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जाति, समाज और साहित्य : रामधारी सिंह दिवाकर से खास बातचीत (पहली किश्त)

बिहार के वरिष्ठ बहुजन साहित्यकार रामधारी सिंह दिवाकर से युवा समालोचक अरुण नारायण की बातचीत की पहली कड़ी में पढ़ें 1990 के दशक में और उसके पहले के समाज व साहित्य के बारे में

रामधारी सिंह दिवाकर हिंदी के उन चंद महत्वपूर्ण लेखकों में हैं, जिनकी कहानियों, उपन्यासों और संस्मरण पुस्तकों ने जाति, वर्ग और पितृसत्तात्मक जड़ता को अपने तरीके से टारगेट किया है। वह चाहे मंडल आंदोलन के पहले और बाद के हुए बदलाव हों या पंचायतों में महिलाओं की हिस्सेदारी के बाद का बदलता हुआ बिहार– रामधारी सिंह दिवाकर के संपूर्ण लेखन में इन बदलावों के सूक्ष्मतम रूप अभिव्यक्त हुए हैं। ‘पंचमी तत्पुरुष’, ‘अकाल संध्या’, ‘आग’, ‘पानी आकाश’, ‘टूटते दायरे’, ‘दाखिल खारिज’ आदि उनके छह प्रकाशित उपन्यास हैं और ‘अंतिम अध्याय’ प्रकाशनाधीन उपन्यास। लगभग इतनी ही संख्या में उनकी कहानियों के भी संकलन प्रकाशित हैं, जिनमें ‘मखान पोखर’, ‘वर्णाश्रम’, ‘हड़ताली मोड़’, ‘छोटे-छोटे बड़े युद्ध’ आदि मुख्य हैं। उत्तर बिहार के गांवों पर लिखी उनकी टिप्पणियों का भी एक संकलन- ’जहां आपनो गांव’ के नाम से प्रकाशित है।

रचनात्मक मेधा के लिए उन्हें श्रीलाल शुक्ल इफको सम्मान, बिहार राजभाषा जैसे प्रतिष्ठित सम्मान भी मिल चुके हैं। 1 जनवरी, 1945 को बिहार के अररिया जिले के नरपतगंज में जन्में रामधारी सिंह दिवाकर की आरंभिक शिक्षा अपने गांव के विद्यालय से हुई। तत्पश्चात मुजफ्फरपुर और भागलपुर से उच्च शिक्षा की डिग्री ली। उन्होंने 1979 से अध्यापन के पेशे में आए। निर्मली और सीएम काॅलेज, दरभंगा में अध्यापन कार्य किया फिर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक बने। संप्रति पटना में रहकर पूर्णकालिक लेखन के काम में अबाध रूप से सक्रिय हैं। बिहार के युवा साहित्यकार व समालोचक अरुण नारायण ने उनसे खास बातचीत की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत की पहली किश्त

रामधारी सिंह दिवाकर का आंखों-देखा और अनकहा जीवन

  • अरुण नारायण

इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं?

पिछले डेढ़ सालों से मैं आत्मकथात्मक संस्मरण लिख रहा हूं। कोरोना संक्रमण के कारण इसमें बाधा पड़ी, लेकिन काम पूरा हो गया। लगभग चार सौ पृष्ठों की यह किताब मेरे प्राध्यापक बनने से लेकर सेवामुक्त होने तक के समय को समेटती है। 

इसमें खास क्या है?

