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जातिगत जनगणना और पब्लिक सेक्टर के बने रहने से देश में शक्ति का संतुलन होगा बराबर : प्रकाश आंबेडकर

अगर सुप्रीम कोर्ट ओबीसी आरक्षण में छेड़छाड़ नहीं करती तो शायद मेरे ख्याल से ओबीसी जाति-आधारित आरक्षण की मांग नहीं उठती और आगे केंद्र सरकार तय करती कि इनको कितना आरक्षण देना है। लेकिन अब तो यह आवश्यक हो गया है। पढ़ें प्रकाश आंबेडकर का यह साक्षात्कार 

जातिगत जनगणना की मांग अब पूरे देश में की जा रही है। पूर्व सांसद व वंचित बहुजन अघाड़ी के नेता प्रकाश आंबेडकर भी इसे अनिवार्य बताते हैं। वे यह बताते हैं कि यह एक निर्णायक दौर है जब ऊंची जातियों के लोग अपने आर्थिक वर्चस्व को हर हाल में कायम रखना चाहते हैं। वजह यह कि संविधान में आरक्षण के कारण संसद और प्रशासन में भागीदारी बढ़ी है। ऊंची जातियों के दबदबे को चुनौती मिली है। पब्लिक सेक्टर कंपनियों के निजीकरण के पीछे भाजपा की मंशा केवल और केवल ऊंची जातियों के हितों की रक्षा करने की है। पढ़ें फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार द्वारा दूरभाष पर प्रकाश आंबेडकर से किये गये साक्षात्कार का संपादित अंश 

जाति आधारित जनगणना की मांग की जा रही है। आपकी राय क्या है? 

(जोर देते हुए) जातिगत आंकड़े जरूर आने चाहिए। देखिए हमलोग आजकल आर्थिक क्रांति की बात करते हैं। जैसे– 1950 में कृषि क्रांति आई, फिर उसके बाद औद्योगिक क्रांति। हमारे देश की इकोनॉमी जाति आधारित इकोनामी है। ओबीसी की कई जातियों के लोग छोटे-छोटे बिजनेस करके अपनी जिंदगी गुजारते रहे हैं। जैसे एक जाति मल्लाह  है, जिसके लोग रस्सी बनाने का काम करते हैं। अब नाॅयलान की रस्सी आ गई। पुरानी प्राकृतिक रस्सी के बदले अब यह चलन में है। अब इस समाज को क्या हुआ? क्या यह अपने आप में बदलाव लाए? इस आर्थिक क्रांति में इनका जेनोसाइड (जनसंहार) हुआ है। इसकी जानकारी जरूरी है। जानकारी सामने आने के से उनका पुनर्वासन किया जा सकात है। ओबीसी की संख्या की वैधता न होने की वजह से सुप्रीम कोर्ट इनका आरक्षण खत्म कर रही हैं। इसलिए अब वैधानिक रूप से दिखाने के लिए यह जरूरी हो गया है कि इनकी जनसंख्या कितनी है? अगर सुप्रीम कोर्ट ओबीसी आरक्षण में छेड़छाड़ नहीं करती तो शायद मेरे ख्याल से ओबीसी जाति-आधारित आरक्षण की मांग नहीं उठती और आगे केंद्र सरकार तय करती कि इनको कितना आरक्षण देना है। लेकिन अब तो यह आवश्यक हो गया है। ओबीसी की संख्या तय न होने की वजह से इनका शिक्षा में आरक्षण तय नहीं हो पाया है। जिस तरह इनका राजनीतिक आरक्षण खत्म हुआ, वैसे ही शिक्षा में इनका आरक्षण खत्म होगा। इसी तरह रोजगार में आरक्षण पर भी रोक लग सकती है। इसलिए अब यह अनिवार्य हो गया है कि सरकार जाति-आधारित जनगणना कराकर इन्हें आरक्षण प्रदान करे। 

जाति आधारित जनगणना यदि हुई तो आंकड़ों के हिसाब से आरक्षण और हिस्सेदारी को लेकर सवाल उठेंगे। आप क्या कहेंगे?

यहां आपको समझना होगा कि आरक्षण की नीति कोई विकास की नीति नहीं है। जब देश में संविधान बना और आरक्षण की नीति बनायी जा रही थी तो इसका उद्देश्य वंचितों को आश्वस्त करना था कि पुराने जमाने में, राजा-महाराजाओं के जमाने में आपको कहीं भी, प्रशासनिक हो या सैनिक विभाग में, आपके लिए जगह नहीं थी, लेकिन अब जो राज्य बनने जा रहा है, उस राज्य में आपकी भागीदारी होगी। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए यह कहा गया कि आपका आरक्षण जनसंख्या के बराबर होगा। इसलिए आरक्षण एक आश्वासन है कि शासन-प्रशासन में भागीदारी देने के मामले में आपकी उपेक्षा नहीं की जाएगी। यह लोकतंत्र में जगह देने का मुद्दा है। विकास का मुद्दा नहीं है। अगर आपको विकास का मुद्दा बनाना है तो अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों में किस तरह के आर्थिक परिवर्तन आये हैं, इसका डेटा जमा करना होगा। नहीं तो लोग सोचेंगे कि विकास हो रहा है। आप यह सोचिए, जिनका रस्सी से संबंध नहीं था, वे रस्सी बना रहे हैं। जिसका खानदानी संबंध रस्सी से संबंध था, वह अब रास्ते पर आ गया है। वही अब चमड़े की हालत हो गयी है। जिसका संबंध चमड़े से नहीं था, अब वह चमड़ा उद्योग का मालिक बन चुका है। जिसका चमड़ा से संबंध था, वह रास्ते पर आकर भीख मांग रहा है। तो आरक्षण की यह व्यवस्था लोकतंत्र को बचाने के लिए है। इसलिए जातिगत जनगणना कराना बहुत जरूरी है।

