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आजाद भारत में जब आदिवासियों ने लड़ी अहिंसक जंग (रांची डायरी : भाग – 4)

‘यहां मिलिटरी [अर्द्धसैनिक बल] की 30 साल से लगातार फायरिंग होती थी। उसकी चपेट में आकर अनेक आदिवासी अपंग हो गए। वे उनकी मुर्गियां उठाकर ले जाते थे, और उनकी लड़कियों के साथ बलात्कार करते थे। यह सब तीस साल तक बर्दाश्त किया। किसी ने कोई एफआईआर तक दर्ज नहीं करायी। तब वहां मैनेजर उरांव के नेतृत्व में जबरदस्त आंदोलन चला।’ पढ़ें, कंवल भारती की रांची डायरी की चौथी किश्त

[दलित साहित्यकार व समालोचक कंवल भारती ने वर्ष 2003 में झारखंड की राजधानी रांची की यात्रा की थी। उनके साथ दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय, श्योराज सिंह बेचैन और सुभाष गाताडे भी थे। अपनी पहली किश्त में उन्होंने झारखंड के दलित समुदायों के बारे में जानकारी थी। वहीं दूसरी किश्त में उन्होंने तब नवगठित झारखंड की आबोहवा का भगवाकरण करने के प्रयास के संबंध बताया। तीसरी किश्त में उन्होंने झारखंड को वनांचल बनाने की भाजपा की साजिश के बारे में जानकारी दी। आज पढ़ें, उनके संस्मरण की चौथी किश्त]

15 नवम्बर 2003 : बिरसा मुंडा समाधि स्थल

आज भगवान बिरसा मुंडा की जयंती है। वासवी किड़ो द्वारा सुबह दस बजे हम लोगों को बिरसा मुंडा समाधि स्थल कोकर ले जाया गया, जहां उनकी जयंती के उपलक्ष्य में एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। समाधि स्थल पर लगे बोर्ड पर लिखा था– ‘आदिवासियों का रक्षक, छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट का जनक, राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का योद्धा, देश का वीर सपूत, क्रांति-दूत, धरती आबा भगवान बिरसा का समाधि स्थल। जन्म– 15 नवम्बर, 1875,  ग्राम– चलकर, प्रखंड– अड़की, जिला– रांची; शहादत– 9 जून, 1900, रांची जेल।’

हमें बताया गया कि यहां 9 जून, 2003 से पहले कुछ नहीं था, और बहुत आनन-फानन में यह स्थल सरकार ने तैयार कराया है। कार्यक्रम की अध्यक्षता विधायक देवकुमार धान ने की। उन्होंने बताया कि झारखंड विधानसभा में 28 आदिवासी विधायक हैं, परंतु केवल दो विधायक ही यहां आए हैं। उन्होंने कहा कि यह बहुत ही शर्मनाक है। इस कार्यक्रम में हमारे साथी दलित पत्रकार मोहनदास नैमिशराय ने भी अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि पूंजीवाद के साथ जब सारे आर्य एक हो रहे हैं, तो दलित-आदिवासी एक क्यों नहीं हो सकते। उन्होंने आगे कहा कि यह स्थिति पूरे विश्व में है कि शोषक-शोषक आपस में एक हैं, पर शोषित-शोषित के बीच एकता नहीं है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि 1857 से पहले जो आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी, वह आदिवासियों ने लड़ी थी। दलितों और आदिवासियों के सवाल समान हैं। अतः दोनों को मिलकर लड़ना चाहिए। उन्होंने बताया कि हम यहां आदिवासियों से हाथ मिलाने आए हैं, पर राजनीतिक स्तर पर नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक स्तर पर। उत्तरी भारत के हम दलित लोग डॉ. आंबेडकर की विचारधारा के तहत लड़ते हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आदिवासी साहित्य अकादमी अवश्य स्थापित होनी चाहिए, ताकि आपका (आदिवासी) साहित्य सामने आए।

झारखंड के रांची के खूंटी इलाके का उलीहातु गांव। इस गांव को बिरसा मुंडा का गांव माना जाता है। हालांकि उनका जन्म उनके ननिहाल चलकर में हुआ था। तस्वीर में उलीहातु स्थित बिरसा मुंडा का पैतृक घर

बिरसा मुंडा समाधि स्थल पर आयोजित कार्यक्रम ज्यादा बड़ा नहीं था। पर, भीड़ काफी थी। इसी स्थल पर हमें हरियाणा कैडर के आईपीएस अधिकारी और साहित्यकार विकास राय भी मिले, जो शायद किसी अन्य कार्यक्रम में रांची आए थे। यहां के बाद हमने फियारेलाल चौक में स्थित जल जोग होटल में लंच किया। एक बजकर बीस मिनट हो गए थे। लंच के बाद हम सब जयपाल सिंह स्टेडियम पहुंचे। वासवी ने बताया कि यह स्टेडियम जयपाल सिंह मुंडा के नाम से है, जिन्होंने आदिवासी अस्मिता के लिए घनघोर संघर्ष किया था। सभा स्थल पर लाल-सफेद रंग का ध्वज लहरा रहा था। वासवी ने बताया कि यह ध्वज आदिवासी धर्म ‘सरना’ का प्रतीक है। हमने देखा कि पूरा मैदान हाथों में तुणीर और तीरकमान लिए आदिवासियों से भरा हुआ था। वासवी ने बताया कि आयोजकों ने डेढ़ महीने पहले इस मैदान को बुक कराया था। पर, आज ही प्रशासन ने आधा मैदान खेल मेला के लिए आरक्षित कर दिया। इसलिए यहां आधे हिस्से में खेल-मेला लगा हुआ है। इस वजह से हमारी आधी जनता बाहर ही रह गई। हमारे साथ एमिलिया हान्दा संथाली, आनंद मसीह सांगा और नामिन्द राव भी थे। एमिलिया हान्दा ने कहा कि सरकार के नेता कुत्ते जैसे हैं। यह सुनकर हम सभी हंसे। हमने देखा कि पूरा समारोह सरकार-विरोधी नारों से गूंज रहा था। इससे पता चला कि आदिवासी जनता भाजपा सरकार के पक्ष में नहीं थी। उसी समय हमने हाथों में हंसिया और फरसा लिए आदिवासी युवकों के एक दल को गाते-बजाते आते हुए देखा।

