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क्या होता यदि कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘सूरजमुखी अँधेरे के’ की नायिका दलित होती?

जिस समयावधि में कृष्णा सोबती यह उपन्यास लिख रही थीं, वह विभाजन और स्वतंत्र भारत का वह समय था जब लोगों में तरह तरह की कुंठाएं और नफ़रतें थीं। ऐसे परिवेश में लेखिका का सामना ऐसी अनेक घटनाओं से हुआ होगा, जिसमें केवल अमीर और सभ्रांत घरानों की ही नहीं, बल्कि गरीब, मजदूर और दलित, उपेक्षित जाति और वर्ग की बच्चियां/ बेटियां भी रही होंगी। लेकिन वे कृष्णा सोबती की कहानियों की पात्र नहीं थीं। पढ़ें, डॉ. पूनम तुषामड़ का यह आलेख

‘सूरजमुखी अँधेरे के’ कृष्णा सोबती द्वारा लिखित एक उपन्यास है, जिसकी विषयवस्तु बेहद गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर आधारित है। इसमें कृष्णा सोबती ने उपन्यास की पात्र ‘रत्ती’ अथवा ‘रत्तीका’ के साथ बचपन में हुई बलात्कार की घटना का उसके मन और जीवन पर हुआ प्रभाव दिखने का प्रयास किया है, जिससे उबरने के प्रयास ‘रत्ती’ लगातार करती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि समाज में बाल यौन शोषण और बलात्कार की घटनाएं किस प्रकार किसी के जीवन, उसके सम्पूर्ण वक्तित्व को समाज और उसकी खुद की नज़रों में भी क्षत-विक्षत कर देती हैं। बाल अवस्था में हुई इस तरह की दुर्घटनाएं मनुष्य को जीवनभर कचोटती रहती हैं, किन्तु फिर भी यह बेहद कठिन होता है कि अपने जीवन के इन दुरानुभवों को किसी से बांटने अथवा लिखकर व्यक्त करने का साहस मनुष्य कर पाए। इसलिए साहित्य में भी इस प्रकार की घटनाओं पर लेखन नहीं मिलता।

यह सही है कि लेखिका कृष्णा सोबती के लिए भी इस प्रकार कि संवेदनशील घटना को कथा में पिरोना आसान नहीं रहा होगा। परंतु लेखिका की यह विशेषता रही कि उन्होंने हर बार क नया कथानक गढ़ा। इसलिए जब उन्होंने ‘बाल यौन शोषण’ की घटना को आधार बनाकर जब यह उपन्यास लिखा तो प्रकाशकों ने भी इसे हाथों-हाथ लिया और पाठकों ने भी। उपन्यास अपनी अनोखी कथावास्तु के कारण काफी चर्चित भी रहा, क्योंकि हर बार की तरह इस बार भी सोबती की ‘स्त्री पात्र’ उनकी पहली कथाओं की स्त्रियों से भिन्न थी।

‘सूरजमुखी अँधेरे के’ उपन्यास का प्रथम संस्करण सन् 1972 में प्रकाशित हुआ था। लेखिका कृष्णा सोबती इस से पहले अपनी कई चर्चित कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से पाठकों और प्रकाशकों के बीच अपनी पहचान निर्मित कर चुकी थी।

दरअसल, ‘चाइल्ड एब्यूज़’ जैसे घिनौने अपराधों में कई बार अपने बेहद नज़दीकी और विश्वसनीय लोगों के शामिल होने के कारण अपराधी बच जाते हैं। कई बार निजी दुश्मनी, जातीय घृणा और बदले की भावना के चलते भी बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम दिया जाता है। भारत में स्त्रियों को ही बचपन से लोकलाज का पाठ पढ़ाया जाता है। घर और परिवार की मान-मर्यादा की दुहाई दी जाती है, जिसके कारण इस प्रकार के जघन्य अपराधों के अपराधियों की शिनाख्त नहीं हो पाती और उन्हें सजा दिलाना या उनपर अंकुश लगाना बेहद मुश्किल हो जाता है।

‘सूरजमुखी अँधेरे के’ उपन्यास में भी लेखिका ने बालिका ‘रत्ती’’ के साथ बलात्कार करनेवाले को कहीं भी चित्रित नहीं किया है। उसकी स्मृतियों में भी नहीं। केवल एक आभास भर है– “वह हवा घर … वह भद्दा चेहरा …वह नीचे पटकता हाथ”। बस इतना ही।

कृष्णा सोबती और उनके द्वारा लिखित उपन्यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ का आवरण पृष्ठ

