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पसमांदा समाज की मांगें जरूरी, लेकिन दोषारोपण अनुचित, अशराफ बुद्धिजीवियों की राय

ट्रिब्यून हिंदी के संपादक ज़कारिया खान के मुताबिक, जो समाज पीछे रह गया है, उसे आगे आने का पूरा अधिकार है। इसलिए ही पसमांदा समाज और उनकी राजनीतिक मांग बिल्कुल सही है। उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता है।

जब कभी चुनाव आते हैं तब आम अवाम से नये-नये वादे किये जाते हैं। कभी-कभी वो वादे भी किये जाते हैं, जो पहले किन्हीं कारणों से पूरे नहीं हो किए गए। इन्हीं में से एक मुद्दा पसमांदा मुसलमानों का है, जो आजकल चर्चा में है। दरअसल, यूपी में कुछ महीनों में होने वाले चुनावों को ध्यान में रखते हुए पसमांदा समाज के हितों का मुद्दा फिर से उठाया जा रहा है। खास बात यह कि इस बड़े राजनीतिक मुद्दे को जहां पहले राजनीतिक दल इस पर बात करने से डरा करते थे, अब वे इस मुद्दे पर खुलकर विचार विमर्श भी कर रहे हैं। वे अब मानने लगे हैं कि मुसलमानों में भी जातियाें के आधार पर भेद है। सामान्य तौर पर इन्हें अशराफ और पसमांदा कहा जाता है। अशराफ मुसलमानों को हिंदू धर्म के उच्च जातियों के समतुल्य तो पसमांदा मुसलमानों को निम्न जातियों के समतुल्य।

मसलन, समाजवादी पार्टी इसे बुनकर समाज के नाम पर उठाती हुई नजर आ रही है क्योंकि पूर्वांचल के बहुत बड़े क्षेत्र – मऊ,बनारस, गोरखपुर और गाज़ीपुर आदि ज़िलों – में रहने वाले बुनकर पसमांदा समाज से संबंध रखते हैं। इसके अलावा मुसलमानों के नाम की राजनीति का दम भरने वाले असदुद्दीन ओवैसी भी अब खुलकर मुस्लिम समाज में मौजूद जातियों पर चर्चा करते हुए नज़र आ रहे हैं। उन्होंने हाल ही में एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में कहा है कि “मुसलमानों में भी जातियां होती हैं और उन्हें भी पॉवर मिलनी चाहिए।” इन सभी के अलावा पसमांदा के नाम पर राजनीतिक सुगबुगाहट हिंदुत्ववादी पार्टी भाजपा में भी उठी है। वहीं इस संबंध में अशराफ समाज के बुद्धिजीवी क्या सोचते हैं और मौजूदा राजनीति को लेकर उनके विचार क्या हैं, असद शेख ने अशराफ समाज के कुछ बुद्धिजीवियों से बातचीत की है। बातचीत के केंद्र में मुख्य सवाल है– 

क्या 341 अनुच्छेद को निरस्त कर मुस्लिम शेड्यूल कास्ट जातियों को आरक्षण मिलना चाहिए? 

मांगें जायज लेकिन दलितों से तुलना समुचित नहीं : सैयद ज़ैग़म मुर्तजा, वरिष्ठ पत्रकार, दिल्ली

किसी भी समाज का पिछड़ा समाज उस पूरे समाज और खासकर उसके उच्च वर्ग पर कलंक है, क्योंकि यह मज़बूत वर्ग की ज़िम्मेदारी है कि वह अगर अपने कमज़ोर वर्ग को बराबरी पर न भी ला पाए तो उन्हें तड़पता हुआ भी न छोड़े। लेकिन मुसलमानों के मामले में सारा इल्ज़ाम उनके मज़बूत वर्ग पर ही डाल दिया जाय, यह भी उचित नही है। क्योंकि जिन्हें सही मायनों में ‘क्रीमी लेयर’ कहा जाता था, वे लोग तो 75 साल पहले ही पाकिस्तान चले गए थे। बचे हुए मुसलमानों के कुलीन वर्ग के पास बहुत ज़्यादा मौके या साधन नहीं थे, जिनसे पसमांदा समाज के हालातों को सुधारा जा सकता था। उसके खुद के हालात ही बिगड़े हुए थे। अब आ जाइये इनकी मांगों पर, जो नागरिक के तौर पर बिल्कुल उचित हैं और इनका हक़ भी है। 

