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केवल 27 प्रतिशत दलित, 26 प्रतिशत आदिवासी और 13 प्रतिशत ओबीसी समझते हैं मनुवादी भेदभाव

अमेरिकी संस्थान प्यू रिसर्च सेंटर दुनिया भर के लोगों पर धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन और विश्लेषण करता है। भारत में इसने 17 नवंबर, 2019 और 23 मार्च, 2020 के बीच राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया, जिसमें 17 भाषाओं में कुल 30 हजार भारतीय नागरिकों से प्रश्न पुछे गए। इस सर्वेक्षण के निष्कर्षों के बारे में बता रहे हैं बापू राउत

भारत में कर्मकांड में विश्वास रखने वालों की संख्या बढ़ी है। मसलन 77 फीसदी हिंदू आत्मा आधारित मान्यताओं में विश्वास करते हैं। वहीं मुस्लिम धमार्वलंबी भी लगभग इतनी ही संख्या में इसी तरह का विश्वास रखते हैं। करीब 81 प्रतिशत हिंदुओं के साथ-साथ एक-तिहाई ईसाई भी मानते हैं कि गंगा के पानी में सभी को पवित्र करने की शक्ति है। वहीं, उत्तर भारत में 12 प्रतिशत हिंदू, 10 प्रतिशत सिख और साथ ही 37 प्रतिशत मुसलमान सूफी परंपरा के साथ स्वंय को जोड़ते हैं। लगभग 66 प्रतिशत हिंदू खुद को मुसलमानों से बहुत अलग मानते हैंवहीं 64 प्रतिशत मुसलमान भी हिंदुओं से बिल्कुल अलग महसूस करते हैं। इसी प्रकार ईसाई, जैन और बौद्ध समुदायों में भी खुद को एक-दूसरे से अलग रखने की प्रवृत्तियां है। ये कुछ निष्कर्ष हैं प्यू रिसर्च सेंटर के रिपोर्ट की, जो हाल ही में प्रकाशित हुई है। इस रिपोर्ट के निष्कर्षों का सार यह है कि भारत में कर्मकांड मानने वालों की संख्या बढ़ी है और यह देश अब धार्मिक देश के रूप में तब्दील हो रहा है।

बताते चलें कि अमेरिकी संस्थान प्यू रिसर्च सेंटर दुनिया भर के लोगों पर धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन और विश्लेषण करता है। भारत में इसने 17 नवंबर, 2019 और 23 मार्च, 2020 के बीच राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया, जिसमें 17 भाषाओं में कुल 30 हजार भारतीय नागरिकों से प्रश्न पुछे गए। प्यू रिसर्च की सर्वेक्षण रपट एक तरह से भारतीयों के मन की भावनाओं को उजागर करती है। यह भारतीयों की धार्मिकता, एक-दूसरे के प्रति भावनाए, भारतीय महिलाओं और जाति के साथ-साथ राजनीति की जटिलता पर भी प्रकाश डालती है।

इस रपट के मुताबिक, सामान्य तौर पर भारतीयों को लगता है कि आजादी के बाद उनके देश ने अपने नागरिकों की आजादी के आदर्शों का पालन सुनिश्चित किया है। हालांकि देश में कई अलग-अलग धर्म हैं, लेकिन हर धर्म के लोग अपने धर्म का पालन आसानी से कर सकते हैं। 

रिपोर्ट के अनुसार, भारत की बड़ी जनसंख्या धार्मिक है। फिर भी, कई भारतीय धार्मिक सहिष्णुता को अपने राष्ट्र के अस्तित्व का मूलाधार मानते हैं। ज्यादातर लोगों का मानना ​​है कि सही मायने में भारतीय होने के लिए सभी धर्मों का सम्मान करना बहुत जरूरी है।

तमिलनाडु के रामेश्वरम में पूजा करते राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद

प्यू रिसर्च के सर्वेक्षण के मुताबिक, लगभग 97 प्रतिशत भारतीय भगवान में विश्वास करना स्वीकार करते हैं और 80 प्रतिशत लोग मानते है कि भगवान का अस्तित्व है। शिक्षित, अशिक्षित, शहरी और ग्रामीण लोगों द्वारा समान रूप से भगवान में विश्वास रखा जाता है। केवल अधिकांश बौद्ध धर्म के लोग ही भगवान के अस्तित्व को नकारते हैं। 

एक अहम जानकारी यह कि अधिकांश हिंदू भगवान में विश्वास करते हैं। लेकिन कौन सा भगवान आपके अधिक निकट है, यह सवाल पुछे जाने पर अधिकांश अनेक देवताओं को चुनते हैं। सामान्य तौर पर 44 प्रतिशत भारतीयों को सबसे प्रिय शिव हैं। उसके बाद हनुमान को पसंद करने वाले 35 प्रतिशत और गणेश को अपना देवता मानने वाले 32 प्रतिशत।

