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भ्रम फैलाने को जाति विरोध के इतिहास के चुनिंदे पन्ने पढ़ रहा संघ परिवार

संघ परिवार के विपरीत, जाति और हिंदू धर्म का आंबेडकर का अध्ययन इतिहास की गहन पड़ताल पर आधारित था। उनके लेखन को निरंतरता से और उसके संदर्भों सहित न पढ़कर हम उनके अनवरत संघर्ष और विद्वता का अपमान करेंगे। बता रहे हैं पल्लीकोंडा मणिकंटा

देश के वर्तमान सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में कई तरह के धर्मसंकट देखे जा सकते हैं। इनमें से एक है जाति और आरक्षण के मुद्दे पर धर्मसंकट। इस धर्मसंकट से निपटने और स्वयं को उग्र जाति-विरोधी सिद्ध करने के प्रयास में संघ परिवार को नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। संघ की राजनैतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी खासे बहुमत से सत्ता में है। इस कारण भी संघ परिवार के लिए इस धर्मसंकट से निपटना आसान नहीं है।

बीते 10 अगस्त, 2021 को इंडिया फाउंडेशन से जुड़े सुदर्शन रामाबदरण और भाजपा के प्रवक्ता गुरुप्रकाश पासवान द्वारा लिखित पुस्तक ‘मेकर्स ऑफ़ मॉडर्न दलित हिस्ट्री’ के विमोचन कार्यक्रम में आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले का भाषण संघ के समक्ष प्रस्तुत ऐसे ही कुछ धर्मसंकटों का खुलासा करने वाला था। इस भाषण से हमें कुछ ऐसी बातें पता चलती हैं, जो संघ की राजनीति और नाजुक व जटिल सामाजिक यथार्थ के प्रति उसके दृष्टिकोण को समझने में हमारी मदद कर सकती हैं।

होसबोले ने कई मुद्दों पर बात की। उन्होंने कहा कि संघ आरक्षण की व्यवस्था का समर्थक है। परंतु उनके भाषण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था दलित इतिहास को पढने और समझने की उनकी अपील। उन्होंने कहा, “भारतीय इतिहास और दलित इतिहास अलग-अलग नहीं हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि “दलित समुदाय के योगदान पर चर्चा के बगैर देश का राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक इतिहास अधूरा, गलत और भ्रष्ट होगा।” 

यह सही है कि आधुनिक भारत के निर्माण में जाति-विरोध के इतिहास के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। लेकिन हम संघ से एक प्रश्न तो पूछ ही सकते हैं और वह यह कि क्या वह सचमुच जाति का विनाश चाहता है या जाति-विरोध उसके लिए मात्र चुनावी रणनीति है? होसबोले ने कहा कि सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय में संघ की दृढ आस्था है और ये उसके लिए राजनैतिक रणनीतियां नहीं हैं। परंतु यह कहते समय क्या वे इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर रहे थे कि 1990 के दशक के मंडल बनाम मंदिर आंदोलन के बाद से सामाजिक न्याय के लक्ष्य को हासिल करने की राह में रोड़े अटकाने का संघ का लंबा इतिहास रहा है? 

जाति-विरोध के इतिहास को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि हम यह जानें कि किसने क्या किया और क्यों किया। होसबोले ने भी इस पर जोर देते हुए एमएस गोलवलकर द्वारा 1969 में लिखे एक पत्र का ज़िक्र किया, जो उन धार्मिक संतों को संबोधित था, जिन्होंने एक प्रस्ताव पारित कर यह घोषणा की थी कि अछूत प्रथा का हमारे धर्म और समाज में कोई स्थान नहीं है। होसबोले ने कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि यह बात संतों की ओर से कही गई थी, क्योंकि “जब कोई बात ऐसे धार्मिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की ओर से कही जाती है, जिन पदों पर पूर्व में विराजमान लोगों ने संबंधित मुद्दों की सही या गलत विवेचना की थी, तब जो बात वे कहते हैं, वे बहुत दूर तक जातीं हैं।” 

संघ द्वारा पहले भी की जाती रही है आंबेडकर को हिंदुत्व से जोड़ने की कोशिशें

अगर हम दलित इतिहास पर एक दलित लेखक की पुस्तक के विमोचन के अवसर पर आरएसएस के महासचिव के भाषण को इसी तर्क की कसौटी पर कसें तो क्या हम यह कह सकते हैं कि उनकी नीयत नेक है – वह भी तब जो बातें वे कह रहे हैं, उन्हें उनका ही संगठन महत्व नहीं देता। संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा और अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठकों में द्विजों का वर्चस्व रहता है। 

