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उत्तर प्रदेश : आरएसएस के ब्राह्मण प्रमेय में उलझे मायावती-अखिलेश

मोदी और योगी सरकार के जनविरोधी कार्यक्रमों और उत्पीड़न के कारण तमाम पिछड़ी जातियां भाजपा के खिलाफ लामबंद हो रही थीं। पिछड़ों में एक आपसदारी की भावना विकसित हो रही थी। लेकिन ब्राह्मणों के उत्पीड़न के नैरेटिव में उलझी सपा और बसपा ने हिंदुत्व की राह पर कदम बढ़ा दिए हैं। प्रो. रविकांत का विश्लेषण

यूपी विधानसभा चुनाव में बमुश्किल 6 माह का वक्त बाकी है। तमाम राजनीतिक दल चुनावी गोटियां बिछाने की शुरुआत कर चुके हैं। भाजपा ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए गैर जाटव दलितों और गैर यादव पिछड़ों को अपने पाले में बनाए रखने की राजनीति को जारी रखा है। साथ ही भाजपा ने लव जिहाद, धर्मांतरण और जनसंख्या नियंत्रण जैसे कानूनों के जरिए मुसलमानों का पैशाचीकरण करके हिंदुओं के मानस में उनके प्रति भय और नफरत पैदा करने वाली सांप्रदायिक राजनीति को आगे बढ़ाया है। आश्चर्यजनक रूप से अयोध्या में राम मंदिर मुद्दे पर भाजपा फिलहाल खामोश है। मंदिर निर्माण के लिए बटोरे गए चंदे से ट्रस्ट द्वारा जमीन सौदों में हुए भ्रष्टाचार के उजागर होने के कारण मंदिर मुद्दे को पृष्ठभूमि में डालने के लिए संघ और भाजपा मजबूर हुए हैं। इसलिए भाजपा सामाजिक इंजीनियरिंग और सांप्रदायिकता के सहारे चुनाव मैदान में उतरने जा रही है।

लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले सपा और बसपा जैसे दल इन दिनों ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। बसपा के ब्राह्मण नेता सतीश मिश्रा के नेतृत्व में बीते 23 जुलाई को अयोध्या में प्रबुद्ध सभा के नाम से ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में जय भीम की जगह बड़े जोर शोर से जय परशुराम और जय श्रीराम के नारे लगे। आने वाले दिनों में काशी, मथुरा और चित्रकूट में भी बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित होंगे। बसपा के समानांतर सपा के ब्राह्मण नेता भी पूरे प्रदेश में प्रबुद्ध सम्मेलन यानी ब्राह्मण सम्मेलन करने जा रहे हैं। 23 अगस्त को बलिया से इसकी शुरूआत होगी। ब्राह्मणों को पार्टी से जोड़ना और वोट हासिल करने की राजनीति को गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन जिस आधार पर यह किया जा रहा है, वह समझ से परे है। ब्राह्मणवादी मिथकों के सहारे यह राजनीति की जा रही है। दूसरे शब्दों में इसे सोफ्ट हिंदुत्व कहते हैं। जाहिर है कि हिंदुत्व की पिच पर बैटिंग करना सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों के लिए कतई फायदेमंद नहीं है। इससे इन दलों की राजनीतिक जमीन कमजोर होती है। यह एक किस्म का वैचारिक दिवालियापन है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अब सामाजिक न्याय की राजनीति गैरजरूरी हो गई है? क्या सामाजिक न्याय के मुद्दे बेमानी हो गए हैं? क्या जाति आधारित सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिक पिछड़ेपन और अन्याय-उत्पीड़न के सवाल अब खत्म हो गए हैं? इन सवालों के आधार पर क्या अब वोट हासिल करना मुश्किल हो गया है? आखिर इसका कारण क्या है? इसका एक कारण यह दिया जा सकता है कि अब जाति आधारित सामाजिक अन्याय और शोषण खत्म हो गया है! लेकिन राष्ट्रीय अपराध अभिलेखागार (एनसीआरबी) के आंकड़े कुछ और ही कहते हैं। पहले की सरकारों की अपेक्षा भाजपा के शासन में दलितों, पिछड़ों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अपराध की घटनाओं में वृद्धि दर्ज हुई है। यह भी देखने में आया है कि इन समुदायों के साथ स्थानीय पुलिस प्रशासन से लेकर उच्च प्रशासनिक स्तर तक सरकारी रवैया भेदभावपरक और संवेदनहीन है।

