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माटी माटी अरकाटी :  हाशिये के इतिहास का साहित्यिक दस्तावेजीकरण

अश्विनी कुमार पंकज का यह उपन्यास वर्ष 2016 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में मॉरीशस ले जाये गये गिरमिटिया मजदूर और उत्तर भारतीय समाज की जातिगत अवधारणाएं हैं। जल, जंगल और जमीन नामक तीन अध्यायों में विभजित यह उपन्यास भारतीय सबाल्टर्न इतिहास को समझने की दृष्टि प्रदान करता है। बता रहे हैं महेश कुमार

अश्विनी कुमार पंकज द्वारा लिखित उपन्यास ‘माटी माटी अरकाटी’ महज साहित्यिक उपन्यास नहीं है। यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसके विस्तार में प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारत तक समाहित है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है ‘क़िस्सागोई’ जो कि बड़े-बुजुर्गों की शैली में जैसे ग्रामीण परिवेश में हमेशा से रहा है। इस खास तरह की क़िस्सागोई के जो भी घटक हैं वे सब ‘सबाल्टर्न थ्योरी (हाशिये की वैचारिकी)’ से जुड़ते हैं। मुमकिन है कि लेखक सचेत होकर अनिवार्य रूप से ‘सबाल्टर्न इतिहास’ के दृष्टिकोण से यह उपन्यास न लिख रहे हों, लेकिन उपन्यास की प्रस्तावना में जिस मालगासी कहावत का उपयोग किया गया है, जो सवाल उठाए गए हैं और उपन्यास लिखने के जो उद्देश्य बताए गए हैं, वे प्रचलित सबाल्टर्न लेखन से जुड़ता है। लेखक के इस सवाल को पढ़ने पर यह और स्पष्ट हो जाएगा “ऐसा क्यों हुआ कि गिरमिटिया कुली खुद तो आज़ादी पा गए, लेकिन उनकी आज़ादी हिल (आदिवासी) कुलियों को चुपचाप हड़प कर गयी? एक कुली की आज़ादी कैसे दूसरे कुली के खात्मे का सबब बनी?” यही सवाल लेखक को उपन्यास लिखने पर मजबूर करता है।

सबाल्टर्न इतिहास लेखन के मूल में किसानों, मजदूरों, स्त्रियों, दलितों व आदिवासियों के संघर्ष की अपनी वैचारिकी रही है। इसे मुख्यधारा के आंदोलनों के विचार से प्रभावित बताकर इसके महत्व और वैचारिकता को गौण बनाना उचित नहीं है। ‘सबाल्टर्न’ का हिंदी रूपांतरण तीन तरह से हो सकता है– हाशिए की वैचारिकी, निम्नवर्गीय और उपाश्रयी। इसमें हाशिए की वैचारिकी सबाल्टर्न के ज्यादा नजदीक है, जिसमें ‘अस्मिता’ की प्रधानता होती है।

अब इस दृष्टिकोण से अश्विनी कुमार पंकज के उपन्यास का विश्लेषण दो तरह से किया जा सकता है– सामाजिक समूह और भाषा के आधार पर। इसमें चार तरह के सामाजिक समूह हैं– कोंता-मालगासी, रामनारायन, स्त्रियाँ और अंग्रेज। कोंता एक पहाड़ी (आदिवासी) कुली है। वह मुख्यधारा के अंतर्विरोधों से मुक्त है। वह संघर्ष की पृष्ठभूमि से संबंध रखता है। उसके समाज का मूल विचार ही सामूहिकता, स्त्री-पुरुष समानता, प्रकृति का ज्ञान है। इसलिए पहाड़ी कुली के रूप में वह स्त्रियों और निम्नवर्ग के बीच सबसे ज्यादा विश्वसनीय है। वह उस समाज से है, जो महाजनी और औपनिवेशिक दोनों ही व्यवस्थाओं द्वारा उत्पीड़ित है। एक तरफ महाजन के कर्ज तले दबकर वे अपने ही जमीन पर खेतिहर मजदूर हो गए तो दूसरी तरफ अंग्रेजों ने उस जमीन पर कॉफी, कपास और गन्ने की खेती करवाकर उन्हें अनाज पैदा करने से भी रोक दिया।

