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दलित-बहुजनों के पैरोकार प्रेमचंद

प्रेमचंद का साहित्य एक तरह से अपने समय का ऐसा दस्तावेज है, जिसमें सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक पाखंडों, जमींदारों और किसानों के संबंध, औद्योगिकीकरण के दोष, पूंजीवादियों की शोषण नीति, अंग्रेजों के अत्याचार, दहेज, अनमेल विवाह, दलितों का उत्पीड़न, किसान की पीड़ा, जाति-भेद, विधवा विवाह आदि का चित्रण मिलता है। बता रहे हैं युवा समालोचक अनुज कुमार

मुंशी प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880 – 8 अक्टूबर, 1936) पर विशेष

मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 में वाराणसी जिले के लमही नामक गांव में हुआ था। इनका मूलनाम धनपत राय था। वे अपना नाम बदलकर नवाब रायबनारसी के नाम से लेखन किया करते थे। उर्दू के प्रसिद्ध लेखक दयानारायण निगम ने इन्हें प्रेमचंदनाम दिया था। प्रेमचंद कालजयी कथाकार तो थे ही काल की नब्ज पहचानते थे। समाज को समझते थे और यह भी समाज को किस दिशा में सोचना चाहिए। यही वजह रही है कि उनकी रचनाएं पीढ़ी-दर-पीढ़ी हर आयु वर्ग के पाठकों द्वारा पढ़ी जाती रही है। प्रेमचंद की इसी खूबी के कारण उन्हें कहानी और उपन्यास दोनों ही विधाओं का सम्राट कहा गया। सुप्रसिद्ध बांग्ला कथाकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राटकी उपमा दी थी। 

प्रेमचंद की कलम ने समाज के हर पहलू को छुआ है। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में अपने समय की लगभग सभी समस्याओं का चित्रण किया है। प्रेमचंद का साहित्य एक तरह से अपने समय का ऐसा दस्तावेज है, जिसमें सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक पाखंडों, जमीदारों और किसानों के संबंध, औद्योगिकीकरण के दोष, पूंजीवादियों की शोषण नीति, अंग्रेजों के अत्याचार, दहेज, अनमेल विवाह, दलितों का उत्पीड़न, किसान की पीड़ा, जाति-भेद, विधवा विवाह आदि का चित्रण मिलता है।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद जैसा कोइ दूसरा साहित्यकार नहीं हुआ, जिनका फलक इतना व्यापक रहा हो। उनके कथा साहित्य में मात्र समाज के यथार्थ के ही नहीं,  अपितु उसमे बदलते हुए समाज की चेतना के भी दर्शन होते हैं। इस प्रकार उनके लेखन से आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद की परम्परा का प्रवर्तन भी हुआ। प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियां लिखी हैं। इन कहानियों में से एक है “सवा सेर गेहूं”। 

यह महज संयोग नहीं था कि वर्ष 1924 में जब प्रेमचंद ने इस कहानी को लिखा तब देश और दुनिया के स्तर पर बड़े बदलाव हो रहे थे। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के बाद रूस में हुई क्रांति (1917-23) का असर भारतीय परिवेश पर भी पड़ रहा था। स्वदेश लौटकर डॉ. आंबेडकर भारतीय इतिहास के सबसे अनूठे आंदोलन का आगाज कर चुके थे, जिसके केंद्र में सदियों से शोषित रहे दलित थे। कांग्रेस को अपनी नीति में बदलाव के लिए मजबूर होना पड़ रहा था। गांधी स्वयं वंचित समाज को जोड़ने का आह्वान कर रहे थे। ऐसे में प्रेमचंद जैसे संवेदनशील और समाज को परखने वाले साहित्यकार के रचनाकर्म पर प्रभाव पड़ना स्वभाविक ही था।

