकारियों के आदेशों पर गंभीरता से अमल करता था, इस कारण उस स्तर पर कभी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा। जब अधिकारी की बुलाहट होती थी तो मैं वहां नोटबुक और कलम के साथ आंबेडकर के स्पीच की भी किताब रखता था। उनकी बातों को नोट करता था और अधिकारी उस किताब को देखने लगता था। हम उससे खरीदकर पढ़ने की बात कहते तो वह खरीदता था और अच्छा महसूस भी करता था। जब मैं परिवहन विभाग में गया तो वहां देखता था कि ट्रकवाले को बेवजह दौड़ाया जाता। मैं कमिश्नर तक से जाकर कहता कि इतनी महंगी गाड़ी खड़ी है और उसको जल्दी परमिट दिलवा देता। हमारी इस सोच का उनपर अच्छा प्रभाव पड़ता और जरूरत के समय हमारी राय जरूर ली जाती। 

एक बार की बात है कि 1991 में राजीव गांधी की हत्या हुई थी। उस समय मैं बेतिया में था। कमिश्नर ने इस हेतु अगले दिन अफसरों को मीटिंग बुलाई। मुझे भी फोन आया तो हमने फोन पर ही कहा की मीटिंग की क्या जरूरत है, आप बेतिया के क्रिश्चियन, ब्राह्मण इलाके में पेट्रोलिंग करवाइए। स्कूल, कॉलेज बंद कर दीजिए। हमेें वहां क्यों बुला रहे हैं। हमारी इस बात का उनपर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और उन्होंने वैसा ही किया। 

जब मैं चाईबासा (अब झारखंड में) में पदस्थापित था, तो वहां एक सिनेमा मैनेजर था। वह परमिट लेने के लिए हमारे दफ्तर आता था। एक दिन एक आदिवासी हमारे पास आया और कहने लगा कि वह सिनेमा मैनेजर 18 रुपए कर्ज दिया था और पांच साल से उसकी सूद उससे वसूल कर रहा है। हमने अगले दिन ही उसे बुलाया। और जब मैनेजर हमारे पास आया तो उस आदिवासी को सामने करते हुए उससे पूछा कि इसको जानते हो? इसपर वह गिड़गिड़ाने लगा। कहा कि गलती हो गई। हमने सभी पैसे उससे उस आदिवासी को लौटवाए। इस तरह के शोषण हमारे यहां आम बात रही है। 

जब मैं चक्रधपुर में पदस्थापित था तो उस समय समाजवादी रूझान के एक नेता थे। उन्होंने अपनी बेटी की शादी बौद्ध रीति से करने की चाह में मेरे पास आए। मैंने कभी इस तरह की शादी करवाई नहीं थी, लेकिन सोचा व परंपरा तो बनाने से बनती है न, इसलिए खुद ही पुरोहित बनकर उस शादी को संपन्न कराने के निश्चय में उनसे हां कह दिया। धुर्त ब्राह्मण शादी के लिए टोटका गढ़ता है– दीप, घी, दही, अक्षत, पानी। शादी में घी, दूध और पानी क्या करेगा? गृहस्थ को ब्राह्मण हिप्टोनाइज (सम्मोहन) करता है। किलो भर चावल छिटवा (फेंकवा) देता है, घी जला देता है दूध नष्ट करवाता है। हमने कहा कि इस शादी में यह सब नहीं होगा। फूलों की वर्षा होगी। बहुजन महापुरूषों का स्मरण होगा और शादी स्थल पर दादा-दादी, नानी-नानी की तस्वीरें होंगीं। हमारे नेतृत्व में संपन्न हुई शादी से लोग खुश हुए। यह हमारे लिए खुशी की बात थी।

अ.ना. : बिहार के वैशाली में आपने रामायण, वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों को जलाने की जो पहल की थी, कृपया उसके बारे में बतलाएं।

