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दलित-बहुजनों के राजनीतिक-आर्थिक बहिष्करण को नई जनसंख्या नीति

अनिवार्य जनसंख्या नीति (दो बच्चों की नीति) से तत्काल नकारात्मक प्रभाव वंचित तबका (दलित, आदिवासी, पिछड़ा और मुस्लिम) पर ही पड़ेगा। यह तबका स्थानीय निकाय के चुनावों में भाग लेने से वंचित हो जाएगा। सरकार के सभी कल्याणकारी योजनाओं से भी वंचित हो जाएगा। जो सरकारी नौकरी में हैं, वे प्रोन्नति से वंचित हो जाएंगे। वंचित तबके का आर्थिक और राजनीतिक बहिष्कार हो जाएगा। बता रहे हैं डॉ. योगेंद्र सम्यक

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए ‘दो बच्चों की नीति’ का मसौदा तैयार किया है। राज्य के विधि विभाग ने इस मसौदा का नामकरण ‘उत्तर प्रदेश पॉपुलेशन (कंट्रोल, स्टेबलाइजेशन एण्ड वेल्फेयर) बिल’ किया है। इस लेख का उदेश्य इस मसौदे का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करना नहीं है। लेकिन, संक्षेप में यह जानना आवश्यक है कि बिल के मसौदे के अनुसार इस जनसंख्या नीति को पालन करने वालों को अतिरिक्त सुविधाएं देने का प्रस्ताव है। दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले लोगों को सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से वंचित होना पड़ेगा और स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दिए जाएंगे।

जनसंख्या नियंत्रण के इस मसौदे को लेकर पूरे देश में चर्चा है। एक तबके का मानना है कि उत्तर प्रदेश सरकार की यह पहल बहुत ही सराहनीय है। स्वयं राज्य के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ का मानना है कि समुन्नत समाज की स्थापना के लिए जनसंख्या नियंत्रण प्राथमिक शर्त है। केशव प्रसाद मौर्य जो राज्य के उप मुख्यमंत्री हैं, का मत है कि इस नीति का मकसद है कि राज्य (उत्तर प्रदेश) का सर्वांगीण विकास हो। वही दूसरा तबका जो इस नीति का विरोध करता है, का मानना है कि अनिवार्य जनसंख्या नीति या दूसरे शब्दों में बलपूर्वक जनसंख्या नीति भारतीय संविधान द्वारा प्रदत मानव अधिकारों का उल्लंघन करता है। इस तबके का इस नीति के विरोध में और भी कई तर्क हैं।

सवाल है कि क्या भारत में या भारत के किसी राज्य में अनिवार्य जनसंख्या नीति की आवश्यकता है? इस प्रकार के नीति से भारतीय समाज का कौन-सा तबका सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकता है? अनिवार्य जनसंख्या नीति का दूरगामी प्रभाव क्या हो सकता है? जनसंख्या नियंत्रण के इस नीति का क्या विकल्प हो सकता है?

भारत में अनिवार्य जनसंख्या नीति की आवश्यकता?

क्या भारत या भारत के किसी राज्य में अनिवार्य जनसंख्या नीति की आवश्यकता है? इस प्रश्न का उत्तर आंकड़ों और तथ्यों के द्वारा दिया जा सकता है। उससे पहले यहां पर इस बात की चर्चा करने की आवश्यकता है कि भारतीय संविधान के सातवीं अनुसूची में निहित समवर्ती सूची केंद्र और राज्यों को जनसंख्या नियंत्रण पर कानून बनाने की अनुमति देता है। केंद्र स्तर पर, 1951 की पहली पंचवर्षीय योजना में जनसंख्या नियंत्रण पर पहला कदम उठाया गया। इसमें परिवार नियोजन पर शोध और जनसंख्या को देश की अर्थव्यवस्था की जरूरत के स्तर तक लाने का लक्ष्य रखा गया। बाद के वर्षों में कई राज्यों जैसे राजस्थान (1992), उड़ीसा (1993), आंध्र प्रदेश (1994), उत्तराखंड (2002), महाराष्ट्र (2003), गुजरात (2005), बिहार (2007) और असम (2017) ने ‘दो बच्चों की नीति’ लागू किए हुए हैं। इन राज्यों में इसका कितना अमल हो रहा है, यह अलग विमर्श का विषय है। उत्तर प्रदेश इस सूची में शामिल होने की कतार में है।