प्रेमचंद की कहानी सवा सैर गेहूं में कुरमी जाति (पिछड़ा वर्ग) का शंकर नामक  किसान की पीड़ा को उजागर और  ऋण के कारण उसकी हुई  दयनीय स्थिति का चित्र उभारा गया है। प्रेमचंद ने जिस तरीके से शंकर किसान का चरित्र गढ़ा है, उसके माध्यम से यह समझा जा सकता है कि किस प्रकार एक तथाकथित उच्च कहे जाने वाले जाति का समाज, एक गरीब किसान जो कि सामाजिक सरंचना के अनुसार निम्न जाति का है, का शोषण करता था। साथ ही इस बात का बोध भी होता है कि आखिर ऐसा कौन-सा हथियार था, जिसका उपयोग कर तथाकथित उच्च-जाति निम्न जाति को अपनी ऊंगलियों पर नचाती थी। 

मुंशी प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880 – 8 अक्टूबर, 1936)

इस कहानी  में  शंकर के दरवाजे पर एक महात्मा आता है। महात्मा को भोजन कराने हेतु वह सवा सेर गेहूं एक विप्र (ब्राह्मण) से उधार  मांग कर लाता है। विप्र महाराज साल में दो बार खलिहान लेता था। इस कारण शंकर ने सोचा कि गेहूं क्या लौटाऊं, पंसेरी के बदले कुछ ज्यादा खलिहानी दे दूँगा। चैत में जब विप्र जी पहुंचे तो उन्हें शंकर ने डेढ़ पंसेरी के लगभग गेहूं दे दिया। विप्र ने भी फिर कभी नहीं मांगा। सात वर्षों के बाद विप्र ने शंकर से सवा सेर गेहूं के बदले पांच मन गेहूं मांगे। शंकर अवाक रह गया। वह सोचता है मैंने इन्हें इतनी बार खलिहानी दी और कई बार दक्षिणा भी दी। कभी हिसाब नहीं जोड़ा। अब एक दम से साढ़े पांच मन मांगते हैं।

शंकर कहता है– “पांडेक्यों एक गरीब को सताते हो। मेरे खाने का ठिकाना नहीं इतना गेहूं किसके घर से लाऊंगा?”

शंकर के इस  कथन में  उसकी पीड़ा, गरीबी, गेहूं न लौटा पाने की विवशता और ब्राह्मण द्वारा ठगे जाने तथा बेईमानी का विरोध न कर पाने की जो असहाय स्थिति है, वह नजर आती है। यह कहानी स्वतंत्रता पूर्व उन सभी गरीब किसानों का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्हें तथाकथित उच्च जाति के समूह ने सदैव अपने से नीचे पायदान वाली सीढी समझा और निम्न जाति कहकर उनका अपमान किया। जब शंकर कहता है कि मैं इतना गेहूं भला कहां से लाऊं, तब विप्र अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हुए कहता है– जिसके घर से चाहे लावो, मैं छटाँक-भर भी न छोडूंगा, यहाँ न दोगे भगवान के घर तो दोगे।

विप्र के मुंह से निकला यह शब्द कि भगवान के घर तो दोगे सुनकर शंकर की क्या हालत होती है, इसका चित्रण प्रेमचंद ने कुछ इस प्रकार किया है–शकंर काँप उठा। …एक तो ऋण, वह भी ब्राह्मण का! बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाना, इस ख्याल से ही रोमांच हो गया। वह कहता है– महाराज तुम्हारा जितना होगा यही दूँगा …? … लेकिन तुम्हें भगवान के यहां जवाब देना पड़ेगा।’

शंकर के भीतर यह डर क्यों उपजा? इसके क्या कारण हैं? शंकर के भीतर जिन कारणों से डर ने जन्म लिया, उनमें पहला कारण है विप्र का होना और दूसरा कारण है उसका अशिक्षित होना। सामाजिक मन्यताओं के अनुसार या यूं कहें कि ब्रह्मणों द्वारा स्वरचित मान्यताओं के अनुसार–ब्रह्मवाक्यं जनार्दन।” अर्थात जो वाक्य ब्राह्मण के मुख से निकला हो, उसे भगवान के मुख से निकला जानो। साथ ही– “ब्रह्मद्रोही विनश्यति।” अर्थात जो ब्राह्मण से द्रोह करता है, उसका नाश हो जाता है। 

तुलसीदास के अनुसार–पुण्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम वचन विप्र पद पूजा। सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटू करई द्विज सेवा।”