बु. श. हं. : यह सन् 1974 की बात है। तब मैं वैशाली के महुआ में चकबंदी पदाधिकारी था। वहां के तिवारी टोले में निजी मकान में मैं रहता था, जो थाने के पास ही था। उस समय हमारी बेटी तीसरी कक्षा में पढ़ती थी। हमने उसकी ट्यूशन के लिए शिक्षक की तलाश की तो एक तिवारी जी मिले। हमारे पड़ोस में एक शर्मा जी रहते थे, जो लुहार समाज से आते थे। उनसे हमारी अच्छी घनिष्ठता थी। एक दिन ट्यूटर तिवारीजी ने अपने यहां मुझे भोजन पर आमंत्रित किया। मैं खाकर चला आया। अगले दिन शर्मा जी ने बतलाया कि बाजार में शोर है कि उसने अपने यहां आपको जो खाना खिलाया वह बर्तन दर्जी के यहां से मंगवाया था। यह तो आपकी बेइज्जती हुई। हमने दर्जी को बुलवाया और उसका वह बर्तन भी देखा तो सही पाया। अब हम क्या कर सकते हैं, यह सोचकर हमने उस इलाके के यादवों को अपने अनुकूल किया और आंबेडकर जयंती मनाने का निर्णय लिया। वह इलाका राजपूत और यादव बहुल था। हमने वहां के स्थानीय मुखिया, सरपंच और शिक्षकों को राजी किया। उन्हें ट्रेनिंग दी। जिसमें परशुराम राय, कंटीव राय और रघुनंदन राय सामने आए। फिर हमने रामायण, वेद और उपनिषद जमा किया और आंबेडकर जयंती के मौके पर इन ग्रंथों के जलाने का आयोजन किया। इस आयोजन में छह हजार लोग शामिल हुए। उन सब ने इन ग्रंथों के ‘स्वाहा यज्ञ’ में हिस्सा लिया और प्रसाद के रूप में सभी को अंडा वितरित किया गया। 

उस समय उस थाने का थानेदार राजेंद्र चौधरी मैथिली ब्राहण था। शाम को उसने एसपी तक यह खबर पहुंचा दी कि वहां हिंदू धर्म की इस तरह होली जलाई गई। मुझे इसकी भनक शाम में ही लग गई और हमने तमाम प्रबुद्ध यादवों को इकट्ठा कर यह पक्ष लेने को कहा कि वहां इस तरह के कोई ग्रंथ नहीं जलाया गया। सुबह जिलाधिकारी की अगुआई में छानबीन शुरू हुई। हमने स्वयं अपना पक्ष रखा कि मैं तो इन ग्रंथों को पढ़ता हूं और वे अभी भी हमारे यहां सुरक्षित हैं। हमारे घर से किताबों के वे सेट जब्त किये गए और लोगों की गवाही में भी जलाने के साक्ष्य नहीं मिले तो वे कंफ्यूज्ड हुए। गृह विभाग से मुझे सेवा से हटाने की सिफारिश की गई। आरोप गठित हुआ दर्खास्त दिया गया कि इनसे विधि व्यवस्था को खतरा है। फलस्वरूप मेरा तबादला चाईबासा कर दिया गया। यह भी लिखा गया कि छह माह तक इनसे कोई काम न लिया जाय और इनपर नजर रखी जाय। मंत्रेश्वर झा वहां (चाईबासा) के डिप्टी कलक्टर थे। जब मैं वहां पहुंचा तो उन्होंने कहा कि तुम ही हो। हमने कहा कि हां सर। उनको विश्वास ही नहीं हुआ कि जिसपर इतने तरह के आरोप गठित हैं, वह इतना साधारण आदमी है। उन्होंने मुझे कहा कि यह ऐसी जगह है जहां कउआ (कौआ) भी आता है, तो उसको बुखार लग जाता है। इसपर हमने कहा कि बुखार तो दोनोें को लगेगा न। इसके बाद वे चुप हो गए। हमें न काम मिला, न चैम्बर। एक दिन नाजिर से हमने ऑफिस के बरामदे में ही कुर्सी लगाने को कहा। और सामने के पाये पर ‘यहां गरीब लोगों की समस्या सुनी जाती है’, यह लिखकर टांग दिया। अगले ही दिन एक व्यक्ति आया कि बच्ची को छात्रवृत्ति नहीं मिलता है। हमने दर्खास्त लिखाकर कल्याण अधिकारी को इत्तिला की कि देखो भाई इसका काम हो जाना चाहिए। फिर किरासन तेल नहीं मिलने की शिकायत आई। फिर बैल बीमार होने की। हमने संबंधित अफसरों को उनके काम करने की याद दिलाई तो जल्द ही हल्ला हो गया कि अरे यह तो ब्रेनवाला आदमी है। देखो यहां भी सबसे अधिक यही लोकप्रिय हो गया। सबसे महत्वपूर्ण विभाग पासवान का ही हो गया। आगे हमने विभाग को लिखा कि पीएचडी करना चाहता हूं, लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि अरे यह तो पीएचडी कर लेगा। हमारे उपर रजिस्ट्री का एक से एक जटिल काम सौंप दिया गया।

