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हम आदिवासियों के लिए जंगल संसाधन नहीं, हमारा जीवन है : वंदना टेटे

हम आदिवासियों की जो संस्कृति रही है, वह प्रकृतिवाद पर आधारित है। कहने के लिए तो दुनिया में हम सभी लोग स्वयं को प्रकृतिवादी कहते हैं। लेकिन आप अगर देखेंगीं तो क्या वास्तव में लोग प्रकृति की पूजा कर रहे हैं? प्रकृति की पूजा कहने का मतलब क्या है? झारखंड की आदिवासी अध्येता वंदना टेटे से ज्योति पासवान की बातचीत

साक्षात्कार

आदिवासी भषाओं की अध्येता, लेखिका, कवयित्री, प्रकाशक, सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता वंदना टेटे के विमर्श के केंद्र में ‘आदिवासियत’ रही है। वह आदिवासियत की वैचारिकी और सौंदर्यबोध के मूल तत्त्वों की सहज तरीके से व्याख्या करती हैं। आदिवासी साहित्य की दार्शनिक अवधारणा में उनकी स्थापना है कि आदिवासियों की साहित्यिक परंपरा औपनिवेशिक और ब्राह्मणवादी शब्दावलियों और विचारों से बिल्कुल भिन्न है। आदिवासी जीवनदृष्टि पक्ष-प्रतिपक्ष को स्वीकार नहीं करता। आदिवासियों की दृष्टि समतामूलक है और उनके समुदायों में व्यक्ति केन्द्रित और शक्ति संरचना के किसी भी रूप का कोई स्थान नहीं है। उनकी प्रकाशित रचनाओं में ‘पुरखा लड़ाके’ (2005), ‘किसका राज है’ (2009), ‘झारखंड एक अंतहीन समरगाथा’ (2010) ‘असुर सिरिंग’ (2010), ‘पुरखा झारखंडी साहित्यकार और नये साक्षात्कार’ ( 2012), ‘आदिम राग’ (2013), ‘आदिवासी साहित्यः परंपरा और प्रयोजन’ (2013), ‘आदिवासी दर्शन कथाएं’ (2014), ‘आदिवासी दर्शन और साहित्य’ (सं) 2015, ‘वाचिकता, आदिवासी साहित्य एवं सौंदर्यबोध’ (सं) 2016, ‘लोकप्रिय आदिवासी कहानियां’ (सं) 2016, ‘लोकप्रिय आदिवासी कविताएं’ (सं) 2016, ‘प्रलाप’ (1935 में प्रकाशित भारत की पहली हिंदी आदिवासी कवयित्री सुशीला सामद का प्रथम काव्य संकलन) (सं) 2017, ‘कवि मन जनी मन’ (सं) 2019, और ‘हिंदी की आरंभिक आदिवासी कहानियां’ (सं) 2020 आदि शामिल हैं। युवा साहित्यकार ज्योति पासवान ने उनसे दूरभाष पर विशेष बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश

कृपया अपने जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बतायें और प्रारंभिक शिक्षा के बारे में बतायें ।

मेरा जन्म 13 सितम्बर 1969 को अपने ननिहाल में झारखंड के सिमडेगा जिले में हुआ। उस समय यह सब-डिविजन हुआ करता था। मेरे नाना प्यारा केरकेट्टा बहमुखी प्रतिभावान व्यक्ति थे। पहले वे एक शिक्षक थे । शिक्षक के रूप में जब वे सिमडेगा में आए तब उन्होंने एक शिक्षक के साथ-साथ समाज-सुधार करने का भी कार्य किया। वे गाँव-गाँव में घूमकर लोगों को शिक्षा के लिए प्रेरित करने के साथ-साथ स्कूल के लिए जमीन दान करने के लिए भी प्रेरित किया। जब कोई आदिवासी अपनी जमीन स्कूल के लिए दान में दे देता तो लोगों के सहयोग से ही वे वहाँ पर स्कूल का निर्माण करके वहाँ शिक्षा की व्यवस्था करते थे। शुरुआती दिनों में वे ‘आदिवासी महासभा’ से जुड़े थे। बाद में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। हालांकि उस समय उनका काफी विरोध हुआ था। 