योगी आदित्यनाथ, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री

अब, हम पुनः मूल मुद्दे पर वापस आते हैं। यू एन वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रास्पेक्ट, 2019 के आंकड़ों के अनुसार 1.37 बिलियन आबादी के साथ भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे आबादी वाला देश है। इसी संस्था के अनुमान के मुताबिक 2027 में भारत की कुल आबादी चीन के कुल आबादी से पार कर जाएगी। तो, उपर्युक्त आंकड़ों के आधार पर यह मान लिया जाए कि भारत में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति है। इसका जवाब है– नहीं। 2011 के जनगणना के अनुसार दशकीय जनगणना वृद्धि में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है। 1991-2001 के बीच दशकीय जनगणना वृद्धि 21.5 प्रतिशत थी, जो 2001-2011 के बीच कम होकर 17.7 प्रतिशत रह गई है। दूसरी ओर कुल प्रजनन दर (किसी महिला के प्रजनन काल में उसके द्वारा कुल जीवित जन्मे बच्चों की संख्या) में भी कमी आई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के आंकड़ों के अनुसार 1992-93 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-1) में कुल प्रजनन दर 3.4 था जो 2015-16 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4) में कम होकर 2.2 हो गया। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019-20) के हालिया प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 17 राज्यों में से 14 राज्यों में कुल प्रजनन दर 2.1 या उससे कम है। इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान में भारत में एक महिला अपने प्रजनन काल में औसतन 2.1 या उससे कम बच्चों को जन्म दे रही है।

जनसांख्यिकी में ‘रिपलेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ एक शब्दावली है। इसका अर्थ होता है, ‘प्रति महिला जन्म लेने वाले बच्चों की औसत संख्या, जिस दर पर किसी देश या प्रदेश की जनसंख्या एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को बिल्कुल खुद बदल लेती है’। इसे सरल शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है कि किसी क्षेत्र विशेष में से 100 पेड़ काटे गए और बदलें में उसी क्षेत्र विशेष में 100 पेड़ लगा दिए गए। ठीक उसी प्रकार किसी देश की एक पिछली पीढ़ी एक अगली पीढ़ी के द्वारा प्रतिस्थापित कर दी जाती है, तो यह कहा जाता है कि उक्त देश ने ‘रिपलेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ को प्राप्त कर लिया है। इसका मान 2.1 होता है। जब कोई प्रदेश या देश ‘रिपलेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ को प्राप्त कर लेता है तो इसका अर्थ होता है कि उक्त प्रदेश या देश की जनसंख्या स्थिरीकरण को प्राप्त कर रही है, बशर्तें कि प्रवास भी स्थिर हो।

सैम्पल रेजिस्ट्रैशन सिस्टम, 2018 के आकड़ों के अनुसार भारत का कुल प्रजनन दर 2.2 था जो कि ‘रिपलेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ के बहुत करीब है। इसी केंद्रीय आंकड़़े के अनुसार असम और उत्तर प्रदेश का कुल प्रजनन दर क्रमशः 2.2 और 2.9 है। असम का कुल प्रजनन दर भी ‘रिपलेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ के बहुत करीब है। रही बात उत्तर प्रदेश के कुल प्रजनन दर का तो वह 2.9 है जो ‘रिपलेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ के बहुत करीब तो नहीं है, लेकिन इसमें प्रतिवर्ष गिरावट दर्ज हो रही है। उत्तर प्रदेश का कुल प्रजनन दर 2016 में 3.1, 2017 में 3.0 और 2018 में 2.9 रहा है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन नैशनल कमीशन ऑन पॉपुलेशन ने 2020 में 2011-2036 के अवधि के लिए जनसंख्या अनुमान के लिए एक तकनीकी समूह का गठन किया है। इस तकनीकी समूह ने अनुमान लगाया है कि बिना किसी बलपूर्वक नीति के 2025 तक उत्तर प्रदेश ‘रिपलेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ प्राप्त कर लेगा। इस तरह से उत्तर प्रदेश का कुल प्रजनन दर भी ‘रिपलेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ की ओर अग्रसर है, अर्थात स्थिरीकरण की ओर अग्रसर है। उपर्युक्त सभी तथ्यों से इस कथन की पुष्टि होती है कि भारत और इसके राज्यों जैसे असम और उत्तर प्रदेश में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति नहीं है और इसीलिए अनिवार्य जनसंख्या नीति की आवश्यकता भी नहीं है।