दरअसल हिंदुत्व की राजनीति ने सामाजिक न्याय की राजनीति पर ब्रेक लगा दिया है। उग्र हिन्दुत्व के शोर में जाति आधारित राजनीतिक मुद्दे भुला दिए गए।  न्याय के साथ सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा को हिंदुत्ववादियों ने बेमानी बना दिया है। दलित और पिछड़ी जातियों के उत्थान और विकास से जुड़े मुद्दों, नीतियों और कार्यक्रमों को भाजपा सरकार ने पृष्ठभूमि में धकेल दिया है। दलितों, पिछड़ों के संवैधानिक अधिकारों को लगातार कमजोर किया जा रहा है। आरक्षण को अब लगभग झुनझुना में तब्दील कर दिया गया है। नीट परीक्षा से लेकर यूपी में शिक्षकों की भर्ती में ओबीसी आरक्षण को अघोषित रूप से खत्म कर दिया गया। हालांकि, दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत तक हुए विरोध के  बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने नीट परीक्षा में ओबीसी के आरक्षण को बहाल कर दिया है। लेकिन यह भी गौरतलब है कि बिना किसी मांग के सवर्णों को खुश करने के लिए मोदी सरकार ने तत्काल प्रभाव से आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण को लागू कर दिया है। एक तरफ जहाँ रेलवे आदि सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण करके दलितों और पिछड़ों को सरकारी नौकरियों से बेदखल करने की साजिश की जा रही है, वहीं दूसरी तरफ लैटरल एंट्री के जरिए सचिव और संयुक्त सचिव जैसे सैकड़ों पदों पर बिना किसी परीक्षा या साक्षात्कार के सीधे नियुक्ति दे दी गई है। जाहिर तौर पर इसमें कोई भी आरक्षित श्रेणी का अधिकारी नहीं है। लेकिन भाजपा सरकार में शामिल दलित और पिछड़े मंत्री, सांसद और विधायक वंचित तबके के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ अपनी जबान तक नहीं खोल रहे हैं। इन स्थितियों के बावजूद सपा और बसपा जैसी पार्टियों ने हिंदुत्व का मुकाबला करने के बजाय इसी राह पर चलने का विकल्प चुन लिया है। यही कारण है कि मायावती और अखिलेश यादव दलित और पिछड़े समाज, उनके नेताओं और मुद्दों के बजाय ब्राह्मणों के कथित उत्पीड़न और नाराजगी को भुनाने की कोशिश में जुटे हैं। यह कदम सामाजिक न्याय की राजनीति के लिए ही घातक नहीं है बल्कि स्वयं अखिलेश यादव और मायावती के लिए भी आत्मघाती है।