1853 में मॉरीशस के पोर्ट लुईस के नजदीक प्लेन विलियम नामक स्थान में बनी भारतीय गन्ना मजदूरों की झोपड़ियां, फोटोग्राफर : फेड्रिक फीबिग, साभार : ब्रिटिश लाइब्रेरी, लंदन

उपन्यासकार ने बहुत सावधानी से कोंता के बहाने मगध और छोटानागपुर के इतिहास को प्रस्तुत किया है। इसकी पृष्ठभूमि मध्यकाल से शुरू होकर आधुनिक अंग्रेज काल तक चलता है। छोटानागपुर के नामकरण से लेकर, दाउदनगर, गया, करपी, शेरघाटी को ऐतिहासिक घटनाओं से जोड़कर देखना क्षेत्रीय इतिहास को रेखांकित करने का एक रचनात्मक प्रयास है। वैसे भी बिना क्षेत्रीय इतिहास के आदिवासी संघर्षों को सफलतापूर्वक इतिहास लेखन में जगह नहीं मिल पाएगा। लेखक इस बात को बखूबी समझते हैं। इसलिए शोषण के इतिहास को लिखते हुए राजनीतिक, आर्थिक और कृषि संबंधी इतिहास को एक साथ प्रस्तुत किया गया है। हाथी और नागवंशी राजाओं का संबंध, मुगलों के साथ उनका संघर्ष, जंगल का दोहन, राज्य का बिखरना और फिर अंग्रेजों का आगमन। इस प्रक्रिया में आर्थिक और कृषि इतिहास को विशेष रूप से लेखक ने उल्लेखित किया है।

सर्वविदित है कि अंग्रेजों के आने के साथ ही महाजनी व्यवस्था और मजबूत हुई साथ ही उनकी जमीनें भी जाती रहीं। आर्थिक शोषण चरम पर था, जिसके कारण बुधु भगत जैसे लोगों ने जबरदस्त संघर्ष किया। बुधु भगत के परिवार की नृशंस हत्या की गई। इस इतिहास से कोंता बहुत बाद में परिचित होता है। झारखंड का हर आदमी इस तरह की घटनाओं से अनजान है, जिसे ‘इतिहास’ कहा जाता है। कोंता देख रहा था कि ‘आदिवासी रिन पईंचा का जाल में बुधु मछली जैसा फँसता जा रहा था।’ ‘लूला जैसा महाजन अकाल और अतिवृष्टि के बाद आने वाले बवंडर थे।’ इन विवरण में प्राकृतिक और व्यवस्थागत दमन का चरम रूप है।

आउसले जैसे अधिकारी ने पूरा आदिवासी क्षेत्रों के कृषि व्यवस्था में ही बदलाव ला दिया था। नकदी फसल और पर्यटनवादी नजरिए ने आदिवासियों में भुखमरी की स्थिति ला दिया। आउसले के लिए यह विकास था और कोंता के लिए विनाश।

लेखक ने लिखा है कि ‘कोंता के परिवार का दुख और आउसले की खुशी में शायद बहुत गहरा संबंध था। समय से पहले हो गयी बारिश ने उनकी मजदूरी छिन ली, वहीं बारिश होने से आउसले की खुशी बढ़ गयी।’ यह पूरा प्रसंग संदर्भगत और सबाल्टर्न इतिहास का मामला है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि इतिहास कौन लिख रहा है, कहां से लिख रहा है, उसका उद्देश्य क्या है और उसकी पृष्ठभूमि क्या है। कोंता के नजरिये से उपर्युक्त प्रसंग को पढ़िए तो वह शोषण का इतिहास है। आउसले के नजरिए से पढ़िए तो विकास का इतिहास लगता है। यह इतिहास दर्शन और इतिहास लेखन का मामला है। किसी भी दर्शन, इतिहास और अन्य अनुशासन का काम यदि मनुष्यता का पक्ष लेना है तो निश्चित रूप से जनता को कोंता का पक्ष लेना चाहिए। सबाल्टर्न इतिहास लेखन की दृष्टि इसी उत्पीड़ित मानवता के पक्ष में खड़े होने की है जिसकी झलक इस उपन्यास में बार बार मिलती है।