जनसांख्यिकीय आंकड़े अनिवार्य जनसंख्या नीति लागू करने की ओर संकेत नहीं करते। अब, प्रश्न उठता है कि सरकारें विशेषकर उत्तर प्रदेश सरकार इस प्रकार के बिल लागू करने के लिए तत्पर क्यों है? इस प्रश्न का जवाब राजनीतिक और धार्मिक संदर्भ में निहित है। इनमें से राजनीतिक संदर्भ सबसे महत्वपूर्ण है। धार्मिक संदर्भ की चर्चा नीचे के अनुच्छेदों में की गई है। राजनीतिक संदर्भ में देखा जाए तो 2022 में उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव है। योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार के पास उपलब्धि के नाम पर कुछ खास है नहीं। राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति लचर है। कोरोना के दूसरी लहर के दौरान योगी सरकार की लापरवाही और अकर्मण्यता भी जगजाहिर है। ऐसी स्थिति में सरकार कुछ ऐसा कर जाना चाहती है, जिससे जनता का ध्यान भटका कर वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सके और विधान सभा चुनाव को जीता जा सके। अनिवार्य जनसंख्या नीति इसी उदेश्य की प्राप्ति के लिए उठाया गया एक कदम जान पड़ता है।

इस मसौदे को अगर धार्मिक संदर्भ में देखा जाए तो तथाकथित तेजी से बढ़ती मुस्लिम आबादी से भय है। दक्षिण पंथी समूहों को ऐसा प्रतीत होता है कि मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ रही है। निकट भविष्य में यह आबादी हिंदू आबादी से अधिक हो जाएगी। देश के सत्ता और संसाधनों पर मुस्लिमों का वर्चस्व हो जाएगा। ऐसी स्थिति में हिंदू समाज और संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी। क्या इस तथाकथित भय की पुष्टि आंकड़ों और तथ्यों से होती है? चलिए, इसकी पड़ताल करते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-1 (1992-93) के आंकड़ों के अनुसार हिंदू और मुस्लिम धार्मिक समूहों का कुल प्रजनन दर 1992-93 में क्रमशः 4.4 और 3.3 था और उस समय दोनों समूहों के कुल प्रजनन दर में अंतर 1.1 था। अर्थात, प्रत्येक मुस्लिम महिला एक हिंदू महिला के तुलना में अपने प्रजनन काल में 1.1 ज्यादा बच्चे को जन्म दे रही थी। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के अनुसार हिंदू और मुस्लिम धार्मिक समूहों का प्रजनन दर क्रमशः 2.1 और 2.6 था और दोनों समूहों के कुल प्रजनन दर में 0.5 का अंतर था। अर्थात, इस आंकड़े के अनुसार प्रत्येक मुस्लिम महिला एक हिंदू महिला के तुलना में अपने प्रजनन काल में 0.5 ज्यादा बच्चे को जन्म दे रही थी।

जनगणना 2011 और 1991 का आंकड़ों का विश्लेषण करने पर एक दिलचस्प तस्वीर उभर कर आती है। जनगणना दशक 1991 और 2001 के बीच हिंदू और मुस्लिम समूहों का वार्षिक जनसंख्या वृद्धि दर क्रमशः 1.8% और 2.6 % रहा। जनगणना दशक 2001 और 2011 के बीच हिंदू और मुस्लिम धार्मिक समूहों का वार्षिक जनसंख्या वृद्धि दर घटकर क्रमशः 1.55 % और 2.2 % हो गया। लाइव मिंट (13 जून, 2018) के एक अनुमान के मुताबिक यदि जनसंख्या वृद्धि दर में इसी तरह से गिरावट दीर्घ अवधि तक बनी रही तो दोनों समूहों (हिंदू और मुस्लिम) की अधिकतम जनसंख्या 2061 में प्राप्त होगी। उस समय हिंदू और मुस्लिम की जनसंख्या भारत के कुल जनसंख्या के क्रमशः 81.06 % और 16.59 % होगी। जब मुस्लिम जनसंख्या चोटी पर होगी उस समय भी प्रत्येक पाँच भारतीय में से 4 हिंदू होंगे। विख्यात जनसांख्यिकी विशेषज्ञ पीएन मारी भट के एक अनुमान के अनुसार मुस्लिम समूह 2031 में ‘रिपलेसमेंट लेवल फर्टिलिटी’ प्राप्त कर लेगा और उनकी आबादी 2101 में स्थिरीकरण को प्राप्त कर लेगी। उस समय मुस्लिम आबादी भारत के कुल आबादी का 18.8% हिस्सा होगी। उपर्युक्त आंकड़ों और तथ्यों से इस कथन की पुष्टि नहीं होती कि भविष्य में मुस्लिम आबादी हिंदू आबादी से अधिक हो जाएगी। इस प्रकार की बातें अफवाह और आधारहीन हैं। 