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मिलिटरी के खिलाफ आंदोलन

स्टेडियम में हमने कुछ आदिवासी साथियों से बातचीत की। उनमें एक छुनकू मुंडा थे, जिन्होंने बताया : “हमें भड़ओं ने छला।” हमने देखा, सारे वक्ता साधारण आदमी थे– कार्यकर्ता और जमीनी स्तर के जुझारू जननेता। वे गन्दे और साधारण वस्त्रों में थे और उनके पैरों में हवाई चप्पलें थीं। वे अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग नहीं थे, बल्कि अपनी भाषा में अपनी पीड़ा, अपनी बात कहने वाले लोग थे। ऐसे ही एक साधारण व्यक्ति चटकपुर महुआडांड से मैनेजर उरांव थे, जिन्होंने मिलिटरी के खिलाफ एक बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया था। उन्होंने बताया– “यहां मिलिटरी की 30 साल से लगातार फायरिंग होती थी। उसमें तमाम आदिवासी लोग अपंग हो गए। वे उनकी मुर्गियां उठाकर ले जाते थे, और उनकी लड़कियों के साथ बलात्कार करते थे।” यह सब तीस साल तक बर्दाश्त किया। किसी ने कोई एफआईआर तक दर्ज नहीं करायी। तब वहां मैनेजर उरांव के नेतृत्व में जबरदस्त आंदोलन चला। परिणाम यह हुआ कि मिलिटरी को वहां से भागना पड़ा।”

उन्होंने आगे बताया, “नेतराहट, जोखीपुकर, जिला लातेहार में सरकार का पहलोट [पायलट] प्रोजेक्ट था। इसके तहत 1935 में 9 वर्ग किलोमीटर में मिलिटरी ने फायरिंग का अभ्यास यानी चॉंदमारी शुरू की। फायरिंग के दौरान पूरे गांव सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक खाली करवा देते थे। इसके लिए हर परिवार को चार आना मुआवजा दिया जाता था। यह सिलसिला 1956 तक चला। 1956 के बाद सरकार ने विरोध-रहित फायरिंग बढ़ा दी। लेकिन न उनकी मनमानी रुकी और न आदिवासी लड़कियों के साथ बलात्कार रुके। अब वर्ग क्षेत्र भी 9 से बढ़कर 1900 वर्ग किलोमीटर हो गया, जिससे अब 245 गांव उसकी चपेट में हैं। इसकी अधिसूचना सन् 2002 तक के लिए जारी हुई थी, परंतु कोई विरोध न होने के कारण उसकी अवधि 2022 तक बढ़ा दी गई है। वे जब गांव खाली कराते तो औरतों को अपने टेंट में ले जाते थे। एक औरत डर के मारे पेड़ पर चढ़ गई। परंतु उन्होंने पेड़ पर चढ़कर भी उसके साथ बलात्कार किया। उनका इतना आतंक था कि लोग बोरे पहनकर छिपते थे। इस फायरिंग से जानवर बहुत मरे। जो ग्रेनेड वे फेंकते थे, उसकी चपेट में आकर बहुत से लोग अपंग हो गए। उन्होंने बताया, 1993 में इसके विरुद्ध ‘जनसंघर्ष समिति’ बनाकर आंदोलन शुरू किया गया। मुख्यमंत्री, राज्यपाल, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को ज्ञापन दिए गए। इन नौ सालों में अनगिनत धरने दिए गए। उन्होंने आगे कहा कि रांची के कमिश्नर ने 1996 में सरकार को पत्र लिखकर कहा था कि जनता नहीं चाहती, तो फायरिंग नहीं होगी। फिर 2022 तक बिहार सरकार ने क्यों समय बढ़ाया? उन्होंने बताया कि 1994 में आंदोलन को रोकने के लिए धरना दे रहे आदिवासियों पर लाठीचार्ज कराया गया। लेकिन फिर भी आदिवासी पीछे नहीं हटे। लोगों ने धरना देकर ही फायरिंग को रोका। 1996 से फायरिंग बन्द है और शांति है। हमारी बातचीत के दौरान जोसेफ टोप्पो, अनिल मनहर, सुरेन्द्र मुकुल मिंज, लुइस कुजूर, सेब्रुस और जेवियर खाखा भी मौजूद थे। उनमें से किसी ने बताया कि यह सब आदिवासियों की विशाल भूमि को हथियाने की साजिश थी।”

(आगे जारी …)

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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