अ.ना. : सुना है कि ललई सिंह यादव से आपके गहरे ताल्लुकात रहे। आपके यहां ठहरे भी। उन स्मृतियों को साझा करना चाहेंगे? 

बु. श. हं. : ललई सिंह यादव से 1977 से ही मेरी पत्र मैत्री थी। उन दिनों वे कानपुर के झिंझड़ गांव में अशोक पुस्तकालय चलाते थे। शंबूक वध, रामायण की चाभी और उनकी अन्य किताबें मंगवाता था और लोगों के बीच उनका वितरण करता था। सन् 1979 में वे आंबेडकर जयंती समारोह में बतौर मुख्य अतिथि चाईबासा आए तो हमारे ही घर में तीन दिन ठहरे। वे सही अर्थों में बौद्ध भिक्षु लगते थे। पैबंद लगा लाल पायजामा पहनते थे। विशुद्ध शाकाहारी भोजन करते थे और सुबह-सुबह कसरत करते थे। वे हमसे दुगुनी उम्र के थे और इतनी सादगी और सरलता से रहते थे कि हम कह नहीं सकते। हमारे बव्वों से घुलमिल गए थे। उन्हें बतलाते थे कि कैसे पढ़ना चाहिए।

हमारे अतिथि बनने के पहले वे अरवल आए थे, जहां उनके नाटक ‘शंबूक वध’ का मंचन हो रहा था। असामाजिक तत्वों ने उनके उपर गोली चला दी, जिसमें वे बाल-बाल बचे।

वहीं 1992 में उन्हें बिहार के लौरिया और नंदनगढ़ में बुलाया गया था, जहां दस हजार लोगों ने धर्मांतरण किया था। इस कार्यक्रम को लौरिया के ही एक ब्राह्मण मुखिया ने आयोजित किया था। वह राहुल सांकृत्यायन के जैसा ब्राह्मण था। इसलिए इतनी बड़ी सभा होने के बाद भी किसी तरह की कोई घटना नहीं हुई और सभी को बहुत सलीके से खिलाया भी गया। उस आदमी ने बौद्ध विहार बनाने के लिए एक एकड़ जमीन देने की भी पेशकेश की थी, लेकिन बाद में तबादले के कारण मैं उसमें दिलचस्पी नहीं ले पाया। बाद में उस आदमी ने बसपा से चुनाव भी लड़ा, लेकिन बहुत कम मतों से पराजित हो गया। इसी कार्यक्रम से लौटने के बाद 7 फरवरी, 1993 को ललई सिंह की मृत्यु हो गई। उनकी पत्नी तो पहले ही मर गई थीं और उन्हें कोई संतान नहीं थी।

