h n

आगरा में अरुण वाल्मीकि की हत्या : कुछ सवाल, जिन पर विचार जरूरी है

सवाल उठता है कि यदि अरुण चोरी का आरोपी था तो उसे वे सुविधाएं क्यों नहीं मिलीं जो केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के बेटे आशीष कुमार मिश्र को दी गयी थी। उसे तो सम्मान के साथ वातानुकूलित कमरे में बारह घंटे तक बिठाकर पूछताछ की गयी थी। और दूसरी तरफ समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े वंचित तबके का एक आरोपी सफाई कर्मी है, जिसकी पुलिस हिरासत में पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है। बता रहे हैं रविकांत

बीते 3 अक्टूबर, 2021 को उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिला लखीमपुर खीरी में भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा आंदोलन कर रहे किसानों को गाड़ी रौंदे जाने की घटना में सूबे की पुलिस का रवैया अपराधियों को संरक्षण देने वाला रहा। एक वजह यह भी कि मुख्य आरोपी केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय कुमार मिश्रा का बेटा था। अब एक और घटना सामने आयी है। कल 20 अक्टूबर को ठीक वाल्मीकि जयंती के दिन इसी प्रदेश के ऐतिहासिक शहर आगरा के एक थाने में अरुण वाल्मीकि नामक युवक की हत्या पुलिस हिरासत में होने की खबर सामने आयी। उस पर आरोप लगाया गया था कि उसने सीसीटीवी कैमरा और मजबूत पुलिस के पहरे में मोटे तालों में जड़े मालखाने से 25 लाख रुपए की चोरी की। 

मिल रही जानकारी के अनुसार पुलिस ने थाने में सफाई करने वाले अरुण वाल्मीकि और उसके पूरे खानदान को चोरी के इल्जाम में पकड़कर पीटा। जब अरुण वाल्मीकि ने चोरी का इल्जाम कबूल नहीं किया तो उसे थाने ले जाकर इतना प्रताड़ित किया गया कि उसकी मौत हो गई। मृतक के परिजनों के पूछने पर थानेदार ने जवाब दिया कि तबीयत खराब होने के कारण उसकी मौत हो गई है। उसका शव शवगृह में पड़ा हुआ है। मृतक अरुण की मां का कहना है कि दरअसल चोरी पुलिस वालों ने ही की है। अरुण ने उन पुलिस वालों का नाम लिया था, इसलिए उसे मार दिया गया। 

सवाल उठता है कि यदि अरुण चोरी का आरोपी था तो उसे वे सुविधाएं क्यों नहीं मिलीं जो केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के बेटे आशीष कुमार मिश्र को दी गयी थी। उसे तो सम्मान के साथ वातानुकूलित कमरे में बारह घंटे तक बिठाकर पूछताछ की गयी थी। और बाद में उसे गिरफ्तार कर जेल भेजा गया। दूसरी तरफ समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े वंचित तबके का एक आरोपी सफाई कर्मी है, जिसकी पुलिस हिरासत में पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है। 

मृतक अरुण वाल्मीकि की तस्वीर

जाहिर तौर पर इस मुद्दे पर राजनीति होगी। योगी आदित्यनाथ सरकार की बर्बर पुलिस पर आरोप लगाते हुए तमाम विपक्षी नेताओं ने कार्यवाही की मांग की है। गौरतलब है कि जिस वक्त अरुण वाल्मीकि की हत्या की खबर आ रही थी, उसी वक्त दलितों के पैर धोने का प्रहसन करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण की धरती कुशीनगर में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का उद्घाटन कर रहे थे। लेकिन अभी तक उनकी कोई टिप्पणी नहीं आई है। केवल उजले पक्षों पर सुर्खियां बनाने वाले नरेंद्र मोदी, आमतौर पर ऐसे मुद्दों पर खामोश रहते हैं। यही खामोशी आज भी उन्होंने ओढ़ रखी है।

एक बड़ा सवाल यह है कि कौन है यह अरुण वाल्मीकि? क्या है इसकी पहचान? इसके पीछे की सामाजिक-वैचारिक पक्ष को समझना जरूरी है। पुष्यमित्र शुंग की मनुवादी व्यवस्था में अछूत माना जाने वाला यह समुदाय वैदिक भारत से बहिष्कृत कर दिया गया था। कीड़े मकोड़ों से ज्यादा इसकी जिंदगी का मतलब नहीं था। कुत्ते बिल्ली से भी बदतर हालत थी, इसकी। 33 करोड़ देवताओं को बसाने वाली गाय के आगे तो यह मिट्टी का ढेला भी नहीं था। लेकिन स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसकी वोट की हैसियत जरूर हो गई। आज वाल्मीकि समुदाय एक वोट बैंक है। जाहिर है, इस पर विभिन्न राजनीतिक दलों की निगाहें लगी हैं। हालांकि डॉ. आंबेडकर ने सबको समान मतदान के साथ-साथ समता, न्याय और बंधुत्व को संवैधानिक मूल्य बनाया था। लेकिन संविधान विरोधी विचारधारा के वारिस आज सत्ता में हैं। इसलिए उन्हें ना तो डॉ. आंबेडकर की वैचारिकी से कोई लेना-देना है और ना संविधान से उनका कोई सरोकार है। दलितों का वोट उगाहने के लिए वे बाबा साहब की मूर्ति का इस्तेमाल भर करते हैं।