प्रकाश आंबेडकर, पूर्व सांसद व राष्ट्रीय अध्यक्ष वंचित बहुजन अघाड़ी

आपने शासन-प्रशासन में भागीदारी की बात कही। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को तो शुरू से आरक्षण दिया जा रहा है। फिर भी बहुत सारे पद खाली रह जाते हैं, उनको भरा नहीं जाता है।

देखिए, हमारे यहां जो व्यवस्था बनाई गई, उसके तहत ही हमें अधिकार मिले हैं। अब सिस्टम को चलाना, लागू करना, उसको दोहराना, उसको दौड़ाना और भगाना है, उसके जो लाभार्थी हैं, उनकी जिम्मेदारी है। आप सिस्टम को दोष नहीं दे सकते। जैसाकि बाबासाहेब ने कहा कि संविधान तो हमलोगों ने बना दिया, यह अच्छा या बुरा है, यह चलाने वाले पर निर्भर करेगा। चलाने वाले की नीयत साफ रही तो अच्छा है। चलाने वाले की नीयत अगर गंदी है तो वह संविधान को दोष देगा। वैसे ही आपको अधिकार मिला है, अधिकार का लाभ लेना और नहीं लेना व्यक्ति पर निर्भर करता है। 

यह भी पढ़ें – जातिगत जनगणना से मंडल-2 का आगाज : संजय कुमार

जातिगत जनगणना का ऊंची जातियों के लोग विरोध क्यों करते दीख रहे हैं?

मेरा मानना है कि जाति जनगणना से देश में शक्ति का संतुलन बराबर हो जाएगा। ये [ऊंची जातियों के लोग] बराबर करने की प्रक्रिया से काफी डरते हैं। अभी ओबीसी की जनगणना को लेकर जो लोग आंदोलन कर रहे हैं, उन्हें इस बात पर गौर करना चाहिए कि ये [केंद्र सरकार] पब्लिक सेक्टर की कंपनियां बेच रही है। इसके खिलाफ भी आवाज उठाना चाहिए क्योंकि जब शक्ति के संतुलन की प्रक्रिया शुरू होगी तो यह सवाल महत्वपूर्ण होगा। मेरा मानना है कि भारत में बदलाव 1980 से शुरू हुआ और 1990 में गतिमान हुआ। 1990 में विदेशी व्यापार भुगतान घाटा हुआ था। वह जानबूझकर हुआ था। यह सोची-समझी साजिश के तहत हुआ था। इस घाटे को पूरा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से फंड लिया गया। उसी समय अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से कहा गया कि हमारे यहां इतनी पाबंदियां लगायी जाए ताकि हमलोगों को बता सकें कि इस फंड को इस्तेमाल करने, नामित या आवंटित करने के लिए अर्थव्यवस्था को खोलना होगा। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने यह कहीं भी नहीं कहा कि तुम सरकारी चीजों को बेचो। उन्होंने तो इतना ही कहा कि तुम अर्थव्यवस्था को खोलो। अर्थव्यवस्था खोलने का मतलब जो सेक्टर आपने पब्लिक सेक्टर के लिए रखा था उसमें पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर दोनों काम करेंगे। प्रतिस्पर्धा में जो बचेगा, वह आगे बढ़ता रहेगा। लेकिन उस अर्थव्यवस्था के नाम पर इन्होंने [सरकार ने] सीधे-सीधे पब्लिक सेक्टर को बेचने की शुरुआत की। और संसद के पास पब्लिक सेक्टर के रूप में जो आर्थिक शक्ति थी, उसे कम करने की कोशिश की गयी और आज तो उसको खत्म करने की कोशिश चल रही है। ताकि अगर वंचित तबका संसद में समुचित भागीदारी पा गया तब भी आर्थिक सवर्णों के पास वापस जाये। वे राजनीतिक शक्ति से हाथ धो लिए समुचित भागीदारी की वजह से लेकिन आर्थिक की वजह से उन्होंने अपना वर्चस्व दुबारा स्थापित किया। निजीकरण के पीछे बीजेपी की यही चाल है और कांग्रेस की भी चाल थी। निजीकरण का मतलब ही था कि सवर्णों को आर्थिक दृष्टिकोण से सक्षम बनाया जाए। 

एक बात और अगर इनको [सरकार को] पब्लिक सेक्टर में पैसा लाना है तो उसका अलग तरीका भी हो सकता है। जैसे वे भारत पेट्रोलियम को बेच रहे हैं, अगर उसके पब्लिक शेयर निकालें तब आम आदमी भी उसका शेयर खरीदेगा। दूसरा तरीका है पीएम केयर्स फंड । हम पब्लिक सेक्टर को क्यों डूबने दें। जाहिर सी बात है कि संसाधनों पर कब्जा ऊंची जातियों के पास, सवर्णों के पास है तो पब्लिक सेक्टर को वही खरीदेगा।  

सवर्णों द्वारा आर्थिक वर्चस्व बनाये रखने की कोशिश चलती रही है? लेकिन क्या अब इसे निर्णायक कोशिश मानी जाय?

(स्वीकार करते हुए) ये तो है ही, लेकिन यहां ओबीसी के लोगों को एक नारा लगाना चाहिए कि तुमको प्राइवेट करना है तो कर लो, लेकिन हमलोग दुबारा राज में आएंगे तो हमलोग दुबारा सरकारीकरण करेंगे। जिस दाम में आपने खरीदा है, उस दाम में हम खरीदेंगे। 

(संपादन : इमानुद्दीन/अनिल)

 

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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