होसबोले ने गोलवलकर के एक पत्र को उद्धृत करते हुए एक महत्वपूर्ण बात कही– “इसे (दलितों के उत्थान) आधुनिक काल के दबावों के आगे झुकने के रूप में नहीं, बल्कि एक चिरकालिक सिद्धांत के रूप में और अतीत की भूलों के प्रायश्चित के विनम्र प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए।” यह संघ के परस्पर-विरोधाभासी चरित्र को उजागर करता है। सच यह है कि दमित वर्गों के सशक्तिकरण की संघ की वकालत, विशुद्ध रूप से आधुनिक काल की अनिवार्यताओं (चुनावों में लाभ और समरसता व एकीकरण के नाम पर ब्राह्मणवाद का पुनरुत्थान) से प्रेरित हैं ना कि अतीत की भूलों का प्रायश्चित करने के भाव से। कहने की ज़रुरत नहीं कि संघ परिवार आज भी ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म का कट्टर समर्थक है। हमारी हालिया पुस्तक ‘द शूद्रास’ में संघ और भाजपा द्वारा अतीत की व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने और सवर्ण/द्विज प्राधान्य को मज़बूत करने के प्रयासों के उदाहरण दिए गए हैं। 

दलितों के इतिहास के संदर्भ में पुस्तक के लेखकों और होसबोले को भी कौन क्या कहता है के साथ-साथ कौन क्या लिखता है, इसके महत्व पर भी विचार करना चाहिए। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि संघ परिवार के सदस्य आदतन चुनिंदा तथ्यों को चिन्हित करते रहे हैं। यह जाति-विरोधी क्रांतिकारियों और विशेषकर दलित इतिहास के मामले में भी हुआ है। वे फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के मुक्तिकामी मूल्यों पर कब्ज़ा कर उन्हें कमज़ोर करना चाहते हैं।

यह पुस्तक भी संघ परिवार के समर्थकों द्वारा ‘दलितबहुजन इतिहास’ के कुछ हिस्सों को चुन कर उनका प्रचार करने की परियोजना का हिस्सा है। उदाहरण के लिए, पृष्ठ 117 पर सावित्रीबाई फुले की प्रसिद्ध कविता “जाओ जाकर पढ़ो-लिखो” प्रकाशित है, परंतु उसमें उसकी अंतिम पंक्ति “ब्राह्मणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फ़ेंक दो’ गायब है। 

पृष्ठ 15 पर दलितों के लिए प्रयुक्त विभिन्न शब्दों की चर्चा है, जिनमें ‘दमित वर्ग’ और ‘उत्पीड़ित हिंदू’ तो शामिल हैं, परंतु डॉ बी.आर. आंबेडकर द्वारा प्रयुक्त शब्दावली ‘नॉन-कास्ट हिंदूज’, ‘प्रोटोस्टेंट हिंदूज’ और ‘नॉन-कांफोर्मिस्ट हिंदूज’ का ज़िक्र नहीं है। ‘उत्पीड़ित हिंदू’ और ‘नॉन-कास्ट हिंदूज’ के बीच का अंतर, इतिहास में ज्ञानमीमांसागत टकराव की ओर इशारा करते हैं, जिसे संघ आधुनिक इतिहास से विलोपित कर देना चाहता है। 

इसी तरह, पृष्ठ 143 पर लेखक कहते हैं, “जाति का विनाश अवश्य पढ़ी जानी चाहिए, क्योंकि वह बिना हिंसा या दंडात्मक कार्यवाही के सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने का आह्वान करती है। यही आंबेडकर का अनूठापन था। उन्होंने तो दलितों से यह गुहार भी लगाई थी कि वे उपनिषदों के सिद्धांतों पर आधारित एक नए धर्म की स्थापना करें।”  

यह दावा आंबेडकर के मुक्तिकामी दर्शन की उनकी बेईमान, अधूरी और झूठी व्याख्या की पोल खोलता है। आंबेडकर ने जाति का विनाश  के द्वितीय संस्करण (1937) की भूमिका में लिखा था, “लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल के लिए मैंने जो व्याख्यान तैयार किया है, आश्चर्यजनक रूप से हिंदू जनता, जिसके लिए वह मुख्यतः लिखा गया था, ने उसका गर्मजोशी से स्वागत किया गया है।” वे आगे लिखते हैं, “अगर मैं हिंदुओं को यह अहसास करा सका कि वे भारत के बीमार लोग हैं, और उनकी बीमारी अन्य भारतीयों के स्वास्थ्य और प्रसन्नता के लिए खतरा है, तो मेरी संतुष्टि के लिए इतना काफी होगा।”  