बहरहाल, समता, न्याय और बंधुत्व के साथ उन्नति की बाट जोहते अछूत या दलित समाज के इतिहास को डॉ. ने अपनी चर्चित किताब ‘द अनटचेबुल्स’ में दर्ज किया है। उनका कहना है कि बौद्ध धर्मावलंबियों को ब्राह्मणवादियों ने पराजित करके समाज से बहिष्कृत कर दिया। भविष्य में यह समाज कभी सिर ना उठा सके, इसलिए उसे जन्मजात अछूत बनाकर हाशिए पर धकेल दिया गया। 

गौरतलब है कि बाबा साहब ने 1956 में अपने 4 लाख समर्थकों के साथ हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। एक तरह से यह उनकी ‘घर वापसी’ थी। वे मानते थे कि उत्पीड़क जातिगत व्यवस्था से छुटकारा पाने का एक मात्र विकल्प हिन्दू धर्म से मुक्ति है। दलितों को अपने मूल धर्म की ओर लौटना होगा। लेकिन बाबा साहब के धर्मांतरण का प्रभाव महाराष्ट्र से बाहर नहीं हो सका। हालांकि कांशीराम के बहुजन आंदोलन के प्रभाव में जरूर कुछ दलित जातियों ने धर्मांतरण किया। लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि सामाजिक न्याय की राजनीति और बहुजन आंदोलन के कारण महात्मा बुद्ध से लेकर जोतीराव फुले, पेरियार, शाहूजी महाराज और डॉक्टर आंबेडकर की वैचारिकी का कुछ प्रभाव हिंदी पट्टी में हुआ।

इसी के समानांतर उत्तर भारत में हिंदुत्व की राजनीति का प्रभाव बढ़ रहा था। सामाजिक समरसता के विभेदपरक और षड़यंत्रकारी सिद्धांत से दलितों को हिंदुत्व की राजनीति के साथ जोड़ने की कवायद चल रही थी। इसके नतीजे में हिंदुत्व के दुष्प्रचार का शिकार वाल्मीकि समाज हुआ। आरएसएस और भाजपा ने वाल्मीकि का हिंदुकरण किया। सबसे पहले महर्षि वाल्मीकि के साथ सफाईकर्मी जाति को जोड़कर उसकी विरासत को रामकथा के साथ मिथकीकरण कर दिया गया। इसके बाद एक नए इतिहास का पाठ पढ़ाया गया। हिंदुत्व के पाठ के साथ सांप्रदायिकता मुफ्त! वाल्मीकि जाति के इतिहास को मुगल बादशाह अकबर के प्रतिद्वंद्वी महाराणा प्रताप से जोड़ा गया। संघ का दक्षिणपंथी इतिहास कहता है कि जिन क्षत्रियों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की, उन्हें अछूत बना दिया गया। उन्हें मैला ढोने के लिए मजबूर किया गया। इस तरह बड़ी बारीकी के साथ वाल्मीकि समाज को मुसलमानों का दुश्मन बना दिया गया। एक प्रकार से वाल्मीकि जाति का क्षत्रियकरण किया गया। लेकिन सवाल यह है कि अगर वाल्मीकि क्षत्रिय है तो संघ का कोई क्षत्रिय ‘सजातीय’ वाल्मीकि के साथ रोटी-बेटी का संबंध क्यों नहीं बनाता? 

इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि संघ दलित-पिछड़ी जातियों का क्षत्रियकरण तो करता है, लेकिन कभी उन्हें ब्राह्मण घोषित नहीं करता। दरअसल, यह एक गहरी साजिश है। दलितों को लड़ाका बनाना और उन्हें मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करना संघ की प्रयोगशाला का हिस्सा है। इस तरह दंगों में लड़ने-मरने के लिए इन वंचित जातियों का इस्तेमाल किया जाता है। संघ इन जातियों के साथ कभी समता और बंधुत्व का भाव नहीं रखता। 2002 के गुजरात दंगों के पोस्टर बॉय अशोक मोची हों या लेखक-पत्रकार भंवर मेघवंशी; इनकी दास्तान कहती है कि संघ दलितों से प्रेम नहीं बल्कि बेहद घृणा करता है। उसके लिए दलित सिर्फ सत्ता पाने का साधन है। यह समाज महज एक वोट बैंक है। मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ लड़ने के लिए दलित एक हथियार है। गुजरात से लेकर कर्नाटक और मध्य प्रदेश तक भाजपा संघ दलितों का इस्तेमाल केवल सत्ता हथियाने के लिए कर रहे हैं। उनकी सत्ता में ऊना से लेकर हैदराबाद तक और हाथरस से लेकर आगरा तक दलितों के साथ सिर्फ अन्याय और दमन होता है। इनके लिए न्याय और बंधुत्व सिर्फ संविधान में दर्ज दो हर्फ हैं! संविधान पर भी इस सत्ता की निगाहें खतरनाक तरीके से लगी हुई हैं। आज दलित वंचित तबके पर जितना खतरा है, उतना ही खतरा उनके अधिकारों को संरक्षित करने वाले संविधान को भी है।

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

रविकांत

उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के दलित परिवार में जन्मे रविकांत ने जेएनयू से एम.ए., एम.फिल और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की डिग्री हासिल की है। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'समाज और आलोचना', 'आजादी और राष्ट्रवाद' , 'आज के आईने में राष्ट्रवाद' और 'आधागाँव में मुस्लिम अस्मिता' शामिल हैं। साथ ही ये 'अदहन' पत्रिका का संपादक भी रहे हैं। संप्रति लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

संबंधित आलेख

फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...
बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र
जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...