मेरी माँ रोज केरकेट्टा की शादी सिमडेगा जिले से 12 किलाेमीटर दूर के ही एक गांव में कृषक परिवार में हुआ । मेरी माँ अपने ससुराल में सबसे बड़ी बहू थी । मेरे पिता सुरेश चंद्र टेटे और उनके भाइयों ने शिक्षा तो ग्रहण की, किंतु वह उस दर्जे की नहीं थी। मेरे दादा (आजा) का परिवार किसानी करता था। अत: वहाँ शिक्षा का माहौल मेरे ननिहाल के जैसा नहीं था। इसका कारण यह था कि नाना नौकरी मिलने के बाद गाँव से बाहर चले गये। हालांकि गाँव से उनका जुड़ाव बना हुआ था। उनके सभी बच्चों की शादियाँ गाँव में ही हुई थीं। लेकिन नौकरी मिल जाने के कारण कृषक जीवन से दूर हो गए थे।

मेरा जन्म ननिहाल में ही हुआ था और बचपन भी वहीं गुजर रहा था। अत: मेरी प्रारम्भिक शिक्षा भी वहीं से शुरु हुई। उस समय प्ले-स्कूल की अलग से व्यवस्था नहीं हुआ करती थी। विद्यालयों में ही अलग से एक कक्षा बना दी जाती थी। जिसमें छोटे बच्चों को बैठने के लिए सिखाया जाता था। तो मैं भी अपनी मौसेरी बहनों के साथ पास के ही विद्यालय में जाया करती थी। इसके बाद जब मैं पहली कक्षा में गई तो मैं पटना चली गई और वहाँ मैंने हॉस्टल में रहकर पढ़ाई की । दो-तीन सालों तक वहाँ रहने के बाद मैं राँची अपने माता-पिता के पास आ गई । मैंने अपनी आगे की पढ़ाई वहीं से की। जब मैं आठवीं कक्षा में थी, उस समय माँ गुमला जिले में लेक्चरर के पद पर हुईं। आठवीं कक्षा से दसवीं तक की मेरी पढ़ाई गुमला जिले में हुई। 

प्यारा केरकेट्टा, वंदना टेटे के नाना

वर्ष 1984 में मैंने मैट्रिक की परीक्षा पास की । गुमला जिले में हॉस्टल में रहकर ही मैंने मैट्रिक की पढ़ाई की थी क्योंकि उसी बीच 1982 में राँची में जनजातीय क्षेत्रीय भाषा विभाग’ खुला था, जहाँ मेरी माँ का स्थानांतरण हो गया। इसलिए माँ गुमले से वापस राँची चली गई और मैट्रिक पास करने के बाद मैं भी राँची वापस आयी। फिर मैंने राँची के ही ‘वीमेन्स कॉलेज’ से इंटर की परीक्षा पास की। उसके बाद वीमेन्स कॉलेज से ही मैंने मनोविज्ञान विषय से स्नातक किया। स्नातक के बाद मैंने परा-स्नातक में दाखिला तो लिया किन्तु उसे पूरा नहीं कर पायी । उसी दौरान 1992 में मेरी शादी अश्विनी कुमार पंकज जी से हो गई। इसके बाद परा-स्नातक मैंने राजस्थान से किया। परा-स्नातक में मेरा विषय समाज-शास्त्र था । 

आपने मनोविज्ञान से स्नातक करने के बाद स्नाकोत्तर के लिए अपने विषय में परिवर्तन कर लिया और आपने समाज-शास्त्र का चयन किया। इसके पीछे क्या कारण थे? 

नहीं, इसके पीछे कोई विशेष कारण नहीं था। लेकिन जब मैं इंटर में पढ़ रही थी, उस समय मेरी माँ के कुछ दोस्त जो दिल्ली से आये थे, वे थियेटर किया करते थे। उनलोगों ने मुझसे इंटर के बाद इस थियेटर से जुड़ने के लिए कहा। फिर मैं उनके साथ जुड़ गई। मैंने उनके साथ मिलकर कई नाटकों में काम किया, जो झारखंड आंदोलन एवं यहाँ के सामाजिक मुद्दों पर आधारित थे। उसी दौरान सिस्टर तिलैया जिनका एक वीमेनस ऑर्गनाइजेशन’ था, ने मुझसे कहा था कि चूंकि तुम्हें सोशल वर्क अच्छा लगता है, इसलिए तुम्हें सोशल वर्क की पढ़ाई करनी चाहिए। तब मैंने यह निर्णय लिया कि मुझे एम.ए. सोशल वर्क से करनी चाहिए। 

साहित्य के प्रति आपका लगाव कब शुरू हुआ?

