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पत्थलगड़ी को लेकर दर्ज सारे मुकदमे अबतक वापस नहीं

विधानसभा चुनाव से पूर्व आंदोलनकारियों पर प्रकरण वापिस लेना हेमंत सोरेन का एक चुनावी जुमला भर था। झारखंड जनाधिकार महासभा के धर्मिक गुरिया बतलाते हैं कि पिछली सरकार में पत्थलगड़ी को लेकर जितने भी मुकदमे दर्ज किए थे, उनमें महज राजद्रोह की धारा हटाई जाने की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है। मनीष भट्ट मनु की खबर

उत्तर पूर्व को यदि छोड़ दिया जाए तो शेष भारत में झारखंड ही संभवतः ऐसा राज्य है, जिसने आदिवासी स्वशासन के प्रति उम्मीद जगाई थी। पहले गुरुजी के नाम से पहचाने जाने वाले शिबू सोरेन और फिर हेमंत सोरेन के मुख्यमंत्री बनने से लगा था कि झारखंड एक मिसाल बन कर सामने आएगा। हालांकि इनसे पहले भी राज्य में आदिवासी मुख्यमंत्री बन चुके थे मगर झारखंडी अस्मिता को लेकर सोरेन पिता-पुत्र से लोगों को बेहद उम्मीदें थीं। 2019 में हुए पत्थलगढ़ी आंदोलन ने एक बार फिर आदिवासी स्वशासन और अस्मिता को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस को जन्म दिया। दसियों हजारों पर इसे लेकर मुकदमे भी कायम करवाए गए। उसी वर्ष हुए विधानसभा चुनाव से पूर्व झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में बने गठबंधन ने इसे मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुख्यमंत्री बनने के बाद हेमंत ने इस आंदोलन को लेकर दर्ज सभी प्रकरण वापिस लेने की घोषणा भी की थी। मगर अभी भी हजारों लोग मुकदमों का सामना कर रहे हैं।

क्या है पत्थलगड़ी? 

आदिवासी समाज में पत्थलगड़ी की परंपरा प्राचीन काल से है। पत्थलगड़ी यानी सामुदायिक स्मृति, परंपरागत हक हुकूक की सामाजिक/राजनीतिक घोषणा या फिर सर्वसम्मति से लिये गए किसी निर्णय का सार्वजनिक उद्घोष। सामान्य भाषा में यह एक ऐसा शिलालेख होता है, जिसमें कोई सूचना अंकित होती है। इस परंपरा की शुरुआत हजारों वर्ष पहले हुई थी। पुरातात्त्विक वैज्ञानिक शब्दावली में इसे मेगालिथ कहा जाता है। पत्थलगड़ी के कई प्रकार हैं। मुंडा आदिवासियों में पुरखा आत्माओं की स्मृति एवं सम्मान में खड़े किए गए पत्थर को ससनदिरि कहा जाता है, प्राचीन निवास क्षेत्रों के सीमांकन व बसाहट की सूचना देने वाले पत्थर बुरुदिरि और राजनीतिक अधिकार की बात करने वाले शिलालेख टाइडिदिरि कहलाते हैं। इसी तरह सामाजिक घोषणाओं को अभिव्यक्त करने वाले को हुकुमदिरि कहा जाता है। इसके अतिरिक्त असमय मृत्यु होने पर, किसी विशेष व्यक्ति की कब्र पर पहचान के लिए, गाँव अथवा आबादी की हद बताने के लिए, किसी व्यक्ति को सजा देने पर, एक ही गोत्र में प्रेम करने अथवा विवाह करने पर, संपत्ति बंटवारे के लिए, अपने पुरखों जैसे मारंगबोंगा, गोटबोंगा और बुरूबोंगा को याद रखने के लिए भी पत्थलगड़ी की जाती रही है। शेष आदिवासी समाजों में भी कुछ अंतर के साथ अन्य नामों से यही प्रचलन में है। 

अभी तक अपनी घोषणा पूरी नहीं कर सके हैं हेमंत सोरेन

पत्थलगड़ी की शुरुआत कब हुई?  