 मेरे इस संस्मरण में मेरी जाति की जिज्ञासा को लेकर शैक्षणिक माहौल में जो चर्चा-कुचर्चा हुई उसका इसमें लंबा वृत्तांत है। निर्मली काॅलेज के राजपूत प्रिंसिपल ने कमीशन से मेरा पहला नाम आने के बावजूद यह जानकर नियुक्ति की कि यह रामधारी सिंह चौहान शुद्ध राजपूत है। बाद में जब उनको पता चला कि यह चौहान राजपूत नहीं है तो उन्होंने अपने सजातीय प्राध्यापक से कहा– ‘राॅंग सेलेक्शन’। जब मेरी नियुक्ति बिहार लोक सेवा आयोग की अनुशंसा पर सीएम काॅलेज, दरभंगा में हुई तो मैंने निर्मली काॅलेज के प्रिंसिपल के सामने उनसे कहा कि सर मेरी नियुक्ति आपका राॅंग सेलेक्शन था, अब राइट सेलेक्शन कर लें। उल्लेखनीय है कि निर्मली में रहते हुए मैं लेखक बन रहा था। ‘नई कहानियां’ और ‘धर्मयुग’ में मेरी कहानियां छप चुकी थीं। 1967 से 74 तक मैं निर्मली काॅलेज में रहा।

दरभंगा का आपका अनुभव कैसा रहा?

यहां भी जाति मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी। सीएम काॅलेज दरभंगा जहां अस्सी प्रतिशत से भी ज्यादा ब्राह्मण प्राध्यापक थे। उन्हें वहां मेरा आना उन्हें ऐसा लगा जैसे उन लोगों के बीच हुराड़ (कोई भद्दा सा दीखने वाला) आ गया हो। सबके कान खड़े थे कि यह चौहान क्या है? आखिर मैंने स्पष्ट कर दिया कि मैं राजपूत नहीं हूं और फारवर्ड भी नहीं हूं। लेकिन एक बात थी, जिसने सीएम काॅलेज में ही नहीं, पूरे प्राध्यापक वर्ग में मेरी साहित्यिक प्रतिष्ठा काफी बढी हुई थी। … दरभंगा के पूरे कार्यकाल में मुझे मैथिल ब्राह्मणों से जूझते रहना पड़ा। मुझे परेशान करने की कुचेष्टा में सारे प्राध्यापक लगे रहते थे और इर्ष्या भी करते थे कि दिवाकर जी ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ और ‘सारिका’ आदि में छपते हैं। बिलकुल रचना विरोधी माहौल में मैं रहा। अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक में मैंने इसपर विस्तार से लिखा है कि कैसे हिंदी विभागध्यक्ष डाॅ. रमाकांत पाठक ने अपने चेलों से मुझे परेशान करवाया। इन सबके बावजूद मैं दृढ़ता से लेकिन बचते हुए अपना काम करता रहा। रमाकांत पाठक के न चाहने के बावजूद कुलपति प्रो.जे.पी. सिंह मुझे पीजी (पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज) ले गए। वे मुझे ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ के माध्यम से जानते थे। वे हिंदी के अत्याधुनिक साहित्य से परिचित थे। पाठक जी के जीवनकाल में इनको अंगूठा दिखाते हुए मैं पीजी में प्रोफेसर बना और अध्यक्ष भी। हालांकि अध्यक्षता मैंने ज्वाईन नहीं की, क्योंकि तब मैं पटना में था और दरभंगा जाना नहीं चाहता था।

जिस कैम्पस में आप रहते थे, क्या वहां भी जात-पात का माहौल था? 

एक विचित्र बात यह थी कि टीचर्स बिल्डिंग में जहां मैं सपरिवार रहता था, वहां सारे प्राध्यापक एक भूमिहार, एक मुस्लिम को छोड़कर सब के सब मैथिल ब्राह्मण थे। मुझे यह सोचकर आज भी बहुत खुशी होती है इन सबने मुझे हमेशा सम्मान की दृष्टि से देखा। कभी यद्यपि पिछड़ी जाति का होने के बावजूद मुझे या मेरे परिवार को हेय दृष्टि से किसी ने नहीं देखा। इसके पीछे एक वजह मेरा लेखक होना भी था। फ्लैट की ही दो प्रोफेसरों पर मैने ‘धर्मयुग’ और ‘हिन्दुस्तान’ में कहानियां लिखी थीं, जिसका खामियाजा भी मुझे भुगतना पड़ा, लेकिन इसमें मेरा नाम भी हुआ।

रामधारी सिंह दिवाकर, वरिष्ठ बहुजन साहित्यकार

उन दोनों कहानियों के वास्तविक पात्रों की इस संदर्भ में क्या प्रतिक्रियाएं रहीं?

