h n

संस्मरण : उस दिन जब मान्यवर नहीं थे

हम सीधे दिल्ली के निगम बोध घाट (श्मशान स्थल)) पहुंचे। वहां दस हजार से अधिक लोगों की भीड़ थी। सभी के चेहरे पर अपने प्रिय नेता को खोने का दुख था। एक खुली गाड़ी पर पारदर्शी शीशे के अंदर मान्यवर चिर निद्रा में सो रहे थे। वहां मौजूद लोगों में कई तरह की चर्चाएं थीं। पढ़ें, मान्यवर कांशीराम से जुड़ा ए. आर. अकेला का आत्मीय संस्मरण

कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006) पर विशेष

महापरिनिर्वाण का एक मतलब यह होता है कि आदमी के शरीर में प्राण नहीं होते लेकिन उसके कर्म व विचार उसे पीढ़ियों तक सजीव रखते हैं। ऐसा ही व्यक्तित्व था मान्यवर कांशीराम का। वे आज भले हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके विचार अलग-अलग रूपों में हमारे पास हैं, जिनसे हमें सदियों से उपेक्षित समाज को आगे बढ़ाने व समतामूलक समाज की स्थापना में अपनी भूमिका के निर्वहन करने का हौसला मिलता है। 

मुझे आज भी स्मरण है 9 अक्टूबर, 2006 का वह दिन जब यह सूचना मिली कि करोड़ों को प्रेरित करनेवाले मान्यवर अब दुनिया में नहीं रहे। यह सूचना बहुत दुखद थी। चूंकि मैं न केवल बहुजन समाज पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता था, बल्कि मान्यवर के द्वारा दिखाए गए पथ का अनुगामी था। अलीगढ़ से दिल्ली तक की दूरी करीब 133 किलोमीटर है लेकिन 10 अक्टूबर, 2006 को यह दूरी मुझे उस दिन अधिक लगी। इसकी वजह शायद यह दुख कि अब कांशीराम जी से मिलना न हो सकेगा। हम चार जन थे। मेरे साथ राजाराव फौजी, डॉ. विनोद कुमार पवन और प्रताप सिंह सुमन थे। हमें जानकारी मिल चुकी थी कि मान्यवर के पार्थिव शरीर को जल्दी से जल्दी जलाने की तैयारी की जा रही थी। ऐसा मायावती जी के द्वारा किया जा रहा था।

हम सीधे दिल्ली के निगम बोध घाट (श्मशान स्थल)) पहुंचे। वहां दस हजार से अधिक लोगों की भीड़ थी। सभी के चेहरे पर अपने प्रिय नेता को खोने का दुख था। एक खुली गाड़ी पर पारदर्शी शीशे के अंदर मान्यवर चिर निद्रा में सो रहे थे। वहां मौजूद लोगों में कई तरह की चर्चाएं थीं। अधिकांश लोग तो इस बात से आक्रोशित दिखे कि आखिर किन कारणों से मायावती जी मान्यवर के पार्थिव शरीर को जल्द से जल्द आग के हवाले कर देना चाहती हैं। वहीं इस मौके पर मौजूद मान्यवर के परिजन जिनमें उनकी मां बिशन कौर, भाई दलवारा सिंह और बहन स्वर्ण कौर के अलावा उनके भतीजे, भांजे आदि शामिल थे, उन्हें रोका जा रहा था। मायावती जी के आदेश पर पुलिस उन्हें रोक रही थी। इस बात को लेकर भी लोगों में काफी गुस्सा था। 

मुखाग्नि कौन देगा, इसको लेकर तमाम तरह की कयासबाजियां लगायी जा रही थी और एक तरह से जद्दोजहद भी थी। परिजन मांग कर रहे थे मुखाग्नि का अधिकार उन्हें मिले। लेकिन उनकी मांगों और कयासबाजियों को खारिज करते हुए मायावती जी ने मान्यवर को मुखाग्नि दी। इस बात से लोगों में नाराजगी थी।

जब यह सब हो रहा था, मैं मान्यवर से अपनी आखिरी मुलाकात को याद कर रहा था। तारीख थी 31 दिसंबर, 1995। तब बसपा की उत्तर प्रदेश सरकार गिर चुकी थी। वजह यह रही कि भाजपा ने साढ़े चार महीने बाद अपना समर्थन वापस ले लिया था। पहले तो मैं यह बता दूं कि मैं दिल्ली के हुमायूं रोड स्थित मान्यवर के बंगले पर किस उद्देश्य से गया था। दरअसल, मैंने एक किताब ‘कांशीराम : प्रेस के आइने में’ प्रकाशित की थी। यह किताब 15 मार्च 1994 को प्रकाशित हुई थी। इस किताब में कांशीराम जी के साक्षात्कार व उनके उपर आधारित खबरें आदि जो कि हिंदी व अंग्रेजी दोनों में थीं, संकलित थीं। पहले संस्करण के बाद पाठकों ने कहा कि जो अंग्रेजी नहीं जानते अंग्रेजी के आलेख उनके लिए एक तरह से अतिरिक्त बोझ है। तो मैंने इस किताब का दूसरा संस्करण प्रकाशित किया, जिसमें अंग्रेजी के आलेखों का हिंदी अनुवाद शामिल था। लेकिन यह किताब भी हाथों-हाथ बिक गयी। मैं इस का पुनर्मुद्रण कराना चाहता था, परंतु मेरे पास पैसे नहीं थे। मैं मान्यवर से मिलने इस उम्मीद से गया था कि वे मेरी मदद करेंगे।