बसपा प्रमुख मायावती व सपा प्रमुख अखिलेश यादव

अब सवाल यह है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को भूलकर सपा और बसपा ब्राह्मणों को लुभाने में क्यों लगे हैं? दरअसल, पिछले डेढ़ साल में यूपी में ब्राह्मणों के उत्पीड़न और भाजपा सरकार से उनकी नाराजगी का एक नैरेटिव गढ़ा गया है। अगर इसे सही मान भी लिया जाए तो हकीकत यह है कि  ब्राह्मणों की नाराजगी भाजपा से नहीं बल्कि योगी आदित्यनाथ से है। हाँ, यह जरूर है कि कुछ घटनाओं और योगी आदित्यनाथ की छवि ने ब्राह्मण नेताओं को छवि चमकाने का मौका दिया है। पूर्वांचल में योगी की राजनीति  के प्रबल प्रतिद्वंद्वी हरिशंकर तिवारी जैसे नेता रहे हैं। योगी व्यक्तिगत तौर पर ठाकुरवादी हैं। इसका सबूत हिंदू युवा वाहिनी में ठाकुर नौजवानों की भरमार और ठाकुर नेताओं के साथ उनकी नजदीकियां हैं। योगी ने आते ही परशुराम जयंती की छुट्टी खत्म कर दी। ब्राह्मण नेताओं द्वारा इसका विरोध किया गया। लेकिन शासन-प्रशासन में मिलने वाली प्राथमिकता के कारण ब्राह्मण समाज भाजपा सरकार से संतुष्ट बना रहा। फिर बिकरू कांड के कुख्यात अपराधी विकास दुबे के एनकाउंटर को सोशल मीडिया पर हवा दी गई। इसे ब्राह्मणों के उत्पीड़न के रूप में प्रचारित किया गया। इस एनकाउंटर के बहाने विभिन्न दलों में सामान्य हैसियत वाले नेताओं को खास बनने का मौका मिला। दरअसल, ब्राह्मण समुदाय चाहे समाज में हो या किसी पार्टी में या विभाग में ; वह अपने को हमेशा विशेष बनाए रखने की जुगत में रहता है। 

यही कारण है कि सपा के ब्राह्मण नेताओं ने अखिलेश यादव को ब्राह्मणों की भाजपा से नाराजगी को भुनाने का प्रलोभन दिया। परिणामस्वरूप, सामाजिक न्याय के मुद्दों पर लौटने वाले अखिलेश यादव ने ब्राह्मण नेताओं को हरी झंडी दे दी और इन नेताओं ने लखनऊ में परशुराम की 108 फीट ऊंची प्रतिमा लगाने का एलान कर दिया। यूपी के अन्य जिलों में भी परशुराम की प्रतिमाएं स्थापित करने का एलान किया गया। ऐसे में, मायावती पीछे क्यों रहतीं? उन्होंने सरकार आने पर सपा से भी भव्य और विशाल परशुराम की प्रतिमा लगाने का ऐलान किया। कांग्रेस के नेता रहे जितिन प्रसाद ने ब्राह्मणों पर होने वाले अत्याचार के मुद्दे को लेकर पूरे प्रदेश में योगी सरकार के खिलाफ मुहिम चलाई। हालांकि अब  जितिन प्रसाद भाजपा के ही हो चुके हैं। इतना ही नहीं, भाजपा के ब्राह्मण नेताओं को भी सरकार और पार्टी में विशेष बनने का मौका मिला। योगी के खिलाफ मोर्चाबंदी की गई। लेकिन वे योगी आदित्यनाथ को कमजोर करने में नाकामयाब रहे।