मुस्लिम परिवार को लेकर मैंने ‘जाहिल’ कहानी लिखी, जो ‘धर्मयुग में छपी। इस कहानी ने मुझे थोड़ा संकट में डाला था। महिला मुस्लिम प्रोफेसर ने कुलपति से मेरे खिलाफ शिकायत की थी और शिकायत का आधार यही ‘जाहिल’ कहानी थी। कुलपति ने मुझे बार-बार बुलाया, लेकिन मैं गया ही नहीं। वह महिला कुलपति मोगनी साहब के पास जाती थी और मुझपर कार्रवाई करने की बात कहती थी। ऐसी और भी कई घटनाएं रहीं। दूसरी कहानी ‘धरातल’ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में छपी। वह मेरे फ्लैट के उपर रहने वाले मिश्रा दम्पति पर थी। महिला अध्यापक से मेरे पारिवारिक संबंध थे। वह उलाहना देने मेरे क्वार्टर आईं, क्योंकि कुछ बातें उनपर हू-ब-हू लागू होती थीं। इस घटना से मुझे अफसोस भी हुआ कि मैंने नाम बेकार दिया। लेकिन इन दोनों कहानियों का असर यह हुआ कि फ्लैट के लोग मुझे खतरनाक मानने लगे। मेरी पत्नी ने भी मुझे डांटा।

कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद की राजनीतिक उपस्थिति पर मैथिल समाज में क्या प्रतिक्रिया होती थी? 

सारे मैथिल ब्राह्मण थे। जगन्नाथ मिश्र की सत्ता थी। उसका पूरा लाभ सब ने उठाया था। 1977 में कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्रित्व काल में अति पिछड़ों के लिए जो आरक्षण लागू हुआ, उसको लेकर मिथिला विश्वविद्यालय में अच्छा-खासा बवाल मचा। लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने पर मैथिलों पर लगा जेैसे बज्जड़ (वज्र : इंद्र का अस्त्र) ही गिर पड़ा। जगन्नाथ मिश्र खेमे के मैथिल ब्राह्मण लालू प्रसाद को ‘ललुआ’ कहते थे। मैं तो सिर्फ सुन लेता था, लेकिन मेरी पत्नी इस संबोधन को लेकर इतनी उतेजित हो जाती थीं कि मैथिल महिलाएं सामने से हट जाती थीं। पत्नी ही कहती थीं कि जगन्नाथ मिश्र को जगरनथिया कहेंगे तो आपको कैसा लगेगा। शासन राजद का था, इसलिए डर से कोई मैथिल ब्राह्मण जवाब नहीं दे पाता था।

इन सब स्थितियों की तब आप पर क्या प्रतिक्रिया होती थी? 

ऐसे ही कुछ तल्ख और मीठे अनुभव दरभंगा के हैं। मेरा विरोध खासकर हिंदी वाले मैथिल ब्राह्मण करते थे। और इसकी जड़ में था मेरा लेखक होना। डाॅ. रमाकांत पाठक जो हिंदी विभागाध्यक्ष थे। जाति के स्तर पर वे चाहे जितना नापसंद करें, लेकिन यह मानते थे कि दिवाकर जी लेखक हैं। बड़ी पत्रिकाओं में छपते हैं और इनका नाम है। कभी उत्साह में मुझे वह पंडित जी भी कहते थे। उन्हीं के कहने पर मैंने कहानियों के दो संग्रह तैयार किये, जो बी.ए और एम.ए के कोर्स में लगे। इन सबके बावजूद वह मुझे पीजी ले जाने को तैयार न थे, जबकि मैं वहां जाने के लिए उत्सुक था। आखिर जब जेपी सिंह आये तभी मैं पीजी जा सका।

आपके जीवन सफर का अंतिम पड़ाव बिहार की राजधानी पटना रहा। इसके अनुभव कैेसे रहे? 