साहित्य के प्रति लगाव तो मैट्रिक में ही हुआ। परीक्षा देने के बाद मैं अपनी माँ के पास चली गई थी और वहाँ मैंने माँ और नाना की लिखी पुस्तकें पढ़ी। इसके अलावा भी कई तरह की पत्र-पत्रिकायें, पुस्तकें एवं उपन्यास मैंने उस समय पढ़े। हालांकि घर में उपन्यास पढ़ने की मनाही थी। फिर भी उस समय मैंने छिप-छिपाकर कई उपन्यास पढ़ डाले थे। उन दिनों में ही माँ ने मुझसे कहा कि ‘तुम कुछ लिखती क्यों नहीं हो, लिखो।’ चूंकि मेरी माँ लेखन कार्य के साथ-साथ समाज कार्य से भी जुड़ी हुईं थीं, इसलिए मेरे घर में झारखंड आंदोलन, महिला संगठन एवं छात्र संगठनों के लोगों का आना-जाना लगा रहता था। वे लोग भी प्राय: कहा करते थे कि तुम कुछ लिखो। इसी के बाद मैंने अपनी पहली कविता ‘समझौता’ लिखी, जिसका विषय प्लेन-हाइजैक की तत्कालीन घटना पर आधारित थी। मैंने उस कविता में यही दिखाने का प्रयास किया था कि हमें परिस्थितियों के सामने विवश होकर समझौता करना पड़ता है।

रोज केरकेट्टा, वंदना टेटे की मां

पहली बार कब लगा कि आदिवासी समुदाय से होने के कारण आपके साथ कोई भेदभाव हुआ? 

आठवीं से दसवीं तक जब मैं गुमला जिले से राँची बस से जाया करती थे तब अन्य सभी के बराबर पैसा देने के बावजूद मुझे उस बस में सीट नहीं मुहैया करायी जाती थी। सीट नहीं देने के कारण जब मैं कम पैसे देने की बात करती तो कंडेक्टर मेरे प्रति अभद्र शब्द का प्रयोग करता तथा बस में बैठे अन्य लोग हंसते थे। मैं विरोध तो करती थी, लेकिन यह विरोध उस तरह का नहीं था कि यह मेरा अधिकार है क्योंकि मुझे इसकी आदत हो चुकी थी। 

जिस एक घटना से मैं विशेष रूप से प्रभावित हुई थी, वह घटना बहुत बाद में घटित हुई। जब मैंने राजस्थान के उदयपुर की युनिवर्सिटी में एम.ए. में दाखिला लिया और वहाँ के हॉस्टल में रहने के लिए गयी। वहां मेरी एक साउथ-इंडियन फ्रेंड थी। वह मेरी रुममेट भी थीं। एक दिन मेरी रुममेट दूसरे कमरे में किसी काम से गई हुई थी। उतने में एक लड़की आयी। उसका नाम तो मुझे याद नहीं आ रहा है परंतु वह राजस्थान से नहीं थी और उसका सरनेम ‘लाँजे’ था। उसने मेरा नाम पूछा और मैंने भी उससे उसका नाम पूछा। इसके बाद उसने मुझसे पूछा – किस कास्ट से हो? मैंने कहा कि यह कैसा सवाल है। मुझे इतना अजीब लगा कि जाति के बारे में इतना सीधा सवाल मुझसे झारखंड में आजतक किसी ने नहीं पूछा था। जबकि मैं राजस्थान एम.ए. की पढ़ाई करने गई थी। जबकि हमारे घर में सभी तरह के लोग आया करते थे। वे झारखंड आंदोलन से जुड़े थे। अनेक साहित्यकार भी थे। साथ ही मुझे यह भी लगा कि ये मैं कैसी जगह आ गई हूँ जहाँ विद्यार्थी पढ़ाई तो सामाजिक कार्य की कर रहे हैं और प्रश्न यह पूछ रहे हैं कि जाति क्या है? मैं इस सवाल से काफी दुखी हुई और मैंने वहां से वापस आने का भी मन बना लिया था। लेकिन हम दोनों की आर्थिक स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं थी कि इतने पैसे लगाकर एडमिशन लेकर वापस लौटा जाय, क्योंकि मैंने अपने पति से यह कहा था कि एमए की पढ़ाई तुम मुझे अपने पैसे से कराओगे। मैं ससुर के पैसे से नहीं पढ़ना चाहती। अंतत: वहीं रहकर मैंने एमए की पढ़ाई पूरी की। 

