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पंजाब में बदलाव की शुरुआत है चन्नी का मुख्यमंत्री बनना

पंजाब के दलितों ने अपने तथाकथित ‘निचले दर्जे’ को कभी अपनी नियति के रूप में स्वीकार नहीं किया। सिक्ख धर्म के समतावादी मूल्यों और उसके एकेश्वरवादी आध्यात्मिक दर्शन से उद्भूत नैतिक और सामाजिक बल के सहारे वे राजनैतिक और सामाजिक जागरूकता उत्पन्न करने के लिए कठिन संघर्ष करते आये हैं

पिछले कुछ वक्त से सत्ता के शीर्ष स्तर पर दलितों की हिस्सेदारी सन् 2022 में पंजाब में होने वाले चुनावों पर चर्चा के केंद्र में आ गई है। सभी राजनैतिक दल वायदा कर रहे हैं कि अगर उन्हें पंजाब में सरकार बनाने का मौका मिला तो वे दलित समुदाय (जो राज्य का आबादी का लगभग एक-तिहाई है) को समुचित सम्मान देते हुए किसी दलित को उपमुख्यमंत्री या मुख्यमंत्री बनाएंगे। लेकिन बाजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मार ली। पंजाब कांग्रेस विधायक दल की बैठक में रामदसिया दलित सिक्ख और अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित प्रतिष्ठित चमकौर साहिब निर्वाचन क्षेत्र से विधायक चरणजीत सिंह चन्नी को राज्य के 17वें मुख्यमंत्री के रूप में निर्वाचित किया गया।  

चन्नी के मुख्यमंत्री बनने से कुछ महीने पहले से राज्य में राजनैतिक उथलपुथल मची रही, जिससे राज्य और केंद्र दोनों का कांग्रेस नेतृत्व काफी परेशान रहा। पार्टी के शीर्ष नेता चंडीगढ़ से दिल्ली और दिल्ली से चंडीगढ़ की यात्राओं में व्यस्त रहे। कांग्रेस के इस घरेलू विवाद की शुरुआत नवजोत सिंह सिद्धू द्वारा राज्य की बिगड़ती कानून-व्यवस्था और जर्जर आर्थिक स्थिति से निपटने में तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की असफलता को सार्वजनिक मुद्दा बनाने से हुई। इस बीच चरणजीत सिंह चन्नी ने भी कुछ विधायकों को उनकी योग्यता के अनुरूप काम न दिए जाने और दलितों की उपेक्षा के मुद्दे उठाए। चन्नी ने अपनी बात मजबूती से रखी, परन्तु उन्होंने इन मुद्दों को विवाद का विषय नहीं बनने दिया। उन्होंने स्थिति को कुशलता से सम्हाला और संकट से निपटने में अपनी प्रवीणता और अपनी स्वभावगत विशेषताओं को प्रदर्शित किया। 

चन्नी में अपने विरोधियों से भी तालमेल बैठाने की क्षमता है, जिसने मुख्यमंत्री बनने के ठीक पहले के तेजी से बदलते राजनैतिक घटनाक्रम के दौरान उन्हें लाभ पहुंचाया। चन्नी को मुख्यमंत्री पद की ज़िम्मेदारी सौंपने के निर्णय की विभिन्न राजनैतिक और सामाजिक खेमों में जिस तरह की सकारात्मक प्रतिक्रिया सामने आई है, उससे जाहिर है कि वे न केवल अपने साथियों वरन अपने विरोधियों के बीच भी लोकप्रिय हैं।  

कई लोगों का कहना है कि उनका दलित होना चन्नी की पदोन्नति का सबसे महत्वपूर्ण कारण है। यह ठीक भी है क्योंकि दलित पंजाब की आबादी का एक तिहाई हैं। परंतु यह कहना गलत होगा कि चन्नी की जाति उनके मुख्यमंत्री बनने के पीछे का एकमात्र कारण है। बाहर के लोगों को ‘दलित’ या ‘पूर्व अछूत’ शब्दों को सुनकर शायद ऐसा लगता होगा कि हम किसी एक विशिष्ट समुदाय की बात कर रहे हैं। परन्तु ऐसा है नहीं। दरअसल पंजाब में 39 अलग-अलग दलित जातियां हैं, जो हिन्दू, सिक्ख, ईसाई और बौद्ध धर्मों और अनेक डेरा-आधारित आस्थाओं और सांस्कृतिक केन्द्रों में बंटी हुई हैं। दूसरे शब्दों में, दलित की बड़ी छतरी के नीचे अनेक छोटी-छोटी छतरियां हैं। परन्तु इस आंतरिक विभाजनों के होते हुए भी चन्नी के मुख्यमंत्री बनने से सभी दलितों को लाभ होगा। इस कारण बड़ी संख्या में दलित वोट कांग्रेस की तरफ खिसक जाएंगे, क्योंकि जिन समुदायों ने सदियों तक दमन का सामना किया है, उनके लिए उनके बीच के व्यक्ति का सर्वोच्च पद पर पहुंचना ही नैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत संतोषप्रद होता है। 

