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मगही साहित्य : शानदार अतीत और मौजूं सवाल

हिंदी साहित्य लेखन आज भी मगही के उस प्रारंभिक दौर के लेखन तक नहीं पहुंच सका है, क्योंकि वहां ब्राह्मणवादी मानसिकता वालों का हर जगह वर्चस्व कायम है। और स्वयं मगही में साहित्यिक लेखन का अधिकांश आज इसी यथास्थितिवाद में गर्क है। बता रहे हैं युवा समालोचक अरुण नारायण

मगही साहित्य की वर्तमान रचनात्मकता आज जहां खड़ी है, उसकी नींव पिछली शताब्दी के दूसरे दशक में ही पड़ चुकी थी। जब बाबू जयनाथपति ने ‘सुनीता’ नामक उपन्यास की रचना की। महत्वपूर्ण यह कि बिहार की क्षेत्रीय भाषाओं में भोजपुरी और मैथिली के जो पहले उपन्यास लिखे गए, उनमें मगही का यह पहला उपन्यास कई मामले में अलग और विशिष्ट रहा है। इस उपन्यास का कथानक अंतर्जातीय प्रेम विवाह पर केंद्रित था, जिसमें सवर्ण समाज से आनेवाली नायिका अवर्ण समाज के नायक से विवाह करती है। हालांकि भोजपुरी के पहले उपन्यास का कथानक भी प्रेम विवाह ही है, लेकिन वहां स्वाजातीय प्रेम विवाह है। इस प्रसंग की चर्चा करने का मकसद यह है कि किसी भाषा साहित्य के रचनात्मक लेखन की शुरुआत ही जहां जाति के खात्मे जैसे विमर्श से हो रही हो, उस भाषा के साहित्य की जड़ें समाज से किस तरह गहरे नाभिनाल रहीं होगीं, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। 

जबकि हिंदी साहित्य लेखन आज भी मगही के उस प्रारंभिक दौर के लेखन तक नहीं पहुंच सका है, क्योंकि वहां ब्राह्मणवादी मानसिकता वालों का हर जगह वर्चस्व कायम है। और स्वयं मगही में साहित्यिक लेखन का अधिकांश आज इसी यथास्थितिवाद में गर्क है।

मगही में लेखन की दुनिया संख्या के लिहाज से भले ही कमतर रहीं हो, लेकिन गुणवता के लिहाज से आरंभिक काल से ही इसका साहित्य बहुआयामी, बहुवर्णी और बहुउद्वेषीय रहा है। इसकी तस्दीक इस बात से भी की जा सकती है कि हिंदी लेखन में मगही क्षेत्र से आने वाले– केशवराम भट्ट, रामदीन सिंह, मोहनलाल महतो वियोगी, कामता प्रसाद सिंह ‘काम’, शंकर दयाल सिंह, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी और इधर के लेखकों में बदीउज्जमा, नरेश, केसरी कुमार, जाबिर हुसेन, जयनंदन, शैवाल, प्रेमकुमार मणि, अनंत कुमार सिंह, नरेन, संजय सहाय, बुद्धशरण हंस, सुनील सिंह, नीलिमा सिन्हा, हरिवंश नारायण, अश्विनी कुमार पंकज और रणेंद्र जैसे लेखकों को माइनस कर दिया जाए तो हिंदी कथा साहित्य की दुनिया एक बहुत बड़े और वैविध्यपूर्ण अनुभव से वंचित हो जाएगी। इन लेखकों ने अपने समय, समाज की धड़कनों, बदलावों, लैंगिक और जातीय गैर-बराबरी के जितने अनुभव अपने लेखन के माध्यम से हिंदी समाज में लाये हैं, वे विरल हैं। 

बिहार के जहानाबाद जिले में है बराबर पहाड़ी और इसी पहाड़ी पर है ऐतिहासिक गुफाएं, जिनका संबंध बुद्ध के पूर्व के आजीवकों से बताया जाता है। इसका संबंध प्राचीन मगही से है।