हालांकि वहां के अनेक ऐसे अनुभव मेरे पास हैं। क्लास में हम केवल दो लड़कियाँ ही आदिवासी थीं। एक मैं और एक मीणा समुदाय की, जो राजस्थान के अलवर की ही थी। 

क्या एम.ए. की पढ़ाई खत्म होते ही आप राजस्थान से वापस आ गईं? 

नहीं, मैंने एम.ए. की पढ़ाई खत्म करने के बाद एनजीओ ज्वॉयन कर लिया। वहां मैं बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर ही काम करती थी। यह काम भी राजस्थान के आदिवासी इलाके में ही था, मीणा समुदाय के लोगों के बीच, जो उदयपुर शहर में नहीं बल्कि भीतर के गांवों में रहते थे। वहां आदिवासी काफी पिछड़े थे और उनके साथ जातिभेद की अनेक समस्याएं थीं। फिर मैं 2002 में राजस्थान से वापस आयी। 

राजस्थान से वापस आने के बाद झारखंड में कैसे बदलाव देखने मिले और अपने-आप को आपने कैसे पुन:स्थापित किया? 

जब मैं वापस आयी, तबतक झारखंड और बिहार अलग हो चुके थे। बिहार की जितनी भी संस्थाएँ थीं, वह सीधे राँची में शिफ्ट कर गईं थी। वर्ष 1992 से लेकर 2002 तक का एक लंबा अंतराल भी सामने था। एक तरफ शिक्षा, महिला, बच्चे आदि से जुड़े अनेक संस्थाएँ पहले से ही मौजूद थीं, तो दूसरी तरफ करने के लिए नया कुछ नहीं था। मेरे सामने एक तो खुद के वजूद का प्रश्न था और साथ ही हमारे आजीविका का भी प्रश्न जुड़ा हुआ था। फिर मैंने सोचा कि कुछ ऐसा किया जाय कि हम जिंदा भी रहें और हमारी पहचान भी बनी रहे। झारखंड बनने के बाद भी यहाँ की भाषा और संस्कृति जो कि झारखंड आंदोलन का एक प्रमुख मुद्दा था, हाशिए पर चला गया था। तो हमलोगों ने निर्णय लिया कि हम यहाँ की भाषा और संस्कृति पर काम करेंगे। चूंकि मेरी पृष्ठभूमि भी ऐसी ही थी। मेरे नाना भी साहित्यकार थे, माँ भी साहित्यकार थीं और पूरा महौल ही साहित्यकारों का मिला। साथ ही बहुत पहले से ही परिवार के लोगों में तय थी कि नाना के नाम से एक संस्था बनाना है। चूंकि नाना के नाम से ट्रस्ट बनाना था तो यह बेहतर था कि हम उनके काम को आगे बढ़ाएं। इसीलिए हमलोगों ने ‘प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन’ नाम से ट्रस्ट बनाया। वह काम शुरु ही हमलोगों ने केवल झारखंड के आदिवासी लोगों के लिए किया था। हमलोगों ने वहां की 9 मुख्य भाषाओं पर काम किया। बाद के दिनों में आदिम आदिवासी समुदायों की भाषाओं को भी हमने इसमें जोड़ा। 

आपकी स्थापना है कि गैर आदिवासी द्वारा लिखा गया साहित्य आदिवासी साहित्य नहीं है । बल्कि वह एक शोध कार्य है । आदिवासी साहित्य लिखने के लिए आदिवासीयत अपनाने की आवश्यकता है। आपकी दृष्टि में आदिवासियत अपनाने का मापदंड क्या है? 

