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दलित साहित्य और जातिवाद के बीहड़ इलाके (संदर्भ: मलखान सिंह)

मलखान सिंह की कविताएं कलावादी और शास्त्रीय परम्परा के बिल्कुल उलट दलित जीवन की दुश्वारियों को सामने लाती हैं। इनकी कविताएं पढ़ने के बाद कविताओं से जिरह करने के बजाय व्यक्ति अपने से सवाल करता है कि हम कैसे समाज में रह रहे हैं, जिसमें दलितों को मनुष्य ही नहीं समझा जाता है। बता रहे हैं युवा समालोचक सुरेश कुमार

मलखान सिंह (30 सितंबर, 1948 – 9 अगस्त, 2019) पर विशेष

[इसमें कोई दो राय नहीं है कि जाति व्यवस्था की संरचना ने जहां कुलीनों को सिंहासन उपलब्ध करवाया, वहीं बहुसंख्यक दलित-बहुजनों को हाशिये पर ले जाने में अहम भूमिका निभाई है। इसकी अभिव्यक्ति साहित्य में अलग-अलग रूपों में भी हुई है। मसलन, दलित साहित्य ने बताया कि इक्कीसवीं सदी में आधुनिक चेतना से लैस होने पर भी सवर्ण समाज जाति के जामे को पहनना-ओढ़ना छोड़ नही सका है। दलित साहित्यकारों के पास जितने बौद्धिक औजार थे, जिनसे जाति व्यवस्था के भयंकर उत्पातों को सामने लाने का काम उन्होंने किया है। हालांकि नई कहानी आंदोलन से जाति का प्रश्न काफी हद तक नदारद रहा है। उसमें तो मध्यवर्गीय समाज की आकांक्षाओं, इच्छाओं और संत्रास की अभिव्यक्ति को तरजीह दी गई है। यह दलित साहित्य की बड़ी देन है कि जाति व्यवस्था के खिलाफ गोलबंदी का तेजी से उभार हुआ। इस आलेख में दलित साहित्य के मील के पत्थर कहे जानेवाले लेखकों की उन कहानियों को केन्द्र में रखा गया है जो सामाजिक भेदभाव और जातिवादी मानसिकता की पड़ताल करती हैं। इस आलेख शृंखला के तहत आज पढ़ें मलखान सिंह की कविताओं के बारे में]

द्विजवादी वर्चस्वाद के खिलाफ लोहा लेतीं कवि मलखान सिंह की कविताएं

  • सुरेश कुमार

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में जिन कवियों ने हिंदी कविता की नई जमीन का निर्माण किया है और बहिष्कृत भारत की जनता की चित्तवृत्तियों को शब्दों के वाग्जाल से मुक्त होकर अपनी कविता में व्यक्त किया है उनमें कवि मलखान सिंह (1948-2019) का नाम सर्वोपरी है। मलखान सिंह ने अपने जीवन मे बहुत ज़्यादा नहीं लिखा है। इस कवि के “सुनो ब्राह्मण’ और ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ नामक दो बड़े मारक कविता संग्रह प्रकाशित है। उनकी कविता जहां भारतीय समाज की जातिवादी गतिविधियों की सोनोग्राफी है, वहीं द्विज समाज की कारगुजारियों का एक्स-रे भी है। 

कवि मलखान सिंह अपनी रचनाओं में अनुभव और भोगे हुए यर्थाथ की जमीन पर अपने सृजन को आकार देते हैं। उनकी कविताओं में वह उच्च श्रेणी वाला समाज है जो दलितों पर असामाजिक संहिताओं और स्मृतियों को लादकर अट्टहास की मुद्रा में जश्न मनाता है। सवर्ण पृष्ठभूमि के समाज ने दलितों से मनुष्य होने का सौन्दर्य छीन लिया है। गौरतलब है कि यह वही वेदों और स्मृतियों से संचालित समाज है जिसने प्रकृति को तक नहीं बख्शा है। दुनिया के तमाम खूबसूरत पेड़ों को इसने अपनी परम्परा के नाम पर कीलों से छेदकर और धागाओं से लपेटकर प्रकृति के सौन्दर्य को बेनूर बनाने का काम किया है। विश्व के और हिस्सो में भी दासों और काले लोगों के साथ अतीत में जो क्रूरता की गई थी, जुल्म करने वाले लोगों की सन्तानों ने माफी तक मांग ली है, लेकिन भारतीय समाज का द्विज तबका दलितों के साथ अमानवीयता करने में गौरव महसूस करता है। 