अनिवार्य जनसंख्या नीति से प्रभावित तबका

सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में हुए कई शोधों से यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि दलित, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग में गरीबी और अशिक्षा अन्य समूहों के तुलना में कई गुणा ज्यादा है। बहुचर्चित सच्चर कमिटी रिपोर्ट (न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर कमिटी रिपोर्ट नवंबर 17, 2006 को प्रधानमंत्री को सौंपा गया था) के अनुसार मुस्लिम समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में दलित और आदिवासियों से भी पीछे हैं। इस प्रकार, दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम समुदाय भारत के अन्य समुदायों से सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर पीछे हैं। जुंगहों किम (2016) के एक शोध के अनुसार शिक्षित महिलाओं और उनके प्रजनन में नकारात्मक संबंध होता है।

आमतौर पर शिक्षित महिलायें अशिक्षित महिलाओं के तुलना में कम बच्चों को जन्म देती हैं। शिक्षित महिलायें को अशिक्षित महिलाओं के तुलना में परिवार के आकार के बारे में बेहतर जानकारी होती है। दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय में शिक्षा का स्तर कम होने के कारण परिवार नियोजन के विभिन्न आयामों की या तो कम जानकारी होती है या जानकारी होती ही नहीं है। जो महिलायें स्कूल नहीं जा पाती हैं या कम वर्षों तक ही स्कूल जा पाती हैं, उनकी शादी जल्दी हो जाती है। उनके लिए प्रजनन अवधि लंबी होती है और वे तुलनात्मक रूप से ज्यादा बच्चों को जन्म देती हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के आंकड़ों के अनुसार अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति , पिछड़ा वर्ग और ऊंचीजाति का कुल प्रजनन दर क्रमशः 2.48, 2.26, 2.22 और 1.93 रहा है। ऐसी स्थिति में अनिवार्य जनसंख्या नीति (दो बच्चों की नीति) से तत्काल नकारात्मक प्रभाव वंचित तबका (दलित, आदिवासी, पिछड़ा और मुस्लिम) पर ही पड़ेगा। ये तबका स्थानीय निकाय के चुनावों में भाग लेने से वंचित हो जाएगा। सरकार के सभी कल्याणकारी योजनाओं से भी वंचित हो जाएगा। जो सरकारी नौकरी में हैं, वो प्रोन्नति से वंचित हो जाएंगे। वंचित तबके का आर्थिक और राजनीतिक बहिष्कार हो जाएगा। अतः यह ‘दो बच्चों की नीति’ का मसौदा जो आगे बिल का रूप धारण करेगा, दलित, आदिवासी, पिछड़ा और मुस्लिम समुदाय के लिए विनाशकारी साबित होगा।   

अनिवार्य जनसंख्या नीति का दूरगामी प्रभाव

अनिवार्य जनसंख्या नीति (दो बच्चों की नीति) अल्प अवधि के लिए असरदार प्रतीत होगी लेकिन दीर्घ अवधि में इसके दुष्प्रभाव असाधारण होंगे। पहला, महिलाओं के अधिकारों का उलंघन। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रत्येक व्यवस्क महिला का अधिकार है कि वह तय करे कि उसको कितने बच्चों की जरूरत है। सरकार या किसी संस्था को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि महिलायें कितने बच्चे पैदा करेंगीं। सरकार को यदि आंकड़ों और तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि जनसंख्या बेकाबू हो रही है तो उसे जनसंख्या बढ़ने के कारणों पर काम करने की जरूरत है, जैसे महिलाओं के शिक्षा के स्तर को बढ़ाना, परिवार नियोजन की जानकारी मुहैया काराना आदि। दूसरा, वैसे पुरुष जो राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त करना चाहते है अर्थात, किसी राजनीतिक पद के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं और उनके दो से ज्यादा बच्चे हैं। ऐसी स्थिति में उनके पास अपनी पत्नियों को छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। तलाक का दर बढ़ेगा। परिवार टूटेगा। महिलायें और बच्चे बेसहारा होंगे। निर्मला बूच (2005)– एक वरिष्ठ प्रशासनिक सेवा अधिकारी – के एक शोध का परिणाम कुछ ऐसा ही संकेत करता है। उन्होंने पांच राज्यों का अध्ययन किया जहाँ पर ‘दो बच्चों की नीति’ लागू है। उन्होंने पाया कि उन राज्यों में लिंग चयनात्मक गर्भपात में वृद्धि हुई। पुरुषों ने स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ने के लिए अपनी पत्नियों को तलाक दिया। दंपतियों ने अयोग्य घोषित होने के दर से बच्चा पैदा करने के विचार को त्याग दिया।