देखिये, हर एक समुदाय की अपनी संस्कृति है। हर समाज का अपना व्यवहार है और वह सारी चीजें समाज के अपने दर्शन के तहत निर्धारित होती हैं। वह दर्शन ही तय करती हैं कि हमारे समाज का व्यवहार कैसा होगा। उसी दर्शन के अनुरुप हमारी संस्कृति बनी हुई है जिसे हमारे पुरखों ने गढ़ा है। हमने अपनी संस्कृति नहीं गढ़ी है, हमारे पुरखों ने अपने अनुभव के आधार पर संस्कृति का निर्माण किया, जो आज हमारे बीच परम्परा, रीति-रिवाज के रुप में हमारे बीच में है और हम सभी उसका पालन करते हैं। हम आदिवासियों की जो संस्कृति रही है, वह प्रकृतिवाद पर आधारित है। कहने के लिए तो दुनिया में हम सभी लोग स्वयं को प्रकृतिवादी कहते हैं। लेकिन आप अगर देखेंगीं तो क्या वास्तव में लोग प्रकृति की पूजा कर रहे हैं? प्रकृति की पूजा कहने का मतलब क्या है? लेकिन अगर आप आदिवासियों की संस्कृति, रीति-रिवाज, विधि-विधान आदि को देखें तब आपको पता चलेगा कि प्रकृति को मानना क्या होता है, प्रकृति के संबंध में आपकी समझ कैसी है, प्रकृति को आप कितना समझ पाते हैं और उसके अनुरुप आपका व्यवहार कैसा है। 

कुछेक उदाहरण बतायें, जिनसे आदिवासियों की प्रकृति पूजा और गैर-आदिवासियों की पूजा में भिन्नता प्रकट होती है। 

देखिए, जब से आदिवासियों ने यह कहना आरम्भ किया कि हम प्रकृति पूजक हैं, प्रकृतिवादी हैं तबसे आदिवासी से इतर समाज ने भी यह कहना आरम्भ कर दिया कि हम भी तो प्रकृति की पूजा करते हैं। लेकिन सीधी-सी बात है कि अगर आपसे यह सवाल किया जाय कि आप जंगल को कैसे देखती हैं और जंगल के साथ आपका संबंध कैसा है, तो आपका उत्तर यही होगा कि जंगल में यह उपयोगी वस्तु है, उस वस्तु की यह उपयोगिता है। अमूमन अन्य लोग इसे संसाधन के रुप में देखते हैं जो उनके लिए उपयोगी है, इसलिए इसे बचाकर रखना है। लेकिन आदिवासियों के लिए जंगल संसाधन नहीं, बल्कि उनका जीवन है। आप सोचिये कि एक छोटा सा कीड़ा जो फूलों में लगते हैं। आपने फूल लगाये हैं सुंदरता के लिए, लेकिन आप जैसे ही देखते हैं कि उसमें कीड़े लग रहे हैं, आप तुरंत उसे मार देंगें। मामुली से एक छोटे से केचुए को लोग देखने पर नमक देकर मारने लग जाते हैं। छोटे से घोंघे को लोग जहाँ देखते हैं, मार देते हैं। लेकिन हम आदिवासियों को आप देखेंगें कि कीड़ा है तो उसे बस हल्का सा झटक देते हैं कि तुम जाओ अपने रास्ते। हम अपने रास्ते जा रहे हैं। पेड़ों को लेकर गैर-आदिवासी कहेंगें कि हम भी तो पेड़ों को मान रहे हैं, पीपल को मान रहे हैं, बरगद को मान रहे हैं। लेकिन आप देखें कि आप चुनिंदा पेड़ों को मान रहे हैं। पीपल, बरगद, तुलसी आदि को वह भी किसी खास अवसर पर। हम भी किसी खास अवसर पर दो पेड़ों को मानते हैं – एक करम है और दूसरा हमारा सखुआ है। लेकिन अन्य पेड़ों के साथ आपका संबंध कैसा है? जबकि आप देखेंगे तो आदिवासी जब जंगल जाते हैं, वे कभी भी जड़ से पेड़ों को नहीं काटेंगे। वे ठूंठ रहने देते हैं, क्योंकि हमारी धारणा यह है कि ठूंठ से पेड़ को बढ़ने में कम समय लगता है। इसलिए हम जड़ से पेड़ों को नहीं काटते हैं। 

