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लोकतंत्र में पसमांदा मुसलमानों की भागीदारी का सवाल

पसमांदा मुसलमानों के बारे में कंवल भारती की यह किताब प्रकाशित तो 1997 में हुई, लेकिन इसमें उठाए गए सवाल आज भी प्रासंगिक हैं। यह इसके बावजूद कि मुसलमानों की बेहतरी के लिए सच्चर आयोग और रंगनाथ मिश्रा आयोग की रपटें सरकार के पास हैं। बता रहे हैं पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता इमानुद्दीन

कंवल भारती की पुस्तक ‘लोकतंत्र में भागदारी के सवाल’ भारतीय समाज में जाति और आरक्षण के प्रश्न पर विभिन्न धर्मों की वंचित जातियों के लोगों की लोकतंत्र में भागीदारी के सवाल पर गंभीर चर्चा करती है। किताब में उन्होंने इस बात का ध्यान रखा है कि मंडल और कमंडल आंदोलन में धार्मिक अल्पसंख्यकों के दलित एवं पिछड़ी जातियों के प्रश्न न छूट जाएं। उनके लेखों – ‘मुस्लिम समाज में मजलूम’, ‘मुसलमानों में मौजूदा ब्राह्मणवाद’, ‘लोकतंत्र में वंचित जातियां’, ‘भारतीय मुसलमानों की भागीदारी का प्रश्न’, ‘भारतीय दलित ईसाइयों की भागीदारी का प्रश्न’, ‘दलित ईसाइयों को आरक्षण क्यों?’, ‘दलितों और अल्पसंख्यकों की शिक्षा में भागीदारी के सवाल’, ‘किन महिलाओं को चाहिए राजनीति में भागीदारी’ आदि में संबंधित वर्गों व समुदायों के हितों से जुड़े सवालों पर विस्तार से चर्चा की गयी है।

डॉ. आंबेडकर के बाद से विरले ही दलित लेखकों में देखा गया है जिन्होंने जाति के सवाल को भारतीय समाज के सभी धार्मिक तबकों से जोड़कर देखा हो। वर्तमान में दलित लेखन हिंदू दलित लेखन बनकर रह गया है, मानो ब्राह्मणवादी वर्चस्व, छुआछूत और भेदभाव सिर्फ हिन्दू धर्म का कोढ़ हो। जबकि बाबासाहेब ने ‘जाति का विनाश’ और ‘पाकिस्तान या भारत विभाजन’ में साफ शब्दों में कहा है कि यह पूरे भारतीय समाज की समस्या है, न कि सिर्फ हिंदुओं की। अगर दलित लेखक अपने व्यवहार एवं लेखन में इस चुनौती से नहीं लड़ता है तो जाहिर सी बात है कि भारतीय समाज के सभी धर्मों के दलितों के साथ नाइंसाफी होती रहेगी।

बीते 30 जुलाई 2021 को राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी प्रसाद यादव के नेतृत्व में विभिन्न पार्टियों जिनमें राजद के अलावा कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई और सीपीआई माले शामिल थे, के नेताओं ने जातिगत जनगणना के सवाल पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ज्ञापन दिया। इस ज्ञापन में ‘पिछड़े/अति पिछड़े हिन्दुओं’ शब्द का प्रयोग किया है जो मंडल आयोग की अनुशंसाओं के खिलाफ है।  

इस घटना से साबित होता है कि वामपंथी तो वामपंथी, दलित एवं पिछड़े वर्ग के इन नेताओं ने कभी भी मंडल आयोग की रिपोर्ट (जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों के वंचित जातियों को पिछड़ा वर्ग का आरक्षण देने की अनुशंसा की गई है और अभी भी ईसाई और मुसलमानों को दलित आरक्षण प्राप्त नहीं हो पाया है) को पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझी है। सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट इनके लिए कोई मायने नहीं रखती है। 

