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चरणजीत सिंह चन्नी : कांग्रेस का ‘मास्टर स्ट्रोक’ या विवशता?

बीते रविवार, 19 सितंबर 2021 कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व तथा पंजाब नेतृत्व के लिये सिरदर्दी पैदा करने वाला दिन रहा। मुख्यमंत्री की इस कुर्सी की दौड़ में मैराथन का आरंभ होता है। कई चेहरे सामने आते हैं। टीवी पर सूत्रों का खेल शुरू हो जाता है। फिर चरणजीत सिंह चन्नी यानी एक दलित का नाम सामने आता है। द्वारका भारती का विश्लेषण

बीते 20 सितंबर, 2021 को पंजाब की तमाम अखबारें चरणजीत सिंह चन्नी के पंजाब के प्रथम दलित मुख्यमंत्री बनने की खबरों से अटी पड़ी थीं। यह इतनी बड़ी खबर थी कि इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बुक स्टालों में पड़े अखबार हाथों-हाथ बिक गये थे। पंजाब के दलितों के लिये मानो यह खबर उछल पड़ने वाली खबर थी। पंजाब के जालंधर शहर के एक व्यापारिक-स्थल, जिसे ‘बूटा मंडी’ के नाम से जाना जाता है, और यहां कभी चर्म उद्योग का सबसे बड़ा बाजार हुआ करता था, चर्म उद्योग से जुड़े धन्ना सेठ यहीं पर रहते हैं, में खुशी की लहर इतनी प्रबल थी कि जगह-जगह मिठाई बांटने की खबरों की जैसे एकदम बाढ़ आ गई थी। उल्लेखनीय है कि ‘बूटा मंडी’ पंजाब की दलित राजनीति का गढ़ भी है और कांग्रेसी-संगठन की राजनैतिक नब्ज का तापमान भी वहीं से मापा जाता रहा है। इसे हम दलित राजनीति का मक्का भी कह सकते हैं।

चरणजीत सिंह चन्नी के पंजाब के मुख्यमंत्री बनाने की कहानी जितनी रहस्यपूर्ण है, उतनी ही हमें यह भी बताती है कि कांग्रेस संगठन का दलित-प्रेम मात्र एक दिखावा भर से ज्यादा कुछ नहीं रहा है। दलितों को आजादी के बाद 70 वर्ष तक इस संगठन ने एक झुनझुना-मात्र दिखाकर ही बहलाया है। बाबू जगजीवन राम के बाद हमारे सामने ऐसा कोई प्रभावशाली नेता दिखाई नहीं देता जो कि कांग्रेस में अंत तक अपनी पहचान बनाकर रखी हो। लेकिन इस तथ्य को कोई भूल नहीं सकता कि जब इस देश की बागडोर बाबू जगजीवन राम को सौंपने का समय आया तो उन्हें राजनीति का एक महज मोहरा बनाकर रख दिया गया। लगभग 50 साल तक, देश की संसद में बैठने वाले जगजीवन राम को प्रधानमंत्री की कुर्सी से दूर धकिया दिया गया। सभी जानते हैं कि जगजीवन राम जिस विभाग में गए, वहां अपनी अलग पहचान छोड़ी। 

प्रसंगवश मैं इस बात का जिक्र करना चाहूंगा कि वे देश के रक्षामंत्री थे, तो सेना के ईस्टर्न कमांड के लेफ्टिनेंट जैकब ने अपनीं संस्मरण में लिखा कि भारत को इससे बढ़िया रक्षामंत्री कभी नहीं मिला। देशभर के दलित, जो इस घटनाक्रम के बारे में भलीभांति जानते हैं और उनकी स्मरण-शक्ति तेज है, उनके भीतर धंसा हुआ शूल अब तक भी नहीं निकल पाया है कि बाबू जगजीवन राम को सिर्फ इसलिए ही देश का प्रधानमंत्री बनने से रोका गया क्योंकि वे दलित थे। भारतीय राष्ट्रीय  कांग्रेस पूरी तरह उनके विरोध में उतर आई थी। इतिहास में दर्ज यह त्रासदी आज की कांग्रेस के माथे से भी धुली नहीं है। उस घटनाक्रम से आज का दलित अच्छी तरह से समझ गया है कि देश के सर्वोच्च पद के रास्ते एक दलित के लिए कभी भी आसान नहीं रहे थे, और ना ही आज हैं।