वंदना टेटे

अब देखें, कई लोग यह आरोप लगाते हैं कि आदिवासी जंगल में रहते हैं और जानवरों को नुकसान पहुँचाते हैं, क्योंकि वे जानवरों को खाते हैं । लेकिन आदिवासियों के शिकार का अपना नियम है जो उनको पूर्वजों के द्वारा बताया गया है कि आप किसी गर्भवती जानवर को नहीं मारेंगें। आप दूध पिलाने वाले जानवर को नहीं मारेंगें। बीमार, घायल और शिशु जानवर को नहीं मारेंगें। मतलब आप हष्ट-पुष्ट जानवर को आप मार सकते हैं। इसके अलावा आदिवासी समाज में सुंदर-असुंदर का कोई भेद नहीं है और ना ही लिंग-भेद, श्वेत-अश्वेत का भेद है। हमारी संस्कृति में इंसान बस इंसान है और प्रकृति में छोटे से छोटे जीव से लेकर बड़ा से बड़ा तक का अपना एक महत्व है। वे सभी एक शृंखला की तरह है, जो प्रकृति के संतुलन के वैज्ञानिक नियम का पालन करते हैं। प्रकृति भी संतुलन करती है और संतुलन करने में वह किसी को नुकसान नहीं पहुँचाती है। लेकिन जब इंसान संतुलन करने का प्रयास करता है तो वह उसे नष्ट कर देता है। आदिवासी इसी धारणा को मानते हैं कि सभी का अपना महत्व है और आदिवासी समाज में किसी प्रकार के भेद के लिए कोई स्थान नहीं है। 

आदिवासी विमर्श की बात करूं तो गैर-आदिवासी समाज के आनेवाले कुमार सुरेश सिंह और वीर भारत तलवार के काम को आप किस रूप में आंकती हैं? 

इन दोनों ही शख्सियतों ने आदिवासियत को समझा। सुरेश जी का नाम मेरे लिए बहुत श्रद्धेय है। हम उनका नाम श्रद्धापूर्वक लेते हैं, क्योंकि उन्होंने विरसा मुंडा के सिद्धांत को हमारे सामने रखा। उनके पहले किसी ने बिरसा मुंडा के विद्रोह, उनके आंदोलन को हमारे सामने प्रस्तुत नहीं किया। हाँ, हमारे नजरिये का प्रभाव तो पड़ता ही है। अगर आप सतर्क हैं तो आप जिन चीजों को लेने वाले हैं, जिन्हें लिखने वाले हैं, वह उसी समाज की होनी चाहिये, जिससे आप सीख रहे हैं। भाषा का प्रभाव भी पड़ ही जाता है। तो हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हम उस प्रभाव को कितना कम कर सकते हैं । 

वीर भारत तलवार ने भी लंबे समय तक यहां अपना समय बिताया। यहाँ के लोगों को समझने की कोशिश की। यहाँ झारखंड के जो लोग हैं, खासकर वे जो लोग आंदोलन से जुड़े लोग हैं, वे यह जानते हैं कि वीर भारत तलवार झारखंड आंदोलन के थिंक-टैंक हुआ करते थे। एक पीढी जो उनके समय में रही, उनलोगों के साथ मिलकर उन्होंने आंदोलन में बहुत से काम किये। गाँव में रहकर वे आदिवासियों को समझे। एक है आदिवासियत को अपनाना। दूसरा है, समझना, जिसमें चार-पाँच महीने रहकर हम लिखते हैं, लेकिन यह कैसे हो सकता है? आप देखें कि हम एक आदमी के साथ रहकर पूरे जीवन उसे समझ नहीं पाते हैं, एक परिवार को नहीं समझ सकते हैं, तो चार-पाँच महीने में आप एक समुदाय को कैसे समझ लेंगें? 

रामदयाल मुंडा बड़े आदिवासी विमर्शकार रहे। उनके संबंध में कोई संस्मरण हो तो बतायें। 