चन्नी को निःसंदेह दलित होने का लाभ मिला होगा, परंतु वे मुख्यमंत्री पद के लिए पूरी तरह पात्र हैं। वे एमए, एलएलबी और एमबीए हैं तथा उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में पीएचडी करने के लिए पंजीकरण भी करवाया था। वे विश्वविद्यालय स्तर के खिलाड़ी और भांगड़ा कलाकार रहे हैं। ये सारी उपलब्धियां उन्होंने केवल और केवल कड़े परिश्रम से हासिल की हैं। उनका परिवार अत्यंत गरीब था। शपथग्रहण के बाद प्रेस संवाददाताओं से बात करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे वे अपने कच्चे घर की मरम्मत के लिए गांव के तालाब से मिट्टी खोदकर लाने में अपनी मां की मदद किया करते थे। यह बताते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए। राज्य-स्तरीय राजनीति में पदार्पण से पहले चन्नी तीन बार पार्षद रहे। वे 2007 विधानसभा चुनाव में चमकौर साहिब निर्वाचन क्षेत्र से आजाद उम्मीदवार के रूप में विजयी होकर पहली बार विधायक बने। बाद में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ले ली और इसी निर्वाचन क्षेत्र से लगातार दो बार चुनाव में जीत हासिल की। उनका संसदीय अनुभव भी खासा है। वे 2015 से लेकर 2017 तक विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे हैं। अमरिंदर सिंह की सरकार में वे तकनीकी शिक्षा मंत्री थे। मिलनसार स्व्भाव के कारण वे आम लोगों में बहुत लोकप्रिय हैं। वे लंबे समय तक कई विवादों में घिरे रहे और उन पर कई आरोप भी लगे। परंतु उन्होंने पारदर्शिता बनाए रखी और कानून को अपना काम करने दिया। 

पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी

मुख्यमंत्री पद पर चन्नी की नियुक्ति ने दलित-सिक्ख पहचान को पंजाब के राजनैतिक विमर्श के केन्द्र में ला दिया है। जो लोग पंजाब के सामाजिक यथार्थ से वाकिफ नहीं हैं, उन्हें दलित-सिक्ख शब्द सुनकर आश्चर्य होता है। दलित-सिक्ख अक्सर यह शिकायत करते आए हैं कि उनके निम्न सामाजिक दर्जे के कारण वे देश के एकमात्र सिक्ख बहुल राज्य पंजाब में भी सत्ता के केन्द्र से दूर रहे आए हैं। सच तो यह है कि सिक्खों में जाति का होना ही असंगत लगता है क्योंकि इस धर्म की स्थापना ही जाति के नकार और महिलाओं को गरिमापूर्ण जीवन उपलब्ध करवाने के लिए की गई थी। इस धर्म के कुछ अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं: अपने पसीने की कमाई से जीवनयापन करना, अपनी मेहनत का फल दूसरों के साथ बांटना और अकालपूरक (ईश्वर) के मूलतत्व का ध्यान करना। इस तरह की नैतिक संहिता और दैनिक जीवन में इसके पालन पर सिक्ख धर्म के संस्थापक बाबा नानक (1469-1539) के समय से ही जोर दिए जाने के कारण बड़ी संख्या में लोग इस नए धर्म की ओर आकर्षित हुए, विशेषकर वे जो हिन्दू धर्म में वंचना और बहिष्करण के शिकार थे। सिक्ख धर्म जाति सहित किसी भी आधार पर सामाजिक स्तरीकरण को स्वीकृति नहीं देता। दलित सिक्खों ने गरिमा और सामाजिक बराबरी हासिल करने की उम्मीद में सिक्ख धर्म अपनाया था, परंतु जाति का अभिशाप इतनी आसानी से किसी का पीछा नहीं छोड़ता। सिक्ख बनने के बाद भी उनका बहिष्करण जारी रहा। अपने समतावादी दर्शन और सिक्ख सुधारवादी संगठनों के साहसिक सद्प्रयासों के बाद भी सिक्ख धर्म अपने आपको जाति से मुक्त नहीं कर सका। सन् 1881 और 1931 की जनगणनाओं में सिक्ख समुदाय के भीतर जिन जातियों की पहचान की गई, उनमें शामिल थे अरोरा, अहलूवालिया, भट्टरा, छिम्बा, जाट, झीर, खत्री, कम्बोह, लबाना, लुहार, महातम, मजहबी, नाई, रामगढ़िया, रामदसिया, रंग्घरेता और सैनी। इनमें से 11 मुख्य जातियां थीं। जाट व कम्बोह (कृषक), खत्री और अरोरा (व्यापारी), तरखान, लुहार, नाई और छिम्बा (शिंल्पकार), कलाल (शराब बनाने वाले) व चमार व चूहड़ (जातिच्युत दलित)। अंतिम दो जातियों ने सिक्ख धर्म अपनाने के बाद नया नाम हासिल कर लिया है। जो लोग पारंपरिक रूप से चमड़े और बुनाई का काम करते थे, वे रामदसिया और रविदसिया कहलाने लगे। मेहतरों को मजहबी और रंग्घरेता कहा जाने लगा। अन्य दलित सिक्ख जातियों में राय और सांसी शामिल हैं। इस तरह पंजाब के सामाजिक ढांचे के शीर्ष पर हैं जाट, खत्री और अरोरा सिक्ख और इसके सबसे निचले पायदान पर हैं रामदसिया, रविदसिया, मजहबी, रंग्घरेता, राय और सांसी। उन्हें रामगढ़िया और अहलुवालिया से भी नीचा समझा जाता है। हिंदू धर्म को छोड़कर सिक्ख धर्म में जाते समय ये लोग अपना सामाजिक दर्जा भी अपने साथ ले गए। दलित सिक्खों ने स्वयं भी सिक्ख धर्म के समतावादी सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए अपने को अनेक उप-जातियों में बांट लिया है। विवाह इन उपजातियों की सीमा के अंदर ही होते हैं। रामदासिया और रविदासिया सिक्ख स्वयं को मजहबी और रंगरेता सिक्खों से उच्च समझते हैं। रामदसिया और रविदसिया का मूल चमार समुदाय है, परंतु इनमें भी रामदसिया अपने आपको रविदसिया से ऊंचा मानते हैं। सांसी और चमारों को मजहबियों से नीचा माना जाता है। परंतु गैर-दलित जातियों के लिए दलित सिक्खों के आंतरिक पदक्रम का कोई अर्थ नहीं है। उनके लिए सांसी, चमार और मजहबी एक ही हैं – समाज का सबसे निम्न वर्ग। 

पंजाब की कृषि भूमि में दलितों की हिस्सेदारी सबसे कम है। अपनी खासी आबादी के बाद भी केवल पांच प्रतिशत दलित सिक्ख किसान ही भूस्वामी हैं। आश्चर्य नहीं कि वे अब तक राज्य की विधानसभा में अपनी उपस्थिति का अहसास करवाने में असफल रहे हैं। यद्यपि राज्य की 117 विधानसभा सीटों में से 34 दलितों के लिए आरक्षित हैं, परंतु जो लोग यहां से चुने जाते हैं, उनसे अपेक्षा यही रहती है कि वे उस पार्टी की नीतियों पर चलेंगे, जिसकी टिकट पर वे चुने गए हैं।       

इस तरह आबादी में उनके बड़े हिस्से के बाद भी दलितों को सत्ता के केक के चंद टुकड़े ही हासिल हो सके हैं। पंजाब के दलितों ने अपने तथाकथित ‘निचले दर्जे’ को अपनी नियति के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया। सिक्ख धर्म के समतावादी मूल्यों और उसके एकेश्वरवादी आध्यात्मिक दर्शन से उद्भूत नैतिक और सामाजिक बल के सहारे वे राजनैतिक और सामाजिक जागरूकता उत्पन्न करने के लिए कड़ा संघर्ष करते आये हैं। उन्हें अन्य आंदोलनों जैसे आद धर्म, आंबेडकरवादी और बाबू कांशीराम के बहुजन आंदोलन से भी मदद मिली। ज्ञातव्य है कि कांशीराम भी रामदसिया दलित सिक्ख थे। दलित सिक्खों द्वारा अपने समुदाय को सामाजिक और राजनैतिक रूप से जागृत करने के प्रयासों के कारण उनमें अपनी बेड़ियों से मुक्त होने और सशक्त बनने की महत्वाकांक्षा जागी है।

