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‘मदर इंडिया’ और नवजागरण कालीन द्विजवादी विलाप

हिंदू सुधारक और लेखक जिन बातों पर पर्दा डालते आ रहे थे और अपनी धर्म संस्कृति का पवित्र हिस्सा मानते थे, कैथरीन मेयो ने उस हिंदू पवित्रता को उघाड़ कर रख दिया। कैथरीन ने ‘मदर इंडिया’ में स्त्रियों और अछूतों की दयनीय अवस्था की जो तस्वीर पेश की थी, उससे हिंदी के लेखकगण और संपादक बेहद खफ़ा दिखे । बता रहे हैं सुरेश कुमार

औपनिवेशिक भारत में बीसवीं सदी का दूसरा दशक सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और अस्मितावादी सरगर्मी से भरा रहा है। 1920-21 में जहां असहयोग आंदोलन ने अंग्रेजों में खलबली मचा रखी थी, वहीं बाबा रामचन्द्र और मदारी पासी के किसान आंदोलन ने जमींदारों के होश उड़ा दिये थे। इसी दशक में साहित्यिक क्षेत्र में ‘चाँद’, ‘माधुरी’, ‘सुधा’, ‘विशाल भारत’, ‘मनोरमा’, ‘त्यागभूमि’ आदि स्वाधीनतावादी चेतना से लैस पत्रिकाओं का उदय हुआ था। वर्ष 1920 में ही उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द के अस्मितावादी दलित आंदोलन का उदय हुआ, जिसने बहुजनों को गोलबंद करके सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए चेतना पैदा कर दी थी। वर्ष 1920 में स्वराज की मांग ने ब्रिटिश शासकों के भीतर खलबली मचा दी थी, वहीं वर्ष 1921 की जनगणना के आकड़ों ने हिंदू धर्म सुधारकों और लेखकों को चिंता में डाल दिया था। वजह यह कि 1911 से लेकर 1921 तक की मनुष्य-गणना में साढ़े आठ लाख हिंदू घट गये थे। हिंदुओं की घटती संख्या पर हिंदी नवजागरणकाल के सपांदक और लेखक चिंतित हो गए थे। हिंदुओं के सामाजिक बंधनों और भेदभाव से तंग आकार अछूत अपनी मुक्ति धर्मांतरण में तलाशने लगे थे। वर्ष 1927 में साइमन कमीशन के आगमन की आहट ने जहां एक ओर हिंदू सुधारकों की चिंताएँ बढ़ा दी थी, वहीं दूसरी ओर दलित समाज के सुधारकों ने अछूतों को हिंदू धर्म के दायरे से बाहर निकालने की क़वायद शुरू कर दी थी।

हिन्दी लेखकों और संपादकों की नज़र में ‘मदर इंडिया’

बीसवीं सदी के दूसरे दशक की इन्हीं सामाजिक, राजनैतिक और साहित्यिक गतिविधियों के बीच सुश्री कैथरीन मेयो की किताब ‘मदर इंडिया’ (मई, 1927) प्रकाशित हुई। यह किताब प्रकाशित होते ही हिंदू सुधारकों और लेखकों के बीच भयंकर कोलाहल मच गया था। हिंदू सुधारक और लेखक जिन बातों पर पर्दा डालते आ रहे थे और अपनी धर्म संस्कृति का पवित्र हिस्सा मानते थे, कैथरीन मेयो ने उस हिंदू पवित्रता को उघाड़ कर रख दिया। कैथरीन ने ‘मदर इंडिया’ में स्त्रियों और अछूतों की दयनीय अवस्था की जो तस्वीर पेश की थी, उससे हिंदी के लेखकगण और संपादक बेहद खफ़ा दिखे । हिंदी लेखकों का कहना था कि मिस कैथरीन मेयो ने भारत की स्त्रियों और अछूतों की जो दयनीय तस्वीर ‘मदर इंडिया’ में प्रस्तुत की है, उससे भारत की छवि को बड़ा धक्का पहुंचा है। दिलचस्प बात यह है कि जो हिंदू धर्म सुधारक और लेखक ‘स्त्री समर्थक’ होने का दावा करते थे, वही ‘मदर इंडिया’ के खिलाफ अपनी पत्र-पत्रिकाओं में मोर्चा खोलते नज़र आये। वर्ष 1928 में इस किताब का पहला हिंदी अनुवाद ‘मदर-इंडिया’ शीर्षक से इलाहाबाद, हिंदुस्तानी प्रेस, प्रयाग से प्रकाशित हुआ था। इस अनुदित किताब की एक लंबी भूमिका नवजागरणकाल की जानी-मानी लेखिका श्रीमती उमा नेहरू ने लिखी थी। करीब सौ साल बाद वर्ष 2018 में ‘मदर इंडिया’ का दलित चिंतक कंवल भारती द्वारा अनुदित दूसरा हिंदी अनुवाद फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है।