सबसे मौजूँ सवाल यह है कि क्या ब्राह्मण भाजपा को छोड़कर किसी और पार्टी की ओर रुख करेगा? इस सवाल के जवाब के लिए यह पूछना लाजमी है कि क्या वास्तव में ब्राह्मण समाज भाजपा से नाराज है? दरअसल, ब्राह्मण समाज की ओर से फिलहाल कोई नाराजगी की बात सामने नहीं आई है। ब्राह्मण समाज ने अभी खामोशी ओढ़ रखी है। अगर वह वास्तव में नाराज होता तो किसी विकल्प की बात करता। जबकि आरएसएस से जुड़ा ब्राह्मण लगातार भाजपा के साथ एकजुट ही नहीं बल्कि मुखर है। हालांकि भाजपा से उसकी एक शिकायत जरूर है। यूपी में 1989 के बाद कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना। इससे पूर्व कांग्रेस पार्टी के पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे। 1991 और 1997 के बाद 2017 में तीसरी बार भाजपा सत्ता में आई है। भाजपा सरकार में कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने। भाजपा ने अभी तक कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बनाया है। यह मलाल ब्राह्मणों को जरूर है। भाजपा के साथ पूरे मनोयोग से जुड़ा सवर्णों में सर्वाधिक (करीब 10 फीसदी) आबादी वाला ब्राह्मण समुदाय 2017 की जीत के बाद अपना मुख्यमंत्री चाहता था। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से ब्राह्मण निराश जरूर हुआ। लेकिन ‘प्रबुद्ध’ ब्राह्मण समाज यह भी जानता है कि सपा और बसपा में उसका मुख्यमंत्री बनना नामुमकिन है। सपा या बसपा की सरकार में उसके नेताओं को कुछ पद और प्रलोभन जरूर मिल सकते हैं, लेकिन समाज से लेकर राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान में उसका वर्चस्व संभव नहीं है। भाजपा सरकार में भले ही ब्राह्मण मुख्यमंत्री ना हो लेकिन पद, पुरस्कार, प्रतिष्ठा और पुनरुत्थान का पूरा अवसर उसे प्राप्त हो रहा है। दरअसल, भाजपा की नीति आरक्षण विरोधी है। इसलिए सरकारी नौकरियों पर उसका ज्यादा कब्जा हो रहा है। ठेका पट्टा में उसे प्राथमिकता मिल रही है। दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों पर उसका वर्चस्व भी इस राज्य में सुरक्षित है। इन कारणों को देखते हुए ब्राह्मणों का भाजपा छोड़कर सपा या बसपा की ओर जाना फिलहाल असंभव लगता है।

यह भी पढ़ें : सपा-बसपा नेतृत्व का वैचारिक दिवालियापन

दरअसल, भाजपा और आरएसएस का घोषित एजेंडा हिंदू एकता है लेकिन उसका अघोषित एजेंडा सवर्ण वर्चस्ववाद है। मूल रूप से ब्राह्मण, बनिया और अब ठाकुरों के आधार वाली भाजपा इन दिनों अपनी जनविरोधी नीतियों से उपजी सत्ता विरोधी लहर को सोशल इंजीनियरिंग के जरिए रोकने की कोशिश कर रही है।  भाजपा आरएसएस अगड़ी जातियों के वर्चस्व को मजबूत करके भारत की संवैधानिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करके दलित, पिछड़ों और स्त्रियों के सशक्तिकरण की प्रक्रिया को बाधित कर रही है। घोषित रूप से अल्पसंख्यकों के खिलाफ खड़ी भाजपा का चरित्र और वैचारिकी कतई समावेशी नहीं है। पहले 27 पिछड़े मंत्रियों और फिर मेडिकल की नीट परीक्षा में 27 फीसदी आरक्षण लागू करके शीर्ष नेतृत्व यह साबित करने में मुब्तिला है कि भाजपा पिछड़ों और दलितों की हितैषी है। जबकि सच यह है कि दलित पिछड़े मंत्रियों और नेताओं का इस्तेमाल भाजपा इनके समुदायों का गला ‘रेतने’ के लिए करती है। मसलन, इससे पूर्व नए मंत्रिमंडल विस्तार में शिक्षा मंत्री बने पिछड़ी जाति से आने वाले धर्मेंद्र प्रधान द्वारा ऐलान कराया गया कि मेडिकल नीट में आरक्षण लागू नहीं होगा। इसी तरह पिछले साल हाथरस में दलित लड़की के बलात्कार के बाद ठाकुर जाति के अपराधियों के समर्थन में दलित नेता सोशल मीडिया से लेकर टीवी बहसों में दलीलें देते हुए दिखाई दिए। दरअसल, ये नेता अपने समाज के हितों को ताक पर रखकर पार्टी की दलाली कर रहे थे। जाहिर है कि समाज को बेचने के बदले उन्हें इनाम जरूर मिला होगा या उसकी उम्मीद रही होगी। ताज्जुब तो यह है कि भाजपा सरकार द्वारा बनाए गए दलित राष्ट्रपति ने भी दलितों के उत्पीड़न और अधिकारों के हनन पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की।

