यद्यपि मैं समाचार पत्रों को संदेह की दृष्टि से देखते रहा हूं। बहुत बार यह भी सुनता रहा हूं कि मनी, मीडिया और माफिया दलित बहुजनों के ख़िलाफ़ काम करता है। शक करने के कुछ कारण तो मीडिया खुद भी देता है जब वह आरक्षण, एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम और दलित पिछड़ों के हक़-हुकूक के मुद्दों को तवज्जो नही देता है। न्यूज़ रूम में डायवर्सिटी का सवाल भी सदैव उठता रहा है। मीडिया में सवर्ण वर्चस्व को लेकर बात होती रही है और इस तथ्य से किसी को इंकार भी नहीं है।
मीडिया के चरित्र पर सवाल उठाना अच्छी बात है। उसे मनुवादी कह देना भी ठीक ही है। उसमें वर्गीय और जातीय विविधता का नहीं होना बताना भी कोई गलत बात नहीं है। मीडिया का ऐसा चरित्र उजागर भी होता रहता है। परंतु यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मीडिया की कोई स्थायी प्रवृत्ति नहीं रही है। वह सरकारों के साथ बदलती रहती है।
विभिन्न मीडिया घरानों के जमीन जायदाद, विज्ञापन और अन्य धंधों से संबंधित हितों के टकराव की घटनाएं अकसर देखी जाती है। लेकिन हर बार सत्ता का मीडिया पर हमला केवल आर्थिक कारणों से ही नहीं होता है। बाजदफ़ा यह सत्ता और उसके गलत कामों पर सवाल उठाने की वजह से भी हो सकता है।जैसे पहले न्यूज़ क्लिक और हाल ही में भारत समाचार तथा दैनिक भास्कर के मामलों में हुआ है।
केंद्रीय सत्ता का संदेश साफ है कि या तो भक्ति करो अथवा भुगतो। ऐसा नहीं है कि सिर्फ एक मीडिया हाउस ही बहुधन्धी है। यहां खबरों के साथ बहुत कुछ और भी कईं लोग बेच रहे हैं। मगर वो सत्ता प्रतिष्ठान के कृपा पात्र हैं, इसलिए उनके सब गुनाह माफ़ हैं। किन्तु जो भी निज़ाम के ख़िलाफ़ बोलने की ज़ुर्रत करेगा, उसका हश्र दैनिक भास्कर समूह जैसा हो सकता है। यह स्थापित करना केंद्र की मोदी शाह सरकार का उद्देश्य लगता है। यह कौआ मारकर खेत पर बिजूके की तरह लटका देने की कला है, ताकि दूसरे पक्षी इससे सबक ले सकें।
सत्ताएं ऐसा करती हैं और निरकुंश सत्ताएं कुछ ज्यादा ही करती हैं। इस फासीवादी दौर की सत्ता अपनी खामियों और लगातार हो रही विफ़लता के मद्देनज़र असहमति की आवाजों को कुचलने के रिकॉर्ड बनाने में लगी है। अपने वैचारिक और राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ जांच एजेंसियों का ऐसा दुरुपयोग इस सत्ता की ख़ासियत है। वह अपने ही देश के लोगों की विदेशी कंपनियों से जासूसी करवाने से भी नहीं हिचक रही है। लोगों को सफेद झूठ मामलों में जेलों में ठूंस रही है और सीबीआई, ईडी आदि का सहारा लेकर लोगों, संस्थाओं और मीडिया हाउसों को आतंकित भी कर रही है।