चरनजीत सिंह चन्नी का मुख्यमंत्री बनना एक तरह से दलित सशक्तिकरण के स्वप्न का साकार होना है। कुछ प्रतिद्वंद्वी राजनैतिक समूहों द्वारा यह प्रचारित किया जा रहा है कि चन्नी की नियुक्ति केवल प्रतीकात्मक है और उसके पीछे पार्टी नेतृत्व की इच्छा कम और मजबूरी ज्यादा है। परंतु ऐसा कहने वाले पंजाब के राजनैतिक इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर उठाए गए इस महत्वपूर्ण कदम की उपयोगिता और प्रासंगिकता को नहीं समझ पा रहे हैं। अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली सरकार पर विश्वास का संकट था। सरकार द्वारा जो वायदे पूरे नहीं किए गए थे, उनकी सूची काफी लम्बी थी और सरकार चलाने की शिरोमणि अकाली दल की क्षमता पर लगभग सभी को संदेह था। अब एक नई शुरूआत हुई है और जनवादी शासन व्यवस्था के निर्माण की आशा जगी है। 

परंतु जिन चुनौतियों के कारण अमरिंदर सिंह सरकार का पतन हुआ, उन पर विजय प्राप्त करना अभी भी बाकी है। चन्नी को सरकार के उस लकवे को दुरूस्त करना होगा, जिसका शिकार वह उनके पूर्ववर्ती के शासनकाल में हो गई थी। यह किसी से छिपा नहीं है कि आम आदमी तो छोड़िए, सत्ताधारी दल के विधायकों और सांसदों की भी अमरिंदर सिंह तक पहुंच नहीं थी।

चन्नी के सामने अधूरे कामों का ढेर है। उन्हें किसानों के आंदोलन और बेरोजगारी की समस्या से निपटना है। उन्हें ड्रग्स व बालू माफिया को परास्त करना है। स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में आवश्यक सुधार करने हैं। कानून व्यवस्था की स्थिति को बेहतर बनाना है और धार्मिक स्थानों के अपवित्रीकरण से संबंधित लंबे समय से लंबित न्यायालयधीन प्रकरणों के संबंध में कई निर्णय लेने हैं। उन्हें अमरिंदर सरकार द्वारा किए गए वायदों को भी पूरा करना होगा। इनमें शामिल हैं किसान आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले 150 किसानों के परिवारजनों को सरकारी नौकरी देना और शैक्षणिक संस्थानों में पिछले 25 साल से खाली पड़े 1,400 पदों को भरना। पंजाब परिवहन निगम के संविदा कर्मचारी आंदोलनरत हैं। वे स्थायी नौकरी चाहते हैं। नए मुख्यमंत्री को पुलिस विभाग की शिकायतों का भी निवारण करना होगा। सबसे बड़ी समस्या यह है कि ऐसा बताया जाता है कि राज्य का खजाना पूरी तरह से खाली है। ये तो हुईं शासन से संबंधित चुनौतियां। इसके अलावा चन्नी को यह भी सुनिश्चित करना है कि कांग्रेस के झुंड में से कोई दूसरे खेमे जाने न पाए और यह भी कि 2022 के चुनाव के बाद दुबारा सत्ता में लौटें।  

(अनुवादः अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

रौनकी राम

रौनकी राम पंजाब विश्वविद्यालय,चंडीगढ़ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं। उनके द्वारा रचित और संपादित पुस्तकों में ‘दलित पहचान, मुक्ति, अतेय शक्तिकरण’, (दलित आइडेंटिटी, इमॅनिशिपेशन एंड ऍमपॉवरमेंट, पटियाला, पंजाब विश्वविद्यालय पब्लिकेशन ब्यूरो, 2012), ‘दलित चेतना : सरोत ते साररूप’ (दलित कॉन्सशनेस : सोर्सेए एंड फॉर्म; चंडीगढ़, लोकगीत प्रकाशन, 2010) और ‘ग्लोबलाइजेशन एंड द पॉलिटिक्स ऑफ आइडेंटिटी इन इंडिया’, दिल्ली, पियर्सन लॉंगमैन, 2008, (भूपिंदर बरार और आशुतोष कुमार के साथ सह संपादन) शामिल हैं।

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