मलखान सिंह बताते हैं कि जातिवादी लोग दलित को मनुष्य नहीं, बल्कि जानवरों से भी बदतर समझते हैं। मलखान सिंह ‘मैं आदमी नहीं हूँ’ कविता में कहते हैं– ‘मैं आदमी नहीं हूँ स्साब/जानवर हूँ/ दो पाया जानवर/ जिसकी पीठ नंगी है/कंधो पर../मैला है, गट्ठर है/मवेशी का ठठ्ठर है/हाथो में..राँपी-सुतारी है/कन्नी -बसुली है/साँचा है या/मछली पकड़ने का फाँसा है/बगल में../मूँज है-मँगरी है/तसला है -खुरपी है/ छेनी है- हथौड़ी है/झाड़ू है-रंदा है या/बूट पालिस का धंधा है। /खाने को जूठन है।/पोखर का पानी है/फूस का बिछौना है/चेहरे पर-/मरघट का रोना है/आंखों में भय है/ मुँह में लगाम है/गर्दन का रस्सा है/जिसे हम तोड़ते हैं/ मुँह फटता है और/ बँधे रहने पर /दम घुटता है।’ यह कविता दलितों के जीवन पर जो गुजरी है या गुजर रही है, उस जुल्म की इबारत है। एक ऐसी इबारत जो हिंदी की नई कविता और पुरानी कविता में दर्ज नहीं की गई थी। हिंदी की नई कविता आंदोलन में में यातनाओं में जीवन व्यतीत करता हुआ दलित का संघर्ष दर्ज नहीं हुआ है। यह समाज की कैसी मानसिकता है कि श्रम करने वाले व्यक्ति को मनुष्य का दर्जा देने से इंकार कर दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ जो श्रम नहीं करते है उन्हें देवता के रुप में प्रतिष्ठापित कर दिया जाता है। 

दलित वर्ग की कई समस्याओं में से एक प्रमुख समस्या यह है कि उसकी योग्यता और उसके श्रम का यह कुलीन समाज समुचित सम्मान नहीं करता है। कविता की अंतिम पक्तियों में मलखान सिंह कहते है कि ‘मुंह में लगाम है’ यदि इसका अर्थ खोला जाए तो पता चलेगा कि दलित को बोलने की आजादी नहीं है। जबकि संविधान सबको अपने विचार व्यक्त करने की आजादी विशेष तौर पर देता है। इसके बावजूद भी दलित को अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जाता है। दलित जब भी अपनी बात कहने के लिए आगे आता है तो उसकी ओर से समाज के तथाकथित ठेकेदार बोलने आ जाते हैं। मलखान सिंह “मैं आदमी नहीं हूँ (2)” कविता में अपनी बात और स्पष्ट तरीके से रखते हैं– ‘मैं आदमी नहीं हँ स्साब/जानवर हूँ/दोपाया जानवर/ जिसे बात-बात पर/मनुपुत्र-माँ चो- बहन चो- कमीन कौम कहता है।/पूरा दिन/बैल की तरह जोतता है/मुट्ठी भर सत्तू/ मजूरी में देता है।/मँह खोलने पर/लाल-पीली आंखे दिखा/ मुहावरे गढ़ता है/कि चींटी मरने को होती है/पंख उग जाते है उसके /कि मरने के लिए सिरकाटा/गांव के सिमाने घुस/ हु…आ..हु..आ…करता है/कि गांव का सरपंच/इलाके का दरोगा/ मेंरे मौसेरे भाई हैं/कि दीवाने आम और/खास का हर रास्ता/मेरी चौखट से गुजरता है/कि…।’ वर्ण और जातिवादी लोगों को यह अधिकार नहीं है कि वे दलित से मनुष्य से उसका मनुष्य होने का दर्जा छीन ले।

मलखान सिंह (30 सितंबर, 1948 – 9 अगस्त, 2019)

