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सूरजपाल चौहान : दलित साहित्य के साहसी रचनाकार

दलित साहित्यकार सूरजपाल चौहान का जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के फुसावली नामक गांव में हुआ था। उनके माता-पिता सिर पर मैला उठाने और जूठन उठाने का काम करते थे। इसीसे उनके परिवार का गुजारा होता था। उनके लेखन में जाति व्यवस्था का विरोध शगल नहीं, बल्कि लक्ष्य के तौर पर दिखाई देता है। उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं युवा समालोचक सुरेश कुमार

स्मृति शेष

दलित साहित्य और वैचारिकी को गति देनेवाले विमर्शकारों में सूरजपाल चौहान (20 अप्रैल 1955-15 जून 2021) का नाम का नाम अग्रणी पंक्ति में शुमार है। वे भारतीय वर्ण-व्यवस्था के सोपानक्रम के निचले पायदान पर स्थित उस समाज से रहे, जिसे सवर्ण पृष्ठभूमि के लोग अछूत कहकर पुकारते रहे हैं। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के फुसावली नामक गांव में हुआ था। उनके माता-पिता सिर पर मैला उठाने और जूठन उठाने का काम करते थे। इसीसे उनके परिवार का गुजारा होता था। उनके परिवार के लोग न के बराबर शिक्षित थे। 

जब सूरजपाल चौहान छोटे थे, तभी उनकी मां का निधन हो गया था। सन् 1966 में उनके पिता ने रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली का रुख किया। वे अपने साथ बेटे सूरजपाल चौहान को भी ले गए। जब उन्हें दिल्ली में सफाई कर्मचारी की नौकरी मिल गई तब उन्होंने अपना ध्यान सूरजपाल चौहान को शिक्षा दिलाने में लगा दिया था। सूरजपाल चौहान के पिता की आमदनी इतनी नहीं थी कि वे अपने बेटे को अच्छे स्कूल में पढ़ा सकें। अपनी हैसियत के अनुरूप उन्होंने सूरजपाल का दाख़िला दिल्ली के नगर निगम के स्कूल में करवा दिया। इस प्रकार, सूरजपाल चौहान विषम परिस्थितियों में पढ़े, जिसका नतीजा यह निकला कि सिर पर मैला उठाने वाले परिवार का बालक भारत सरकार के सार्वजनिक लोक उपक्रम स्टेट ट्रेडिंग काॅरपोरेशन ऑफ इंडिया में मुख्य प्रबंधक तक का सफर तय कर सका।

सूरजपाल चौहान समाज और काल पर पकड़ रखने वाले विलक्षण साहित्यकार थे। उनके लेखन में जाति व्यवस्था का विरोध शगल नहीं, बल्कि लक्ष्य के तौर पर दिखाई देता है। उन्होंने दलित साहित्य और वैचारिकी को समृद्ध करने के लिए कहानी, कविता, नाटक विधा के अलावा वैचारिक और इतिहासपरक लेखन भी किया। दलित साहित्य के भीतर उन्हें प्रसिद्धि “तिरस्कृत” और “संतप्त” आत्मकथा लिखने से मिली थी। सन् 2002 में उनकी आत्मकथा ‘तिरस्कृत’ भावना प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित हुई थी। हिंदी दलित साहित्य के तहत यह तीसरी आत्मकथा थी। इसके पहले मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’(1995) और ओमप्रकाश वाल्मिकी की ‘जूठन’ (1997) प्रकाशित हो चुकी थी। 

स्मृति शेष : सूरजपाल चौहान (20 अप्रैल, 1955 – 15 जून, 2021)