डॉ. अभिलाषा सिंह ‘सूरजमुखी अँधेरे के’ की नायिका का मनोवादी विश्लेषण अपने लेख “‘सूरजमुखी अँधेरे के’ की नायिका का आहत मनोविज्ञान” में करते हुए कहती हैं कि “लेखिका ने उपन्यास में कहीं भी उस व्यक्ति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उजागर नहीं किया है, जिसने रत्ती का यौन शोषण किया। यहाँ तक कि कोई संकेत भी नहीं दिया, क्योंकि लेखिका का ध्येय अपराधी को केन्द्रित करना या उसकी उपन्यास के अन्य पात्रों से भर्त्सना करवाना नहीं था, बल्कि जो भुक्तभोगी रत्ती है, उसके प्रति समाज के रवैये को दिखाना है कि किस प्रकार हमारे समाज में यौन शोषक के स्थान पर पीड़िता को अपराधी बना दिया जाता है।” 

यह सही है कि उत्पीड़क से ज्यादा उत्पीड़ित को इस तरह की घटनाओं का खामियाज़ा भुगतना पड़ता है और वह इस स्थिति में नहीं होता कि वह उस अपराधी कि शिनाख्त कर सके। लेकिन लेखिका के सामने ऐसी कोई सामाजिक और नैतिक मजबूरी नहीं थी।

लेखिका कृष्णा सोबती का ‘रत्ती’ का अनेक पुरुषों से दैहिक संबंधों के विषय में मानना है कि “यह अलग अलग पुरुषों से रत्ती का फ्लर्टेशन नहीं, अलग-अलग खण्डों से मिलने की टकराहट होने के स्तर पर रत्ती टुकड़ों का व्यक्तित्व है।

वे चाहतीं तो एक अध्याय में ही अपराधी को बालिका रत्ती की शिनाख्त पर दिलवा सजा दिलवा सकती थीं और बालपन की इस घटना का वर्णन भी बिलकुल उसी प्रकार कथा में आगे बढ़ा सकती थीं। दरअसल लेखिका कृष्णा सोबती ने उपन्यास में बालिका रत्ती का चित्रण एक बेखौफ निडर बालिका के रूप में किया है। वह अकेली ही पहाड़ उतरती-चढ़ती और घूमती है और शायद … बलात्कार के पश्चात घर तक पहुंचती है, क्योंकिे लेखिका ने रत्ती बलात्कार के पश्चात घर तक कैसे और किन स्थितियों में पहुंची, यह भी स्पष्ट नहीं किया। अपराधी का रस्योदघाटन कर देने से रत्ती के साथ हुआ अन्याय अथवा अपराध कम नहीं आंका जा सकता, इसलिए उसका प्रभाव इस रचना पर सकारात्मक ही होता। बालिका ‘रत्ती’ के द्वारा किये गए इस साहसपूर्ण कार्य से उसका बचपन प्रेरणादाई बनकर उबरता। किन्तु लेखिका कृष्णा सोबती की हर कहानी की तरह इस कहानी में भी कथा का एक ही पक्ष उजागर होता है। यहां भी वे अपने स्वयं के अभिजात्यपन से बाहर नहीं आ पाती हैं और ना ही अपने पात्र को उस अभिजात्यपन की परिधि को लांघने देती हैं।

सामंती अभिजात्यपन की शिकार लेखिका एक बलात्कार की शिकार लड़की का संबंध और आसक्ति तो 19-20 पुरुषों से दिखा सकती हैं, किन्तु एक पुरुष को इतने घिनौने अपराध के बाद भी पाठकों की घृणा का पात्र नहीं बना सकतीं।  कृष्णा सोबती के विषय में सदैव कहा जाता है की वे स्त्री-पुरुष को एक दूसरे के पूरक के रूप में देखती हैं। वे कभी भी अपनी स्त्री पात्रों द्वारा पुरुष के प्रति घृणा और तिरस्कार का भाव नहीं दिखातीं। तो क्या इस आलेख में वर्णित उपन्यास में भी अपराधी पुरुष को न दिखाने के पीछे इस कारण से इंकार किया जा सकता है?

यहां एक बात और विचारणीय है। जिस समयावधि में लेखिका यह उपन्यास लिख रही थीं, वह विभाजन और स्वतंत्र भारत का वह समय था जब लोगों में तरह तरह की कुंठाएं और नफ़रतें थीं। ऐसे परिवेश में लेखिका का सामना ऐसी अनेक घटनाओं से हुआ होगा, जिसमें केवल अमीर और सभ्रांत घरानों की ही नहीं बल्कि गरीब, मजदूर और दलित, उपेक्षित जाति और वर्ग की बच्चियां/ बेटियां भी रही होंगी, जो बलात्कार के बाद या तो परिवार के सदस्यों द्वारा ही गैरत के नाम पर मार दी गई होंगी या बलात्कारियों द्वारा ही हत्या कर दी गईं और जो किसी तरह बच गईं, वे देह व्यापार में जबरन धकेल दी गईं। आम वर्ग से आने वाली पीड़ित अभिशापित लड़कियों की कहानी में लेखिका को कोई रूचि नहीं थी, क्योंकि उन्हें उनका जीवन और उनके साथ होने वाले घिनौने अपराध भी उनकी नियति लगते थे, इसलिए शायद वे कभी उनकी संवेदना को छू ही नहीं सके।

दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि लेखिका को बलात्कार की शिकार लड़की के रूप में भी ऐसा स्त्री पात्र रचना था, जो “बलात्कार की पीड़ित के रूप में पाठकों की सहानुभूति भी बटोरे और अपनी यौनेच्छाओं की पूर्ति और दैहिक तृप्ति का सहारा लेकर अनेक पुरुषों से संबंधों के बाद दिवाकर जैसे पुरुष के साथ अपनी सम्पूर्ण यौनक्रीड़ा का प्रदर्शन भी कर सके।”

इस संदर्भ में यहां इस उपन्यास के संबंध में कुछ लेखकों के मत प्रस्तुत किया जाना आवश्यक जान पड़ता है।

डॉ. सविता कुमार का भी मानना है कि “सूरज मुखी अँधेरे के में सेक्स का खुला चित्रण उभरता है। सोबती ने प्रेम के उस स्वरुप को उजागर किया है, जो सेक्स तक सीमित है। उसे इतना विस्तार दिया है कि वह केवल उपन्यास होने की गवाही देता है। बाकी सब कुछ दब कर रह जाता है।” (डॉ सविता कुमार, ‘महिला रचनाकारों की रचनाओं में प्रेम का स्वरुप विकास’, पृष्ठ 102 )

डॉ .इन्द्रनाथ मदान मानते हैं कि “यह अँधेरे में सूरजमुखी की बरखा है। अंतिम तान दिवाकर की रूप में न तोड़ी जाती तो उपन्यास में आधुनिकता की प्रक्रिया सम्भोग की चित्रण में ठप्प हो चुकी थी।” (इन्द्रनाथ मदान, ‘आधुनिकता और हिंदी उपन्यास’, पृष्ठ 111 )

डॉ. बच्चन सिंह भी इस उपन्यास को यौन विच्युतियों में पनाह खोजने वाले उपन्यासों की श्रेणी में इस उपन्यास को रखा है। (‘हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास’, पृष्ठ 393 )

दरअसल, यहाँ यह कहना उचित होगा कि लेखिका साहित्यिक बाज़ार की नब्ज़ भली-भांति पहचानती थी। उन्हें पता था कि विभाजन की त्रासदी के बाद लिखे जाने वाले साहित्य में ज्यादातार संत्रास, दुःख और असंतोष का साहित्य ही लिखा जा रहा है। ऐसे में पाठक वर्ग और वह भी एक विशेष वर्ग, किस प्रकार की साहित्यिक रचनाएं पढ़ कर संतुष्ट होता है।

लेखिका कृष्णा सोबती की नायिका ‘रत्ती’ के पास तो अपने साथ हुए घिनौने अपराध से उबरने के तमाम साधन मौजूद थे और अपनी सेक्सुअल डिज़ायर को पूरा करने के भी, जो कि वह करती भी है वह दोस्तों के साथ और कभी अकेले भी शराब पीती है। कहीं हिल स्टेशन पर घूमने निकल जाती है, लॉन्ग ड्राइव पर जाती है। पार्टी करती है तो कभी अपनी मर्जी का कोई पुरुष साथी चुनती है और सेक्सुअली संतुष्ट न होने पर उसे छोड़कर फिर पलटकर अपनी ओर ही आ जाती है। यानि अकेली हो जाती है।

लेखिका कृष्णा सोबती का ‘रत्ती’ का अनेक पुरुषों से दैहिक संबंधों के विषय में मानना है कि “यह अलग अलग पुरुषों से रत्ती का फ्लर्टेशन नहीं, अलग-अलग खण्डों से मिलने की टकराहट होने के स्तर पर रत्ती टुकड़ों का व्यक्तित्व है। कटा-छँटा, समूचा नहीं।विभिन्न अंगों का, विभिन्न हिस्सों का। भंग हो गई देह की चाहत और गुंजलों से घिरे मन की रूखे विराग में कोई तारतम्य नहीं। कहीं दो छोर जुड़ते नहीं, मिलते नहीं। रत्ती का सुनसान यही है।” (कृष्णा सोबती, ‘सोबती एक सोहबत’, पृष्ठ 372)

लेखिका कृष्णा सोबती ‘रत्ती’ जैसी स्त्री पात्र का पक्ष तो अपने इस कथन के माध्यम से रख सकती है, क्योंकि वह एक ‘कुलीन’ घराने की पढ़ी-लिखी आधुनिक लड़की है, जिसे लेखिका ने ऐसा ही गढ़ा है। वह लेखिका की कल्पना को साकार रूप देती ‘रत्ती‘ है, जो कोई आम गरीब दलित लड़की हो ही नहीं सकती थी। यदि वह दलित होती तो उपन्यास में उसका संघर्ष पक्ष भी अवश्य सामने आता। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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पूनम तूषामड़

दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में "मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह 'माँ मुझे मत दो'(हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं।

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