वहीं रामनारायन इस उपन्यास का दूसरा सामाजिक समूह है। वह मुख्यधारा से है, इसलिए मुख्यधारा के सभी अंतर्विरोध उसके भीतर हैं। वह उच्च जाति की श्रेष्ठता बोध से प्रभावित है, यौनिक कुंठा और ब्राह्मणवादी जटिलताओं से लैस है। उसकी हैसियत एक कुली की है। लेकिन वह जहाज में बाकी लोग के साथ बैठकर नहीं खाना चाहता। कोंता का नेतृत्व उसे स्वीकार नहीं है, क्योंकि उसके नजर में वह कोल और काला है। वह फुलवरिया का बलात्कार करता है, कुंती के साथ भी छेड़छाड़ करता है, मरीना के साथ बलात्कार की योजना बनाता है। लेकिन जैसे ही अंग्रेज भारतीय स्त्रियों के साथ यही सब करता है तो उसे बुरा लगता है। बुरा सहानुभूति की वजह से नहीं लगता, बल्कि उसे लगता है कि इन औरतों पर तो अधिकार उसका है। उसकी प्रवृत्ति को देखकर अंग्रेज कहता है ‘ये जातिवादी भारतीय कभी एक नहीं हो सकते हैं’।अंग्रेज कुलियों के विद्रोह को दबाने के लिए रामनारायन का ही सहारा लेता है। उसे मंदिर बनाने की जगह, पैसा अन्य सभी संसाधन देता है ताकि मजदूर सब भजन-कीर्तन में व्यस्त रहें और आंदोलन की बात भूलकर जो हो रहा, उसे भाग्य का मानकर चलें। रामनरायन इसी को हिंदू धर्म की एकता के रूप में प्रचारित करता है। इन सबका का नतीजा यह होता है कि आज़ाद मॉरीशस में सत्ता रामनारायन के पीढ़ियों के पास चला गया और क्रियोल (हिल कुली, मालगासी, निम्नजातीय) आज भी संघर्ष कर रहे हैं और ‘काया’ जैसे लोग मारे जा रहे हैं।

अश्विनी कुमार पंकज का उपन्याय ‘माटी माटी अरकाटी’ का आवरण पृष्ठ

उसी समय भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन में भी यह अंतर्विरोध दिखाई देता है। लोग जाति, धर्म के नाम पर एकजुट हो रहे थे और अंग्रेज शासन का विरोध कर रहे थे। चूंकि, सबलोग महसूस कर रहे थे कि हमसब का शोषक अंग्रेज है, मतलब संघर्ष के पीछे सबका मकसद एक था। इसलिए राष्ट्रीय संघर्ष हुआ और अंग्रेजों से आजादी ले ली गई, लेकिन जैसे ही आज़ादी मिली फिर वही जाति, धर्म की लड़ाइयों में मुख्यधारा उलझ गया और मजदूर, किसान, स्त्री के सवालों के जवाब, भुखमरी, गरीबी के मुद्दे पीछे छूट गए। आदिवासी उस समय भी आंतरिक और बाहरी शोषण से संघर्ष कर रहा था और आज भी कर रहा है।

 

गिरमिटिया मजदूर के रूप में महिलाएं भी बाहरी देशों में गईं। उनका शोषण सबसे ज्यादा हुआ। हर तरह से शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और पोषण के मामले में भी। उनसे बिना पूछे उनकी शादी कुलियों से तय कर दी जाती थी। उनके पास इसको मानने के अलावा कोई उपाय नहीं था। जहाज पर कुली और अंग्रेज, जिसको जहां मौका मिलता बलात्कार करते। खाने में उनको पुरुषों की तुलना में कम अनाज मिलता था। काम करते हुए पगार भी कम था (आज भी पुरुषों की तुलना में कम ही मिलता है)। जब उन्हें काम के लिए रखा जाता तो स्तन को दबाकर, उनको नंगा करके मालिकों को दिखाया जाता। एक तरह से उनकी गुलामों की तरह नीलामी होती थी। उन्होंने अपनी पीड़ा गीतों और कहावतों में व्यक्त किया, जो उनकी स्मृतियों के हिस्से थे। इसका विश्लेषण भाषा वाले पक्ष में करना उचित होगा।