मेरा तीसरा पड़ाव बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना है। जीवन में सबसे कटु अनुभव लेकिन सबसे समृद्ध साहित्यिक माहौल मुझे पटना में मिला। इससे पहले मुझे सरकारी तंत्र का कोई अनुभव नहीं था। यह सोचकर आया था कि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद साहित्य का शोध संस्थान है। यहां आकर कुछ ही दिन बाद अहसास हो गया कि यहां कहीं शोध-बोध नहीं है। कोई साहित्यिक माहौल नहीं है। बस यह सरकारी कार्यालय है, जो अयोग्य और अक्षम लोगों से भरा हुआ है। उच्च शिक्षा विभाग का दबाव बर्दाश्त से बाहर था। फिर भी मैंने किसी तरह सवा छह साल निभाया और व्यापक अनुभव लेकर घर लौटा। फिर भी मिला जुलाकर इतना अवश्य कहूंगा कि परिषद में आने के बाद मेरे अनुभवों का विस्तार हुआ है। मैंने भीतर घुसकर सरकारी तंत्र और राजनीति को समझा, जिसका इस्तेमाल बाद में मैंने अपनी रचनाओं में भी किया।

अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताएं। घर में पढ़ाई लिखाई का माहौल कैसा था? 

पारिवारिक पृष्ठभूमि शून्य तो नहीं था। पिता रामचरित मानस, प्रेमसागर और सुखसागर पढ़ते थे। ये किताबें मैंने बाद में देखीं। रामचरित मानस का सुंदरकांड वे जोर-जोर से पढ़ते और मुझे भी साथ बिठा लेते। मेरे चाचाजी कुछ पत्रिकाएं मंगवाते थे, जिसने मुझे अज्ञात रूप से साहित्य के संस्कार दिये। उस समय पटना से छपनेवाली जो भी पत्रिका आती थी, उसमें एक ‘कल्याण’ आदि समाज की पत्रिका भी थी। सबसे अलग ‘संगीत’ नाम की पत्रिका आती थी। वह उत्तर प्रदेश के हाथरस से छपती थी। काका हाथरसी उसके संपादक थे। इसी पत्रिका से मैंने हारमोनियम बजाना सीखा। ‘कल्याण’ का महाभारत विशेषांक काफी मोटा था। मैं उसे जब-तब पढ़ता था। ‘कल्याण’ की धार्मिक कथाएं एकदम नहीं सुहाती थीं। यही माहौल मुझे बचपन में मिला। 

इन पत्रिकाओं ने मेरी हिंदी सुधारी और मैं स्कूल में हिंदी लिखनेवाला विद्यार्थी माना जाने लगा। मैट्रिकुलेशन के हिंदी साहित्य वाले पत्र में मुझे 82 प्रतिशत अंक आए थे, जो कि उस समय एक रिकाॅर्ड भी माना जाता था। गांव में एक लाइब्रेरी थी– जवाहर पुस्तकालय। वहां से प्रसाद, निराला, महादेवी और दिनकर का कविता संग्रह लेकर पढ़ता था। लेकिन सबसे ज्यादा अच्छे लगते थे कुशवाहाकांत। उनके उपन्यास जाग-जागकर पढ़ता था। एकबार पकड़ा भी गया। इसके लिए चाचा ने मेरी पिटाई भी की। वह किताब थी– ‘पपीहा बोले आधी रात’। ऐसे ही माहौल में मेरा बचपन बीता।

मैं पढाकू बिलकुल नहीं था। बेमतलब घुमना, नाटक नौटंकी देखना, गाने-बजाने में मन लगता था। लेकिन मेरे चाचा जो बाद में मेरे दुश्मन बन गए और आज तक हैं, उन्होंने मेरे पढ़ने में पूरी दिलचस्पी ली। पिताजी को मतलब भी नहीं था कि क्या पढ़ रहा हूं, लेकिन चाचा जी का बड़ा योगदान मैं स्वीकार करता हूं।

आपके निर्माण में निर्मली का अनुभव कितना सहायक रहा? 