प्रचंड बहुमत से सत्तासीन हुए लोग आखिर किससे डरे हुए हैं कि वे अपने विपक्षियों और असहमत आवाज़ों को इस निर्ममता से कुचलने में लगे हैं? क्या भाजपा की मोदी सरकार को विपक्ष से ही डर है या सत्ता पक्ष और अपने ही लोगों से भी खतरा लग रहा है? हाल के घटनाक्रमों का विश्लेषण करें तो लगता है कि भाजपा और आरएसएस के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जिस तरह से मोदी ने अपने ही समर्थकों को सुरक्षा देने के नाम पर बंदी जैसा बना कर पंगु किया है, वह भी एक किस्म की निगरानी ही है और अब तो संघ भाजपा के नेताओं और प्रधानमंत्री के खासमखास उद्योगपति व नौकरशाहों तक के भी नाम पैग़ासस जासूसी कांड में आ गये हैं। भाजपा के भीतर से सुब्रमण्यम स्वामी जैसी आवाज़ें भी मुखर होने लगी है और संघ भीतर ही भीतर कसमसा रहा है। उसकी छटपटाहट का एक बड़ा कारण नरेंद्र मोदी द्वारा आरएसएस, किसान संघ, विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों को अप्रासंगिक बना देना हो सकता है।
लोग भास्कर में विगत चार माह से छप रही खबरों की सामग्री और तेवर देख कर दबी जुबान में यह भी कहने लगे हैं कि क्या उसे आरएसएस का मूक समर्थन प्राप्त था? फिलहाल यह कयास ही है। लेकिन कुछ तो जरूर है। शायद आने वाला समय इसको और अधिक स्पष्ट करेगा।
भास्कर समूह और भारत समाचार चैनल के दफ्तरों पर आयकर का छापा अकारण तो नहीं है और ना ही सिर्फ वित्तीय अनियमितता इसकी वजह है। अगर हम इसकी टाइमिंग पर गौर करें तो यह साफ हो जाता है कि सत्ता बदला ले रही और सबक सिखा रही है। यह निसंदेह अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला है। यह प्रेस की स्वतंत्रता को रौंदने की कोशिश है। इसको यह कह कर अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि यह जमीन जायदाद और विज्ञापन का मसला है और कानून अपना काम कर रहा है।
स्वतंत्र मीडिया पर नियंत्रण के सरकारी प्रयासों को नकार दिया जाना जरूरी है। ऐसे मुश्किल दौर में अतीत को खंगालने और पुराने पाप प्रकट करने से काम नहीं चलने वाला है। सत्ता के सर्वभक्षी चरित्र को स्पष्ट रूप से निंदित करना होगा। इसका मतलब यह भी नहीं है कि पहले किसी की जो जातिवादी और अल्पसंख्यक विरोधी छवि और विचार रहे हैं, हम उसे क्लीन चिट दे रहे हैं। परंतु यह समय साथ खड़े दिखने का है और निर्दय सत्ता को चुनौती देने का है। हमारी भीतरी लड़ाइयां हम आगे भी लड़ते ही रहेंगे।
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और हां, एक बात यह भी सोचने की है कि हर घटना परिघटना साज़िश नहीं होती है। साज़िश के सिद्धांत की सरलता यह है कि वह हर जगह लागू किया जा सकता है और बहुत बार न चाहते हुए भी यह दुश्मन ख़ेमे की मदद करने लगता है। जब आप हर बात में षड्यंत्र खोज लेने में माहिर हो जाते हैं तो आपका काम बहुत सहज हो जाता है। आपको कुछ भी करना नहीं होता है। सिर्फ़ साज़िश के सूत्र जोड़ने होते हैं। बहुत सारी विचारधाराएँ और आंदोलन इसके चलते अप्रासंगिक होने लगते हैं, क्योंकि उनके पास नवोन्मेष के लिए सृजनशील विचार का अभाव हो जाता है। इसके हितैषी माने जाने वाले कुछ कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी उनके लिए षड्यंत्र के सूत्र खोज लेते हैं। इस तरह पूरा समुदाय शक और अजीब क़िस्म की असुरक्षा का शिकार बनकर असमंजस व मतिभ्रम का माध्यम बन जाता है।