यूपी की पिछले तीन दशक की राजनीति में दलित पिछड़ों की अस्मिता का उभार हुआ है। लंबे समय से हाशिए पर खड़े इन समुदायों में अपने अधिकारों के प्रति एक चेतना का प्रसार हुआ है। संवैधानिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इन समुदायों ने अपने पिछड़ेपन के कारणों और इसके लिए उत्तरदायी शक्तियों को भी पहचानने की कोशिश की। लेकिन सत्ता की राजनीति से उपजे तमाम अंतर्विरोधों का अलोकतांत्रिक वर्चस्ववादी शक्तियों ने फायदा उठाकर इन समुदायों के बीच भेदभाव ही नहीं बल्कि परस्पर नफरत पैदा करके अपना वोटबैंक मजबूत किया। भाजपा ने इनके कंधों पर अपना जुआ रखकर सत्ता की बागडोर को थामी। यही शक्तियाँ पिछड़े समुदायों के सशक्तिकरण के मार्ग को अवरुद्ध कर देना चाहती हैं।

गौरतलब है कि पिछले दशकों में हिंदुत्व की राजनीति का केंद्र यूपी बना; जो सामाजिक न्याय की राजनीति का भी केंद्र था। इस सवाल पर विचार करना लाजमी है कि सामाजिक न्याय की राजनीतिक जमीन पर हिंदुत्व की विचारधारा  क्यों फली फूली और इसने सामाजिक न्याय के मूल्यों को कैसे निगल लिया? दरअसल,  सीधे तौर पर मुखालिफत करते हुए ऐसा करना संभव नहीं था। माने, सामाजिक न्याय की राजनीति को हिंदुत्व के टूल्स से सीधे तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता था। इसलिए सामाजिक न्याय के मूल्यों की हत्या के लिए दोधारी तलवार का इस्तेमाल किया गया। एक तरफ दलित-पिछड़ों की जातिगत अस्मिता को नकारकर एक बड़ी धार्मिक अस्मिता की चाहरदीवारी खड़ी की गई। दूसरे स्तर पर जब सामाजिक न्याय की राजनीति और आंबेडकर के विचारों के प्रभाव में दलित और पिछड़ों के भीतरी जोड़ों को भरने की जो कोशिश की जा रही थी, हिंदुत्व की राजनीति ने जातिगत विभाजन को फिर से मजबूत करके परस्पर दूरी को बढ़ाने की परियोजना को गति दी। इसलिए यूपी और बिहार जैसे राज्यों में गैर यादव पिछड़ी जातियों में यादवों के प्रति तथा गैर जाटव दलितों में जाटवों के प्रति कटुता और वैमनस्य पैदा करके इन समूहों को भगवा तले लाने का सफल प्रयास किया गया।