तीसरा, जनसांख्यिकीय प्रभाव। 2011 के जनगणना के अनुसार भारत के कुल जनसंख्या का 59.4 प्रतिशत जनसंख्या कार्यशील जनसंख्या (15-59 वर्ष आयु वर्ग) है। भारत के कुल जनसंख्या का करीब 8 प्रतिशत आबादी वरिष्ठ नागरिकों की है। इस, प्रकार भारत विश्व के सबसे ज्यादा युवा आबादी वाला देश है। ‘अनिवार्य जनसंख्या नीति’ लागू होने और अमल होने पर देश की युवा आबादी में तेजी से कमी आएगी और वरिष्ठ नागरिकों का अनुपात बढ़ेगा। अर्थात, आश्रित जनसंख्या का अनुपात बढ़ेगा। इस प्रकार भारत जनसांख्यिकीय लाभांश से वंचित होगा। चौथा, लिंगानुपात का असंतुलित होना। सामान्य तौर पर दक्षिणी एशिया में और विशेषतौर पर भारत में, दंपतियों को पुत्री के अपेक्षा पुत्र की चाह ज्यादा होती है। इस कथन की पुष्टि पूर्व में किए गए कई शोधों से होती है। मोनिका दासगुप्ता, जियांग झेंगुआ, ली बोहुआ, जी झेनमिंग, वूजिन चुंग और बाए ह्वा-ओके (2003) के एक शोध के अनुसार भारत में दहेज, चीन में प्रजनन दर पर सख्त कानून और दक्षिण कोरिया में पितृसतात्मक समाज के कारण लड़कियों पर लड़कों को तरजीह दी जाती है।

मित्रा (2018) के शोध के अनुसार भारत में पुत्र की चाह सामान्य है, लेकिन सभी वर्गों में इसका चलन समान रूप से नहीं है। शिक्षा, जानकारी और आर्थिक संसाधन के बदौलत आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग पुत्र सहित छोटा परिवार के लिए लिंग चयनात्मक गर्भपात का सहारा लेते हैं। जबकि शिक्षा और संसाधन के अभाव वाले लोग ऐसा करने में असमर्थ होते हैं जिसके कारण उनमें प्रजनन दर ज्यादा होता है। पहली परिघटना एक उदाहरण हरियाणा है। हरियाणा भारत के सम्पन्न राज्य में से एक है। लेकिन यहाँ शिशु (0-6 वर्ष) लिंगानुपात देश में सबसे कम है। इस राज्य में प्रति हजार पुरुष बच्चा पर 830 महिला बच्चा है। दूसरी परिघटना का एक उदाहरण बिहार है जो एक गरीब राज्य है। यहाँ शिक्षा स्तर निचले पायदान पर है। फलस्वरूप, इस राज्य में प्रजनन दर सबसे ज्यादा है। सामान्य तौर पर, भारत में पुत्र प्राप्ति के बिना परिवार पूरा हुआ नहीं माना जाता है। इस प्रकार, पुत्र के चाह में दंपति बच्चे पैदा करना जारी रखते हैं। ‘दो बच्चों की नीति’ अमल होने पर ऐसा कर पाना संभव नहीं होगा। ऐसी स्थति में लिंग चयनात्मक गर्भपात में बेइंतहा वृद्धि होगी। अब, पहले से कई गुणा बच्चियाँ गर्भ में मार दी जाएंगी। फलस्वरूप, शिशु (0-6 वर्ष) लिंगानुपात में असंतुलन होगा। इसका सीधा असर वयस्क लिंगानुपात पर पड़ेगा। वे हुआंग (2017) के अनुसार चीन में जन्म के समय कम लिंगनुपात के लिए ‘एक बच्चा की नीति’ जिम्मेवार है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि भारत में ‘दो बच्चों की नीति’ अमल होने से जन्म के समय लिंगानुपात असंतुलित न हो। शिशु (0-6 वर्ष) लिंगानुपात असंतुलित होना तय है। इससे वयस्क लिंगानुपात असंतुलित होगा। इसका दूरगामी प्रभाव यह होगा कि लड़कों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिलेंगी। सामाजिक बुराई जैसे बलात्कार का दर बढ़ेगा। असंतुलित लिंगानुपात के कारण विश्व बिरादरी में भारत का कद नीचा होगा। सतत विकास के लक्ष्य को ठेस पहुंचेगा।