उमा नेहरू का मानना था कि मिस कैथरीन की “मदर इंडिया” किताब का प्रकाशित होना हमारे राजनैतिक जीवन की महत्वपूर्ण घटना है। इस किताब के हवाले से अंग्रेजों ने मिस कैथरीन मेयो जैसी चित्रकार से भारत का चित्र उतरवाकर संसार के सामने भारत बंधुओं और सुधारकों को बदनाम किया है। उमा नेहरू ने मिस कैथरीन को अंग्रेजों से अदावत निभाने वाली और उनकी मुखपात्र बताया। इसके बाद उन्होंने कैथरीन की तुलना गिद्ध से करते हुए कहा कि जो चित्र हमारे देश का संसार के सामने रखा गया है, उसे देखकर पश्चिमीय जातियां तो क्या स्वयं हमारे ही रोंगटे खड़े हो जाते है। जिस प्रकार एक गिद्ध, आकाश से नीचे की ओर देखता है, परन्तु पृथ्वी पर फैले हुये सहस्रों विशाल वृक्ष, लाखों सुगन्धमय अलौकिक रंगों में रंगे हुये फूल, और अनेकानेक रोचक, स्वादिष्ट तथा स्वास्थ्यमय मेवे और फल, कोई भी इसे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते, किन्तु इसकी नज़र जहां किसी मुर्दा जानवर या इन्सान की लाश पर पड़ी, तुरन्त अपने परों को समेट गिरते- हुये लाहे के गोले के समान धरती की ओर टूट पड़ता है और अपनी मनोकामना पाकर जिस रस, जिस स्वाद, जिस रोचकता के साथ उसके दुर्गन्धपूर्ण गोश्त और सड़े हुये पुट्ठों को नोंच-नोंच कर खाता है, इसी प्रकार “मदर इण्डिया” की जननी ने अपनी बिरादरी वालों से प्रोत्साहन लेकर भारत की कल्पित तथा वास्तविक घृणामय समस्याओं को ढूंढ-ढूंढ कर भयानक, और विचित्र रसिकता के साथ वर्णित किया है।[1]

फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित “मदर इंडिया” का आवरण पृष्ठ व कैथरीन मेयो की तस्वीर

उमा नेहरू ने अन्य हिंदू धर्म सुधारकों की तरह ही मिस कैथरीन मेयो पर यह आरोप लगाया कि यह किताब राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लिखी गई है। लेखिका उमा नेहरू को यह भय था कि इस किताब के आने के बाद पश्चिमी देशों की भारत के प्रति जो सहानुभूति बनी है, वह अब पहले जैसी नहीं रहेगी। उमा नेहरू का दावा था कि यह किताब आने वाले अंग्रेजी चुनाव में लेबर पार्टी को मिटाने की जबरदस्त चाल है। लेबर पार्टी के नेता भारत के प्रति सहानुभूति रखते थे। इस किताब को पढ़ने के बाद शायद लेबर पार्टी के नेता पहले जैसी भारतीय सुधारकों के प्रति सहानुभूति न रखें। उमा नेहरू “मदर इंडिया” के हवाले से हिंदू सुधारकों के ढोंग को समझने के बजाए, वे इस किताब को अंग्रेजों की साज़िश क़रार देती हैं। उनका कहना था कि ‘जो स्त्री प्रांतीय गवर्नर और सूबे के बड़े अफसरों की मेहमान रही हो, जो सीआईडी द्वारा हिंदुस्तानी खास-खास लोगों ले मिली हो, ऐसी स्त्री को इस पुस्तक की वास्तविक जन्मदाता समझना गलती है। अंग्रेजों ने उस स्त्री की ओट लेकर हिंदुस्तान को जान-बूझकर बदनाम करवाया है। उमा नेहरू यह जानती थीं कि भारत में अछूतों और स्त्रियों की दशा अत्यंत सोचनीय है और इसकी जिम्मेदार हिंदू-व्यवस्था और पवित्रता है, लेकिन उनका हिंदू मन मिस कैथरीन मेयो की बातों को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। वे पूरी तरह से मिस कैथरीन मेयो की तीखा आलोचना करती नज़र आईं। महत्वपूर्ण यह कि उमा नेहरू की कवायदें और सारे कयास मिस कैथरीन मेयो के तर्कों की कोई सटीक काट प्रस्तुत नहीं कर सके थे।