इस पुस्तक [सुदर्शन रामाबदरण और गुरुप्रकाश पासवान द्वारा लिखी पुस्तक] के किसी भी पाठक को आसानी से यह समझ में आ जाएगा कि यह पुस्तक सवर्ण हिंदुओं के लिए लिखी गई है। पुस्तक में  दलितों से गुहार लगाई गई है कि वे उपनिषदों के सिद्धांतों पर आधारित एक नए धर्म की स्थापना करें – ऐसा  दावा पुस्तक के मुक्तिदायक सामर्थ्य को कमज़ोर करने के लिए जानबूझकर किया गया है।  

यहां जाति का विनाश के संबंधित संपूर्ण पैराग्राफ को उदृत करना समीचीन होगा। सवर्ण हिंदुओं को सलाह देते हुए आंबेडकर लिखते हैं: “आप चाहे ऐसा करें या न करें, परंतु आपको अपने धर्म का  एक नया सैद्धांतिक आधार बनाना होगा – जो स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के मूल्यों, संक्षेप में लोकतंत्र से तालमेल बना सके। मैं इस विषय का अधिकारी नहीं हूं। लेकिन मुझे बताया गया है कि ऐसे धार्मिक सिद्धांतों के लिए, जिनका तालमेल स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व से हो, विदेशी स्रोतों से उधार लेने की जरूरत नहीं होगी और आप उपनिषदों से अपने सिद्धांत निकाल सकते हैं।” (बी. आर. आंबेडकर, ‘जाति का विनाश’, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 24.5, पृष्ठ 119)   

इससे साफ़ है कि आंबेडकर का जोर शास्त्रों की प्रभुत्व को ठुकराने और शास्त्रों के धर्म को नष्ट करने पर था। वे आगे लिखते हैं कि वे हिंदू धर्म को त्याग रहे हैं और उन्हें (सवर्ण हिंदुओं) जाति के उन्मूलन के लिए काम करते रहना चाहिए। “मुझे खेद है, मैं आपके साथ नहीं होऊंगा। मैंने धर्म बदलने का निर्णय लिया है। इसके कारण बताने के लिए यह उपयुक्त स्थान नहीं है। यद्यपि मैं आपके दायरे से बाहर चला जाऊंगा, मैं आपके आंदोलन को सक्रिय सहानुभूति से देखता रहूंगा और मेरी सहायता का मूल्य जो भी हो, वह आपको मिलेगा।” (वही, 26.3, पृष्ठ 124) 

ऊपर उदृत दोनों अनुच्छेदांशों से यह साफ़ है कि जाति का विनाश  में आंबेडकर सवर्णों (दलितों नहीं) का आह्वान कर रहे थे कि वे “हिंदू धर्म को ब्राह्मणवाद के ज़हर से मुक्त करने’ के तरीके तलाश करें। ‘मेकर्स ऑफ़ मॉडर्न दलित हिस्ट्री’ के लेखक और उनके पहले के हिंदू राष्ट्रवादी, जाति का विनाश  से चुनिन्दा पंक्तियां उद्धृत कर यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि आंबेडकर उपनिषदों में आस्था रखते थे। उनके अनुसार, आंबेडकर ने बौद्ध धर्म भले ही अपना लिया हो, परंतु एक नए प्रजातंत्र के उनके सिद्धांत के मूल तत्त्व उपनिषदों पर आधारित थे। इससे उनके इस प्रचार को भी बल मिलता है कि बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म का अविभाज्य हिस्सा है। 

संघ परिवार के विपरीत, जाति और हिंदू धर्म का आंबेडकर का अध्ययन इतिहास की गहन पड़ताल पर आधारित था। उनके लेखन को निरंतरता से और उसके संदर्भों सहित न पढ़कर हम उनके अनवरत संघर्ष और विद्वता का अपमान करेंगे। 

उपनिषदों के गहन अध्ययन को जारी रखते हुए ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ (पहेली 8 एवं 9) में वे इस बात की पड़ताल करते हैं कि प्रारंभ में उपनिषद वेदों का हिस्सा क्यों नहीं थे, बल्कि कई मामलों में वेदों से विरोधाभासी बातें क्यों कहते थे, और आगे चलकर कैसे उन्हें वेदों से गौण घोषित कर दिया गया।  