हिंदी आलोचना में कविता में जिस यथार्थ की बात की जाती रही है, वह सबसे ज्यादा मलखान सिंह की कविताओं में अपने स्वभाविक रुप में प्रकट हुआ है। मलखान सिंह की एक बड़ी खासियत है कि वे कल्पना में गोते लगाकर कविता नहीं रचते हैं, बल्कि यथार्थवादी अनुभीतियों से अपनी कविताओं मे बहिष्कृत भारत की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। ‘पूस का एक दिन’ कविता में सामंती व्यवस्था के कहर का जो चित्रण किया गया है, उसको पढ़कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का दिल कांप जाएगा– ‘सामने अलाव पर/मेरे लोग देह सेक रहे रहे है/ पास ही घुटनों तक कोट/हाथ में छड़ी,/मुंह में चुरट लगाए खड़ी/मूँछे बतिया रही हैं/मूँछे गुर्रा रही हैं/मूँछे मुस्किया रही हैं/मूँछे मार रही है ड़ींग/हमारी टूटी हुई किवाडों से/लुच्चाई कर रही हैं।/शीत ढह रहा है/मेरी कनपटियाँ/आग सी तप रही हैं।’ इस तरह की बर्बरता और अत्याचार सामन्तवादी व्यवस्था ने दलितों के साथ की है। इतना ही नहीं, यह वही सामंतवादी व्यवस्था है, जो दलितों की स्त्रियों के साथ लुच्चाई से पेश आती रही है। इस कविता में कनपटिया शब्द विद्रोह के रुप में आया है, जो सामंतवाद के जुल्म से तंग आकर इस व्यवस्था को उखाड फेकने का आह्वान करता है। 

हिंदी साहित्य के आलोचकों और लेखकों की तरफ से एक आर्दशवादी जुमला फेंक उछाला जाता रहा है कि लेखक को अंतिम जन के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। यह अंतिम जन कौन है? मेरी दृष्टि में इस चौरंगे समाज दलित, आदिवासी और स्त्रियां समाज के अंतिम पायदान पर मूर्त रुप में खड़े दिखाई देते हैं। हिंदी साहित्य की लंबी परंपरा में अपवाद को छोड़कर लेखकों ने इनके दुखों को विषय नहीं बनाया? दलित कवियों को पढ़ते समय एक बात शिद्दत के साथ महसूस होगी कि वर्ण और जाति से मुक्त होकर ही हमारा देश सुंदर बनेगा। जाति व्यवस्था जहां सवर्णों के लिए प्रतिष्ठा का प्रतीक है, वहीं दलित के लिए जुल्म और शोषण की प्रयोगशाला। इस जाति व्यवस्था के चलते दलित को मानवीय अधिकारों के साथ ही उसे मनुष्य होने की गरिमा से वंचित कर के उसके अस्तित्व को नेस्तनाबूद कर दिया गया। इसीलिए दलित कवि का बहुत हद तक आक्रोश जातिवादी समाज के प्रति देखने को मिलता है। यहां तक की दलित की योग्यता का निर्धारण भी उसकी जाति से किया जाता है। मलखान सिंह ने ‘फटी बन्डी’ कविता के हवाले से जाति के भयवाह पक्ष को हमारे सामने कुछ इस तरह से रखा है–‘मैं अनामी हूँ/अपने इस देश में/जहाँ-जहाँ भी रहता हूँ/आदमी मुझे नाम से नहीं/जाति से पहचानता है और/जाति से सलूक करता है।/कम्बख्त जाति!/सधे बाज सी निरन्तर/मेरा पीछा करती है।/मैं गांव में हूँ/जाति छप्पर में आ टंगी है/काले झण्ड़े सी।/मैं दगड़े में हूँ। जाति कन्धों पर आ फंसी है/फटी बन्ड़ी-सी।/मैं खेत-खलिहान/बाजार में हूँ/बंडी मेरे कंधो में हैं।/ मै कल -कारखाने/सभागार में हूँ/बंडी मेरे कंधो में हैं/मै दाएँ मुड़ता हूँ /बंडी दाएँ मुड़ती है/मैं बाएँ मुड़ता हूँ/बंडी बाएँ मुड़ती है/यहां तक कि खाते – पीते/उठते – बैठते और/चिता में पसरने तक/यह सनातनी बंडी मेरा पीछा नहीं छोड़ती।/आंख खुलते ही /इस आदमखोर बंडी ने/इतनी बेरमी से रौंदा है कि आज-/आज रोशनी से मुझे डर लगता है/गैल चलते मेरे कान बजते हैं/सामने खड़ी भीड़ के गुजरने पर/मन काँप-काँप जाता है। परिचित श्रीमान जी से बात करते/जीभ हकलाती है/परिचित श्रीमान जी से हाथ मिलाते/हाथ काँपता है।/लगता है कि ठाँव की पूछने के बाद/वह पांव की भी पूछेगा।/बात! अगैरा -बैगरा को लाँघ/नथिया के लहंगे तक जा पहुँचेगी/तब लाख अंगरखा पहने हुए भी मेरा सख्त चेहरा/ भीतर कंधो में फँसी बंडी की कैफियत बयान कर देगा।’ इस कविता में जो तल्ख सच्चाई है, उसके बाद कहने के लिए बचता ही क्या है। मलखान सिंह की यह कविता भारतीय समाज जातिवादी गतिविधियों की हकीकत को बयान करती है। कविता बताती है कि जाति सवर्णों की जीवन शैली और उनके दर्शन का प्रमुख अंग है। दलित के लिए जाति व्यवस्था एक समाजिक बुराई और पिशाच प्रथा है, जिसने दलित को असीम पीड़ा देकर उसके वजूद को ही नष्ट कर डाला है। मलखान सिंह इस पूरी व्यवस्था को ‘सनातनी’ बन्डी का नाम देकर ब्राह्मण दर्शन के वर्चस्व को हमारे सामने लाए हैं। इस सनातनी व्यवस्था से ही प्रत्येक दलित चिंतक और समाज सुधारक की सदियों से तनातनी चली आ रही है या यूं कहें कि दलित समतामूलक समाज का निर्माण के लिए इस सनातनी व्यवस्था से महायुद्ध लड़ जा रहा है। 