सैयद जैगम मुर्तजा, मो. उमर अशरफ और ज़करिया खान

लेकिन इसमें ‘अशराफ विरोध’ तथ्यात्मक नही है। उदाहरण के लिए इस कथित अशराफ के तो खुद के पास ही कुछ नहीं है, वह इन्हें क्या देगा? दूसरी बात पर आ जाइये कि शिक्षा के स्तर पर आज़ादी के बाद से अब तक जितने मुस्लिमों के लिये बने संस्थान, स्कूल या कॉलेज हैं, वो सभी मुसलमानों के उच्च वर्ग ने बनाये हैं। लेकिन क्या कभी किसी पसमांदा समाज के व्यक्ति को वहां पढ़ाई से रोका गया है? 

ब्राह्मणों और सैयदों को एक बताने वाले पसमांदा समाज को सोचना चाहिए कि जैसे संस्कृत पढ़ने का अधिकार क्या सिर्फ ब्राह्मण को है, वैसे ही किसी मस्जिद या मदरसों में उर्दू या अरबी के पढ़ने पर ऐसी रोक लगाई गई है क्या? मस्जिद में घुसने से किसी पसमांदा को रोका गया हो तो बताइए। इसलिए ही पसमांदा समाज की दलितों से तुलना उचित नही है। अब रही राजनीतिक बराबरी की बात तो बताइए कि कहां आपके चुनाव लड़ने पर पाबंदी है? असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता भी इस बात को समझ रहे हैं और ऐसे मुद्दे उठा रहे हैं और तमाम पसमांदा मुसलमानों के नेता पहले भी चुनाव लड़ते रहे हैं और जीतते भी रहे हैं।

पसमांदा समाज के तमाम महाज़ के नेता भी तो इस बात का जवाब दें कि तमाम राजनीतिक लाभ और सरकारी नौकरियों के लाभ भी तो अधिकतर सिर्फ अंसारी समाज ही को मिले हैं। अंसारी कब भटियारे, कोंझड़े, नट या धोबी समाज के लोगों को आगे लाने की कोशिश कर रहे हैं? कब उन्हें राजनीतिक भागीदारी का हिस्सा दे रहे हैं? आप खुद इनके ब्राह्मण बनकर बैठे हैं। उनके अधिकारों पर कब्जा कर रखा है।

पसमांदा लीडरशिप खुद से करे सवाल : उमर अशरफ, इतिहासकार और ‘हेरिटेज टाइम्स’ वेबसाइट के संपादक 

पसमांदा समाज की राजनीति और उनकी मांगें बिल्कुल उचित हैं। उनका अधिकार है कि वे सरकारी पदों तक पहुंचें और संवैधानिक बराबरी का लाभ भी उठाएं। वे अपनी मांगों को मजबूती से रखें। लेकिन ये मांगें सरकार से रखें। हमसे (अशराफ मुस्लिमों) नहीं, क्योंकि किसी भी तरह का लाभ पसमांदा समाज को सिर्फ सरकार ही दिला सकती है न कि अशराफ समाज।