अतीत के आधार पर कहें तो पुराने मगध का भौगोलिक विस्तार बहुत व्यापक था। यह वृहत भारत में बोली जाती थी। यह अकारण नहीं जब कहा गया– ‘सा मागधी मूल भाषा।’ मगही से कालांतर में कई भाषाओं की उत्पति हुई जो अलग-अलग भाषा क्षेत्र के नाम से जाने गए। आधुनिक मगही का क्षेत्र आज बिहार के 13 जिलों और झारखंड के 4 जिलों– चतरा, हजारीबाग, कोडरमा और गिरिडीह तक फैला हुआ है। इस भाषा की पढ़ाई बिहार के दो विश्वविद्यालयों– मगध विश्वविद्यालय और नालंदा खुला विश्वविद्यालय में होती है। लेकिन एक भाषा के रूप में मगही को लेकर एक अनुराग और प्रतिबद्धता का भाव मगही भाषियों में है ही नहीं। अपनी भाषा को लेकर उनकी यह उदासीनता कोई एक दिन में नहीं पनपी। इसके पर्याप्त कारण रहे हैं जिसके लिए विस्तृत तफ्तीश आवश्यक है, जो फिलहाल परिचयात्मक आलेख में मुमकिन नहीं।

दरअसल, मगही की उपन्यास विधा को बाबूलाल मधुकर ने ‘रमरतिया’, ‘अलगंठवा’, रामप्रसाद सिंह ने ‘नरक सरग धरती’, राजेंद्र कुमार यौद्वेय ने ‘बिशेसरा’, रामविलास रजकण ने ‘धूमैल धोती’ और मुनीलाल सिन्हा ‘शीशम’ ने ‘प्राणी महासंघ’ सरीखे उपन्यासों के माध्यम से समृद्ध किया है। यूं तो दर्जनों ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने इस विधा में लेखन किया है, किंतु मगध क्षेत्र के बहुवर्णी यथार्थ की जो गहराई अश्विनी कुमार पंकज के हालिया प्रकाशित उपन्यास ‘खांटी किकटिया’ में दर्ज हुई है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने मगध के चर्चित दार्शनिक और आजीवक परंपरा के सूत्रधार मक्खलि गोसाल के जीवन दर्शन के बहाने बौद्ध, जैन और ब्राहणवादी धर्म के पाखंड को पूरी तार्किकता के साथ प्रहार किया है। मगध की पिछड़ी अतिपिछड़ी जातियों की संघर्ष परंपरा को भी उन्होंने बला की खूबसूरती से दर्ज किया है।

मगही में प्रकाशित कुछ पत्रिकाएं (साभार : सुमंत जी, गया, बिहार)

साहित्य की किसी भी विधा में कविता विधा सर्वाधिक महत्पूर्ण मानी जाती है। मथुरा प्रसाद नवीन, बाबूलाल मधुकर, रामविलास ‘रजकण’ आदि ये ऐसे नाम हैं, जिन्होंने मगही की कविता विधा को अखिल बिहारी पहचान दी है। आपातकाल के दौर में रामविलास रजकण की लिखी ये पंक्तियां काफी लोकप्रिय हुईं–

‘ढेर साल ढेर माह देश में अन्हार रहल,
डेढ़ आदमी शासन चलइलन हो विदेषिया।’

इसी प्रकार कहानी में रवीन्द्र कुमार, श्रीकांत शास्त्री, मुनिलाल सिन्हा ‘शीशम’, घमंडी राम, मिथिलेश, ओमप्रकाश जमुआर, हरीन्द्र विद्यार्थी, रामविलास रजकण, शेखर, जयनंदन, नरेन, मनोज कुमार कमल, अश्विनी कुमार पंकज, जितेन्द्र वत्स, धनंजय श्रोत्रिय आदि कई ऐसे नाम हैं, जिनकी रचनाओं में आज का मगही समाज अपने कई सारे बदलावों के साथ मौजूद है। 

मगही आलोचना में समय-समय पर कुछ काम होते रहे हैं, लेकिन लक्ष्मण प्रसाद, भरत प्रसाद आदि आलोचक को यह श्रेय जाएगा कि उन्होंने अपने हस्तक्षेप से इस विधा को एक अलग रंगत प्रदान की है।