ब्राह्मणों की नाराजगी का मुद्दा रणनीति के तौर पर उभारा गया। दलित, पिछड़ों में यह संदेश देने की कोशिश की गई कि भाजपा के शासन में ब्राह्मणों का उत्पीड़न हो रहा है। दरअसल, सवर्णों के वर्चस्व को स्थापित करने की राजनीति के सच पर पर्दा डालकर इन समुदायों को ही नहीं बल्कि सपा और बसपा जैसी पार्टियों को भी गुमराह करने की कोशिश की गई। भाजपा और आरएसएस ने इस नैरेटिव के मार्फत कमंडल के भीतर मंडल की राजनीति के उबाल को ठंडा करने की कोशिश की है। इसके बाद पिछड़े वर्ग में अपने जनाधार को मजबूत करने के लिए ओबीसी लिस्ट में अन्य जातियों को शामिल करने का अधिकार राज्य सरकारों को देने के लिए मोदी सरकार ने 127वां संविधान संशोधन किया। यह भी संकेत मिल रहे हैं कि आरक्षण का दायरा भी बढ़ाया जा सकता है। लंबे समय से चली आ रही जातीय जनगणना की माँग को भी माना जा सकता है। संभव है कि ओबीसी की गणना करा ली जाए। ऐसे में पूछा जा सकता है कि क्या भाजपा की राजनीति पिछड़ों के उत्थान पर केंद्रित हो गई है? दरअसल, यह एक छलावा है। मोदी सरकार लगातार सरकारी संस्थाओं का निजीकरण कर रही है। सरकारी नौकरियों की संख्या घटती जा रही है। अलबत्ता जो नौकरियाँ दी जा रही हैं, उनमें आरक्षण का अनुपालन नहीं हो रहा है। केंद्र सरकार ने लैटरल इंट्री के जरिए संयुक्त सचिव और सचिव स्तर के सौ से अधिक पदों को भर दिया। इनमें कोई दलित पिछड़ा नहीं है। इसी तरह से यूपी में 69000 शिक्षकों की भर्ती में ओबीसी आरक्षण नहीं दिया गया। हाल ही में उच्च शिक्षा में चयनित 263 प्राचार्यों में 222 पदों पर सामान्य वर्ग यानी सवर्णों को नियुक्ति दी गई। जबकि अनुसूचित जाति से 7, अनुसूचित जनजाति के 1 और पिछड़े वर्ग के 19 प्राचार्य बनाए गए। इसमें अगर 14 क्रीमी लेयर भी जोड़ दिए जाएं तो कुल मिलाकर 33 पिछड़ी जाति के प्राचार्य बनाए गए। दूसरी तरफ पिछले तीन-चार साल में तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की भर्तियाँ संविदा पर की जा रही हैं। जाहिर है, इनमें आरक्षण का पालन नहीं हो रहा है। इस तरह भाजपा सरकार ने आरक्षण को सफेद हाथी में तब्दील कर दिया है। जबकि उच्च सरकारी पदों पर अधिकांश सवर्णों की बहाली हो रही है। संविधान, सुप्रीम कोर्ट और कानून की परवाह किए बगैर ऐसा किया जा रहा है। सरकारी समितियों, आयोगों, विश्वविद्यालयों और अन्य संस्थाओं पर संघ से जुड़े सवर्णों को नियुक्त किया गया है। 

मोदी और योगी सरकार के जनविरोधी कार्यक्रमों और उत्पीड़न के कारण तमाम पिछड़ी जातियां भाजपा के खिलाफ लामबंद हो रही थीं। पिछड़ों में एक आपसदारी की भावना विकसित हो रही थी। लेकिन ब्राह्मणों के उत्पीड़न के नैरेटिव में उलझी सपा और बसपा ने हिंदुत्व की राह पर कदम बढ़ा दिए हैं।  इसलिए सामाजिक न्याय की राजनीति को धक्का पहुंचा है और भाजपा के लिए पिछड़ी और दलित जातियों के बीच भेद और नफरत पैदा करके अपनी राजनीतिक जमीन को पुख्ता करने का आसान मौका मिल गया है। यानी मंडल पार्ट-2 के छद्म द्वारा भाजपा ओबीसी को अपने जाल में फंसाकर वोट हासिल करने की जुगत में है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रविकांत

उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के दलित परिवार में जन्मे रविकांत ने जेएनयू से एम.ए., एम.फिल और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की डिग्री हासिल की है। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'समाज और आलोचना', 'आजादी और राष्ट्रवाद' , 'आज के आईने में राष्ट्रवाद' और 'आधागाँव में मुस्लिम अस्मिता' शामिल हैं। साथ ही ये 'अदहन' पत्रिका का संपादक भी रहे हैं। संप्रति लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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