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ओबीसी बुनकर, जिनके सवाल मजहबी नहीं

सेक्यूलर-कम्यूनल के खेल में ओबीसी बुनकर नेता टिकट की दौड़ से बाहर हो गये। हुआ यह कि सेक्यूलर दलों के अशराफ़ मुस्लिमों ने जब मोर्चा संभाला तो बुनकरों की रोज़ी-रोटी के सवाल गायब हो गये। बता रहे हैं जुबैर आलम

विगत 7 अगस्त, 2021 को देश भर में ‘नेशनल हैंडलूम डे’ मनाया गया। इस मौके पर सत्तापक्ष और विपक्ष के नेताओं ने बुनकरों की शान में क़सीदे पढ़े। वहीं बुनकरों को इस दिन की कोई खास खबर नहीं थी। जिस्म-तोड़ मेहनत के बाद उस दिन भी वह रोज़ की तरह सो गया। काश वह भी नेताओं, कुलीन चिंतकों और सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों यथा ट्विटर, इंस्टाग्राम एवं फेसबुक से वाकिफ़ होता तो उसे खुशी मिलती। वह देख पाता कि दूसरे लोग उसकी बेहतरी के लिये कैसी-कैसी कोशिशें कर रहे हैं। खुश होता कि बुनकरों का भी एक दिन होता है। परंतु, सच में ऐसा ही होता क्या? 

हैंडलूम सेंसस ऑफ इंडिया, 2009-10 एवं वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार की रिपोर्ट के अनुसार हैंडलूम हाउस होल्डर यानी कपड़ों को बुनकर अपनी आजीविका चलाने वालों की संख्या लगातार घटती जा रही है। अखिल भारतीय स्तर पर 1987-88 से लेकर 1995-96 के बीच बढ़ोतरी की दर ऋणात्मक अर्थात -18.05% रही थी। उत्तर प्रदेश में इसी दौरान -49.09% की गिरावट दर्ज की गयी। जबकि 1995-96 से लेकर 2009-10 के बीच बढ़ोतरी की दर -20.95% रही। 

जाहिर तौर पर ये आंकड़े पुराने हैं। नोटबंदी, जीएसटी और विशेषकर कोविड-19 के दौरान के आंकड़े सार्वजनिक होने पर स्थिति के ज़्यादा खराब होने की संभावना है। बुनकरों में खुदकुशी के बढ़ते मामलों से भी स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

उत्तर प्रदेश में बुनकर

उत्तर प्रदेश के वाराणसी, भदोही, मिर्ज़ापुर, मऊ, आज़मगढ़, अंबेडकर नगर, बस्ती, गोरखपुर और मेरठ आदि जनपदों में कताई-बुनाई का कारोबार फैला हुआ है। हालांकि यह काम करनेवालों को राजकीय सहायता कम ही मिलती रही है, फिर भी असंख्य बुनकर परिवार अपने इसी हुनर के सहारे रोटी, कपड़ा और मकान का इंतज़ाम करते हैं। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण ने रिवायती हुनरमंदों पर गहरी चोट की। मल्टीनेशनल कंपनियों की मौजूदगी के बावजूद भी बुनकरों ने अपने हुनर को जिंदा रखा और अपनी उम्मीदों को भी।

नोटबंदी से यह उद्योग बुरी तरह चरमरा गया। बुनकरों में अधिकतर लोग नक़दी पर निर्भर थे। नतीजे में बड़े पैमाने पर काम रुक गया। यही हालात जीएसटी के लागू होने से भी बने। लोग जीएसटी से जुड़े प्रावधानों को समय से पूरा करने में असफल रहे एवं जीएसटी की दरें भी अनुकूल नहीं थी। बहुत से बुनकर परिवार रोज़ी-रोटी के लिये पलायन कर दूसरे राज्यों में चले गये। ऐसे अधिकतर लोग अपने रिवायती काम को छोड़ कर नये तरह के काम में जुड़े। इस तरह एक पूरी नस्ल ने अपने पुश्तैनी काम को छोड़ दिया।

करघा चलाती बुनकर समाज की एक महिला

कौशल संवर्द्धन व उद्यमित विकास के नाम पर अलग से मंत्रालय, बजट और योजनाओं के बाद भी अगर इस तरह के हालात हैं तो सरकारी तंत्र को संजीदगी के साथ सोचने की ज़रूरत है।

