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अलविदा स्टेन! आप बेमिसाल थे

उन्होंने मुझसे कहा कि आप एक देशद्रोही से बात कर रहे हैं। मेरा जवाब था– मैं फादर स्टेन से बात कर रहा हूं, जो इस देश के मशहूर मानवाधिकार एक्टिविस्ट हैं। उसके बाद से उनकी खबरें मिलती रहीं, लेकिन वे नहीं मिले। अफसोस कि वे अब फिर कभी नहीं मिलेंगे। पढ़ें, स्टेन स्वामी की कहानी, रवि प्रकाश की जुबानी

लंबा कद। आंखों पर चश्मा। हाथों में पुराने चेन वाली घड़ी। पैरो में चमड़े का चप्पल। सस्ते खरीदे गए कपड़ों से बनी फुलपैंट और वैसी ही शर्ट या टी-शर्ट। फादर स्टेन स्वामी ऐसे ही दिखते थे। सिंपल, सहज लेकिन मुद्दों को लेकर उतने ही गंभीर। विचारों में बेबाक और निडर। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन झारखंड के आदिवासी उन्हें सदियों तक अपनी यादों में जिंदा रखेंगे। वे जिंदा थे, जिंदा हैं और जिंदा रहेंगे। यह अलग बात है कि कभी विचाराधीन बंदियों के अधिकारों के लिए न्यायिक लड़ाई लड़ने वाले स्टेन स्वामी का निधन एक विचाराधीन बंदी के रुप में जमानत मांगते हुए हुआ। मुंबई की अदालत उनकी जमानत पर फैसला करती, इससे पहले ही उनकी सांसें रुक गईं और वे दुनिया को अलविदा कह गए। अब उनके निधन से लोग दुखी हैं, आक्रोशित भी।

मेरा उनसे कोई व्यक्तिगत नाता नहीं था। मैं उनसे जब भी मिला, पत्रकार के तौर पर अपनी रिपोर्टों के लिए मिला। इसके बावजूद वे मेरे अपने थे, ठीक उसी तरह जैसे वे लाखों आदिवासियों और दलितों के अपने थे। फादर स्टेन ने झारखंड में अपने काम की शुरूआत पश्चिमी सिंहभूम के एक चर्च में पादरी के बतौर की थी। वहां रहते हुए उन्होंने आदिवासियों के दर्द को करीब से महसूस किया। उनकी भाषा सीखी। उनसे संवाद किया। फिर उनके लिए काम करने लगे। चूंकि कैथोलिक पादरी शादी नहीं करते, इसलिए उन्होंने शादी नहीं की। उनके साथ काम करने वाले लोग, हजारों मानवाधिकार कार्यकर्ता और लाखों आम लोग उनका परिवार थे। अब सब उनके निधन से शोकाकुल हैं। क्योंकि, परिवार के उस बुजुर्ग का जाना सबको साल रहा है, जो विचारों की दृढ़ता को लेकर सबसे ज्वान था।

करीब 84 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गए स्टेन से मेरी आखिरी मुलाकात करीब तीन साल पहले हुई थी। अपनी रिपोर्ट के सिलसिले में। तब हमने लंबी बातचीत की। तबतक झारखंड की तत्कालीन बीजेपी सरकार ने उनके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा कर रखा था। मेरी बातचीत भी उसी सिलसिले में थी। वह इंटरव्यू बीबीसी हिंदी पर प्रकाशित हुआ था। तब उन्होंने मुझसे कहा कि आप एक देशद्रोही से बात कर रहे हैं। मेरा जवाब था– मैं फादर स्टेन से बात कर रहा हूं, जो इस देश के मशहूर मानवाधिकार एक्टिविस्ट हैं। उसके बाद से उनकी खबरें मिलती रहीं, लेकिन वे नहीं मिले। अफसोस कि वे अब फिर कभी नहीं मिलेंगे। 

फादर स्टेन स्वामी (26 अप्रैल, 1937 – 5 जुलाई, 2021) एक आंदोलन के दौरान

वह साल 2018 के अगस्त महीने की कोई दोपहर थी। झारखंड में भारतीय जनता पार्टी की रघुवर दास सरकार थी और फादर स्टेन स्वामी के खिलाफ पत्थलगड़ी मामले को लेकर देशद्रोह का मुकदमा किया गया था। हालांकि झारखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपनी कैबिनेट की पहली ही बैठक में पत्थलगड़ी के सारे मुकदमे वापस लेने का निर्णय लिया। उसके बाद इसकी चर्चा मंद पड़ने लगी।

फादर स्टेन पर बीजेपी के ही नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने देशद्रोह का एक और मुकदमा कर दिया। आतंकवाद निरोधी कानून (यूएपीए) के तहद दर्ज मुकदमे में पहले महाराष्ट्र की पुणे पुलिस और बाद में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने चर्चित भीमा-कोरेगांव मामले में संलिप्तता के आरोप लगाए। आरोप लगा कि वे माओवादी हैं और वैसे लोगों से उनके संपर्क लगातार बने हुए हैं। तब स्टेन स्वामी ने एनआइए की सभी आरोपों का खंडन किया और कहा कि ये झूठे और फैब्रिकेटेड हैं। इसके बावजूद एनआइए की कार्रवाई पर कोई असर नहीं पड़ा और पिछले साल 8 अक्टूबर, 2020 की शाम वे रांची में अपने दफ्तर बगईचा से गिरफ्तार कर लिए गए। अगली सुबह उन्हें मुंबई ले जाया गया। एनआइए ने उन्हें अदालत मे पेश किया। न्यायिक हिरासत की अपील की और फादर स्टेन स्वामी वहां की एक जेल में बंद कर दिए गए। विचाराधीन बंदियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले स्टेन को इस तरह विचाराधीन बंदी के बतौर जेल भेजे जाने का व्यापक विरोध हुआ। लेकिन, विरोध की आवाजें अनसुनी कर दी गईं। 