इसी बदनुमा दाग को धोने के लिये पंजाब कांग्रेस भले ही दलित चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाने को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही हो, लेकिन इस कटु सत्य को कौन भूलना चाहेगा कि यह चरणजीत सिंह चन्नी कभी भी एक मुख्यमंत्री के तौर पर चर्चा में नहीं रहे थे। यह कहना ठीक रहेगा कि कांग्रेस ने कभी सपने में भी ऐसा सोचा नहीं था। पंजाब की राजनीति की खबर रखने वाले भली भांति जानते हैं कि पंजाब कांग्रेस में एक से एक कद्दावर दलित नेता रहे हैं, लेकिन उन्हें कभी भी मुख्यमंत्री की कुर्सी के समीप भी खड़ा नहीं होने दिया गया। पंजाब 32 प्रतिशत दलित आबादी रखने वाला प्रांत भले ही हो, लेकिन पंजाब का कोई राजनैतिक संगठन दलितों की इस आशा को पूरा नहीं कर पाया।

कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी व पंजाब के नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी

गत एक-दो वर्षों से हम पंजाब के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की राजनैतिक स्थिति को देखें तो हमें पता चलेगा कि नवजोत सिंह सिद्धू ने उन्हें राजनीति के मैदान में नाको चने चबवाने की कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी, लेकिन कैप्टन तब भी भारी रहे। आज की स्थिति में कैप्टन यदि फ्रेम से बाहर हैं, तो सिद्धू फ्रेम के ऊपर ही बैठे नजर आते हैं। लोगों को पता नहीं चला कि नवजोत सिंह सिद्धू कैप्टन को नीचा दिखाते-दिखाते कब खुद मुख्यमंत्री की दौड़ में आगे निकल आये।

वर्तमान सत्ता परिवर्तन के घटनाक्रम पिछले तीन-चार दिनों में इतनी तेजी से घटित हुए कि पंजाब कांग्रेस के साथ-साथ केंद्रीय नेतृत्व के सामने चकरघिन्नी की स्थिति आ गयी। अमरिंदर सिंह अपना त्यागपत्र देते हैं और साथ ही यह भी घोषणा कर जाते हैं कि वे नवजोत सिंह सिद्धू को कभी मुख्यमंत्री के तौर पर स्वीकार नहीं करेंगे। परिस्थितियां एकदम उलझ कर रह गई थीं। केंद्रीय नेतृत्व के लिये यह एक सीधी चुनौती थी। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि पंजाब में आज़ादी के बाद से जाट सिक्ख ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहा है। अन्य कोई भी इस कुर्सी के पास फटक भी नहीं पाया है। भारत की सामाजिक-व्यवस्था का प्रतीक पंजाब भी रहा है, फिर भले ही यहां संतों की वाणी का बोलबाला रहा हो। सभी राजनैतिक दल लगभग एक ही थ्योरी का निर्वाहन करते आये हैं। 