निर्मली के वातावरण पर मैंने अपनी किताब ‘भूली-बिसरी यादें’ में विस्तार से लिखा है। बहुत घटिया जगह थी निर्मली। कुसंस्कृत और असभ्य बाजार। लेकिन वहां का साहित्यिक माहौल आश्चर्यजनक रूप से उत्प्रेरक था। मैं वहां प्राध्यापक बना, तबतक समकालीन हिंदी साहित्य से लगभग अपरिचित था। वहां पत्र-पत्रिकाओं की एक दुकान थी रामचंद्र साह की। शाम में वहां निर्मली के कुछ युवा साहित्य प्रेमी लेखक एकत्र होते, थे जिनमें मैथिली के रमानंद रेणु, नाट्य लेखक रामेश्वर प्रेेम, हनुमान शर्मा, युगल शर्मा, रामजी प्रसाद मंडल और राजकुमार नीलकंठ – ये सब समकालीन साहित्य के अच्छे ज्ञाता थे। साह की दुकान साहित्यकारों का अड्डा थी। हिंदी की सारी साहित्यिक पत्रिकाएं वहां आती थीं। वहीं मैंने ‘कल्पना’, ‘माध्यम’ ‘ज्ञानोदय’ और ढेर सारी पत्रिकाएं देखीं। इन पत्रिकाओं को मैं जानता भी नहीं था। मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव और नई कहानी के दूसरे कहानीकारों को मैं लगभग नहीं पढ़ा था। छिटपुट कुछ पढ़ा था, लेकिन उनके बारे में कुछ बात करने की स्थिति में नहीं था। साहित्यप्रेमी पाठक और निर्मली के युवा जब साहित्य पर बात करने लगते तो मैं चुपचाप उन्हें सुनता। रामेश्वर प्रेम की कहानी ‘संज्ञापुत्र’ और बाद में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित ‘आखिरी लोग’ छपी, तो मैं बहुत कुंठित हुआ। रामेश्वर पहले निर्मली कालेज में प्राध्यापक थे। मेरे आने के बाद उनकी नौकरी खत्म हो गई। बाद में दिल्ली चले गए। मेरे अच्छे मित्र बन गए। सबसे अधिक प्रेरित किया और सहायता दी वह हैं रामजी प्रसाद मंडल। पहले प्राध्यापक थे, बाद में लाइब्रेरियन हो गए। मंडल जी ने ही हमें मार्क्सवाद से परिचित करवाया। ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ पढ़ने को दिया। ‘कम्युनिजम क्या है’ और ‘गांधीवाद की शव परीक्षा’ पढ़वाई। ‘दास कैपिटल’ पढ़ने को दिया, जो मैं नहीं पढ़ सका। उन्होंने सीपीएम की तरफ झुकाव पैदा किया। निर्मली में सीपीएम के कुछ कार्यकर्ता थे, उनमें एक थे पृथ्वी मंडल। उनकी भी संगत हुई। वे मुट्ठी बांधकर लाल सलाम करते। कलकत्ते से छपनेवाली ‘स्वाधीनता’ अखबार मंगवाते थे। मैं उसका ग्राहक था। निर्मली में ‘स्वाधीनता’ के 25-30 ग्राहक थे। वहां सीपीएम के नेता भी आते थे। रामजी प्रसाद मंडल के कारण उन नेताओं से मेरा परिचय भी हुआ। ‘स्वाधीनता’ में एके गोपालन, ज्योति बसु के वैचारिक लेख छपते थे, जिनसे मैं बहुत प्रभावित हुआ। यहीं से मेरी विचारधारा में वामपंथ आया। हालांकि मैं वामपंथी पार्टी में गया नहीं, लेकिन चंदा वगैरह देता था।

(क्रमश: जारी)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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