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दलित कहानियाँ और जातिवाद के बीहड़ इलाकें (संदर्भ: कौशल पंवार)

दलित स्त्रीवाद ने दलित स्त्री के शोषण के सवाल को जातिगत कारणों के आईने में देखा है। वहीं मुख्यधारा की स्त्रीवादियों ने जाति के सवाल को अपने विमर्श का केंद नहीं बनाया है। वहीं दलित स्त्रीवाद जाति व्यवस्था और पितृसत्ता दोनों को स्त्री शोषण की बुनियाद मानता है। बता रहे हैं युवा समालोचक सुरेश कुमार

[इसमें कोई दो राय नहीं है कि जाति व्यवस्था की संरचना ने जहां कुलीनों को सिंहासन उपलब्ध करवाया, वहीं बहुसंख्यक दलित-बहुजनों को हाशिये पर ले जाने में अहम भूमिका निभाई है। इसकी अभिव्यक्ति साहित्य में अलग-अलग रूपों में भी हुई है। मसलन, दलित साहित्य ने बताया कि इक्कीसवीं सदी में आधुनिक चेतना से लैस होने पर भी सवर्ण समाज जाति के जामे को पहनना-ओढ़ना छोड़ नही सका है। दलित साहित्यकारों के पास जितने बौद्धिक औजार थे, जिनसे जाति व्यवस्था के भयंकर उत्पातों को सामने लाने का काम उन्होंने किया है। हालांकि नई कहानी आंदोलन से जाति का प्रश्न काफी हद तक नदारद रहा है। उसमें तो मध्यवर्गीय समाज की आकांक्षाओं, इच्छाओं और संत्रास की अभिव्यक्ति को तरजीह दी गई है। यह दलित साहित्य की बड़ी देन है कि जाति व्यवस्था के खिलाफ गोलबंदी का तेजी से उभार हुआ। इस आलेख में दलित साहित्य के मील के पत्थर कहे जानेवाले लेखकों की उन कहानियों को केन्द्र में रखा गया है जो सामाजिक भेदभाव और जातिवादी मानसिकता की पड़ताल करती हैं। इस आलेख श्रृंखला के तहत आज पढ़ें कौशल पंवार की कहानियों के बारे में]

कौशल पंवार, जिनकी कहानियों में है दलित वैचारिकी और लड़ाई जीतने का जज्बा

  • सुरेश कुमार

भारतीय परिपेक्ष्य में दलित स्त्रीवाद अपने चिंतन का बुनियादी कारख़ाना सावित्रीबाई फुले, जोतीराव फुले और डॉ. बी. आर. आंबेडकर के विचारों को मानता हैं। वह फुले और डॉ.आंबेडकर के चिंतन की बुनियाद पर सामाजिक शोषण और जातिवाद के खिलाफ गोलबंद होता है। उन्नीसवीं सदी में फुले दंपति ने स्त्री शिक्षा पर ज़ोर देते हुए स्त्री अधिकारों की प्रबल हिमायत की थी। इसी कड़ी में बीसवीं सदी में डॉ. आंबेडकर ने स्त्री शोषण की पड़ताल करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि स्त्री दुर्गति की जिम्मेदार मनुवादी व्यवस्था है। डॉ. आंबेडकर ने स्त्री मुक्ति के लिए एक संवैधानिक खाका तैयार किया था, जिसे इतिहास और कानून में ‘हिंदू कोड बिल’ के नाम से जाना जाता है। बड़ी दिलचस्प बात है कि इस स्त्री मुक्ति बिल का सबसे मुखर विरोध आर्य-महिलाओं ने भी किया था।  

हिंदी साहित्य में दलित स्त्री लेखन ने गंभीर और जरुरी बहसों को जन्म दिया है। दलित लेखिकाओं की उपस्थिति से दलित स्त्री अस्मिता का स्वर विशेषतौर पर उभर कर सामने आया है। दलित स्त्रीवाद को जिन लेखिकाओं ने आकार दिया है, उनमें कौशल पंवार एक चर्चित नाम है। इस कथा लेखिका का ‘जोहड़ी’(2017) शीर्षक से एक कहानी संग्रह प्रकाशित है। 

