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गुलामगिरी : ब्राह्मणवाद की आड़ में (मूल मराठी से अनूदित व संदर्भ-टिप्पणियों से समृद्ध)

‘गुलामगिरी’ जोतीराव फुले द्वारा लिखित बहुजनों की मुक्ति का घोषणापत्र के समरूप किताब (मूल मराठी से अनूदित व विस्तृत संदर्भ-टिप्पणियों से समृद्ध) खास आपके लिए। आज ही घर बैठे खरीदें। मूल्य– 200 रुपए (अजिल्द) और 400 रुपए (सजिल्द)

अनुवाद : उज्ज्वला म्हात्रे

संदर्भ व टिप्पणियां : राम सूरत व आयवन कोस्का

मूल्य :  400 रुपए (सजिल्द), 220 रुपए (अजिल्द)

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भारत में ब्राह्मण प्रभुत्व का यह संक्षिप्त इतिहास है। शुरू में वे गंगा के किनारों पर बसे और फिर वहां से धीरे-धीरे पूरे भारत में फैल गए। लेकिन लोगों पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए उन्होंने पुराणों का सहारा लेकर जाति-प्रथा जैसी विचित्र व्यवस्था रची। उन्होंने ऐसे क्रूर और अमानवीय नियम-कानूनों की संहिता बनाई, जिसकी तुलना दुनिया के किसी भी देश की व्यवस्था के साथ नहीं की जा सकती।

(पुस्तक में संकलित जोतीराव फुले द्वारा लिखित भूमिका से उद्धूत )

पुस्तक की फुले द्वारा अंग्रेजी में लिखी गई भूमिका का उद्देश्य केवल गुलामगिरी  का सार – अर्थात यह कि शूद्र-अतिशूद्रों को ब्राह्मणों ने (मानसिक रूप से) अपने गुलाम बना लिया है और वे अनादि काल से उनका शोषण करते आ रहे हैं तथा यह सिलसिला ‘सभ्य’ ब्रिटिश शासन में भी जारी है – प्रस्तुत करना नहीं था। जिस तरह की शब्दावली और उद्धरणों का इसमें प्रयोग किया गया है और जिस तरह से पश्चिमी इतिहास और संस्कृति की घटनाओं और व्यक्तित्वों का हवाला दिया गया है, उससे ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य अंग्रेजों और शिक्षित भारतीयों को यह बताना था कि आखिरकार आमजनों से जुड़ा एक शिक्षित शूद्र उनके सामने है, जो जनता की बात दुनिया के सामने रख सकता है। 

(आयवन कोस्का द्वारा लिखित प्राक्कथन से उद्धृत)

गुलामगिरी का कवर पृष्ठ

1873 में जोतीराव फुले द्वारा लिखित यह किताब भारत के दलित-बहुजनों की मुक्ति का घोषणापत्र है। आज से डेढ़ सदी पहले फुले के जो सरोकार थे, वे आज भी हमारे सरोकार होने चाहिए। आज भी आबादी का बड़ा हिस्सा – शूद्र और अतिशूद्र – हाशिए पर है और समाज और सत्ता प्रतिष्ठानों में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है। ब्राह्मणवादी मिथकों का कुप्रभाव समाज पर अब भी हावी है और वे सामाजिक विभाजन तथा गहन शैक्षणिक व आर्थिक असमानता का पोषण कर रहे हैं। अगर हम चाहते हैं कि इन सरोकारों पर ध्यान दिया जाए, अगर हम चाहते हैं कि हमारा समाज बदले तो हमें फुले की गुलामगिरी को उसकी समग्रता में स्वीकार करना होगा – जैसी है, ठीक वैसे ही। यह एक कड़वी खुराक है जिसे हमें निगलना ही होगा, एक दर्पण है, जिसमें हमें अपना चेहरा देखना ही होगा। तभी हम अपने समाज को न्यायपूर्ण बनाने की बात सोच सकते हैं।

(पुस्तक में संकलित प्रकाशकीय से उद्धृत)

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