जेल में ही उनकी तबीयत बिगड़ी। इसके बाद मई के अंतिम सप्ताह में वे मुंबई के ही एक अस्पताल में भर्ती कराए गए। उन्होंने अपनी पर्किंसन समेत दूसरी बीमारियों और अपनी उम्र का हवाला देते हुए जमानत मांगी लेकिन एनआइए ने उनकी जमानत का विरोध किया। तारीखें मिलती-बढ़ती रहीं और 5 जुलाई की दोपहर एक तारीख पर ही वे मर गए। कोर्ट उस दिन उनकी जमानत पर सुनवायी करता, इससे पहले उनका इलाज कर रहे अस्पताल ने उनके नहीं रहने की सूचना भेजी। वकील ने यह बात कोर्ट को बतायी और फिर चंद मिनटों में यह खबर पूरे देश में फैल गई। कहा गया कि उनकी मौत के लिए भारत की क्रूर न्याय व्यवस्था, केंद्र सरकार और एनआइए जिम्मेदार है। अब सोनिया गांधी और ममता बनर्जी समेत देश के दस प्रमुख विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर उनसे इस ममाले में हस्तक्षेप करने और फादर स्टेन स्वामी की मौत की जवाबदेही तय कराने की मांग की है।

हालांकि इसी दौरान विदेश मंत्रालय ने ट्वीट कर कहा है कि फादर स्टैन स्वामी को एनआइए ने कानून का पालन करते हुए गिरफ्तार कर जेल भेजा था। उनके खिलाफ लगे कुछ विशेष आरोपों की वजहों से अदालतो में उनी जमानत याचिकाओं को खारिज किया गया। ये सभी कदम नियमानुसार उठाए गए। इत्यादि-इत्यादि। 

बहरहाल, इस विवाद को कुछ वक्त के लिए यहीं छोड़ देते हैं। बात स्टेन स्वामी की जिंदगी और उनकी शख्सियत की करते हैं, तो पाते हैं कि उनका जीवन तो खुली किताब की तरह था। कुछ भी छिपा नहीं। सब पारदर्शी। एनआइए की नजर में वे भले ही देशद्रेही हों, लेकिन झारखंड के लाखों आदिवासियों समेत इस देश के करोड़ों लोग उन्हें फादर स्टेन स्वामी के तौर पर जानते हैं। वह स्टेन स्वामी, जिसने सारी जिंदगी मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ी। अपनी मौत से दो दिन पहले ही उन्होंने यूएपीए के कुछ प्रावधानों को हटाने की मांग को लेकर अदालत में याचिका दायर की थी, क्योंकि न्यायिक व्यवस्था पर उनका भरोसा था। उन्होंने भारतीय संविधान मे दिए गए अधिकारों के संरक्षण की लड़ाईयां लड़ी। तभी तो मशहूर अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज जैसे लोग उन्हें देश के जिम्मेदार नागरिक के रुप में याद करते हैं।

वे तमिलनाडु में जन्मे। चेन्नई और कुछ दूसरे शहरों के बाद मनीला (फिलिपींस) मे पढ़ाई की। कुछ और देशों में गए। नौकरी भी की। फिर पादरी बनकर झारखंड (तब बिहार) आ गए और देश के सर्वाधिक पिछड़े इलाकें में से एक पश्चिमी सिंहभूम में काम करना शुरू किया। फिर पादरी का काम छोड़कर वे सामाजिक कार्यकर्ता बने और आदिवासियों के हक की लड़ाई के लिए उन्हे जागृत करना शुरू कर दिया। उनकी ख्याति बढती गई। फादर स्टेन स्वामी इन आदिवासियों के लिए स्टेन बन गए। 

करीब तीस साल पहले सन 1991 में वे रांची आए। यहां बगईचा की स्थापना की। फिर विकास के नाम पर हो रहे विस्थापन, आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के अपहरण और मानवाधिकार से जुड़े दूसरे मसलों को लेकर आंदोलनों की लंबी लिस्ट बना दी। उनकी ख्याति बढ़ती चली गई और यह देश उनका नाम अदब से लेने लगा। वे देश की मुखर आवाज बने। फिर न जाने क्या हुआ। एनआइए ने न जाने कौन सा सबूत खोज लिया। उन्हें देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और अंततः वे न्यायिक हिरासत (जेल) में ही मर गए।

अब उनकी मौत ने कई सवाल छोड़े हैं। इनका जवाब देना इस देश के सिस्टम को देना होगा। देना चाहिए भी। हालांकि, इन जवाबों के मिलने की गुंजाइश फिलहाल नहीं दिखती।

खैर। बात काफी लंबी होती जाएगी। इसलिए, लेख को यहीं खत्म करते हैं। 

अलविदा स्टैन। मेरी नजरों में आप हीरो थे, हीरो रहेंगे। आपको आखिरी जोहार। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

रवि प्रकाश

लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं तथा दैनिक जागरण, प्रभात खबर व आई-नेक्स्ट के संपादक रहे हैं

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