उनके बंगले पर पहुंचने के बाद वहां टमटा जी नामक एक कार्यकर्ता मिले। उन्हें अपना विजिटिंग कार्ड दिया तो उन्होंने जानकारी दी कि आज साहब नहीं मिल सकेंगे क्योंकि वे अंदर एक महत्वपूर्ण बैठक कर रहे हैं। उनके जवाब पर मैंने टमटा जी से कहा कि आपका काम मेरा विजिटिंग कार्ड मान्यवर तक पहुंचाना मात्र है। कृपया मेरा यह कार्ड उनके पास पहुंचा दें। वह मिलेंगे या नहीं मिलेंगे, यह फैसला उन्हें ही करने दें।

मान्यवर कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006)

दरअसल वह बातचीत बेहद खास थी। इसके बारे में पूरी खबर भी आयी थी कि मान्यवर भाजपा के बदले कांग्रेस का साथ समझौता करना चाहते थे ताकि उत्तर प्रदेश में फिर से सरकार का गठन हो। इसी सिलसिले में वह एक कांग्रेसी नेता से बात कर रहे थे। मैं बाहर ही इंतजार कर रहा था। जब बातचीत खत्म हो गई तब मान्यवर उस कांग्रेसी नेता को छोड़ने अपने बंगले के दरवाजे तक आए। फिर जब वे वापस लौटने लगे तब मैं हाथ जोड़कर उन्हें जय भीम कहा तथा अपनी किताब ‘कांशीराम : प्रेस के आइने में’ की एक प्रति उन्हें दी। तब मैंने नीली पैंट, उजला कुर्ता जो कि बसपा समर्थकों की पोशाक हुआ करती थी, पहन रखा था। मेरे पैरों में चप्पल थे। सबसे पहले उन्होंने पूछा कि क्या इस किताब को तुमने लिखा है? मेरे द्वारा हां कहने के बाद उन्होंने पूछा कि क्या तुम इस किताब को पेरियार के मेले में ले गए थे? मान्यवर जिस पेरियार मेले की बात कर रहे थे, तीन दिनों का मेला था जो कि पेरियार की जयंती के मौके पर 16-18 सितंबर, 1995 को लखनऊ में आयोजित की गई थी। इस मेले की भी एक कहानी है। दरअसल मान्यवर यह जान चुके थे मायावती भाजपा से चिपक गई हैं और वे चाहते थे कि सरकार जितनी जल्दी हो गिर जाय। तो एक तरह से भाजपा को चिढ़ाने के लिए मान्यवर ने पेरियार मेले का आयोजन किया था। वे यह जानते थे कि भाजपा नेताओं को यदि सबसे अधिक चिढ़ हो सकती है तो वह पेरियार के विचारों से हो सकती है। और हुआ भी यही था। तब मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी ने उनसे इस संबंध में बात भी की थी कि सूबे में गठबंधन की सरकार चल रही है और पेरियार मेले का आयोजन हुआ तब इसका असर भाजपा के वोट बैंक पर पड़ेगा। तो उन्होंने मान्यवर को पेरियार मेले का आयोजन लखनऊ के बजाय दिल्ली में करने को कहा। जवाब में मान्यवर ने कहा कि अभी उत्तर प्रदेश में बसपा सरकार में है तो मेले का आयोजन लखनऊ में कर रहे हैं। जब दिल्ली में हमारी सरकार होगी तो दिल्ली में भी पेरियार मेले का आयोजन करेंगे। इस पर भाजपा नेताओं ने उन्हें कहा कि यदि वे अपने फैसले यानि लखनऊ में पेरियार मेले के आयोजन को लेकर दृढ रहेंगे तो उन्हें सरकार को समर्थन देने के फैसले पर पुनर्विचार करना होगा। तब मान्यवर ने उन्हें पलटकर जवाब देते हुए कहा कि हमारी सरकार को आपने अनकंडिशलन समर्थन दिया है, यदि आप विचार करना चाहते हैं, तो आज ही विचार कर लें।

