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पश्चिम बंगाल में हार के बाद मोहन भागवत को याद आया भारतीयों का डीएनए?

हाल के दिनों में मुसलमान बनाम यादव, मुसलमान बनाम दलित औऱ शिया बनाम सुन्नी जैसे मुद्दे फिर सतह पर आते दिख रहे हैं। ज़ाहिर है इनके पीछे ख़ास एजेंडा और एक सोची समझी रणनीति है। बता रहे हैं जैगम मुर्तजा

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस की तरफ से जब भी कोई बयान आता है तो उसके सियासी मायने ज़रुर निकाले जाते हैं। बीते 4 जुलाई, 2021 को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने लिंचिंग और मुसलमानों लेकर एक बड़ा बयान दिया है, जो फिलहाल चर्चा में है।

एक किताब के विमोचन कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि यदि कोई हिंदू कहता है कि मुसलमान यहां नहीं रह सकता है, तो वह हिंदू नहीं है। उन्होंने आगे कहा कि गाय एक पवित्र जानवर है, लेकिन जो इसके नाम पर दूसरों को मार रहे हैं, वे हिन्दुत्व के खिलाफ हैं। इसके अलावा मोहन भागवत ने कहा कि सभी भारतीयों का डीएनए एक है, चाहे वे किसी भी धर्म के होंं। ज़ाहिर है इस तरह का बयान अगर संघ प्रमुख की तरफ से आएगा तो उसपर सियासी और समाजी बहस छिड़ना लाज़िमी है।

संघ प्रमुख के बयान की पहली पंक्ति लुभावनी है और शायद यूपी चुनाव के मद्देनज़र ये बातें कही गई हैं। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की ख़ासी तादाद है और पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में जिस तरह का ध्रुवीकरण मुसलमान वोटरों में हुआ उसे लेकर बीजेपी और संघ की चिंता लाज़िमी है। कोविड प्रबंधन को लेकर उपजी नाराज़गी, ख़राब क़ानून व्यवस्था, बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं औऱ जातिवाद उत्तर प्रदेश में बीजेपी की बड़ी चिंता हैं। इन चिंताओँ से संघ अनजान नहीं है। ऐसे में दलित या पिछड़ों के साथ मुसलमानों का ध्रुवीकरण होता है, तो बीजेपी को मुश्किलें होंगी।

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की तस्वीर

हालांकि बीजेपी की प्रदेश इकाई अभी भी राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और एनआरसी/सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा मुसलमानों के ख़िलाफ किए गए जायज़, नाजायज़ मुक़दमों और कार्रवाई के दम पर चुनाव में जाना चाहती है, लेकिन यह इतना आसान नहीं है। उत्तर प्रदेश में जाट, ब्राहमण, पंजाबी, सिख, दलित और यादव वोटर 2014, 2017 या 2019 की तरह बीजेपी के साथ नहीं हैं। इस नुक़सान की भरपाई मुसलमानों को बीजेपी के ख़िलाफ मुद्दों से हटाकर दूसरे मसलों में उलझाने पर है।

हाल के दिनों में मुसलमान बनाम यादव, मुसलमान बनाम दलित औऱ शिया बनाम सुन्नी जैसे मुद्दे फिर सतह पर आते दिख रहे हैं। ज़ाहिर है इनके पीछे ख़ास एजेंडा और एक सोची समझी रणनीति है।  उत्तर प्रदेश में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच जैसे संगठन तमाम फिरक़ों से जुड़े मौलानाओँ तक पहुंच बनाकर बीजेपी के ख़िलाफ ग़ुस्से को शांत करने में लगे हैं। सोशल मीडिया पर मुसलमानों से जुड़े मुद्दों पर बहस तेज़ हुई हैं औऱ अब संघ प्रमुख ने बयान दे दिया।

लेकिन सवाल यह है कि क्या बयान देने भर से देश में लिंचिंग की घटनाएं रुक जाएंगी? इस तरह के बयान पूर्व में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी दिए हैं, लेकिन वह बेअसर रहे हैं। ऊपर से सबका डीएनए एक है, वाला बयान कोई सकारात्मक रूप में नहीं लेता। मुसलमानों का अशराफ तबक़ा इसे किसी हाल में स्वीकार नहीं कर सकता और पसमांदा के लिए यह संघ का सांस्कृतिक नायकत्व थोपने का प्रयास माना जाता है। लोग इसे घर वापसी की प्रस्तावना के तौर लेते हैं, बंधुत्व के तौर पर नहीं। दूसरे संघ प्रमुख कह रहे हैं कि गाय और दूसरे मामलों में क़ानून को अपना काम करने देना चाहिए।

क्या क़ानून निष्पक्ष तौर पर काम कर रहा है या बीजेपी सरकारों में क़ानून को समान रूप से लागू किया गया है? जिस तरह उत्तर प्रदेश में आंदोलनकारियों के ख़िलाफ कुर्की के नोटिस आए, लोगों पर गुंडा एक्ट लगाकर युवाओँ को जेलों में डाल दिया गया, क्या यह कार्रवाई जाति और धर्म की भावना से उठकर सभी वर्गों पर समान रूप से हुई? शायद बिल्कुल नहीं। इसलिए शायद बयान पर चर्चा हो जाए, राजनीतिक पंडित संघ प्रमुख के बयान के निहितार्थ निकाल लें लेकिन ज़मीन पर कुछ बदलने वाला नहीं है। ज़मीन पर कुछ तब तक नहीं बदलेगा जब तक सरकारें मज़बूत इच्छा शक्ति दिखाकर क़ानून का शासन स्थापित नहीं करेंगी और अपराधी-अपराधी में भेद करना बंद नहीं करेंगीं। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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