रामरख सिंह सहगल हिंदी नवजागरण के स्त्री पक्षधर संपादक थे। वे “चाँद” पत्रिका के उद्भावक और संपादक भी थे। यह पत्रिका तब सामाजिक कुरीतियों पर बड़ा तीखा प्रहार करने के लिए मशहूर थी। बड़ी मज़े की बात यह कि रामरख सिंह सहगल ने चाँद, नवंबर 1927 के अंक में ‘भारत-माता’ शीर्षक से संपादकीय लिखा था। इस संपादकीय में उन्होंने ‘मदर इंडिया’ का बड़ा तीखा विरोध किया था। उनकी दृष्टि में कैथरीन की किताब पर चर्चा करने से कुमारी कैथरीन मेयो जैसी अल्हड़ महिलाओं का महत्व ही बढ़ रहा है। उनका मत था कि हमारे हृदय में न तो कुमारी कैथरीन मेयो के लिए, और ना ही उसकी ‘मदर इंडिया’ पुस्तक के लिए ही कुछ महत्व है। हाँ, ‘मदर इंडिया’ में हमें कुमारी जी के व्यक्तिगत आचरण और व्यक्तिगत भावनाओं का दूषित परिचय जरूर मिलता है…।[2] इस वक्तव्य के पीछे इस संपादक की मंशा थी कि हिंदू स्त्रियों के मन में मिस कैथरीन मेयो और उनकी किताब ‘मदर इंडिया’ के प्रति रोष और घृणा पैदा कर दी जाए। यदि उच्च श्रेणी हिंदू स्त्रियाँ कैथरीन से प्रेरणा लेकर कहीं अपनी दशा और व्यथा के बारे में लिखने लगेंगी तो मिस कैथरीन की बातों को बल मिलेगा। इसीलिए रामरखसिंह सहगल ने कहा कि कुमारी कैथरीन मेयो ने अपनी किताब में भारतवासियों का जो दयनीय चित्रण किया है, वह काफी हद तक निराधार और अनुभवहीनता पर आधारित है। उसमें किसी प्रकार की ज्यादा सच्चाई नहीं है। वे लिखते हैं कि कुमारी जी ने अपनी पुस्तक में भारतवासियों की जिस भयानक और दयनीय स्थिति का चित्र खींचा है, वह बहुत हद तक निराधार और अनुभव-हीनता से पूर्ण है। कुमारी जी केवल इस अभागे देश में चार महीने रह सकी थी, और इसी छोटी अवधि में उन्होंने भारतीय चरित्र, भारतीय प्रकृति, भारतीय आदर्श एवं भारतीय नैतिकता का पूर्ण अध्ययन कर लिया। इस अध्ययन के बल पर ही उन्होंने ‘भारत-माता’ नामक दूषित पुस्तक लिखी है।[3]