ललई सिंह जुझारू और अध्ययनशील आदमी थे। जो कहते थे, वही करते थे। पूरी तरह मिशरनी आदमी। सीखने और विश्वास के लायक व्यक्तित्व था उनका। वे बहुत व्यावहारिक और ढंग की योजना करते थे। अगर उनको लोगों का साथ मिला होता तो धम्म प्रचार की एक अलग धारा बह रही होती। वे ग्वालियर राज में मिलिट्री सेवा से रिटायर हुए थे। उन्होंने सेना के विरूद्ध विद्रोह किया था और बंदी थे। देश आजाद हुआ तो वे भी कारावास से बाहर आ गए। उन्हें आजीवन पेंशन मिलता रहा। उन्होंने पेरियार की ‘सच्ची रामायण’ का जिस तरह अनुवाद करके लोगों में प्रसारित किया और उसपर पाबंदी के बाद कोर्ट से मुकदमा जीता। वह उनकी मिशनरी भावना का बड़ा प्रेरक और अनूठा उदाहरण है।

अ.ना. : आपने जिस तरह की वैचारिक तैयारी के साथ ब्राहणवाद और धार्मिक बाह्याडंबर को लेकर कहानियां लिखी हैं, उपन्यास क्यों नहीं लिखा?

बु. श. हं. : उपन्यास मैंने आरंभिक दिनों में ही लिखा। ‘अधूरा सपना’ नाम से। उसमें हमने गांव के पुननिर्माण पर जोर दिया है। उसमें हमने दिखलाया है कि गांव में घरों का निर्माण नये ढंग से हो। घर आयाताकार, वर्गाकार बनाये जाएं। वहां रसोई सामूहिक हो। पुस्तकालय और वाचनालय हो। सामूहिक खेती हो और मुस्लिम कांसेप्ट पर गांव के लड़के-लड़कियां गांव में ही शादी-ब्याह करें। यह ढाई सौ पेज का उपन्यास था जो 1962 में लिखी गई थी। इसके पहले प्रकाशन का कोई अनुभव था नहीं, सो हम गया में हंसकुमार तिवारी के पास गए। उन दिनों उनका प्रकाशन मानसरोवर चर्चित था। उन्होंने हतोत्साहित किया कि ऐसा भी भला कोई किताब छपता है। उसके बाद फिर कभी इस विधा में नहीं लिखा। वह उपन्यास अभी भी हमारे पास पड़ी हुई है। 

बुद्ध शरण हंस इन दिनों सावित्रीबाई झोला पुस्तकालय चला रहे हैं। ऐसे ही एक झोले के साथ साक्षात्कारकर्ता अरुण नारायण व बुद्ध शरण हंस

अ.ना. : सुना है कि पढाई के दिनों में हस्तलिखित पत्रिका भी निकालते थे? क्या नाम था उसका और किस तरह की रचनाएं होती थीं उसमें? कितने अंक निकले उसके? 

बु. श. हं. : हां, वह हस्तलिखित पत्रिका ‘उज्ज्वल प्रकाश’ थी। महीने में उसका एक अंक निकलता था। उसमें कहानियां होती थीं, कविताएं होती थीं, और कुछ नीति, व्यवहार आदि की बातें। यह दो साल तक निकली। सभी लोग लिखते थे और अलग-अलग हस्तलिपि में पत्रिका की रचनाओं को सजाया जाता। उस समय कार्बन काॅपी और फोटो स्टेट का जमाना नहीं आया था, इसलिए इसकी एक ही काॅपी निकलती थी। हमारा एक साथी रामदेव प्रसाद बहुत अच्छा आर्टिस्ट था। पत्रिका के हर कवर की तस्वीर वही बनाता था। वे कभी गांधी, भगत सिंह आदि की तस्वीरें बनाते थे। वह बहुत अच्छे कलाकार थे। उनकी वजह से पत्रिका काफी अच्छी साज-सज्जा के कारण आकर्षक लगती थी। बाद में वे इनकम टैक्स ऑफिसर बने और अब तो गुजर भी गए। उस समय के लेखकों में एक कम्पनी गहलौत था जो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) में क्लर्क हुए। दो साल तक यह पत्रिका निकली। हमारे अध्यापकों ने देखा तो वे बहुत खुश हुए। 

अ.ना. : उन दिनों काॅलेज के पठन-पाठन के अनुभव कैसे रहे? 