दो बच्चों की नीति का विकल्प : आगे की राह

भारत के राज्य और विश्व के जिन देशों ने उच्च प्रजनन दर पर काबू पाया है, उसमें अनिवार्य जनसंख्या नीति का योगदान अहम नहीं रहा है। चीन इसका एक अपवाद हो सकता है। लेकिन सामाजिक विज्ञानियों में भी चीन के ‘एक बच्चा नीति’ से प्रजनन दर में कमी आने के बिन्दु पर मतों में भिन्नता है। इस कथन की पुष्टि कुछ शोधों से होती है। चीन के ‘एक बच्चा नीति’ पर ह्वाइट, वांग और योंग (2015) द्वारा किए गए शोध कहता है कि चीन के प्रजनन दर में 1990 के शुरुआती दशकों में कमी तेज आर्थिक वृद्धि से हुआ न कि देश द्वारा थोपे गए अनिवार्य जनसंख्या नीति से। जुनसेन झांग (2017) का शोध भी इस बात की पुष्टि करता है। उनका शोध कहता है कि अनिवार्य जनसंख्या नीति ने कुछ हद तक प्रजनन दर कम करने का कारक बना लेकिन दूसरे कारक उससे ज्यादा महत्वपूर्ण रहे।

भारत के राज्य जैसे केरल और तमिलनाडु शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश करके प्रजनन दर में कमी लाने में सफल रहे। भारत के तुलना में कम संसाधन वाले देश जैसे श्रीलंका (में शादी के उम्र बढ़ने से), बांग्लादेश और इंडोनेशिया (में गर्भ निरोधकों में भारी निवेश करके) बिना किसी अनिवार्य जनसंख्या नीति के अपने देश में प्रजनन दर में कमी लाने में सफल रहे। भारत में भी बिना ‘अनिवार्य जनसंख्या नीति’ के प्रजनन दर में कमी लाया जा सकता है। इसके लिए नीति नियंताओं में इच्छा शक्ति चाहिए। कुछ क्षेत्रों में ईमानदारी से पहल की जरूरत है। पहला, लड़कियों की उच्च शिक्षा को बढ़ावा देना। सामाजिक विज्ञानियों ने शिक्षा को एक ‘मैजिक बुलेट’ माना है। इसका बहुआयामी सकारात्मक प्रभाव होता है। उच्च शिक्षा और शादी के समय में विलोम संबंध है। उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही लड़कियों में देर से शादी करने की संभावना ज्यादा होती है। जल्दी शादी के तुलना में देर से शादी होने पर प्रजनन अवधि कम होता है, जिसके कारण प्रजनन दर भी कम होता है। उच्च शिक्षित महिलाओं को परिवार नियोजन के विभिन्न आयामों की जानकारी होती है। वे इसका उपयोग कम बच्चा पैदा करने और दो बच्चों के बीच अंतराल रखने के लिए भली-भांति कर पाती हैं।

दूसरा, पितृसतात्मक संरचना को कमजोर करना। औसतन, भारत में एक महिला को यह स्वायत्तता नहीं होती कि उसके कितने बच्चे पैदा करने है। उस महिला के ससुराल वाले तय करते हैं कि उस महिला को कितने बच्चे पैदा करने है। उच्च शिक्षा से ही महिलायें सशक्त होंगी और पितृसतात्मक संरचना को तोड़ेंगी। तीसरा, दंपतियों को विविध प्रकार के गर्भ निरोधक मुहैया कराना। इस दिशा में निवेश की बहुत आवश्यकता है। दंपतियों के लिए गर्भ निरोधक के विविध प्रकार उपलब्ध होने चाहिए जिसमें से वे अपनी पसंद और सुविधा के अनुसार चुन सकें। अगर उपर्युक्त बिन्दुयों पर गंभीरता से अमल किया जाए तो अनिवार्य जनसंख्या नीति (दो बच्चों की नीति) की आवश्यकता नहीं होगी।  

संदर्भ :

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(संपादन : नवल/अनिल)

(आलेख परिवर्द्धित : 18 अगस्त, 2021 01:22 PM)


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लेखक के बारे में

योगेंद्र सम्यक

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी डॉ. योगेंद्र सम्यक वर्तमान में एमजेके कॉलेज, बेतिया (बिहार) के भूगोल विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं

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