इस उपन्यास में अंग्रेज अधिकारियों के भी दो पक्ष हैं। एक पक्ष है जो इमीग्रेशन बिल पूरी तरह लागू करवाने की वकालत करता है। जब उसे कोई सहयोग नहीं करता तो अपने खर्चे से पैम्फलेट छपवा कर बाँट देता है। यही पैम्फलेट इस उपन्यास का आधार भी है। दूसरा पक्ष व्यापारियों के साथ है, जिसे पुलिस-प्रशासन और अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता का पूरा समर्थन है। बस निर्देश यही था कि कुली औपनिवेशिक देशों से आने चाहिए। व्यावसायिक वर्ग का मानना है कि ‘हम भूखे नंगे लोगों को काम दे रहे हैं’। आज भी भारत में सत्ता वर्ग को यही लगता है कि वे भूखे नंगे को काम देकर उनपर एहसान कर रहे हैं। ‘भूखा-नंगा’ भूखा क्यों है, इसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ठीक से स्वीकार नहीं करना चाहते! इतनी बड़ी आबादी के गरीब होने के पीछे जो मूल कारण है, उसे जानते हुए भी सत्ता आँख बंद किए रहती है क्योंकि मूल कारण के उन्मूलन से उनके सत्ता को खतरा है। इसलिए सत्ता वर्ग गरीबों के लिए तरह-तरह के विशेषण खोज लेती है। जैसे औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने प्रचारित किया कि ‘कोल धाँगर शांतिप्रिय पड़ोसियों के मर्डर, लूटपाट और विध्वंस में लगे रहते हैं।’ इस विशेषण के जरिए उन्हें आदिवासियों का शोषण करने की खुली छूट मिल जाती थी। अंग्रेजी के एजेंटों ने यह प्रचार किया कि जो लोग ब्रिटिश पार्लियामेंट में काले लोगों के पक्ष में दलील दे रहे हैं, उन्हें पता ही नहीं है कि वे अपने ही देश में भूखों मर रहे हैं। यह बात प्रचारित करते हुए एजेंट ये नहीं कहते थे कि काले लोग भूखों इसलिए मर रहे हैं क्योंकि उनके हिस्से का अनाज और धन इंग्लैंड जा रहा था, जिसे इतिहास में ‘ड्रेन ऑफ वेल्थ’ कहा गया। इन एजेंटों के लिए कुली एक्सपोर्टेशन का सामान थे, जिनमें कुछ का नुकसान (मर जाना) होना तो स्वाभाविक था। यह ठीक उसी तरह की बात थी जैसे आज गटर साफ करते हुए यह मान लिया जाता है कि इसमें कुछ लोगों का मर जाना तो स्वाभाविक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम उन्हें मनुष्य के गरिमामयी दृष्टि से देखने के अभ्यस्त नहीं हैं और न देखना चाहते हैं। इसे अंग्रेज इस रूप में कहते थे कि ‘कुली कितना भी कड़वा हो उसका उपजाया गन्ना मीठा होता है’। मतलब कुलियों के स्वास्थ्य, उसकी गरिमा, भूख से कोई मतलब नहीं है, लेकिन उसका श्रम उसे शत-प्रतिशत चाहिए। यह आज भी अनवरत रूप से चल रहा है। किसान, मजदूर, स्त्री इन सबका श्रम तो खूब चाहिए पर इनकी माँगें, इनका आंदोलन, इनके सवाल नहीं चाहिए। जनता और दुनिया में उनका नाम बना रहे और मूल सवाल हाशिए पर ही रहे, इसके लिए सत्ता हमेशा से धर्म का सहारा लेता रहा है। अंग्रेज अधिकारी कहता है ‘हम क्रूर और आततायी शासक नहीं हैं। ईसाईयों को इतना दयालु तो होना ही चाहिए’। ‘दयालु’ होने का अर्थ है कुछ खाना, कुछ पैसा देना और कभी-कभी कर माफ कर देना। आज भी सरकारें यही करती हैं। कुछ कल्याणकारी योजनाओं के जरिए, कुछ कर्ज माफी करके, धार्मिक योजनाओं में छूट देकर उसे विकास और गरीबों का उद्धार नाम देकर वोट बैंक लेती है। मजदूर, किसान और वंचित समूह के लिए जब भी कोई कानून बनते हैं तब व्यापारी समूह को लगता है कि ये अर्थशास्त्र पर हमला है। मतलब उनके लाभ पर हमला है। इसलिए वे चलताऊ किस्म के तर्कों का प्रयोग करते हैं कि ‘शासन के लिए पोएट्री नहीं, अर्थशास्त्र की जरूरत होती है।’ उपन्यास अपने भाषिक तेवर में ही सबाल्टर्न दृष्टि से लैस है। उपन्यास का शीर्षक है ‘माटी-माटी अरकाटी’ मतलब हर कदम पर दलाल ही दलाल है। इस दलाली में अंग्रेज के साथ-साथ भारतीय मध्यवर्ग भी शामिल है।  