अर्थात जगत में पुण्य एक ही है और दूसरा कोई नहीं है, वह है मन, कर्म और वचन से ब्राह्मण के चरणों की पूजा करो। जो कपट त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं।

तुलसीदास ने ही कहा है– “पूजही विप्र सकल गुण हीना। शूद्र न पूजहु वेद प्रवीणा।”

अर्थात ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान, गुण से रहित हो फिर भी उसकी पूजा करनी चाहिए, शूद्र चाहे  कितना भी ज्ञान, गुण से सम्माननीय हो वह पूजनीय नहीं हो सकता।

उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से तथाकथित ब्राह्मण जाति ने स्वयं का गुणगान कर पृथ्वी पर स्वयं को ईश्वर सिद्ध करने का प्रयास किया। शंकर के डर के पीछे का यही कारण है। ब्राह्मण ने अपनी जाति की श्रेष्ठता स्थापित कर अन्य जाति को निम्न घोषित करने की कोई कसर नहीं छोड़ी। समाज में गुण और ज्ञान के आधार पर नहीं जाति के आधार पर स्वीकार किया गया। वहीं शंकर जैसे लोगों की अशिक्षा के कारण ही तथाकथित ब्राह्मणों द्वारा फैलाए गए अंधविश्वास और पांखड के चलते उनकी दुर्दशा हुई। 

एक जगह विप्र कहता है कि–वहां का डर तुम्हें होगामुझे क्यों होगावहाँ तो सब अपने ही भाई-बंद हैं। ऋषि मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं, देवता भी ब्राह्मण हैं जो कुछ बने बिगड़ेगी, संभाल देंगे।”

ईश्वर की जाति भी ब्राह्मण है। ऐसा कहने का क्या तात्पर्य है? तात्पर्य यह है कि ईश्वर हमारा ही रिश्तेदार है। हम चाहे जितना छल, कपट करें। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस ईश्वर के नाम पर शंकर को ठगा जा रहा है। उसका निर्माण करने वाला वही है जो खुद को उसका रिश्तेदार बता रहा है।

प्रेमचंद ने विप्र पात्र के माध्यम से एक ऐसे तथाकथित उच्च जाति के चरित्र को गढ़ा है, जो निम्न जाति से सम्बंध रखने वाले गरीब  किसान शंकर को अपने झांसे में फंसाकर उसका शोषण करता है। इस कहानी में शंकर किसान से मजदूर और मजदूर से गुलाम बन जाता है, लेकिन विप्र का कर्ज नहीं उतार पाता और अंत में उसकी मृत्यु  हो जाती है। विप्र उसी कर्ज के नाम से उसके बेटे को भी गुलाम बना देता है।

शंकर की दुर्दशा का कारण सिर्फ अशिक्षा नहीं है, बल्कि उसके मानस में पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे संस्कार भरे गए जो स्वयं को हीन और विप्र जैसों को उच्च मानते हैं। यह उच्चता का भाव विप्र जैसो ने स्वयं निर्मित किया है। विप्र स्वयं को  ईश्वर का रिश्तेदार बता कर ही शंकर की स्थिति दयनीय कर पाया। शंकर को ब्राह्मण का भय भी भयभीत कर रहा था और इस भय में उसकी जिंदगी ही स्वाहा हो गई। यह  भय हवा में नहीं बना इसे बनाने वाला भी  वह ब्राह्मण ही है। ब्राह्मण अर्थात यह एक ऐसी जाति है जिसने खुद को इतने ऊंचे पद  पर आसीन करने हतु ईश्वर को अपना रिश्तेदार घोषित किया और  उनकी महानता का  गुणगान किया और  ऐसी काल्पनिक कहानियां गढ़ी जो विश्वशनीय नहीं है और फिर स्वर्ग-नर्क की कल्पना की और मनुष्य के सभी सुख और दुखों का एक ताला बनाया, जिसकी चाबी ब्राह्मणों ने अपनी जैब में रख ली फिर क्या  शंकर जैसे व्यक्तियों का  शोषण एक न्यायसंगत प्रणाली में परिणित हो गया।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनुज कुमार

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं

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