दलित जीवन तमाम यातनाओं से होकर गुजरा है। कभी उसकी कमर जाति व्यवस्था ने तोड़ी तो कभी बेगार प्रथा के शिकार हुए। कभी दंभी मानसिकता वाले लोगों की प्रताड़ना की मार झेलनी पड़ी। आधुनिक युग में भी दलित अपने सिर पर मानव का मल-मूत्र ढ़ोते हुए दिखाई देते हैं। मलखान सिंह की ‘मुझे गुस्सा आता है’ कविता में दलित जीवन के यथार्थ का यह मर्मिक चित्रण देखिए– ‘मेरी मां मैला कमाती थी/ बाप बेगार करता था/ और मैं मेहनताने में मिली जूठन को/इकट्ठा करता था, खाता था।/आज बदलाव इतना आया है कि /जोरु मैला कमाने गई है/बेटा सकूल गया है और–/मैं कविता लिख रहा हूँ/इस तथ्य को बचपन में ही/ जान लिया था मैंने कि –/पढ़ने लिखने से कुजात/सुजात नहीं हो जाता,/कि पेट और पूँछ में एक गहरा संबन्ध है,/कि पेट के लिए रोटी जरुरी है/और रोटी के लिए पूँछ हिलाना/उतना ही जरुरी है।’ 

जहां एक ओर द्विज लेखक गांव को एक आदर्श को रुप में प्रस्तुत करते आए हैं, परंतु दलित लेखन में गाँव जाति व्यवस्था और शोषण के अड्डे के रुप में चित्रित हुए हैं। बाबासाहेब डॉ.आंबेडकर की दृष्टि में गांव जाति और वर्णव्यवस्था की प्रयोगशाला हैं। हिंदी द्विज कवियों ने गाँव का चित्रण करते समय वहाँ के जातिगत भेदभाव को नजरअंदाज कर दिया है। यह बात सही है कि गांव उनके लिए तो आदर्श होगें ही, जिनकी वहां सामंती और महाजनी चलती है। मलखान सिंह की कविताओं में गांव का जो सच आया है वह काफी भयावह है। मलखान सिंह की इस कविता में गांव के यथार्थ को महसूस कीजिए–‘यकीन मनिए/इस आदमखोर गांव में/मुझे डर लगता है/बहुत डर लगता है।/लगता है कि अभी बस अभी/ठकुराइसी मैड़ चीखेगी/मैं अधशौच ही/खेत से उठ आऊँगा।/कि अभी बस अभी/हवेली घुड़केगी,/मै बेगार में पकड़ा जाऊँगा।/कि अभी बस अभी/महाजन आएगा/मेरी गाड़ी का भैसा उधारी में खोल ले जाएगा।/ कि अभी बस अभी/बुलावा आएगा/खुलकर खाँसने के– अपराध में प्रधान/मुश्क बाँध मारेगा/लदवाएगा डकैती में /सीखचों के भीतर/ उम्र भर सड़ाएगा।’ 

