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‘रक्त शुद्धता की वकालत करनेवाली शक्तियां अब रागों की भी शुद्धता की बात करने लगी हैं’

कवि व पत्रकार कुमार मुकुल के मुताबिक, रक्त शुद्धता की वकालत करनेवाली शक्तियां अब रागों की भी शुद्धता की बात करने लगी हैं, जिनसे रणेंद्र का नया उपन्यास ‘गूंगी रूलाई का कोरस’ अपने तरीके से टकराता है। पटना में हुए साहित्यिक गोष्ठी के बारे में बता रहे हैं अरुण आनंद

संदर्भ : रणेंद्र के उपन्यास ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ पर चर्चा 

“अपने तीसरे उपन्यास– ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ में रणेंद्र ने संगीत को आधार जरूर बनाया है, लेकिन इसमें उसकी कोशिश अपने समय और सभ्यता के संकट को देखने की है। वली दक्कनी की मजार के ध्वस्त होने से इस उपन्यास की शुरुआत होती है। यह हमारे सांस्कृतिक सामाजिक जीवन की इतनी बड़ी घटना थी, जो किसी लेखक को संवेदनशील नहीं बनाती तो किसे बनाती? रणेंद्र का यह उपन्यास शोधपरक है, लेकिन हिन्दी में इस किस्म के जो उपन्यास लिखे जाने की परिपार्टी रही है, यह उससे अलग है। तोलोस्तोय, लैपियर और काॅलिन्स जैसे लेखक भी शोध में जाते हैं, लेकिन यह सीखने की चीज है कि कैसे वे इस शोध को पचाते हैं। वे हिन्दी लेखकों की तरह उसे उगल नहीं देते।” 

ये बातें हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और पूर्व विधान पार्षद प्रेमकुमार मणि ने बीते 3 जुलाई को बिहार विधान परिषद के सभागार में रणेंद्र और पटना के साहित्यिक समाज के साथ एक अनौपचारिक बातचीत में कही। कोरोना महामारी और लाॅकडाउन के लंबे अंतराल के बाद पटना के लेखक समाज पहली बार एकत्रित हुए। इस अनौपचारिक बातचीत में बिहार विधान परिषद के सभापति अवधेश नारायण सिंह, हषिकेश सुलभ, अवधेश प्रीत, संतोष दीक्षित, यादवेंद्र, डाॅ. विनय कुमार, कुमार मुकुल, महिमा श्री और अंचित और स्वयं लेखक रणेंद्र ने भी अपने विचार साझा किये।

प्रेमकुमार मणि ने कहा कि लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से एक संगीतकार परिवार के चार पीढ़ियों की कहानी कही है। मौसिकी संगीत को कथानक बनाना आप समझ सकते हैं कि आज के समय का कितना जरूरी कार्यभार है। संस्कृति के दुश्मन सबसे पहले संगीत पर ही हमला करते हैं। इससे समझा जा सकता है कि लेखक का सरोकार क्या है? मैं रणेंद्र जी को दाद देना चाहता हूं कि उन्होंने संगीत के घराने को उपन्यास का विषय बनाया। उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान की संस्कृति सामासिक है। वह एक नहीं बहुरंगी है इंद्रधनुषी है। यह उपन्यास इस संकट की करीने से व्याख्या करता है, हमें संवेदित भी करता है। उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास गोरा की चर्चा की। कहा कि गौरमोहन मुखर्जी उर्फ गोरा आर्य रूप का है। वह अपने को ब्राहाण समझता है और ब्राहणवादी राष्ट्र का सपना देखता है। वह विदेशियों से घृणा करता है। युवा दल द्वारा उसके अभिनंदन की तैयारी हो हैं इसी बीच खबर आती है कि उसके पिता उसे बुला रहे हैं। वे आखिरी अवस्था में हैं। वह उसे कहते हैं कि तुम मेरी मुखाग्नि नहीं देना उसके बाद पत्नी को संकेत करते हैं। जब उसकी मां यह रहस्योद्घाटन करती है कि तुम मेरे बेटे नहीं हो। तुम एक आयरिश की संतान हो। जो गदर में मारे गए। बेटा तुम पिता को मुखाग्नि दोगे तो उन्हें नरक मिलेगा। इस प्रकरण के बाद गोरा का पूरा ब्राहणत्व उड़न छू हो जाता है। वह सोचता है कि अब मैं क्या हूं? मंदिरों के दरवाजे भी हमारे लिए बंद। यह उपन्यास सभ्यता पर भी प्रश्न उठाती है। गौरमोहन मुखर्जी को इसके बाद लगता है कि अब वह भारतीय बना है। जब कोई बात बड़े परिप्रेक्ष्य में ले जाती है। भीतर की भारतीय मनुष्यता को देखने के लिए बाध्य करती है। हमें झांकने के लिए अध्ययन करने के लिए उत्साहित करती है। रणेंद्र कुछ इसी तरह के रचनाकार हैं। उन्होंने इसके पहले रूमझुम असर को लेकर जो कुछ लिखा वह असुर जनजाति सभ्यता के कैलिडोस्कोप पर से विलुप्त होती जा रही थी जिसे उन्होंने हिन्दी समाज की चर्चाओं में जीवंत किया।