सूरजपाल अपनी आत्मकथा में आज़ाद भारत में सामाजिक भेदभाव के इलाक़ों को बड़ी शिद्दत के साथ रेखाकिंत करते हैं। उनकी आत्मकथा में मल-मूत्र और जूठन उठाने के साथ सवर्ण परिसर के भीतर दलित अत्याचारों के ऐसे दृश्य हैं, जिन्हें पढ़कर किसी भी व्यक्ति का दिल विचलित हो जाता है। सूरजपाल चौहान अपनी मां के साथ जूठन उठाने के अनुभव को साझा करते हुए बताते हैं कि “दावत खाने के बाद एक-एक आदमी अपनी जूठी पत्तल उठाए मां की ओर आता गया और डलिया के पास डाल कर आगे बढ़ता गया। मां दोनों हाथों से जूठन सँकेलने (बटोरने) में लगी हुई थी और … कुत्ते मेरे ऊपर गुर्रा रहे थे। लेकिन डंडे की डर से दूर खड़े थे। कुत्तों का गुर्राना उचित था, क्योंकि हम उनके हिस्से का माल समेट रहे थे। हममें इतनी समझ नहीं थी कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसी समझ तब आती है जब पेट भरा हो। स्वाभिमान की बातें भी तभी सूझती हैं। परंतु जब रूखे-सूखे निवालों के भी लाले हों और आदमी-आदमी के हाथों नारकीय जीवन जीने को विवश हो, तब वह स्वयं में और पशुओं में अंतर नहीं कर पाता। लगभग ऐसी ही स्थिति हमारी थी।” 

सूरजपाल चौहान की आत्मकथा ‘तिरस्कृत’ और ‘संतप्त’ में ऐसे कितने ऐसे प्रसंग आए हैं, जिनमें उच्च कुलीन शिक्षित व्यक्तियों का जातिवादी नज़रिया सामने आया है।

सूरजपाल चौहान की आत्मकथा का दूसरा खंड ‘संतप्त’ सन 2006 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया। इस आत्मकथा में उन्होंने सवर्णवाद की बजबजाती गलियों में दलित समाज के साथ जो सामाजिक अन्याय किया जा रहा है, उसका अंकन अपनी आपबीती और अनुभवों को केंद्र में रखकर किया है। वे बताते हैं कि भंगी समुदाय को भयंकर बदबूदार गंदगी में मानव मलमूत्र को ढोना पड़ता है। इसके बाद भी सभ्य कहे जाने वाला समाज उन्हें क़दम-क़दम पर अपमानित करता है। वे बताते हैं कि आज भी उच्च वर्णीय मानसिकता वाले लोग दलितों को चूहड़-चमार के संबोधन में अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं और उनके साथ अब भी भेद-भाव से पेश आते हैं। उनके मुताबिक, गांव के भीतर जातिवाद और सामंतवाद व्यापक तौर पर दलितों के सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र को नियंत्रित करता है। यदि दलित उनके द्वारा निर्धारित दायरे की कसौटी के मुताबिक़ नहीं चलते हैं तो सवर्णों द्वारा उन्हें प्रताड़ित और अपमानित किया जाता है। इसी क्रम में वे बताते हैं कि गांव में पक्का मकान बनवाना सवर्ण पृष्ठभूमि के लोगों को रास नहीं आया था। उनकी नज़र में एक दलित का पक्का मकान बनना उनकी शान के खिलाफ़ था। इस प्रकार, सूरजपाल चौहान की आत्मकथा में जातिवादी समाज का खौफ़नाक चेहरा साफ़ दिखाई देता है। एक प्रकार से देखें तो दलित साहित्य के भीतर ‘तिरस्कृत” और ‘संतप्त’ मील के पत्थर हैं। एक ऐसा पत्थर, जिसकी पीठ पर दलित जीवन के संघर्ष और शोषण की इबारत लिखी गयी है।