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हिंदू धर्म सुधारक मंचों पर भले ही स्त्रियों को लेकर सुनहरे भाषण दिए जाते थे, लेकिन स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को सुधारने का कोई ठोस समाधान उनके पास नहीं था। हिंदुओं ने अपनी छवि दयावान, मुंसिफ़ और स्त्री हितैषी का गढ़ रखी थी। मिस मेयो कैथरीन मेयो अपनी किताब में हिंदू धर्मसुधारकों और लेखकों का चरित्र एकदम उघाड़ कर रख देती है। इसलिए अधिकांश लेखकों ने एक स्वर में कहा कि कैथरीन मेयो ने अखिल संसार में हिंदू समाज को कलंकित करने का काम किया है। रामरखसिंह सहगल ने लिखा था कि हम कुमारी जी की शुभ-कामनाओं के लिए बहुत अनुगृहीत हैं, पर हमारा तो कहना केवल यही है कि निराधार कल्पनाओं पर, निर्मूल विचारों पर और इने-गिने उदाहरणों पर कुमारी जी ने अखिल भारतीय समाज और विशेषकर अखिल हिंदू समाज को संसार के सम्मुख कलकित्त करने का प्रयत्न कर वास्तव में अपने समाज को हमारी निगाहों में गिराने की कोशिश की है। रामरखसिंह सहगल ने कैथरीन को दूषित रक्त, दूषित दिमाग और दूषित चरित्र वाली भी बताने से भी गुरेज नहीं किया और मदर इंडिया किताब को दूषित विचारों की उपज करार दिया था। इस संपादक ने अपने संपादकीय टिप्पणी में लिखा था– “सारांश यह कि हमारी दृष्टि में ‘मारत-माता’ एक दूषित रक्त, दूषित मस्तिष्क, दूषित हृदय एवं दूषित नैतिकता की ही उपज है; और हमारा विश्वास है कि अपनी व्यक्तिगत नैतिकता के घृणित पतन में ही कुमारी मेयो ने भारतीयतीत्व पर आक्रमण किया है । ‘भारत माता’ की वृहद् समालोचना इस छोटे स्थान पर असम्भव है। उसकी समालोचना के लिए तो उससे दस गुनी बड़ी पुस्तक भी पर्याप्त नहीं होगी।”[4]

‘माधुरी’ पत्रिका के संपादकद्वय पंडित कृष्णविहारी मिश्र और प्रेमचंद ने ‘मदर इंडिया’ पर अपनी संपादकीय टिप्पणी लिखी थी। माधुरी के संपादकों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि मिस कैथरीन ‘मदर इंडिया’ किताब लिखकर उपकार कम अन्याय ज्यादा किया है। मिस कैथरीन का अन्याय यह है कि भारत की वर्तमान कुदशा का सारा दोष हिंदुओं के सिर मढ़ दिया है। वहीं ‘माधुरी’ के संपादकीय में इस बात को स्वीकार किया गया कि मिस कैथरीन की आलोचना कठोर और एकांगी भले हो, लेकिन वह सत्य के काफी करीब है। ‘माधुरी’ के संपादकों का दावा था कि मिस कैथरीन ने यह किताब राजनैतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए लिखी है। उन्होंने मिस कैथरीन से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए लिखा था-“यदि मिस मेयो ने भारतीय समाज के उद्धार के उद्देशय से यह पुस्तक लिखी होती, तो हम उनका यश मानते; पर उनका राजनैतिक उद्देश्य यह मालूम होता है कि भारत की बुराइयां दिखाकर उसे स्वराज्य के अयोग्य सिद्ध करें। यही कारण है कि जिन बुराइयों का दायित्व भारतीय बहुमत पर है, उनकी तो बड़ी निर्दयता से आलोचना की गई है और जिन बातों की ज़िम्मेदारी अंग्रेजी सरकार पर है, उनकी चर्चा ही नहीं की गई।”[5]

हिन्दी लेखकों और समाज सुधारकों का मानना था कि मिस कैथरीन ने ब्रिटिश शासन की आलोचना अपनी किताब में क्यों नहीं की? भारत की इस वर्तमान अवस्था का जिम्मेदार हिंदुओं को ही क्यों ठहरा दिया गया?

रामरखसिंह सहगल की तरह ही ‘मदर इंडिया’ की तीखी आलोचना ‘मनोरमा’ के संपादक भक्तशिरोमणि ने की थी। ‘मनोरमा’ पत्रिका बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग से प्रकाशित होती थी। संत साहित्य को सामने लाने में बेलवेडियर प्रेस की अग्रणी भूमिका रही है। ‘मनोरमा’ मुख्य रूप से स्त्री केन्द्रित पत्रिका थी। भक्तशिरोमणि ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में इस बात पर ज़ोर दिया कि मिस कैथरीन ने अपनी पुस्तक में भारतीयों पर जो नीच आरोप लगाए हैं, उनसे राजनीति की दुर्गंध आती है। इसलिए उनकी मिथ्या बातों को यह राष्ट्र स्वीकार नहीं कर सकता है। संपादक भक्तशिरोमणि इस बात से काफी आहत थे कि मिस कैथरीन ने गांधी की मंशा पर प्रश्न क्यों खड़ा किया है। इस संपादक का मत था कि हिंदुओं का गौरव बड़े-बड़े साम्राज्य नहीं मिटा सके तो मिस कैथरीन जैसी साधारण महिला की हैसियत क्या है? भक्तशिरोमणि ने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा था– “मिस मेयो की ‘भारतमाता’ से कुछ स्वार्थी और भारत को कुचलने वाले लोगों को थोड़ी देर के लिए भले ही कुछ तसल्ली हो जावे, लेकिन भारतीय स्वत्व तथा गौरव को नहीं मिटाया जा सकता। हिन्दुओं का गौरव बड़े-बड़े साम्राज्य नही मिटा सके, बल्कि देखते-देखते वे स्वयं लोप हो गये, तो मिस मेयो जैसी साधारण औरत ऊटपटांग बात लिखकर हिन्दुओं तथा भारत का कुछ नहीं बिगाड़ सकती।”[6]