दिल्ली के नजदीक गुरुग्राम के स्लम इलाके में पसमांदा समाज के एक वृद्ध

वर्ष 1997 में प्रकाशित कंवल भारती की पुस्तक मौन को आज भी तोड़ती है। यह हमें मंडल आंदोलन और राममंदिर निर्माण आंदोलन के उस दौर में ले जाती है, जब भविष्य के लोकतांत्रिक समाज की पटकथा लिखी जा रही थी। पिछड़ों के 27 प्रतिशत आरक्षण की लड़ाई में सवर्णों द्वारा हिंसा में दलित और पसमांदाओं के घर और कारोबार उजड़ रहे थे। 

कंवल भारती बताते हैं कि मुस्लिम समाज अशराफ, अजलाफ और अरजाल श्रेणियों में विभक्त है। शेख, सैयद, मुगल और पठान अशराफ कहे जाते हैं। अशराफ का अर्थ है कुलीन या उच्च, जो अफगान-अरब मूल के तथा उच्च हिन्दुओं से धर्मांतरित मुसलमान कहे जाते हैं। अजलाफ पेशेवर जातियों से धर्मांतरित मुसलमानों का वर्ग है, जो नीच, कमीना और बदजात कहे जाते हैं। एक तीसरा वर्ग कुछ स्थानों पर सबसे नीच मुसलमानों का है, जिसकी त्रासदी यह है कि उनके साथ कुलीन मुसलमान ही नहीं, अजलाफ मुसलमान भी संबंध नहीं रखते। यहां तक कि उनके लिए मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तान का उपयोग भी निषिद्ध है। दलित मुसलमानों के जनाजे का नमाज पढ़ने से भी मौलवी इंकार कर देते हैं। कंवल भारती कहते हैं– “भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में जातिवाद मुस्लिम समाज का यथार्थ है। यह सच है कि इस्लाम में जातिवाद नहीं है। कुरआन के अनुसार ऊंचा या बड़ा वह है, जिसमें अल्लाह का खौफ़ सबसे ज्यादा है। यह भी सच हो सकता है कि दुनिया के दीगर मुल्कों में जहां-जहां इस्लाम गया, उसने बेहतर समाज का निर्माण किया हो। किंतु, भारत का सच यह है कि यहां इस्लाम एक बेहतर मुस्लिम समाज का निर्माण नहीं कर सका। मुस्लिम समाज का जातिवाद हिंदू समाज से भी ज्यादा भयानक है।

कंवल भारती की उद्धृत पुस्तक का मुख पृष्ठ

“हिंदू समाज यदि वर्णव्यवस्था और जातिभेद से पीड़ित है, तो मुस्लिम समाज का जातिवाद उससे भी भयानक है। उनमें जुलाहा, दर्जी, फकीर, रंगरेज, बढ़ई, मनिहार, दाई, कलाल, कसाई, कुंजड़ा, लहेड़ी, महिफरोश, मल्लाह, धोबी, हज्जाम, मोची, नट, पनवाड़ी, मदारी इत्यादि जातियां आती हैं। अरजाल, अर्थात सबसे नीच मुसलमानों के भनार, हलालखोर, हिजड़ा, कसबी, लालबेगी, मोगता तथा मेहतर जातियां मुख्य हैं, जिन्हें हम दलित और अछूत कह सकते हैं। इन दलित मुसलमानों के साथ कुलीन मुसलमानों का वही व्यवहार है, जो हिंदू दलितों के प्रति सवर्णों का है। हिंदू समाज में तो दलितों के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन भी आया है और बहुत से प्रगतिशील हिंदुओं का सहयोग भी दलितोत्थान के क्षेत्र में मिल रहा है, परंतु मुसलमानों का दुर्भाग्य यह है कि उनके उत्थान के प्रश्न पर कुलीन मुसलमानों में न तो पहले सोच पैदा हुई और ना ही अब हो रही है। दलित मुसलमानों के बारे में बरेली इस्लामिक स्कूल तो आज भी मौलाना अहमद रज़ा खां की इस हिदायत पर अमल करता है कि अरजाल की इमामत में अशराफ की नमाज नहीं हो सकती। जबकि भारत विभाजन में मुख्य भूमिका अशराफ (कुलीनों) ने निभायी थी, परंतु विडंबना यह है कि उस विभाजन से पैदा हुई नफरत की आग जब भी भड़कती है, तो उसमें जलकर राख होने वाले मुसलमान अशराफ नहीं, अरजाल व अजलाफ (दलित) होते हैं।”