मगही साहित्य को महिला लेखिकाओं ने भी अपनी मेधा से सींचा है। संपति आर्याणी ने अपना डी. लिट इसी भाषा में किया था। उन्होंने ‘मगही संस्कार गीत’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक की रचना की। सीमा रानी और शोभा अपनी कहानियों के लिए पूरे मगध में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी हैं।

मगही में पत्र-पत्रिकाओं और प्रकाशन की भी एक सुदीर्घ परंपरा रही है। लेकिन वर्तमान में नियमित रूप से एकाध पत्रिकाएं ही निकल पा रही हैं। सोशल मीडिया पर भी इसकी स्थिति इतनी ही निराशापूर्ण है। 1950 के दशक में रामानंद के संपादन में ‘मगही’ पत्रिका निकली। जो कमोवेश अब भी निकल रही है। उन्होंने तकरीबन 3 दर्जन मगही किताबें छापी, लेकिन अब अमरीका प्रवास कर जाने के कारण उनकी गति लगभग छीज-सी गई है। 1990 के दशक में गया के बेलागंज जैसे कस्बे से राम प्रसाद सिंह ने मगधी साहित्य के संवर्द्धन के लिए जो काम किए वह मील का पत्थर कहे जा सकते हैं। साहित्य अकादेमी तक ने उनके काम की नोटिश ली और इसके लिए उन्हें सम्मानित किया। अभिमन्यु प्रसाद मौर्य के संपादन में पटना से ‘अलका मागधी’ पत्रिका भी लंबे समय तक निकली। सही मायने में इस पत्रिका ने दर्जनों लेखकों को सींचा। उन्होंने स्वयं– ‘प्रेम अइसने होव हे’ और ‘पांड़े जी के पतरा’ जैसे नाटक लिखे, जिसके मंचन ने लोगों को मगही के प्रति गोलबंद किया। अलखदेव प्रसाद अचल के संपादन में औरंगाबाद से एक दौर में ‘टोला-टांटी’ जैसी पत्रिका निकली। कालांतर में पटना से धनंजय श्रोत्रिय के संपादन में ‘मगही पत्रिका’ निकली। अब तक इसके 28 अंक निकल चुके हैं। इसके तीन अंक ‘बंग मागधी’ और 1 अंक ‘झारखंड मागधी’ विशेषांक के रूप में निकले हैं। इसके अलावा मगही की भाषा वर्तनी, कहावतों, समकालीन साहित्यकारों पर केंद्रित अंक भी निकाले। उनके द्वारा प्रकाशित समकालीन साहित्य विशेषांक की कई कहानियां मगही के पाठ्यक्रमों में लगीं। उन्होंने ललित प्रकाशन की भी नींव डाली, जिसके तहत मगही की अब तक 84 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। मिथिलेश के संपादन एवं नरेन के अतिथि संपादन में निकली पत्रिका ‘सारथी’ ने मगही रचनात्मकता को एक सुचिंतित दिशा और गहराई प्रदान की है। इसके अब तक 28 अंक प्रकाशित हो चुके हैं, जिसमें मथुरा प्रसाद नवीन पर केंद्रित विशेषांक काफी चर्चित रहा है। प्रकाशन के क्षेत्र में नरेन के संवेदना प्रकाशन से मगही की तकरीबन 30 किताबें साया की है। इसके पहले जागृति प्रकाशन पटना ने भी मगही की कई किताबें प्रकाशित कीं।

सोशल मीडिया में मगही की उपस्थिति बहुत निराशापरक है। फिलहाल एक ब्लाॅग् नारायण प्रसाद की पहल पर मौजूद है। इन्होंने अपनी कोशिशों से इस पहल को अंजाम दिया है। मगही की कई अप्रकाशित रचनाओं को साझा किया गया है। इसके अलावा खुद रूसी और अंग्रेजी से बहुत सारी कालजयी रचनाओं को मगही में लाने में प्रयासों में लगे हुए हैं।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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