बिहार विधान परिषद के सभापति अवधेश नारायण सिंह ने कार्यक्रम में उपस्थित लेखकों से अनुरोध किया कि वे समय-समय पर इस तरह के साहित्यिक कार्यक्रम परिषद में करते रहें। उन्होनें रणेंद्र जी को खासतौर से बधाई दी और आशा प्रकट किया कि उनकी रचनात्मकता इसी तरह सदैव प्रगति के पथ पर अग्रसर रहे। 

गोष्ठी के दौरान उपस्थित प्रेमकुमार मणि, रणेंद्र, बिहार विधान परिषद के सभापति अवधेश प्रसाद सिंह सहित अन्य गणमान्य

साहित्यकार यादवेंद्र ने विषय प्रवेश करते हुए बतलाया कि हिन्दुस्तानी घराने की संगीत परम्परा बदलते हुए परिवेश के कारण छिन्न-भिन्न हो रही है। अल्लाउद्दीन खान ने मैहर स्कूल स्थापित किया था। अली खान, पन्ना लाल, शरण रानी और अन्नपूर्णा आदि संगीत की बड़ी विभूतियां रही हैं। इन लोगांे ने संगीत की एक पूरी पीढ़ी का निर्माण किया। अपने यहां कई दशकों तक संगीत की धारा बहती रही। रणेंद्र ने अपने उपन्यास में इस परम्परा के धराशाई होने के कारणों को सूक्ष्मता से विश्लेषित किया है। राजनीतिक परिदृश्य, सामाजिक ढांचा और भू माफिया कैसे उस परम्परा को तोड़ते हैं। संगीत के प्रतिनिधि कैसे अपमानित होते हैं, मार दिये जाते हैं इसे रणेंद्र अपने तरीके से इस उपन्यास में उठाते हैं। मेरी जानकारी में इस तरह का कोई उपन्यास हिन्दी में नहीं आया है। यादवेंद्र ने रामचंद्र गुहा की चर्चा करते हुए कहा कि उन्होंने इतिहास की किताबें लिखी हैं भारत गांधी के बाद। रणेंद्र की यह पुस्तक गुहा की किताबों का साहित्यिक रूपांतरण हैं। यह उपन्यास त्रासद स्थितियों में जाकर खत्म होता है। यह एक बड़ी बहस भी खड़ा करता है कि बाउल संस्कृति और लोक गायन को कितना मिलना चाहिए, उसका लाभ मिलना चाहिए या नहीं। संगीत किन-किन रूपों में हमारे जीवन में शामिल है। 

कवि पत्रकार कुमार मुकुल ने इस मौके पर उपन्यास पर केंद्रित अपनी टिप्पणी में यह माना कि रणेंद्र का यह उपन्यास मनुष्यता के बंटबारे को परवान चढ़ा रही शक्तियों को न सिर्फ टारगेट करती है अपितु हिन्दुस्तान की साझी विरासत की टूटन को विश्लेषित भी करती है। उन्होंने कहा कि रक्त शुद्धता की वकालत करनेवाली शक्तियां अब रागों की भी शुद्धता की बात करने लगी हैं, जिससे यह उपन्यास अपने तरीके से टकराता है।