इसके और आगे पड़ताल करते हुए ‘हिंदू धर्म का दर्शन’ में आंबेडकर लिखते हैं कि उपनिषद “अंततः अटकलबाजी करने वाली अकारथ और महत्वहीन कृतियां सिद्ध हुए, जिनका हिंदुओं की सामाजिक और नैतिक व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।” उनकी अप्रभावकारिता के कारणों की चर्चा करते हुए वे बदलती हुई सामाजिक स्थितियों में सत्य की प्रकृति पर बात करते हैं। वे लिखते हैं, “उपनिषदों के दार्शनिक लेखक यह नहीं समझ पाए कि केवल सत्य को जानना पर्याप्त नहीं है। हमें सत्य से प्रेम करना भी सीखना होता है।” 

धर्म के मात्र तत्वमीमांसा से भरे होने की समस्या का ज़िक्र करते हुए आंबेडकर इस तर्क का अनुमोदन करते हैं कि तत्वमीमांसा से आम लोगों का कोई लेना-देना नहीं होता और इसलिए वह नीतिशास्त्र का आधार नहीं बन सकता। इस कारण वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि, “यह निर्विवाद है कि उपनिषदों में निहित दर्शन के बावजूद हिंदुओं की नैतिक संहिता, मनु द्वारा प्रतिपादित हिंदू धर्म के दर्शन से लेशमात्र भी दूर नहीं खिसकी। मनु द्वारा धर्म के नाम पर जो दुष्टतापूर्ण बातें कहीं गईं थीं, उन्हें विलोपित करने में उपनिषद अप्रभावकारी और शक्तिहीन साबित हुए। अतः उपनिषदों के होते हुए भी हम कह सकते हैं कि, ‘हिंदू धर्म, असमानता ही तेरा दूसरा नाम है’।” 

आंबेडकर के उपनिषदों के बारे में विचार को उसकी संपूर्णता में पढ़ने से यह जाहिर होता है कि लेखकों ने उनके विषय का ध्यानपूर्वक अनुसंधान नहीं किया है। ऐसा लगता है कि उनका एजेंडा यह है कि उग्र जाति-विरोधियों के केवल कुछ विचारों पर जोर दिया जाए और उनके सोच के क्रांतिकारी पक्ष को छोड़ दिया जाए। 

इससे पहले (अप्रैल 2015 और 2016 में आर्गेनाइजर के आंबेडकर पर केंद्रित विशेष अंक) भी संघ परिवार ने आंबेडकर के दर्शन पर कब्ज़ा ज़माने के प्रयास किए थे। देश भर के जाति-विरोधी बहुजन बुद्धिजीवियों ने इसकी खिलाफत करते हुए कहा था कि हिंदुत्व न तो आंबेडकर को अपना सकता है और ना ही उन पर कब्ज़ा कर सकता है।

होसबोले को यह पता होना चाहिए कि भारतीय इतिहास (जैसे कि सामान्यतः लिखा और प्रस्तुत किया जाता है) और जाति के विरोध का इतिहास (जिसे नज़रअंदाज़ किया जाता है और जिसका मूल्य कम करके आंका जाता है) दो अलग-अलग चीज़ें हैं, जिनमें अनवरत टकराव होता रहता है। पुस्तक के लेखक ‘दलित विमर्श के अराजनीतिकरण’ के पक्षधर हैं और उनकी यह सोच पूरी पुस्तक में प्रतिबिंबित होती है। निसंदेह यह अब्राह्मणीकरण की वर्तमान में जारी क्रांतिकारी प्रक्रिया को रोकने का प्रयास है। इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए कई शक्तियां लामबंद हो रहीं हैं और वे केवल ‘अतीत की भूलों’ (पृष्ठ 14) से संघर्षरत नहीं हैं वरन वे मुख्यतः उस अमानवीय ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ लामबंद हैं, जिसे आंबेडकर ने ‘जाति का विनाश’ में अन्य भारतीयों के स्वास्थ्य और प्रसन्नता के लिए खतरा बताया था।”    

अंग्रेजी में यह आलेख द वायर द्वारा 18 अगस्त, 2021 को प्रकाशित व यहां लेखक की सहमति से प्रकाशित

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल) 


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लेखक के बारे में

पल्लीकोंडा मणिकंटा

पल्लीकोंडा मणिकंटा, तेलंगाना के फुले-आम्बेडकरवादी अध्येता और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में बहुजन स्टूडेंट्स फ्रंट और जेएनयू में बिरसा आंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन के साथ काम किया है। वे जाति-विरोधी विचार और राजनीति, हिन्दू राष्ट्रवाद के राजनैतिक अर्थशास्त्र और तेलंगाना की राजनैतिक संस्कृति पर शोध और लेखन करते हैं। हाल में उन्होंने कांचा इलैया शेपर्ड और कार्तिक राजा करुप्पुसामी द्वारा सम्पादित पुस्तक 'द शुद्रास: विज़न फॉर ए न्यू पाथ' में एक अध्याय लिखा है।

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