मेरी माँ को डॉ.रामदयाल दीदी कहा करते थे। मैं उन्हें ‘मामा’ कहती थी। हालांकि वे मुझे वंदना ही कहकर बुलाते थे। लेकिन जब उन्हें मुझपर बड़ा प्यार आता था तो वे प्यार से ‘मईयां’ कहते थे। इस तरह उनसे एक तरह का पारिवारिक रिश्ता था। उनसे जुड़ी एक घटना अखड़ा के सम्मेलन की है। झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति (अखड़ा) संगठन, जिसके विमर्श के केंद्र में झारखंड की भाषा, संस्कृति, साहित्य आदि हैं। हमने इसके उद्देश्य को जब सभी के सामने रखा तो सभी ने इसका स्वागत किया। रामदयाल मुंडा भी उसमें शामिल थे। इस संगठन का नाम अखड़ा इन लोगों की ही देन है। प्रत्येक तीन साल में हमारा तीन दिवसीय महासम्मेलन होता है। हमारे इस सम्मेलन में नौ भाषा तथा दो अन्य आदिम भाषाएँ हैं, मतलब ग्यारह भाषाओं के वरिष्ठ और युवा साहित्यकारों को हमलोग सम्मानित करते हैं। शायद 2013 से पहले की बात है। तबतक रामदयाल मुंडा राज्यसभा में पहुँच चुके थे। हमें इनसे बहुत उम्मीदें थीं। मैंने उनसे कहा कि मामा हमारे अखड़ा का सम्मेलन है। इसलिए मैं चाहती हूँ कि हमारे लोगों को आप सम्मानित करें, जिससे उन्हें अच्छा भी लगेगा और वे गौरवान्वित भी महसूस करेंगे। उन्होंने आमंत्रण स्वीकार भी कर लिया। दूसरे दिन के सम्मेलन में वे आ भी गए। उनके आने के बाद कार्यक्रम आरम्भ हुआ, किन्तु देर होने लगी। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि वंदना, रेडियो स्टेशन में मेरा एक लाइव प्रोग्राम है। तो मैंने कहा– मामा आपने मुझसे कहा था कि आप मुझे पूरा टाइम देंगे और अभी तो साहित्यकारों को आपने सम्मान भी नहीं दिया है। उन्हें बुरा लगेगा। इसलिए आप ऐसा नहीं कर सकते हैं। आपको लोग वहाँ लाइव सुनेंगे और यहाँ आप हम सभी के सामने लाइव हैं। फिर मैंने उनको वहाँ से नहीं जाने दिया। 

आजकल दलित साहित्य में ही आदिवासी समस्याओं के जोड़कर देखा जा रहा है। क्या आप इन दोनों साहित्य को एक मानती हैं? या फिर अदिवासी साहित्य दलित साहित्य के कितना निकट है? एक नया विमर्श बहुजन साहित्य से भी जुड़ा है । बहुजन साहित्य से आदिवासी साहित्य क्या अलग है और यदि है तो कैसे?

नहीं, मैं इन्हें एक नहीं, बल्कि एक-दूसरे के निकट मानती हूँ। दलित साहित्य में मूलत: अस्पृशयता के सवाल उठाये जाते हैं। उनके लिए यह महत्वपूर्ण है। अगर हम सीधे-सीधे बात करें तो हम यह कहते हैं कि दलित साहित्य में या दलित किसी सिस्टम का हिस्सा बनने की माँग करते हैं। आदिवासी उस सिस्टम से अपने-आप को अलग मानते हैं। इसीलिए हम एक हद तक तो साथ चलते हैं लेकिन उसके बाद हमारा साथ खत्म हो जाता है। इसलिए हम निकट तो हैं, लेकिन एक नहीं हैं। 

बहुजन साहित्य के बारे में ज्यादा तो नहीं कह पाऊँगी। लेकिन मैं मानती हूँ कि बहुजन साहित्यकार भी आदिवासी साहित्य को अपना नहीं बना पाते हैं। नाम के लिए तो हम सभी कहते हैं कि हम एक हैं, लेकिन क्या हम वास्तव में एक हो पाते हैं? क्योंकि आप देखेंगे कि जैसे ही हमारी लड़ाई सवर्णों से होती है, तब हम सभी एक होते हैं। लेकिन जब बात आदिवासियों और दलितों में होती है वैसे ही सभी आदिवासी के विपक्ष में हो जाते हैं। किसी संगठन में भी अगर आदिवासी सदस्य है तो वह उस तरह से सक्रिय नहीं है, जैसे दलित या अन्य हैं। 

 (संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ज्योति पासवान

दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. ज्योति पासवान काज़ी नज़रुल विश्वविद्यालय, आसनसोल, पश्चिम बंगाल में पीएचडी शोधार्थी हैं

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