बु. श. हं. : पढाई का माहौल था। मैं क्लास से ज्यादा लाइब्रेरी में रमा रहता था। वहां बैठता, पढ़ता और उसकी आलोचना भी करता था। मेरे इसी स्वभाव के कारण लाइब्रेरियन कहता था कि तुम पाठक भी हो, परीक्षक भी हो और आलोचक भी। क्लास में अध्यापक का जो लेक्चर होता था, उसे मैं लिख लिया करता था। मेरे लिखने की बारीकी और सुंदरता के कारण कई अध्यापकों ने हमारे लिखे को नोटिंग बनाकर बेचा गेस पेपर के नाम पर।

अ.ना. : उन दिनों के अध्यापकों से जुड़े कोई अनुभव?

बु. श. हं. : हमलोगों को हिन्दी साहित्य का इतिहास बट्टे कृष्ण पढ़ाते थे। वे अक्सर सुनाते कि राजस्थान के आबू पर्वत के अग्नि कुंड से क्षत्रियों की उत्पति हुई। हम खड़े हो जाते कि सर कहीं आग से आदमी की उत्पति होती है। इसपर वे बिगड़ जाते। वे कहते कि नास्तिक हो क्या? आग से आदमी पैदा होता है। तो यह थी इतिहास को लेकर उनकी सोच। एक दूसरे अध्यापक विश्वनाथ मिश्र गया कालेज के हेेड थे। उस समय तीन सौ नंबर का शोध पत्र लिखना होता था। विषय चुनो तो तीन-चार अध्यापक उसपर मुहर लगाएंगे। अगर उससे बाहर गए तो पास ही नहीं होने देंगे। पूरा सिरमौर वही होते थे। हमारे ज्यादातर साथियों ने निराला की राम की शक्ति पूजा और पंत के प्रकृति वर्णन को विषय के रूप में चुना। मैंने भाषा विज्ञान चुना। विषय दिया- ‘बिहार में पेशेवर जातियों के बीच बोले जाने वाले शब्दों का शब्दकोश’। इस विषय के चुने जाने के पीछे मेरा उद्वेश्य बहुत साफ और स्पष्ट था। हमारे यहां चमार जिन शब्दों का उपयोग अपने दैनिक जीवन में करता है, उसमें से एकाध शब्दों को छोड़कर किसी का अर्थ हिन्दी शब्दकोश में नहीं है। गाय पालक ग्वाले गाय के लिए जिस रस्सी के लिए मसलन जानवर को छानने, नाथने, खुंटें में बांधने के लिए जिन अलग-अलग शब्दों का उपयोग करते हैं, वह शब्दकोश में नहीं मिलता। इसी तरह पनेरी, ठठेरा, लुहार, बढ़ई, आदि बहुत बड़ी संख्या की कामागार जातियां जिन शब्दों का इस्तेमाल करती हैं, शब्दकोश में वह है ही नहीं। हमारे इस मंतव्य के बाद हेड ने कहा कि तूम सही लिखे या गलत यह कैसे पता चलेगा। तो हमने कहा कि संबंधित जातियों को बुलाकर उसका परीक्षण करने में बात साफ हो जाएगी। हमारे इतना कहते ही उक्त हेड ने हमारी प्रोजेक्ट को फाड़ते हुए उसे हमारे मुंह पर फेंका और कहा कि हमारा दिन यह आ गया कि हम अब चमार का इंटरव्यू करेंगे। हमने कहा कि आज से हम आपकी यूनिवर्सिटी को छोड़ते हैं। बाद में हमने यह कोर्स रांची से प्राइवेट से रामखेलावन पांडे के निर्देशन में किया।

अ.ना. : आपकी आगामी कौन-सी परियोजना है, जिसको लेकर आप काम कर रहे हैं? 