खैर, मेले का आयोजन हुआ और उसके लिए मान्यवर ने देश के कई राज्यों से सीधे ट्रेन की व्यवस्था की थी। मसलन, मद्रास से और उधर छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र आदि से भी। लेकिन बसपा में तब अंदर भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी गई थी। असल में मायावती जी नहीं चाहती थीं कि पेरियार मेले में अधिक संख्या में लोग जुटें। वह भाजपा के सहयोग से सरकार में बने रहना चाहती थीं। इसलिए बसपा के तमाम अधिकारियों को कह दिया गया था कि केवल प्रतिनिधित्व हो, अधिक लोगों के साथ आने की आवश्यकता नहीं है। मुझे याद है कि उस मेले के लिए पार्टी की तरफ से एक पंफलेट प्रकाशित किया गया था, जिसका मसौदा मान्यवर ने ही लिखा था और निवेदक के रूप में भी उनका ही नाम था। जैसे बसपा के अन्य अधिकारियों को मायावती जी का संदेश मिल चुका था, मुझे भी अलीगढ़ विधानसभा क्षेत्र का पार्टी अध्यक्ष होने के नाते प्राप्त हुआ था। लेकिन मायावती जी की योजना सफल नहीं हुई और पेरियार मेले में बड़ी भीड़ उमड़ी। मेले के सफल होने का परिणाम यह हुआ कि अक्टूबर में ही भाजपा ने अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई थी।

मैं फिर से 31 दिसंबर, 1995 को मान्यवर से हुई मेरी आखिरी मुलाकात की बात को आगे बढ़ाता हूं। मान्यवर के सवाल का जवाब देते हुए मैंने उन्हें बताया कि मैं अपनी किताब “कांशीराम : प्रेस के आइने में” लेकर पेरियार मेला गया था और वहां किताबें भी हाथों-हाथ बिक गयी थी। फिर उन्होंने पूछा कि क्या मैं उनके (मान्यवर के) 60वें जन्मदिवस के मौके पर मुंबई के शिवाजी पार्क में आयोजित समारोह में इस किताब को ले गया था। मैंने एक बार फिर हां कहा। उन्हें यह स्मरण रहा कि उसी दिन इसका विमोचन आपके ही हाथों हुआ था। उन्होंने पूछा कि अब तुम्हें क्या चाहिए? तो मैंने उन्हें साफ शब्दों में कहा कि मैं इस किताब को पुनर्मुद्रित कराना चाहता हूं, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं हैं और मैं आपके पास इसी उम्मीद से आया हूं। इस पर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या तुमने चुनाव लड़ा है? मैंने कहा कि मैंने चुनाव तो नहीं लड़ा, लेकिन अपनी जमीन बेचकर पार्टी का काम जरूर किया है। इस पर मान्यवर ने कहा कि तुम्हारे पास तो जमीन थी तो तुमने बेच दी, मेरे पास तो जमीन भी नहीं है, जिसे बेचकर मैं तुम्हारी सहायता करूं।

फिर उन्होंने पूछा कि जब सूबे में सरकार थी, तब तुम कहां थे और क्या तुमने मायावती से मुलाकात की थी? इस पर मैंने उनसे कहा कि मैंने मायावती जी से मिलने की जब कभी कोशिशें की, मुझे बताया गया कि वह केवल चार लोगों से मिलती हैं। इनमें एक आप (मान्यवर) और राज्यपाल के अलावा बसपा के प्रदेश अध्यक्ष तथा बामसेफ के अध्यक्ष शामिल हैं।

मेरे द्वारा इतना कहने पर मान्यवर ने कहा कि फिर से अपनी सरकार बनेगी। चिंता मत करो। और वह ऐसा कहते हुए अंदर चले गए।

यही मान्यवर से मेरी आखिरी सीधी मुलाकात थी। 

(फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार से बातचीत के आधार पर)    

(संपादन : अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

ए.आर. अकेला

लेखक आनंद साहित्य सदन, अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) के संस्थापक व वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता रहे हैं। इन्होंने अपने प्रकाशन से मान्यवर कांशीराम के भाषणों व उनसे संबंधित आलेखों का संग्रह वृहद स्तर पर प्रकाशित किया है।

संबंधित आलेख

वोट देने के पहले देखें कांग्रेस और भाजपा के घोषणापत्रों में फर्क
भाजपा का घोषणापत्र कभी 2047 की तो कभी 2070 की स्थिति के बारे में उल्लेख करता है, लेकिन पिछले दस साल के कार्यों के...
व्यक्ति-स्वातंत्र्य के भारतीय संवाहक डॉ. आंबेडकर
ईश्वर के प्रति इतनी श्रद्धा उड़ेलने के बाद भी यहां परिवर्तन नहीं होता, बल्कि सनातनता पर ज्यादा बल देने की परंपरा पुष्ट होती जाती...
शीर्ष नेतृत्व की उपेक्षा के बावजूद उत्तराखंड में कमजोर नहीं है कांग्रेस
इन चुनावों में उत्तराखंड के पास अवसर है सवाल पूछने का। सबसे बड़ा सवाल यही है कि विकास के नाम पर उत्तराखंड के विनाश...
मोदी के दस साल के राज में ऐसे कमजोर किया गया संविधान
भाजपा ने इस बार 400 पार का नारा दिया है, जिसे संविधान बदलने के लिए ज़रूरी संख्या बल से जोड़कर देखा जा रहा है।...
केंद्रीय शिक्षा मंत्री को एक दलित कुलपति स्वीकार नहीं
प्रोफेसर लेल्ला कारुण्यकरा के पदभार ग्रहण करने के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा में आस्था रखने वाले लोगों के पेट में...