लेखक ने उपन्यास को तीन अध्यायों में बाँटा है– ‘जल, जंगल, जमीन’। ये अध्याय अपने आप में ही सबाल्टर्न पदबंध हैं। इसका विचार आदिवासियत से जुड़ता है, जिसे लेखक ने कथाक्रम का हिस्सा बनाया है। जलमार्ग से होते हुए हिल कुली मॉरीशस पहुँचे, उनका ठिकाना जंगल बना और जमीन की लड़ाई में वे मारे गए व आजतक संघर्ष कर रहे हैं। निश्चित रूप से इसका आधुनिक निहितार्थ हैं, जो भारत और दुनियाभर में चल रहे आदिवासी आंदोलनों से जुड़ता है। लेखक यह काम भाषिक पदों के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे हैं।

इस उपन्यास की खासियत है– ‘स्त्री भाषा का सशक्त प्रयोग’। उपन्यास में ग्रामीण महिलाएं हैं, जो पितृसत्तात्मक समाज की हैं। उनको खुलकर बोलने का, निर्णय लेने का और अपने देह पर अधिकार नहीं है। फलस्वरूप इन स्त्रियों ने अपनी भाषा का ईजाद किया। जब डिपो पर बिना बताए इनके पति तय कर दिए गए, तब कहती हैं– ‘अइली न गेली, फलनवा बहू कहइली’। अनजानेपन और इच्छाविरुद्ध भाव है उपर्युक्त कहावत में। इसी तरह अलग-अलग संदर्भों में वो अलग तरीके से अपनी अनिच्छा जाहिर करती हैं। मर्दवादी नजरिए पर तो कई कहावतें उनके मुंह से लेखक ने कहलवाए हैं। अकेली स्त्री के संकट को देखते हुए उनका कहना है कि ‘धान सुखे हे त कौआ टर टरयबे कर हे’। औरतों की नियति पर दुख और खीझ में उनके मुख से निकलता है– ‘पहली बहुरिया, दूसरी पतुरिया, तीसरी कुकुरिया’। इन कहावतों के जरिए लेखक तत्कालीन समाज के स्त्रियों की दुश्वारियों को रखते हुए लोकभाषा में मौजूद स्त्री पाठ को जनता के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। लेखक मगही, भोजपुरी और आदिवासी समाज के लोक पर अच्छी पकड़ रखते हैं, इसलिए वो संदर्भ के साथ कहावतों का कुशलता से प्रयोग करते हैं। आज भी जब ग्रामीण और उत्तर भारतीय समाज का पुरूष यह सोचता है कि औरत का काम दिन में भोजन बनाना और रात में संभोग करना है। ऐसी स्थिति में उपन्यास का एक पात्र कहता है ‘नदियो के पानी ओरिया जाला, लेकिन मेहरारू के पानी हर हमेसा हच हचात रहेला’ तो कोई आश्चर्य नहीं होता है। ऐसी ओछी सोच से स्त्रियां खूब परिचित हैं, इसलिए जब एक पात्र हुकुमचंद कहता है ‘कर, केतारी, निबुआ बिना चँपले रस न दे’ तब प्रत्युत्तर में धनवंती कहती है ‘जादे नींबू मल्ले से तित्त हो जा हे’।

इसी तरह उपन्यास खत्म भी एक संघर्ष गीत पर होता है जिसके भाव हैं कि ‘जो मिलावट रहित है स्वच्छ है।’ यह स्वच्छता जल-जंगल-जमीन की स्वच्छता है। प्रकृति के साथ सहजीविता की बात है। विकास के नाम पर शोषण से स्वच्छता की बात है। लेखक ने अपनी बात कहने की छूट शोषण और संघर्ष के बीच जो फैली हुई भावनाएं हैं, वहीं पर लिया है। यही इस उपन्यास की औपन्यासिकता है, जो सबाल्टर्न इतिहासदृष्टि से जुड़ जाती है।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

महेश कुमार

लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया के स्नातकोत्तर छात्र रहे हैं तथा विभिन्न विषयों पर इनके आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

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