सवाल यह है कि रिवायती कामों में निपुण लोग सरकारी योजनाओं की पहुंच से दूर क्यों हैं? वह भी तब जब बुनाई उद्योग, जो रोज़गार देने के मामले में कृषि क्षेत्र के बाद देश का दूसरा बड़ा क्षेत्र है। 

बुनकरों का सामाजिक ढांचा

सामान्य तौर पर बुनकरी उत्तर प्रदेश मे पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की रोज़ी-रोटी का साधन है। इस तबक़े में हिन्दू-मुस्लिम दोनों लोग शामिल हैं। बुनकर बाहुल्य इलाकों में आम तौर पर विद्यालय और अस्पताल आदि नहीं के बराबर हैं। बुनकरों ने कांग्रेस को लंबे समय तक वोट दिया है। बाद में वे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को वोट देते रहे हैं।

बुनकरों की रोज़ी-रोटी की समस्यायें मुख्यधारा के विमर्श का हिस्सा नही हैं। मीडिया भी इस तरह के मुद्दों से लगाव नहीं रखता। बुनकरों के शुभचिंतक दलों ने भी बुनकरों की समस्याओं को अपने घोषणा पत्रों का हिस्सा नहीं बनाया। पहले बुनकर बाहुल्य इलाक़ों मे आज़ाद पहचान रखने वाले बुनकर नेता नज़र आते थे। सेक्यूलर दलों ने भाजपा का खौफ़ दिखा कर बुनकर बाहुल्य इलाकों से बुनकरों के नेतृत्व को खत्म कर दिया और बुनकरों की अपनी शिनाख्त को मुस्लिम शिनाख्त में समेट दिया। इस प्रकार सेक्यूलर-कम्यूनल के खेल में ओबीसी बुनकर नेता टिकट की दौड़ से बाहर हो गये। हुआ यह कि सेक्यूलर दलों के अशराफ़ मुस्लिमों ने जब मोर्चा संभाला तो बुनकरों की रोज़ी-रोटी के सवाल गायब हो गये। इस तरह बुनकरों ने सेक्यूलरिज़्म के नाम पर पहले अपनी नुमाइंदगी क़ुर्बान की और फिर रोज़ी-रोटी के सवालों को भी। इन सवालों से कुछ और सवाल भी सामने आते हैं, मसलन–

  1. क्या बुनकरों को राजनीतिक नेतृत्व में हिस्सेदारी नहीं मिलनी चाहिये?
  2. क्या उन्हें अपने अच्छे भविष्य को नहीं तरजीह देनी चाहिये?
  3. बुनकर क्यों नहीं कहते कि उनकी रोज़ी-रोटी का सवाल उनके लिये सबसे अहम है?

बहरहाल, बुनकरों को अपने वोट या समर्थन देने की पॉलिसी पर संजीदगी से सोचना चाहिये। सेक्यूलर-कम्यूनल के सवाल पर भी बात होनी चाहिए। ऐसी पार्टी या गठबंधन के साथ जाने के बारे में विचार करना चाहिये, जो उनकी भलाई के लिये ठोस कार्यक्रम रखता हो। जो उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण में उनके बाज़ार को संरक्षण, आधुनिकीकरण से बुनकरों हुनरमंदी को बढ़ावा और मशीनों को आधुनिक बनाने में सहायक बने। इसी तरह जो बुनकरों को सरकारी स्कूलों, आईटीआई और तकनीकी कॉलेजों में जगह देने और ऐसे संस्थानों को तरजीही तौर पर बुनकर बाहुल्य इलाकों में बनाने की बात करता हो। जो बुनकरों को स्वास्थ्य योजनाओं में भागीदारी देने एवं उनके इलाक़े में नये अस्पताल, आँगनबाड़ी आदि प्लान रखता हो। 

देश में जिस तरह विभिन्न तरह के एडवोकेसी ग्रुप अपनी बात सरकार से मनवाने के लिये काम करते हैं शायद बुनकरों के बीच से भी कोई ऐसा ग्रुप उभर कर सामने आये। यह राजनीतिक तजुर्बे का दौर है इसलिये बुनकरों को भी बनते-बिगड़ते समीकरण में हिस्सेदार बनना चाहिये।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

जुबैर आलम

जुबैर आलम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधार्थी हैं तथा स्वतंत्र रूप से विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर लेखन कार्य करते रहे हैं

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