सुधा पत्रिका के संपादक दुलारेलल भार्गव ने ‘मदर इंडिया’ का बड़ा ज़ोरदार विरोध किया था। इन्होंने अपना विरोध ‘सुधा’ पत्रिका में संपादकीय लिखकर प्रकट किया था। मदर इंडिया पर इनकी राय अन्य लेखकों और संपादकों से ज़ुदा नहीं थी। इनका भी कहना था कि मिस कैथरीन ने भारतीयों का मिथ्या चित्रण कर हिंदुओं को संसार के सामने बर्बर सिद्ध किया है। दुलारेलाल भार्गव का मत था कि ‘मदर इंडिया’ अंग्रेजों की कुटिल मनोवृति और राजनैतिक चाल की उपज है। इस संपादक ने अपने संपादकीय में यह बात उठाई कि कुमारी कैथरीन भारत की शत्रु सिड्नहम-पार्टी की अनुयायी हैं, इसीलिए उन्होंने हिंदुओं पर अपना विष उड़ेला है। दुलारेलाल भार्गव की नज़र में ‘मदर इंडिया’ एक सारहीन किताब थी। इनके कहने का अर्थ यह था कि हिंदू समाज के लिए यह पुस्तक किसी काम की नहीं है। इस संपादक ने कहा कि मिस कैथरीन को भारत पर सवाल उठाने से पहले उन्हें अमेरिका-माता के गिरेबान में झांककर देखना चाहिए था कि भारत माता से कितनी गई गुजरी है। दुलारेलाल भार्गव लिखते हैं– “मिस कैथरीन के इन आक्षेपों में तो कोई सार नहीं है । हाँ, गालियाँ देने का तरीका जरूर ‘सभ्य’ है, भले ही गालियाँ नई न हों। हमारी समझ में मनुष्य को दूसरे की आँख की फूली निहारने के पहले अपना टेंटर ज़रूर देख लेना चाहिए-अपना घर देखकर फिर दूसरों के घरों पर आक्षेप करना चाहिए । मिस मेयो ने इतनी भूल कर दी। यदि समझ से काम लेतीं, तो उन्हें मालूम हो जाता कि योरप पिता और अमेरिका माता इस दिशा में आज भी, भारत माता से कहीं ज़्यादा, गए- गुज़रे हैं। हमारा ख़याल है कि ऐसी पुस्तक लिखकर मिस मेयो ने अपना ही उपहास कराया है । ऐसी बातों का सामूहिक प्रतिवाद किया जाना चाहिए।”[7]