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सूरजपाल चौहान को दलित साहित्य के भीतर एक उम्दा कहानीकार के तौर पर प्रतिष्ठा प्राप्त है। उनके ‘हैरी कब आएगा’, ‘नया ब्राह्मण’ और ‘धोका’ नाम से तीन बड़े मारक कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। सन 1992 में सूरजपाल चौहान ने अपनी पहली कहानी ‘घाटे का सौदा’ लिखी थी। इस कहानी की दलित साहित्य के भीतर काफ़ी चर्चित हुई थी। उनकी एक बड़ी चर्चित कहानी ‘बदबू’ है। यह कहानी भंगी समुदाय की दुश्वारियों को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत करती है। इस कहानी की नायिका संतोष है जो अपने समाज में सभी लड़कियों से ज़्यादा पढ़ी लिखी है और उसकी शादी नौवीं पास लड़के से करवा दी जाती है। शादी के दस-पंद्रह दिन बाद ही उसकी सास मलमूत्र उठाने के लिए भेजती है। वह पेशेगत और पुश्तैनी गंदगी उठाने का विरोध भी करती है, लेकिन फिर भी उसके परिजन गंदगी से बजबजाती गलियों में उसे मैला उठाने के लिए भेज देते हैं। यह कहानी इस विमर्श को दिशा देती है कि भंगी समुदाय की युवा होती पीढ़ी में पुश्तैनी और मैला कमाने वाले पेशे के प्रति प्रतिरोध की आवाज़े बुलंद हो रही है। शिक्षित पीढ़ी की ओर से गंदगी भरे पुश्तैनी पेशे से व्यापक स्तर पर निलने की क़वायदे की जा रही है। वहीं ‘नया ब्राह्मण’ कहानी में वे दिखाते हैं कि हीनता के चलते कैसे शहरी दलित अपने ही परिजनों को कितनी हिक़ारत भरी नज़र से देखते हैं। 

सूरजपाल अपनी कहानियों की कथा में दलित समाज के दुख-दर्द को बड़ी शिद्दत से सामने लाने का काम करते है। उनकी कहानियाँ भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव के बीहड़ इलाक़ों की यात्रा करवाती हैं। 

सूरजपाल चौहान ने दलित विमर्श को गति देने के लिए अनेक वैचारिक लेख लिखे थे। उनके वैचारिक और आलोचनात्मक लेखों की किताब ‘समकालीन हिन्दी दलित साहित्य : एक विचार-विमर्श’ सन 2017 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी। इस किताब में उन्होंने सवर्ण पृष्ठभूमि के लेखकों के साथ दलित साहित्यकारों को भी अपने निशाने पर लिया था। अपनी आलोचना में उन्होंने उन लेखकों के चेहरे से नकाब उठाया जो प्रगतिशील होने का ढोंग करते आ रहे थे। इसी के साथ उन्होंने उन सवर्ण लेखकों की प्रशंसा भी की है, जिन्होंने दलित साहित्य को आगे बढ़ाने में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा की थी। मसलन, प्रेमचंद की कहानियों के संबध में उनका निष्कर्ष था कि उनकी कहानियां दलित सहानुभूति की कहानियां थी। उन्होंने प्रेमचंद को लेकर अपने कथन में आगे जोड़ा था कि सवर्ण पृष्ठभूमि के आलोचक दलित साहित्य को प्रेमचंद के डंडे से क्यों हाँकते हैं। ऐसा करना दलित साहित्य के साथ न्याय करना नहीं हो सकता है। सूरजपाल चौहान का प्रेमचंद को लेकर एकदम साफ नज़रिया था। उनका तर्क था कि प्रेमचंद से शिल्प और कला के स्तर पर प्रेरणा ली जा सकती है, लेकिन दलित साहित्यकारों के लिए वे आदर्श नहीं हों सकते हैं।

सूरजपाल के जीवन में कई त्रासदियों के साथ एक उनके परिवारिक जीवन की भी थी। इसके संबंध में उन्होंने अपनी आत्मकथा में बड़ी बेबाकी के साथ लिखा था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में खुलासा करते हुए लिखा कि पत्नी के साथ उनके संबंधों में किन कारणों से कड़वाहटें आयीं। हर दूसरे दिन डायलिसिस करवाने अकेले ही अस्पताल जाना पढ़ता था। यह प्रक्रिया उनके साथ लंबे समय से चल रही थी, लेकिन बड़ी जीवंतता के साथ उसका सामना किया और जीवन के अंतिम समय तक दलित साहित्य और उसकी वैचारिकी को गति देते रहे। उनका निधन दलित साहित्य के बड़े स्तंभ का ढह जाना है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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