कथाकार संतोष दीक्षित ने कहा कि रणेंद्र का पहला उपन्यास असुर जनजाति पर था जो हिन्दी में बेहद लोकप्रिय रहा। इन्होंने अपने हालिया लिखित उपन्यास गूंगी रूलाई का कोरस में भारतीय उप महाद्वीप में फैली उस संगीत परम्परा को अपने कथानक का विषय बनाया है जिस संगीत को न सूफी से परहेज रहा न किसी मंदिर से से परहेज था। रणेंद्र ने इस संगीत को विषाक्त किये जाने की बंटबारे की संस्कृति को गहराई से अपने इस उपन्यास में समेटा है। 

कथाकार अवधेश प्रीत ने कहा कि रणेंद्र का यह उपन्यास सघन बुनावट में बहुत मार्मिक ढंग से अपने समय की विद्रूपता को रखता है। उन्होंने कहा कि गूंगी रुलाई का कोरस प्रतीकात्मक शीर्षक है। पूरे उपन्यास में एक रूदन है, सामूहिक कोरस है, सामूहिक गायन है। लेखक ने समय की नब्ज को गहरे से पकड़ा है। उन्होंने कहा कि उपन्यास में सुआर्यन संस्था और उसके प्रतीक कच्छप वैभवी और उसके पिता के प्रसंग जिस रूप में आये हैं अगर और स्पष्ट ढंग से उनके कारणों की तफ्तीश के साथ आते तो अच्छा होता। 

वहीं कथाकार हषिकेश सुलभ ने कहा कि उपन्यास सभ्यता समीक्षा है। संगीत उसी सभ्यता समीक्षा में शामिल है और उसका हमारे जीवन से लोप हो जाना भयावह अंधेर होते जाने का संकेत है। उन्होंने कहा कि रणेंद्र का यह उपन्यास शोधपरक है। हिन्दी के अन्य उपन्यासकारों की तरह इनका यह शोध कृति की सीमा नहीं बनती बल्कि उसकी खूबसूरती की ओर संकेत करती है। उपन्यासकार की यह ताकत है कि उसका यह शोध झलकता नहीं अपितु जीवन की विविधवर्णी छवियां हमारे सामने पेश करती है। उन्होंने कहा कि संगीत की परम्परा ऐसी परम्परा नहीं है जिसे जीवन से काटकर अलग कर दिया जाए। उन्होंने कहा कि रसिक और रसज्ञ में बड़ा अंतर है। धर्म सुरसा की तरह खड़ा है हमें निगल लेने के लिए। कुलीनताबोध और शुचिताबोध के विरूद्ध संगीत ने हर दौर में संघर्ष किया है। समरस समाज बनाने में संगीत की बहुत बड़ी भूमिका रही है। रणेंद्र ने अपने उपन्यास में उसकी स्मृतियों को अपने तरीके से लिपिबद्ध किया है। इसे पढ़ते हुए हम अपने को ‘रि डिस्कवर’ करने की कोशिश करते हैं। यु़द्ध हो या घृणा प्रेम को अंतद्वंद्व को लेखक बहुत सहजता से हमारे सामने रखता है।

रणेंद्र ने कहा कि मेरे भीतर का रचनाकार अपने अग्रज लेखकों से प्रेरणा पाकर बड़ा हुआ है। हम आप सबके ऋणी हैं। उन्होंने कहा कि यह इतना भयावह और दारूण समय है कि 24 लोगों की माॅब लिंचिंग में हत्या करवाने वाले को माला पहनाया जाता है। यह दानवीकरण का बहुत ही वीभत्व चेहरा हमारे सामने उपस्थित है। इन्हीें परिस्थितियों ने हमें इस उपन्यास को लिखने की प्रेेरणा दी है। 

इस मौके पर बिहार विधान पार्षद राजेंद्र गुप्ता, श्रीकांत, डा. विनय कुमार, मुसाफिर बैठा, नरेंद्र कुमार, प्रत्यूष चंद्र मिश्रा, प्रशांत विप्लवी, श्यामकिशोर, ऋ़त्विक कबीर आदि लोग भी उपस्थित रहे।  

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अरुण आनंद

लेखक पटना में स्वतंत्र पत्रकार हैं

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