दुलारेलाल भार्गव ने दो-तीन अंकों के बाद सुधा में फिर से मदर इंडिया पर संपादकीय लिखा था। इस संपादकीय में मिस कैथरीन की इस बात का जवाब दिया गया कि भारतीय पुरुष बल-पौरुष से हीन नहीं होते हैं। दरअसल, मिस कैथरीन ने अपनी किताब में यह सवाल उठाया था कि भारत में अधिकांश पुरुष अपनी युवा अवस्था तक आते-आते पतित होकर पौरुषहीन जाते है। इस सवाल से दुलारे लाल भार्गव काफी आहत हुए क्योंकि यह सीधा हमला भारतीय पुरुष के पुरुषतत्व से जुड़ा हुआ था। दुलारे लाल भार्गव ने मिस कैथरीन पर बचकाना सवाल उठाते हुए लिखा था कि वह ‘ब्रह्मचारिणी’, ‘निष्ठावती’ कुमारी कैसी, जो यौन-मनोविज्ञान के संबंध में सत्य की खोज के नाम पर इन घृणित (साथ ही घोर मिथ्या) विषयों की चर्चा में लीन रहे! समझ में नहीं आता कि अपने को ‘व्यभिचार-प्रूफ’ बतलाने वाली इस प्रकार की स्त्रियाँ क्योंकर इस बात का पता लगा लेती हैं कि कोई पुरुष पुंसक है या नपुंसक! इसमें संदेह नहीं कि हमारा देश आज तामसिक मोह से आच्छन्न होकर नपुंसक बना है। नहीं तो एक तुच्छ रमणी उसे गालियाँ देकर, उसके मुँह पर थूककर संसार में इतना हल्ला मचाने और ‘प्रसिद्धि’ पाने में समर्थ न होती। तथापि जिस दृष्टि से यह रमणी-कुल-रत्न यहाँ के लोगों को पुरुषत्वहीन बतलाती है, वह सर्वथा मिथ्या है।[8]

नवजागरण कालीन हिंदी लेखकों ने मिस कैथरीन की आलोचना करने में भाषा का भी ख़याल नहीं रखा था। लेखक लाला कन्नोमल एम.ए. ने ‘भारत में स्त्री-जाति’ शीर्षक से एक लेख ‘चाँद’ पत्रिका में लिखा था। इस लेख में कन्नोमल ने पहले तो हिंदू स्त्रियों को देवी की उपाधि से संबोधित किया और फिर, कैथरीन को उपद्रवी, चरित्रहीन और कलंकी बताया। लाला कन्नोमल लिखते हैं, “हाल में ही एक अमेरिका की कॉरी बुढ़िया ने भारतवर्ष पर एक पुस्तक लिखी है, जिसका नाम ‘मदर इंडिया’ रक्खा है। इसमें उस प्रगल्भा ने मन भर भारत के नर-नारियों को कोसा है, और उन्हें पशुओं से भी नीचा समझा है। क्या इस बुढ़िया अक्षत-योनि को मालूम नहीं है कि उसके देश में क्या हो रहा है। बाबू शिवप्रसाद गुप्त की ‘पृथिवी-प्रदक्षिणा’ नामक पुस्तक में अमेरिका का हाल पढ़िए। उसमें लिखा है कि वहाँ नग्न स्त्रियों का नाच बहुत पसंद है, और जिन स्थानों में यह होता है, वहाँ बड़ी भीड़ होती है। आप यह भी लिखते हैं कि वहाँ काले मनुष्यों के साथ दिन-दहाड़े पाशविक अत्याचार होते हैं– विचारे नीग्रों को तो नंगा करके वृक्षों से उलटा टांग देते हैं, और यह जबतक उनकी जान न निकल जाय, मारते रहते हैं। ऐसे देश की एक मनचली छोकरी या बुढ़िया, जो अपने को अक्षत-योनि बताती है, हमारे देश की देवियों के चरित्र पर कलंक लगाती है। वह झूठी है, उपद्रवी है और स्वार्थ के लिए धर्म खोती है।”[9]

चाँद, जून 1929 , वर्ष : 7, खंड : 2,संख्या : 2

बड़ी मज़े की बात यह कि लाला कन्नोमल आध्यात्मिक लेखक थे। उन्होंने गीता दर्शन और योगदर्शन पर किताबें भी लिखी थी। मिस कैथरीन यही बात तो अपनी किताब में कह रही थी कि भारत के पांडे, पुजारी और धर्मगुरु स्त्रियों का सम्मान करना नहीं जानते हैं।