आदिवासी परंपरा में पत्थलगड़ी का इतिहास सदियों पुराना है। रांची से लगभग 75 किलोमीटर की दूरी पर चोकाहातु गांव का ससनदिरि 14 एकड़ में फैला है। इसमें करीब 8 हजार पुरखा स्मृति पत्थर हैं। इसकी जानकारी शेष समाज को सबसे पहले एक अंग्रेज अधिकारी टी. एफ. पेपे ने दी थी। यह तीन हजार सालों से अधिक समय से मुंडा आदिवासी समाज की जीवित परंपरा का अंग है। आज भी यहां मृतक दफनाए (हड़गड़ी) जाते हैं और आत्माओं की स्मृति में पत्थर रखे जाते हैं। वाचिक आदिवासी साहित्य के अनुसार झारखंड में सबसे पहली राजनीतिक पत्थलगड़ी बिरसा मुंडा ने की थी। उन्होंने वर्तमान रांची के बूढ़मू प्रखंड के उमेडंडा में “अबुआ दिशोम अबुआ राज” का नारा दिया था। इससे पहले 1880-90 के आसपास मुंडा आदिवासियों ने कोलकाता में तत्कालीन प्रशासक के बंगले में पत्थलगड़ी की थी। इसके माध्यम से उन्होंने मांग की थी कि जल, जंगल और जमीन पर लूट और शोषण को तुरंत रोका जाए। इससे पहले छोटानागपुर के शासक और मुंडाओं के अंतिम राजा मदरा मुंडा ने भी सदियों पहले टाइडिदिरि की शुरुआत की थी। यह आज भी प्रत्येक मुंडा गांव में उनके प्राचीन और परंपरागत अधिकारों का सार्वजनिक उद्घोष है। हुकुमदिरि का आरंभ संभवतः अंग्रेजों के शासनकाल में हुआ। 

सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि पत्थलगड़ी मुख्य रूप से आदिवासियों का धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक अभिलेख है जो उनके समाज को दिशानिर्देशित और अनुशासित करता है। 

आधुनिक भारत में पत्थलगड़ी 

वर्ष 1992 में सामाजिक कार्यकर्ता रहे बीडी शर्मा ने गांव गणराज्य अभियान के तहत झारखंड क्षेत्र में राजनीतिक पत्थलगड़ी की शुरुआत की थी। सैंकड़ों हो, मुंडा, खड़िया, उरांव, व संताल गांवों में इसके लिए ग्राम सभा का आयोजन भी किया गया। वर्ष 2019 से एक बार फिर इस मुहिम ने जोर पकड़ा। इसके लिए बकायदा मुनादी करवाई गई और नियम का पालन करते हुए अनुष्ठानपूर्वक पत्थलगड़ी की गई। कथाकार, उपन्यासकार, पत्रकार, रंगकर्मी, आंदोलनकारी और आदिवासी इतिहास पर गहरी पकड़ रखने वाले अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं कि आदिवासी समाज में पत्थलगड़ी एक सामाजिक राजनीतिक क्रिया है, जो जनभागीदारी और जनसहमति से संपन्न होती है।

रघुबर सरकार की नीतियों से जन्मा पत्थनगड़ी आंदोलन

वर्ष 2016 के आते आते झारखंड की तत्कालीन सरकार ने कई ऐसे निर्णय लिये, जिससे वहां का आदिवासी समाज रोष में आ गया। इसमें छोटानागपुर काश्तकारी कानून और संथाल परगना काश्तकारी कानून में संशोधन किया जाना महत्वपूर्ण था। अपना नाम जाहिर न करने की शर्त पर झारखंड आंदोलन से जुड़े एक व्यक्ति बतलाते हैं कि पत्थलगड़ी आंदोलन की शुरुआत जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों की निजी जिंदगी में बाहरी लोगों के हस्तक्षेप से हुई। अलग राज्य बनने के बाद उन्हें उम्मीद थी कि आदिवासी स्वशासन और अस्मिता को लेकर जो भी बातें की जाती रही हैं, उन्हें वास्तविकता में लागू किया जाएगा। मगर ऐसा हुआ नहीं। रघुबर दास के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने तो उद्योगपतियों को फायदा पहुचाने के लिए तमाम नियमों को ताक पर रखने से भी गुरेज नहीं किया। आदिवासियों का एक बड़ा वर्ग यह भी मानता है कि योजनाओं के नाम पर अफसर, इंजीनियर, ठेकेदार और नेताओं ने साठगांठ कर आदिवासी इलाके को लूटने का काम किया है।