मलखान सिंह की गाँव पर एक कविता और है। यह कविता बताती है कि सवर्ण समाज के व्यक्तियों का दलितों को लेकर रवैया कैसा है? ‘हमारे गांव में’ कविता में बड़ी बारीकी के साथ इसे देखा जा सकता है– ‘हमारे गांव में भी/कुछ हरि होते हैं/कुछ जन होते हैं/जो हरि होते हैं/ वह जन के साथ/न उठते हैं/न बैठते हैं/न खाते हैं/ न पीते हैं/यहां तक कि जन की/परछाई से भी परहेज करते हैं/यदि कोई प्यासा जन /भूल गया या मजबूरी बस/हरि कुँए की जगत पर/पांव भी रख दे/तो कुँए का पानी मूत में बदल जाता है।/हमारे गांव में/जो जन होते हैं/वह जूता बनाते हैं/कपड़ा बुनते हैं/ मैला उठाते हैं/ जो हरि होते हैं/जूता पहनते हैं/कपड़ा पहनते हैं/शास्त्र बाँचते हैं/ दुर्गंध पौंकते हैं। … हमारे गांव में नम्रता/जन की खास पहचान है/और उद्दण्डता हरि का बाँकपन/तभी तो वह बोहरे का लौंड़ा/जो ढंग से नाड़ा भी नहीं खोल पाता/को दूर से ही आता देखकर/मेरा बाबा/‘कुवरजू पाँव लागू’ कहता है/और वह अशिष्ट/अपना हर सवाल/तू से शुरु करता है/तू पर ही खत्म करता है…।” यह कविता में दलित संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति के अंतर को स्पष्ट करती है।

‘सुनो ब्राह्मण’ मलखान सिंह की बेहद चर्चित कविता है। यह कविता दलितों पर किए गये अत्याचार और शोषण का आख्यान है। इस कविता में अन्याय की परम्परा के खिलाफ विद्रोह और क्रांतिकारी बिगुल है। यह कविता दावा करती है कि दलित समाज की दुर्गति की जिम्मेदार ब्राह्मणवादी व्वयस्था है। मलखान सिंह बड़ी बेबाकी से इस बात को रेखांकित करते है कि दलितों की दास्ता का सफर ब्राह्मणवादी शक्तियों के उभार से हुआ है और इसके अंत से ख़त्म होगा। मलखान सिंह लिखते हैं– ‘हमारी दास्ता का सफर/तुम्हारे जन्म से शुरु होता है/ और इसका अंत भी/ तुम्हारे अन्त के साथ होगा।’ मलखान सिंह की कविताओं में वर्ण और जाति की मुखालफत का स्वर कूट-कूट कर भरा है। भारतीय समाज को समझने के लिए सुनो ब्राह्मण कविता एक निर्देशक की तरह हमारी मदद करती है। मलखान सिंह की कविताएं बताती है कि द्विज समाज के लोग दलित के परछाई तक से भी परहेज करते आए हैं। इतना ही नहीं उनके साथ कभी समता से पेश नहीं आया गया है। प्रमाण के तौर पर सुनो ब्राह्मण कविता की यह पंक्तियां देखिएं– हम जानते हैं/ हमारा सब कुछ/ भौड़ा लगता है तुम्हें।/ हमारीबगल में खड़ा होने पर/ कद घटता है तुम्हारा/ और बराबर खड़ा देख/ भवें तन जाती हैं।/सुनो भूदेव/ तुम्हारा कद/उसी दिन घट गया था/ जिस दिन कि तुमने/न्याय के नाम पर /जीवन को चैखट में कस/ कसाई बाड़ा बना दिया था।/ और खुद को शीर्ष पर/स्थापित करने हेतु/ ताले ठुकवा दिये थे/चैमंजिला जीने से।/ वहीं बीच अंगन में/ स्वर्ग के नरक के /ऊँच के – नीच के/छूत के – अछूत के /भूत के भभूत के/मंत्र के तंत्र के/ बेपेंदी ब्रम्हा के /कुतिया,आत्मा,प्रारब्ध और गुण धर्म के/ सियासी प्रपंच गढ़/रेबड़ बना दिया था/पूरे के पूरे देश को।’

दरअसल, मलखान सिंह की कविताओं के बिंब विधान और प्रतिमान दलित समाज के भीतर से आते हैं। इनकी कविताएं कलावादी और शास्त्रीय परम्परा के बिल्कुल उलट दलित जीवन की दुश्वारियों को सामने लाती हैं। इनकी कविताएं पढ़ने के बाद कविताओं से जिरह करने के बजाय व्यक्ति अपने से सवाल करता है कि हम कैसे समाज में रह रहे हैं, जिसमें दलितों को मनुष्य ही नहीं समझा जाता है। मलखान सिंह की कविताओं में कबीर जैसा सच कहने का साहस है, रैदास और स्वामी अछूतानंद की तरह मनुवादी व्यवस्था से युद्ध है। दलित सौंदर्य शास्त्र के लिए मलखान सिंह की कविताएं मानक हो सकती हैं। उनकी कविताओं में दलित चेतना है, दलित अस्मिता है, दलित जीवन का बोध है, दलित जीवन की वेदना है, व्यवस्था की विद्रुपताओं का चित्रण है, अन्याय की परंपरा का विरोध है, भोगा हुआ यथार्थ है, और समतामूलक समाज के निर्माण के सूत्र भी हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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