हिंदी नवजागरणकालीन लेखकों का एक स्वर में कहना था कि कैथरीन ने ‘मदर इंडिया’ हिंदुओं को बर्बर और असभ्य दिखाने कि मंशा से लिखी है। कैथरीन ने अछूतों और स्त्रियों के साथ जो सामाजिक अत्याचार हो रहा था, उसे बड़ी बेबाकी से उजागर किया था। हिंदे सुधारकों ने स्त्रियों कि ‘देवी’ वाली जो छवि गढ़ रखी थी, उसके विपरीत छवि कैथरीन अपनी किताब में प्रस्तुत की थी। कैथरीन की किताब प्रकाशित होने के बाद लेखकों को इस बात का भय सता रहा थी कि दूसरे देश के सामने उनकी सुधारक और दयावान वाली छवि को काफी नुकसान होगा। रघुवरप्रसाद द्विवेदी ने अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहा कि इस पुस्तक के प्रकाशित होने से हमको बड़ी हानि हुई है। योरप और अमेरिका तथा अन्य सभी देश, इस पुस्तक को पढ़कर हमें अत्यंत नीच समझेंगे, और इन देशों में हमारा मान और भी अधिक घटेगा। वैसे ही हमारे रहन-सहन का ढंग देख, दक्षिण अफ्रीका आदि के उपनिवेशों में हम अछूतों के समान समझे जाते थे। अब इस पुस्तक में जो विष उगला गया है, उसका असर बहुत बुरा पड़ेगा। हम अपने को बहुत ही अच्छा क्यों न समझे; पर दूसरे लोग यदि हमको महा भ्रष्ट और बर्बर जातियों से भी बुरा समझेंगे, तो हमारी उन्नति में बाधा पड़े बिना न रहेगी। इसलिये हमें निष्पक्ष होकर देखना चाहिए कि क्या हममें सचमुच कोई त्रुटियाँ हैं, जिनके कारण हमारा यह अनादर है? क्या मिस के. मेयो की बताई हुई त्रुटियाँ हममें हैं या नहीं और यदि हैं, तो उनको शीघ्र ही दूर कर लेना हमारा कर्तव्य है, अथवा नहीं।”[10]

मदर इंडिया का प्रभाव  

मिस कैथरीन मेयो की ‘मदर इंडिया’ प्रकाशित होने के बाद हिंदी लेखकों और संपादकों ने अपनी पत्र-पत्रिकाओं में अछूत और स्त्री समस्या को उठाने लगे थे। हिंदी लेखक अछूतों के लिए देवदर्शन और कुआँ से पानी भरने का मुद्दा अपने लेखन में उठाते नज़र आए। खुद रामरखसिंह सहगल ने ‘चाँद’ पत्रिका में बालविवाह और अस्पृस्यता पर कुठराघात करते नज़र आए। बाल विवाह और जातिप्रथा को लेकर कई संपादकीय ‘चाँद’ पत्रिका में लिखे गए थे। वर्ष 1928 में आनंदी प्रसाद श्रीवास्तव का ‘अछूत’ नाटक प्रकाशित हुआ था। इस नाटक में मंदिर से लेकर कुआं में पानी भरने के अधिकार का मुद्दा उठाया गया था। कांग्रेस ने भी अपने एजेंडा में अस्पृस्यता निवारण का मुद्दा जोड़ लिया था। वर्ष 1929 में कांग्रेस ने अछूत समस्या के समाधान के लिए एक अछूतोद्धार सभा बनायी थी। इस अस्पृस्यता निवारण के सर्वेसर्वा पंडित मदनमोहन मालवीय और सेठ जमनालाल बजाज को बनाया गया था। इस अस्पृस्यता निवारण समिति ने ब्रिटिश शासकों को यह दिखाने का भरपूर प्रयास किया कि हिंदू समाज सुधारक अछूत समस्या को हल करने का प्रयास कर रहे हैं।

 निष्कर्ष

बहरहाल, भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो ‘मदर इंडिया’ का प्रकाशित होना किसी घटना से कम नहीं था। मिस कैथरीन ने बाल विवाह से लेकर प्रसूति गृह तक हिंदू स्त्रियों को जिन भयंकर कठिनाइयों में जीवन व्यतीत करना पड़ता था, उसका विषद और दिल दहलाने वाला वर्णन किया है। मिस कैथरीन का दावा था कि हिंदू स्त्रियों को भले ही देवी का दर्जा प्राप्त है, लेकिन उनकी वास्तविक स्थिति काफी दयनीय और दुश्वारीयों से भरी थी। मिस कैथरीन ने स्त्रियों की वास्तविक दशा की ओर सुधारकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इस किताब का नाम ‘मदर इंडिया’ रखा था। इस किताब का दावा था कि भारत में अछूत सभी तरह के अधिकारों से वंचित है। यहां तक कि उच्च श्रेणी के हिंदू उन्हें मनुष्य ही नहीं समझते हैं। उनके ऊपर असीम अत्याचार और जुल्म करते हैं। औपनिवेशिक भारत की यह किताब हिंदुओं की बड़ी कटु आलोचना प्रस्तुत करती है, जिसकी हिंदू धर्म सुधारकों ने कल्पना शायद ही की थी। यह किताब दावा करती थी कि उच्च श्रेणी के हिंदू स्वराज लायक नहीं हैं, क्योंकि वे अछूतों और स्त्रियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहर करते हैं। मिस कैथरीन की इस तीखी आलोचना से लाला लजपत राय, महात्मा गांधी और रवीद्रनाथ टेगौर जैसे बड़े सुधारक और लेखक तिलमिला गए थे। लाला लाजपत राय ने तो मदर इंडिया के जवाब में ‘दुखी भारत’ जैसी किताब भी लिखी थी। महात्मा गांधी ने भी यंग इंडिया में कैथरीन की बड़ी तीखी आलोचना कर ‘मदर इंडिया’ को सिरे से ख़ारिज़ कर दिया था।