रपट से पता चलता है कि महिलाओं के संबंध में भारतीयों की वैचारिक धारणा ठीक नहीं है। कई भारतीयों की राय है कि अंतरधार्मिक विवाह रोका जाना चाहिए। वहीं 64 फीसदी भारतीय सोचते हैं कि उनके समाज के महिलाओं को अंतर्जातीय विवाह करने से रोका जाना चाहिएजबकि 62 प्रतिशत भारतीयों का मानना ​​है कि पुरुषों को अंतर्जातीय विवाह से परहेज करना चाहिए। करीब 67 प्रतिशत हिंदुओं और 80 प्रतिशत मुसलमानों की राय है कि उनकी महिलाएं दूसरे मजहब के लोगों के साथ शादी नहीं करें। 

सर्वे की रपट के अनुसार 86 प्रतिशत भारतीय अपने ही समुदाय के लोगों से दोस्ती करना चाहते हैं। यह प्रवृत्ति हिंदूओ में 86 प्रतिशत, मुसलमानों में 88 प्रतिशत, जैन मे (72 प्रतिशत) और सिखों में 80 प्रतिशत में लगभग एक समान है। इस कारण, भारतीयों के बीच भावनाओं का अंतर और प्रेम का संबंध उनकी जाति तथा धर्म व समुदाय देखकर होती है।

रपट इस निष्कर्ष को सामने लाती है कि अधिकांश हिंदू भारतीयता की बागडोर अपने पास रखना चाहते हैं। करीब 64 प्रतिशत हिंदुओंकों लगता है कि भारतीय होने के लिए हिंदू होने की आवश्यकता है, जबकि 59 प्रतिशत हिंदुओं ने भारतीयता के लिए हिंदी भाषा की आवश्यकता पर जोर दिया है। समान विचार रखनेवाले 60 प्रतिशत हिंदू मानते है कि उन्होंने 2019 के राष्ट्रीय चुनावों में भाजपा को वोट दिया। इन्ही कारणों से भाजपा ने सत्ता में अपनी जगह बनाने के लिए हिंदुत्व, हिंदी और धार्मिकता को अपने प्रचार का केंद्र बनाया। भाजपा कों को वोट देने वाले 80 प्रतिशत हिंदू सोचते हैं कि, उनकी महिलाओं को अपने धर्म से बाहर शादी करने से रोका जाना चाहिए।

भारत में 95 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को भारतीय होने पर गर्व है और भारतीय संस्कृति में उन्हें आस्था है। सबसे अधिक 78 प्रतिशत सिख धर्मावलंबी सांप्रदायिक हिंसा को सबसे बड़ी समस्या मानते हैं। जबकि 65 फीसदी हिंदुओं और मुसलमानों के लिए सांप्रदायिक हिंसा बड़ी समस्या है। 

सभी भारतीयों के जीवन में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। करीब 81 प्रतिशत बौद्ध मानते हैं कि उन्हें अपने धर्म का अच्छा ज्ञान है, लेकिन वे दूसरों की तुलना में रोज की दैनिक प्रार्थना को अधिक महत्व नहीं देते।

जातिय भेदभाव की बात करें तो 20 प्रतिशत भारतीयों को लगता है कि अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव होता है। वहीं 19 प्रतिशत लोगों को अनुसूचित जनजाति के लोगों के खिलाफ अधिक अत्याचार होने का अंदेशा है। वहीं 13 प्रतिशत भारतीयों को को लगता है कि ओबीसी के खिलाफ उचे साथ भी भेदभाव होता हैं। 

दलित-बहुजन समुदायों में पिछड़ापन और जागरूकता का अभाव है। रपट के मुताबिक, केवल 27 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग ही अपने समुदाय के साथ हो रहे अन्याय से अवगत हैं। केवल 26 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और 13 प्रतिशत ओबीसी को लगता है कि उनके साथ जातिगत भेदभाव किया जा रहा है। केवल 24 प्रतिशत मुसलमान यह सोचते हैं कि उन्हें सताया जा रहा है।

दरअसल, आजकल धार्मिकता सामाजिक मामलों में अधिक महत्वपूर्ण हो गई है और राजनीति में धर्म का खुलेआम इस्तेमाल किया जा रहा है। राष्ट्रवाद के समर्थक आम जनता को धर्म के चपेट मे लाना चाहते हैं लोग भी जाने-अनजाने आसानी से इसकी चपेट में आ रहे हैं। वे रोज की भूख और बेरोजगारी से लड़ सकते है, लेकिन वह अपने धार्मिक भावनाओं को आच नहीं आने देना चाहता। 

भाजपा की सफलता काफी हदतक इसी धार्मिक भावना के साथ जुड़ी है। ऐसा नही है कि पहले भारतीय राजनीति में उथल-पुथल नहीं होती थी! लेकिन उस समय धर्म और मुस्लिम विरोधी भावनाओं के प्रति ज्यादा पूर्वाग्रह नहीं था। प्यू रिसर्च के सर्वेक्षण से अनुमान लगता है कि भारत हिंदुत्व, हिंदू धर्म, हिंदी और दूसरे धर्म-द्वेष के संकेतकों के साथ एक नए धार्मिक देश में तब्दील हो रहा है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

बापू राउत

ब्लॉगर, लेखक तथा बहुजन विचारक बापू राउत विभिन्न मराठी व हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखते रहे हैं। बहुजन नायक कांशीराम, बहुजन मारेकरी (बहुजन हन्ता) और परिवर्तनाच्या वाटा (परिवर्तन के रास्ते) आदि उनकी प्रमुख मराठी पुस्तकें हैं।

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