दरअसल, सवर्ण समाज के लोग अपनी जाति श्रेष्ठता के दंभ में दलित समाज को बड़ी हिक़ारत भरी नज़रों से देखते हैं। यहाँ तक दलितों पर अत्याचार करने के मामले में सारी हदे पार कर जाते हैं। कौशल पंवार की ‘दिहाड़ी’ कहानी जाति और सामंती व्यवस्था के जुल्म की दास्तान का मार्मिक राग है। इस कहानी की पात्र तारा है, जिसमें पढ़ने की ललक और चेतना है। उसका परिवार गरीबी और सामाजिक उपेक्षा का शिकार है। इस गरीबी के बावजूद भी तारा के पिता दिहाड़ी मजदूरी कर अपनी बेटी को पढ़ाने का सपना संजोते हैं। पिता के रोकने के बावजूद भी तारा अपनी पढ़ाई छोड़कर दिहाड़ी करने जाती है। ठेकेदार का बेटा तारा को परेशान करता है। यहां तक कि उसे छेड़ने की कई बार कोशिशें भी करता है। तारा इसका विरोध करती है और प्रतिरोध में वह लोहे की गर्म राड को पकड़ लेती है। यह कहानी दिहाड़ी मजदूरी में खटती दलित स्त्रियों की भयावह स्थिति को भी प्रस्तुत करती है। कहानी सवाल उठाती है कि आजादी के बाद भी दलितों के जीवन में कुछ खास सुधार नहीं हुआ है। उन्हें ऊँच-नीच और जाति के नाम पर अपमानित किया जाता है। 

कौशल पंवार और उनकी कहानियों का संग्रह “जोहड़ी” के मुख पृष्ठ की तस्वीर

वहीं अपनी ‘वर्दी’ कहानी में कौशल पंवार सामाजिक और जातिगत भेदभाव के शिकार दलितों की पीड़ा का वृतांत कहती हैं। दलित साहित्य के भीतर यह सवाल कई बार उभर कर आया है कि सर्वसमावेशी मूल्यों का दावा करने वाले अध्यापकगण भी जातिवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। कौशल पंवार ‘वर्दी’ कहानी में इसी सवाल को उठाती हैं कि शैक्षिक परिसरों में दलित समाज के छात्रों के साथ व्यापक स्तर पर भेदभाव किया जाता है। इस कहानी के पात्र रामसरुप की बेटी का नाम नेहा है। वह जिस स्कूल में पढ़ती है, वहां दलित बच्चों के लिए नीले रंग की और सवर्ण बच्चों के लिए गुलाबी और सफेद रंग की वर्दी है। वर्दी एक समान न होने के कारण दलित समाज के बच्चों को जाति सूचक शब्दों से पुकारा जाता है। नेहा अपने पिता से कहती है कि मेरी वर्दी का रंग नीला है, इसलिए मुझे स्कूल में सहेली ‘चूहडे’ कहकर मुझ पर हंसती हैं, यहां तक कि पानी भी पीने नहीं देती हैं। यह समय की विडंबना कहिए या जरुरत की रामसरुप अपनी बेटी की वर्दी के लिए मुर्दाघाट से सफेद कफन उठा लाता है। 

जातिवादी मानसिकता के चलते सवर्ण समाज की संवेदनाएं इस कदर निष्ठुर हो चुकी हैं कि वो दलितों के साथ उनके जानवरों को भी हिकारत भरी दृष्टि से देखते हैं। कौशल पंवार ‘लच्छो’ कहानी में बताती हैं कि जातिगत श्रेष्ठता के भाव ने मानवीय संवेदनाओं को भी कुंद कर डाला है। इस कहानी के पात्र रामबौत की एक सूअरी है, जिसका नाम लच्छो है। वह गांव के ही एक जमींदार की पराली में जाकर बच्चे जन्म देती है। उसका बच्चा जनना जमींदार को इतना बुरा लगता है कि वह उसके बच्चों पर लाठी से प्रहार कर देता है, जिससे लच्छो के चार नवजात बच्चों की मौत हो जाती है। इसके बाद वह रामबौत को भी जातिसूचक गलिया देता है। यह कहानी अपने उद्देश्य पर उस समय पहुंचती है, जब रामबौत की बेटी रमा सूअरी को लाते समय उसके स्कूल में पढ़ने वाला सतबीर देख लेता है। रमा जब स्कूल पहुंचती है तब सतबीर उसपर जातिगत टिप्पणियाँ करता है। वह कहता है कि ‘चूहड़ों ने उनके घर के चूल्हों में गंदगी फैला रखी है। इन्हें तो इनके घर के सूअरों, भेड़-बकरियों और मुर्गो के साथ-साथ जलाकर खत्म कर देना चाहिए जैसे गुहाना में किया गया था।’ यह जातिवादी मानसिकता और सवर्ण वर्चस्व ही है, जो जहां दलितों को हिकारत भरी दृष्टि से देखता है और अपने वर्चस्व को क़ायम करने के लिए दलितों के घरों को जलाने की बात करता है।

यह भी पढ़ें : दलित कहानियां और जातिवाद के बीहड़ इलाके (संदर्भ : ओमप्रकाश वाल्मीकि)