हम देखते हैं कि हिंदी नवजागरण कालीन लेखकों और संपादकों ने तत्कालीन नेताओं और सुधारकों की तरह ही ‘मदर इंडिया’ का बड़ा तीखा विरोध और प्रतिवाद किया था। इन लेखकों का दावा था कि इस किताब ने हिंदुओं को वैश्विक स्तर पर बर्बर और संवेदनहीन बताकर उनकी छवि धूमिल कर डाली है। भले ही लेखकों ने हिंदू धर्म की स्वरक्षा में ‘मदर इंडिया’ किताब को कोरी कल्पना और सारहीन बताया था। लेकिन मदर इंडिया में स्त्री और अछूतों की दयनीय स्थिति के परिपेक्ष्य में कैथरीन ने जो तर्क और प्रमाण दिए थे, उन्हें झुठला नहीं सके थे।

संदर्भ :

[1] मिस मेयो कैथरीन. (1928). ‘मदर-इंडिया सचित्र हिन्दी अनुवाद’. इलाहाबाद : हिंदुस्तानी प्रेस. भूमिका, पृ.10-11

[2] रामरखसिंह सहगल. (1927). ‘भारत-माता’. ‘चाँद’, नवंबर, वर्ष : 6, खंड : 1, संख्या :1, संपादकीय, पृ.7

[3] वही

[4] वही

[5] पंडित कृष्णविहारी मिश्र और प्रेमचंद. (1927). ‘भारत माता’. माधुरी, सितंबर, वर्ष : 6, खंड : 1, संख्या : 2, संपादकीय, पृ. 352

[6] भक्तशिरोमणि. (1927). “‘मदर इंडिया’ और भारत”, मनोरमा, अक्तूबर, वर्ष : 4, भाग : 2, संख्या:1, संपादकीय, पृ. 858

[7] दुलारेलाल भार्गव. (1927). ‘भारत-माता’, सुधा, सितंबर, वर्ष : 1 , खंड : 1, संख्या : 2, संपादकीय, पृ. 240

[8] दुलारेलाल भार्गव. (1927). ‘मिस मेयो और नपुंसकता’, सुधा, सितंबर, वर्ष : 1, खंड : 1, संख्या : 6, संपादकीय, पृ. 716

[9] कन्नोमल एम.ए. (1927). ‘भारत में स्त्री-जाति’, चाँद, नवंबर, वर्ष : 1927 , खंड : 1, संख्या:1, पृ. 105

[10] रघुवरप्रसाद द्विवेदी. (1927). ‘हमारी स्थिति’, माधुरी, दिसंबर, वर्ष : 6, खंड : 1, संख्या : 5 , पृ. 644

इस आलेख का संपादित अंश पूर्व में 23 अगस्त, 2021 को सत्यहिंदी डॉट कॉम पर प्रकाशित है

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
व्याख्यान  : समतावाद है दलित साहित्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आधार 
जो भी दलित साहित्य का विद्यार्थी या अध्येता है, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर नहीं रहेगा कि ये तीनों चीजें श्रम, स्वप्न और...
‘चपिया’ : मगही में स्त्री-विमर्श का बहुजन आख्यान (पहला भाग)
कवि गोपाल प्रसाद मतिया के हवाले से कहते हैं कि इंद्र और तमाम हिंदू देवी-देवता सामंतों के तलवार हैं, जिनसे ऊंची जातियों के लोग...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...