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अब बात करते हैँ पसमांदा समाज की लीडरशिप के बारे में। अली अनवर साहब दो बार (बारह साल तक) राज्यसभा के सदस्य रहे। इस दरमियान उन्होंने पसमांदा समाज के लिए क्या किया? कौन सा लाभ, शिक्षा, स्वास्थ्य या आर्थिक क्षेत्र में उन्होंने पसमांदा समाज को पहुंचाया है? यह बात भी तो होनी चाहिए। उनसे सवाल क्यों नहीं होना चाहिए। वे तो सत्ता में भी रहे हैं। वे जिस जनता दल यूनाईटेड से राज्यसभा के सदस्य रहे, वह केंद्रीय सत्ता में भी है और बिहार में भी सत्तासीन है, लेकिन उनकी कोई उपलब्धि तो नज़र नहीं आती है। बारह साल बहुत बड़ा अरसा होता है।

ओवेसी साहब की राजनीति पर बात करते हैं। वह अपनी हवा बनाने की राजनीति कर रहे हैं और उसमें कामयाब भी हैं। उन्होंने बिहार के सीमांचल क्षेत्र की जनता की आवाज़ उठाई, जो खुद बड़ी तादाद में पसमांदा थी और वहां के लोगों ने उन्हें वोट दिया और उनके प्रत्याशियों को जिता कर विधानसभा भेजा भी। लेकिन उन्हें अब ‘भाजपा का एजेंट’ कहा जा रहा है। सवाल उठता है कि उन्हें ऐसा क्यों कहा जा रहा है?और ये कहने वाले अधिकतर पसमांदा समाज के नेता हैं। यह कहां की सकारात्मक राजनीति है? इस पर पसमांदा समाज के नेताओं को सोचना चाहिए।

पसमांदा समाज मुस्लिम समाज से अलग नहीं : ज़करिया खान, संपादक, ट्रिब्यून हिंदी 

जो समाज पीछे रह गया है, उसे आगे आने का पूरा अधिकार है। इसलिए ही पसमांदा समाज और उनकी राजनीतिक मांग बिल्कुल सही है। उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन एक बड़ा सवाल यह उठता है कि यह कौन-सा समाज पिछड़ा है। यह जान लेना आवश्यक है। वर्ष 2006 में सच्चर कमिटी की रिपोर्ट बताती है कि मुस्लिमों की हालत दलितों से भी बदतर है। लेकिन एक सच यह भी कि बीते 15 सालों में मुसलमानों के हालात बहुत बिगड़े हैं।

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यहां सिर्फ सरकार का ही दोष नहीं है। खुद बड़े बड़े राजनेताओं ने सुधार के लिए कौन-से कार्य किये हैं? कौनसी योजनाएं लायी गई हैं? ये काफी महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिसके बारे में चर्चा ही नहीं हो रही है और क्यों नहीं हो रही है, यह मालूम ही नहीं है।

अब जब बात मुसलमानों की हो रही है तो कौन-से मुसलमानों की हालत इन सालों में सुधरी है। यह सवाल भी तो पूछा जाना चाहिए। इस सवाल का जवाब है किसी की भी नहीं। तो अभी फ़िलहाल की स्थिति में तो मुसलमानों की राजनीतिक, आर्थिक, सामजिक और शैक्षणिक स्थिति बहुत ही निचले स्तर पर है और दिन-ब-दिन और बुरी होती जा रही है।

असदुद्दीन ओवैसी की राजनीति का मुस्लिम समाज के बीच उत्साह इसी का एक उदाहरण है। वे इस शख्स को ऐसे नेता की तरह देख रहे हैं, जो उनके मुद्दे ओर उनकी समस्यायों पर बात करता हुआ और चर्चा करता हुआ नजर आता है। इसके अलावा कोई और बड़ा नेता ऐसा नही है, जो मुसलामानों की समस्याओं पर बात करता है। 

इसलिए जब मुसलमानों की समस्याएं हल होंगी तभी सभी की समस्याएं हल होंगी और इसमें पसमांदा समाज भी पूर्ण रूप से शामिल हैं। पसमांदा समाज मुस्लिम समाज से अलग नहीं है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

असद शेख

असद शेख दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन में सक्रिय हैं

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