बु. श. हं. : इधर कुछ वर्षों से हम ‘सावित्रीबाई झोला पुस्तकालय’ नाम की एक योजना चला रहे हैं। दो वर्षों में हमने पांच सौ झोले वितरित कर चुके हैं। यह झोला अमेरिका और कनाडा तक पहुंच गया। ब्राह्मण शंख लेकर चलता है तो हमारा आदमी झोला लेकर चलेगा। न तारीख, न जगह जिसको यह जंचे उसका यह झोला। आज तक हमारा गांव सबसे अधिक इन पाखंडों का शिकार है। लोग पढ़ तो लेते हैं लेकिन इन पाखंडों पर कभी नहीं सोचते। इसलिए हमने सोचा कि असल में यहीं पर काम करने की जरूरत है। जब तक हमारे गोवों से बुद्धिवादी पैदा नहीं लेंगे तबतक हमारा मुल्क प्रगति नहीं करेगा। हमारा लक्ष्य है कि हमारे संपर्क के हरेक गांव-टोलों में एक झोला किताब जाए। इसमें हम पांच सौ में पंद्रह किताबें देते हैं। एक हजार में 30 किताबें। गांवों में एक सचिव होता है जो ग्रामीणों को इकट्ठा कर उन किताबों को पढ़ने को प्रोत्साहित करता है। इन पंद्रह किताबों को ग्रामीण एक-एक कर सालभर में पढेगा फिर उनसे चंदा करके नई किताबों का सेट उनतक पहुुंचाएगा। पिछले दो सालों से हमारा यह प्रयोग चल रहा है। मैं यकीन के साथ कह रहा हूं कि जहां-जहां यह झोला पुस्तकालय गया है, वहां सत्यनारायण कथा बंद हो गई है। ऐसी रपटें आने लगी हैं कि उन गांवों में मंदिर यज्ञ बंद होने लगे हैं। हम चाहते हैं कि इसी बहाने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हो और ब्राह्मणवाद के टोटके से व्यापक आबादी निजात पाए। हमारे पास समय कम है और पहले की तरह उर्जा भी नहीं, लेकिन हमारा अगला लक्ष्य है कि आंबेडकर वांग्मय के 40 खंडों में 35 से 40 तक के खंडों में शामिल उनके लेखों को बुकलेट के रूप में छापकर गांव-गांव पहुंचाना। इन खंडों में बाबा साहब के अनेक विषयों पर लेख हैं। जब मोटे-मोटे वॉल्यूम विद्वान नहीं पढ़ते तो गांव के लोग भला क्यों पढ़ने लगे। लेकिन पुस्तिका के रूप में वे पढ़ेंगे। हम दस हजार किताब छापते हैं। थोक में हमारे लोग ले जाते हैं और उसे जनता में वितरित करते हैं। हमारे बुद्धिजीवियों ने रैदास, कबीर को मार दिया। यही कारण है कि बहुजन समाज ब्राह्मणवाद की चाकरी करता रहा है। उसका संस्कार ही नहीं जागा वह यज्ञ करने लगा। यही कारण है कि हम हर जगह पिछड़ते चले गए। राजनीति में भी हम या जो कांग्रेस में हैं या भाजपा में। बहुजन समाज की कोई राष्ट्रीय पार्टी आज तक नहीं उभर पाई। यह अकारण नहीं है कि हर राजनीति, साहित्य और चिंतन को ब्राह्मणवाद निगलता जा रहा है। आंबेडकर अभी थोड़ा जीवित हैं। उन्होंने कहा था कि हमारे कांरवां को आगे न बढ़ा सको तो कोई बात नहीं, लेकिन पीछे भी नहीं जाने देना। मुझे लगता है कि टुकड़े-टुकड़े में इस सावित्रीबाई झोला पुस्तकालय के कारवां को आगे बढाएं तो बाबा साहब का यह सपना नई अंगड़ाई ले सकता है। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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