आखिर दलित जातियां मुसलमान बनने के लिए विवश क्यों हुईं– 

“जब राजपूत और भूमिहार मुसलमान बनकर जागीरदार हो गये, तो उनकी जागीर में रहने वाले दलित लोगों को भी उनकी सेवा के लिए मुसलमान बनने पर मजबूर होना पड़ा। जागीरदार की निरंकुशता के सामने दलितों की हिम्मत ही क्या थी कि वे अपना मार्ग स्वयं चुनते। जिन लोगों ने मुसलमान बनने से इनकार किया, उनसे मुस्लिम जागीरदारों तथा जमींदारों ने अपनी हवेलियों और बादशाहों के महलों में बलपूर्वक गन्दा काम किया।… उनके सामने मुसलमान बने रहने के सिवा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था।”

यह भी पढ़ें : किसके बहकावे में आकर तेजस्वी ने की पसमांदा मुसलमानों की उपेक्षा?

कंवल भारती मुस्लिम में समाज में जाति के सवाल को इतिहास के आईने में भी देखते हैं–

“पहली बार इतिहास में सल्तनत काल में मुहम्मद तुगलक ने कुछ दलित मुसलमानों को अपना दरबारी बनाया था, तो कहा जाता है कि कुलीन दरबारियों ने बादशाह का मजाक बनाया था।… 1857 के गदर में बंगाल और बिहार के अंसारियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था और लाखों रुपए से दिल्ली के विद्रोहियों की मदद की थी। लेकिन कुलीन मुसलमानों ने अंग्रेजों का साथ दिया था, यहां तक कि सर सैयद अहमद खां ने अपनी किताब ‘असबाबे बग़ावते हिंद’ में अशराफ का बचाव करते हुए साफ-साफ लिखा कि गदर के हंगामे में “बदजात जुलाहे… पेश पेश (आगे-आगे) थे। यही कारण था कि अंग्रेजों ने दलित मुसलमानों पर इस सीमा तक जुल्म किये गये कि उनकी आबादी तक पर हल चलवा दिये।…भारत में न सिर्फ इस वर्ग के हाथों में मुस्लिम नेतृत्व है, वरन यह वर्ग जमाअते इस्लामी जैसी मजहबी तंजीमों, इदारों और आंदोलनों का भी जनक और संचालक है। इस्लामी सिद्धांतों को देवबंदी और बरेलवी दो स्कूलों में विभाजित करने वाला भी यही वर्ग है। इस वर्ग ने जहां बेशुमार साहित्य की रचना करके अपनी बौद्धिक प्रतिभा तथा प्रगतिशीलता का परिचय दिया है, वहां अपने ही सहधर्मी वर्गों की उपेक्षा करके अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति का भी प्रमाण दिया है।”

अशराफ मुसलमानों की संपन्नता का सच क्या है, इस बारे में कंवल भारती लिखते हैं–

“यह कहना मुनासिब नहीं होगा कि सभी अशराफ मुसलमान सम्पन्न हैं। भारतीय मुसलमानों का एक बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी से पीड़ित है। किन्तु इसके बावजूद अशराफ ने तरक्की की है। उनके शिक्षितों की संख्या बढ़ी है। शासन और प्रशासन में उनकी भागीदारी है। इसके विपरीत दलित मुसलमान अशिक्षित हैं, जिनकी न्यूनतम भागीदारी भी सत्ता में नहीं है। अशिक्षा के कारण ये इस्लाम के सम्यक ज्ञान से भी अनभिज्ञ हैं और मुल्ला-मौलवियों के धार्मिक शोषण के आसानी से शिकार हो जाते हैं। जमाअत इस्लामी हिंद और दूसरी संस्थायें, जो इस्लामी साहित्य के प्रकाशन में करोड़ों रुपये व्यय करती हैं, इन दलित मुसलमानों, विशेष रूप से मुसल्ली और कमीना लोगों को शिक्षित बनाने तथा उनके सामाजिक उत्थान की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। पर हकीकत यह है कि इन संस्थाओं के आलिम कारकुन अपनी औलादों को तो ऊंची से ऊंची तालीम दिलाते हैं, लेकिन इन दलितों को दीनी तालीम तक ही सीमित रखना चाहते हैं।”