यह भी पढ़ें : पंजाब में बदलाव की शुरुआत है चन्नी का मुख्यमंत्री बनना

बीते रविवार, 19 सितंबर 2021 कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व तथा पंजाब नेतृत्व के लिये सिरदर्दी पैदा करने वाला दिन रहा। मुख्यमंत्री की इस कुर्सी की दौड़ में मैराथन का आरंभ होता है। कई चेहरे सामने आते हैं। टीवी पर सूत्रों का खेल शुरू हो जाता है। नवजोत सिद्धू से लेकर सुखविंदर सिंह रंधावा तथा जाखड़ जैसे कई चेहरे सामने आते हैं। इस संदर्भ में 11 बजे कांग्रेसी विधायकों की बैठक तय होती है और रद्द होती है। अंततः 12 बजे के करीब सुखविंदर सिंह रंधावा के नाम पर सहमति बनने के आसार बनते दिखाई देते हैं, लेकिन नवजोत सिंह सिद्धू इस नाम के सामने एक ऊंची दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं क्योंकि रंधावा कैप्टन खेमे के व्यक्ति समझे जाते हैं। सिद्धू भलीभांति जानते थे कि यदि रंधावा मुख्यमंत्री बनते हैं तो कैप्टन का दखल सत्ता से पूर्णतया खारिज नहीं किया जा सकता। सिद्धू गुट के विरोध के कारण सुखविंदर सिंह रंधावा मुख्यमंत्री बनते-बनते रह जाते हैं। लगभग पांच घंटे की माथापच्ची के बाद सिद्धू खेमे के लोगों की ओर से किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाने का सुझाव आया। उस समय की स्थिति को देखते हुए इस चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए शायद यही एक रास्ता बचा था। इतिहास ने ऐसा मंजर पहली बार देखा कि इस त्रासदी से निपटने को दलित नाम एक विवशता बन गया। इससे पहले चरणजीत सिंह चन्नी का नाम इस संपूर्ण घटनाक्रम में कभी नहीं सुना गया था। आप चाहे इसे ‘मास्टर-स्ट्रोक’ का नाम दे लें, लेकिन इस सत्य को हम कदापि झुठला नहीं पायेंगे कि आजादी के इस 70 सालों में देश की राजनीति की तरह ही पंजाब की कांग्रेस-राजनीति ने भी एक दलित के नाम को अपने स्वार्थ के लिए भुनाया है, न कि इस दलित की अस्मिता को बढ़ाने का कोई बीड़ा उठाया है।

इस कदम का हम स्वागत करते हैं। विवशतावश ही सही, इस देश में सबसे निचले पायदान पर खड़े एक दलित की आवश्यकता महसूस तो की गई। लेकिन यदि चरणजीत सिंह चन्नी को कुछ महीनों की ऑक्सीजन पर ही रखा जायेगा तो यह दलितों के साथ सबसे बड़ा धोखा भी होगा। हमारा सबसे बड़ा प्रश्न यह कि क्या आने वाले चुनाव एक दलित मुख्यमंत्री के नाम पर लड़े जा सकते हैं। जब यही प्रश्न मैंने दलित-समाज की राजनैतिक-गतिविधियों पर अपनी गहरी नजर रखने वाले डॉ. रौनकी राम से पूछा तो उनका मानना था कि पंजाब की कांग्रेस सरकार एक दलित मुख्यमंत्री के नाम पर ही आगामी चुनाव लड़ेगी। जबकि मेरी नजर में इसकी संभावनायें बहुत कम हैं – यदि ऐसा हुआ तो यह भारत की राजनीति में एक नया प्रयोग होगा और एक अजूबा भी।

(संपादन : इमानुद्दीन/नवल)


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लेखक के बारे में

द्वारका भारती

24 मार्च, 1949 को पंजाब के होशियारपुर जिले के दलित परिवार में जन्मे तथा मैट्रिक तक पढ़े द्वारका भारती ने कुछ दिनों के लिए सरकारी नौकरी करने के बाद इराक और जार्डन में श्रमिक के रूप में काम किया। स्वदेश वापसी के बाद होशियारपुर में उन्होंने जूते बनाने के घरेलू पेशे को अपनाया है। इन्होंने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का सराहनीय कार्य किया है तथा हिंदी में दलितों के हक-हुकूक और संस्कृति आदि विषयों पर लेखन किया है। इनके आलेख हिंदी और पंजाबी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में इनकी आत्मकथा “मोची : एक मोची का अदबी जिंदगीनामा” चर्चा में रही है

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