मीडिया को लेकर दलित बहुजन वर्ग सदैव आलोचना की प्रवृति से पल्लवित पोषित हुआ है। इसके लिए मेन स्ट्रीम मीडिया मनु स्ट्रीम मीडिया है और उसमें बनिए का पैसा और ब्राह्मण का दिमाग़ लगा होना माना जाना आम प्रचलन का विषय हैं। इस प्रकार की विषय वस्तुओं में सच्चाई भी होती है। भारत में तो मीडिया हो अथवा कोई भी संस्थान, उसका जातिवादी चरित्र आम सी बात है। उसको अलग से रेखांकित करने की ज़रूरत नहीं हैं।
जब पूरा समाज ही जाति से प्रेरित, निर्देशित और संचालित है तो मीडिया किसी पवित्र वस्तु की भांति जाति निरपेक्ष कैसे बना रहेगा और ऐसी अपेक्षा मीडिया से ही क्यों की जानी चाहिये? क्या उसमें बैठे लोग किसी और ग्रह से आते हैं या उनका अध्ययन व प्रशिक्षण किसी और दुनिया में होता है? पत्रकार भी कमोबेश वैसा ही प्राणी है, जैसा कोई व्यापारी, दुकानदार, नौकरशाह अथवा राजनेता होता है। उसमें भी तमाम ख़ामियां व खूबियां होती हैँ। केवल उसी से सारी शुद्धता और क्रांति की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये। उसकी भी एक जाति होती है और उसके अपने जातीय संस्कार होते है और भूखे पेट को भरने की लालसा तथा आगे जाने बढ़ने की अदम्य अभीप्साएं होती हैँ। वह भी पतन का भागी बनता है। वह भी आदर्शों से प्रेरणा प्राप्त कर महान बनने को प्रयासरत रहता है।
वैसे भी अब मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा कम और चोखा धंधा ज़्यादा है तो वह भी समाज जीवन में व्याप्त समस्त धतकर्मों में शामिल रहेगा भी। पूंजी के इस अबाध प्रवाह में विचारधाराएं बहने लगती हैं। बाज़ार नैतिकता के सारे तटबंध तोड़ देता है। उसका सरोकार जाति और मज़हब से कईं अधिक पैसे से है।
मीडिया का धनपिपासु चरित्र उसके कसौटी के लिए आज मानक है। उसको इस तरह से भी देखा जाना चाहिये, लेकिन हम उलझे हैं षड्यंत्र के सिद्धांत में। क्योंकि हमारा चिंतन जाति के दायरे से हमको बाहर सोचने नहीं देता है और ऊपर से हमने साज़िश के चश्में आंखों पर चढ़ा रखा है। हर चीज़ को साज़िश करार दो और अपनी जवाबदेही से बच जाओ।
रात दिन मीडिया को मनुवादी ब्राह्मणवादी होने के लिए आरोपित करने वालों को खुद से यह भी कभी पूछना चाहिये कि करोड़ों लोग और उसके लाखों बुद्धिजीवी एवं व्यवसायी तथा हज़ारों नेता व नौकरशाह मिलकर विगत सौ साल में कोई मीडिया संस्थान नहीं खड़ा कर सके हैं तो यह किसकी ज़िम्मेदारी है? विभिन्न राज्यों में सरकारें बनी है अथवा हमारे दलित बहुजन लोग सत्ता के भागीदार रहे हैं, वे एक भी ढंग का अख़बार या टीवी चैनल नहीं खड़ा कर पाये तो इसके लिए भी किसी की साज़िश मानी जानी चाहिए या अपनी उदासीनता और अकर्मण्यता को भी इसके लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिये। यह चिंता और चिंतन दोनों का विषय है।
हम अपने पर भी सवाल उठाते रहें और दूसरों पर भी। लेकिन हमें अपने दोस्तों और दुश्मनों की समय समय पर शिनाख्त करते रहनी होगी। हर बार हर कोई न हमारे खिलाफ होता है और ना ही साथ। कईं बार तो साथ दिखने वाले ख़िलाफ़ काम कर रहे होते है और हमारे घोषित मुख़ालिफ़ हमारा मकसद पूरा कर रहे होते हैं। इसलिए जरा देख कर चलेंगे तो दुर्घटनाएं कम घटेंगी।
(संपादन : नवल/अनिल)
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