आंदोलन के स्वरुप को लेकर विवाद भी है

आदिवासी बुद्धिजीवी मंच के प्रेमचंद मुर्मू कहते हैं कि वाकई पत्थलगड़ी झारखंडी परंपरा है लेकिन जिस तरह से संविधान की व्याख्या की जा रही है, वह गलत है। इस आंदोलन में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की वकालत की जा रही है, जिसे आजादी के बाद निरस्त किया जा चुका है। वे कहते हैं कि सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल जरूर खड़े किए जाने चाहिए। लेकिन बाहर के लोगों का गांव में प्रवेश वर्जित करना संविधान के अनुच्छेद 19 (डी) का उल्लंघन है। इसी तरह शासकीय नौकरों को बंधक बनाना भी ठीक नहीं। वे बताते हैं कि अनूसूचित क्षेत्रों में माझी / परगना, मानकी / मुंडा, डोकलो / सोहोर, पड़हा, पाहन जैसी रूढ़िवादी व्यवस्था तो अब भी कायम हैं। उनका स्पष्ट तौर पर मानना है कि अगर पांचवी अनुसूची के तहत पेसा कानून (पंचायत राज एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरिया एक्ट, 1996) को लागू करने में सरकार की मंशा ठीक होती तो शायद ये परिस्थितियां नहीं बनती और नक्सली समस्याओं से भी नहीं जूझना पड़ता। पेसा कानून में ग्रामसभाओं को कई शक्तियां दी गई है, जिसकी आजतक अनदेखी की गई है। वाल्टर कन्डुलना कहते हैं कि आदिवासी विकास की उपेक्षा, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा जारी विस्थापन का आतंक और राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ यह आदिवासी प्रतिरोध है। मूल स्वरुप में यह आंदोलन कभी भी देश विरोधी नहीं रहा। इसकी प्रक्रियाओं को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं। यह आंदोलन छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में फैला मगर देशद्रोह की धाराएं सिर्फ झारखंड में ही लगाई गईं। सामाजिक कार्यकर्ता बरखा लकड़ा कहती हैं कि पत्थलगड़ी मुंडा आदिवासियों का सबसे पवित्र त्योहार है। मगर आज इसके माध्यम से राजनीति की जा रही है। 

क्या कर रही है सोरेन सरकार? 

पत्थलगड़ी आंदोलन पर अपनी नजरें जमाए हुए लोगों का कहना है कि विधानसभा चुनाव से पूर्व आंदोलनकारियों पर प्रकरण वापिस लेना एक चुनावी जुमला भर था। झारखंड जनाधिकार महासभा के धर्मिक गुरिया बतलाते हैं कि पिछली सरकार में पत्थलगड़ी को लेकर जितने भी मुकदमे दर्ज किए थे, उनमें महज राजद्रोह की धारा हटाई जाने की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है। इससे स्पष्ट है कि आंदोलनकारियों को अदालती कार्यवाहियों का सामना तो करना ही पड़ेगा। जबकि पत्थलगड़ी को लेकर विभिन्न थानों में दर्ज मुकदमों को वापस लेने के सिलसिले में जिलों में त्रिस्तरीय समिति का गठन किया गया था। इस समिति में अध्यक्ष के रूप में उपायुक्त सह जिला दंडाधिकारी और सदस्य के रूप में पुलिस अधीक्षक और लोक अभियोजक को रखा गया था।

थमा नहीं है यह आंदोलन 

झारखंड के संदर्भ में देखा जाय तो यहां आंदोलन का एक लंबा इतिहास रहा है। और कई आंदोलन लंबे भी चले हैं। पत्थलगड़ी को एक ऐसा ही लबे चलने वाला आंदोलन माना जा सकता है। विभिन्न कारणों से भले ही यह आंदोलन धरातल पर नजर नहीं आ रहा हो, मगर दबा भी नहीं है। इसी वर्ष 22 फरवरी को करीब दो सौ आदिवासियों का एक समूह अचानक झारखंड हाईकोर्ट के निकट आ पहुंचा और पत्थलगड़ी करने की कोशिश की। हालांकि, वहां तैनात पुलिस अधिकारियों ने समझा-बुझाकर उन्हें शांत करा दिया और उन्हें वापस भेज दिया। इसके बाद 28 फरवरी को रांची एयरपोर्ट के पास भी जमीन को लेकर विवाद सामने आया था। ऐसे में यह तय है कि पत्थलगड़ी आने वाले दिनों में सोरेन सरकार की मुष्किलें भी बढ़ाएगी।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मनीष भट्ट मनु

घुमक्कड़ पत्रकार के रूप में भोपाल निवासी मनीष भट्ट मनु हिंदी दैनिक ‘देशबंधु’ से लंबे समय तक संबद्ध रहे हैं। आदिवासी विषयों पर इनके आलेख व रपटें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं।

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