दलित स्त्रीवाद ने दलित स्त्री के शोषण के सवाल को जातिगत कारणों के आईने में देखा है। वहीं मुख्यधारा की स्त्रीवादियों ने जाति के सवाल को अपने विमर्श का केंद नहीं बनाया है। वहीं दलित स्त्रीवाद जाति व्यवस्था और पितृसत्ता दोनों को स्त्री शोषण की बुनियाद मानता है। यदि ऊँची जातियों की स्त्रियों के शोषण और हिंसा पर नज़र डाली जाए तो पता चलेगा कि उनका शोषण जाति के आधार पर नहीं बल्कि परिवार के वर्चस्व को कायम रखने तथा यौन नियंत्रण के तौर पर देखा गया है। वहीं दलित स्त्रियों के शोषण का सबसे ज्यादा खतरा कार्यस्थल और सार्वजनिक स्थानों पर रहता है। ‘जोहड़ी’ कहानी की बुनियाद इसी विमर्श पर रखी गई है कि दलित स्त्रियों का शोषण कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थानों पर किया जाता है। इस कहानी की मुख्य पात्र है बतेरी, जिसके गांव में जमींदारों की तूती बोलती है। गांव के अधिकांश दलित ईट के भट्ठों पर मेहनत मजदूरी करके अपना जीवनयापन करते हैं। ‘जोहड़ी’ गांव की धुरी है। इस सार्वजनिक जोहड़ी के पानी को उपयोग पहले दलित नहीं कर सकते थे। देश में संविधान की रोशनी जैसे फैली दलितों में प्रतिरोध की चेतना विकसित हुई। वे अब सार्वजनिक संपति में हिस्सेदारी के लिए गोलबंद हुए और इसमे सफलता भी मिली। बेतरी जोहड़ी के पानी का इस्तेमाल करने की हिम्मत भी दिखती है। गांव के जमींदार जूट की खेती करते हैं। वे अपनी खेती का सारा काम दलितों से करवाते हैं। जब उनके भठ्ठे और खेतों में दलित स्त्रियां मजदूरी करने जाती हैं तो जमीदार उन्हें कुदृष्टि से देखते हैं। एक दिन बतेरी जमींदार का सण धोने गयी थी। जमींदार उसे घूर रहा था। इसी दौरान बतेरी से जूट साफ करते समय जमींदार के ऊपर गंदा पानी चला गया। जमींदार ने उसे गलिया देते हुए दबोच लिया। बतेरी जमींदार की इस हरकत का माकूल जवाब देती है। बतेरी जिस दिलेरी से जमींदार का प्रतिरोध करती है, वह दलित स्त्री चेतना के प्रस्थान बिंदु की ओर इंगित करता है। दलित स्त्रीवाद जहां ब्राहमणवाद को चुनौती पेश की है, वहीं प्रगितिशीलता का मुखौटा ओढ़े लोगों को बेनकाब करने का काम भी किया है। 

कौशल पांवर की कहानियां दावा करती हैं कि शहर में उच्च शिक्षित लोग भी जातिवादी मानसिकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाये हैं। कौशल ‘स्पीड़ ब्रेकर’ कहानी में इस विमर्श को दिशा देती हैं कि प्रगतिशीलता का दावा करने वाले अपने चाल-चरित्र में जाति और अस्पृश्यता के समर्थक होते हैं। कहानी की पात्र नीना जिस कालेज में पढा़ती है। वहाँ उसके सहकर्मी प्रगतिशील विचारों के हैं। उसी कालेज में सफाई का काम करने वाली सुनेरी के हाथों की बनी चाय उन्हें पसंद नहीं है, क्योंकि सुनेरी दलित समुदाय से आती है। सुनेरी के बहाने से यह कहानी दलित स्त्रियों के साथ हो रहे जातिगत भेदभाव को उजागर करती है। ‘और पानी भींट गया’ कहानी अस्पृश्यता के भयावह मंजर को सामने रखती है। कहानी की नैरेटर के स्कूल में इसलिए हडकंप मच जाता है कि वह एक दिन अपने स्कूल की चपरासी जो कि दलित है, उसकी बोतल का पानी पी लेती है। इन कहानियों के निष्कर्ष बताते हैं कि ब्राह्मणवादी विचार समाज और देश को एकता के सूत्र में बाधने नहीं देता है। इसी विचार के चलते दलितों को अनेक दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है।  

इस प्रकार, कौशल पंवार की कहानियों का मूल स्वर आत्मकथात्मक और दलित स्त्रीवादी है। अनुभावजन्य अनुभूतियां की जमीन पर उनकी कहानियों में दलित स्त्रीवाद आकार लेता है। वे इस दलित स्त्रीवाद की रोशनी में भारतीय समाज के जातिवाद के बीहड़ इलाकों की शिनाख़्त होती हैं। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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