कंवल भारती आगे लिखते हैं–

“भारत की 61 प्रतिशत मुस्लिम आबादी गांवों में रहती है, जिनमें दलित मुसलमानों की सर्वाधिक संख्या है। ये मुसलमान आर्थिक रूप से निर्भर नहीं है। वरन् दूसरे धनी लोगों के रहमोकरम पर अपनी जीविका चलाते हैं। कुछ दस्तकार और अंसारी मुसलमानों को छोड़कर शेष लोगों का कोई स्थायी व्यवसाय नहीं है। वे या तो खेतों में मजदूरी करते हैं, या शहरों में जाकर रिक्शा चलाते हैं। उनकी गरीबी का आलम यह है कि उनके घरों में दरवाजों का काम टाट का पर्दे करते हैं। चूल्हा भी उनके यहां मुश्किल से दोनों वक्त जलता है। शिक्षित मुस्लिम परिवारों में पर्दे का रिवाज भले ही धर्म का पर्याय हो, पर उन गरीब मुसलिम परिवारों के लिए बुरका पहनना इसलिए अनिवार्य है कि वे उसके नीचे अपनी गरीबी को छिपाती हैं। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जनपद में बीड़ी, पीतल, काष्ठ, सींग, रस्सी, बरक और ताला उद्योगों में लाखों मुसलमान कार्यरत हैं। पर, इन उद्योगों के मालिक सवर्ण और अशराफ हैं, जो मजदूरों का भरपूर शोषण करते हैं। रामपुर में मुस्लिम लड़कियां बीड़ियां बनाकर अपना दहेज स्वयं जुटाती हैं, तो बारह साल के बच्चे और साठ साल के बूढ़े भी यहां रिक्श चलाते मिल जायेंगे। मेरठ, मुरादाबाद, बनारस और आजमगढ़ जिलों में जुलाहा आदि मुसलमानों की आर्थिक स्थिति इस मायने में बेहतर कही जा सकती है कि वे उत्पादन से जुड़े हैं। लेकिन, उनकी त्रासदी यह है कि वे जब कुछ संपन्नता की ओर बढ़ते हैं, तो सांप्रदायिक दंगों में उनके कारोबार तबाह कर दिये जाते हैं, और वे वापस फिर उसी स्थिति में पहुंच जाते हैं।”

कंवल भारती अपनी किताब में राजीनीति में पसमांदा समाज की भागीदारी को लेकर भी विमर्श सामने लाते हैं। वे लिखते हैं कि जातिगत अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले राजनीतिज्ञों को कुलीनवाद से ग्रस्त अशराफ पसंद नहीं करते हैं। आम चुनावों में जिन क्षेत्रों से दलित मुस्लिम प्रत्याशी खड़े होते हैं, वहां के कुलीन मुसलमान वोट तक नहीं देते हैं। यह रवैया राजनीति में ही नहीं बल्कि शिक्षितों को नौकरियां देने के मामले में भी किया जाता है। दलित शिक्षित मुस्लिम दोहरी कुंठा का शिकार होते हैं।

पसमांदा मुसलमानों के बारे में कंवल भारती कहते हैं कि स्वाधीनता की आकांक्षा रखने वालों को कुलीन तथा सामंत मुसलमानों के खिलाफ आवाज उठानी होगी, जिस तरह हिंदू दलितों ने सवर्णों के खिलाफ उठाया और अधिकार प्राप्त किये। वैसे ही मजलूम मुसलमानों को कोई आंबेडकर पैदा करना होगा।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

इमानुद्दीन

लेखक स्वतंत्र पत्रकार तथा सावित्रीबाई फुले जन साहित्य केेंद्र, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के संयोजक हैं

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