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बहस-तलब : केवल आदिवासी नहीं हैं अब निशाने पर

यह कोई एक राज्य का मामला नहीं है। बिहार के कैमूर में आदिवासी महिलाओं को जेल में ठूंस दिया जाता है। उड़ीसा के नियमगिरि में वेदांता के लिए पूरे पहाड़ को सीआरपीएफ द्वारा घेरा गया था। झारखंड में सारंडा को बर्बाद कर दिया गया। बहस-तलब में आज पढ़ें हिमांशु कुमार का यह आलेख

भारत में अगर किसी समुदाय ने सबसे ज़्यादा दमन झेला है तो वे आदिवासी हैं। भारत के ब्राह्मणी ग्रंथों में जिसे देव-दानव संग्राम कह कर गरिमा प्रदान की गई है, असल में वह बाहर से आने वाले आर्यों का आदिवासियों के साथ क्रूर युद्ध का वर्णन है। अगर इन तथाकथित धर्म ग्रंथों को पढेंगे अथवा इनके आधार पर बनने वाले टीवी धारावाहिकों या फिल्मों को देखेंगे तो आप पायेंगे कि उनमें जिन्हें दानव, राक्षस या असुर कहा गया है वे आदिवासी हैं। इन ब्राह्मणी धर्मग्रंथों में असुर दानव अथवा राक्षस काले रंग के होते हैं। वे जोर-जोर से हंसते हैं। उनकी स्त्रियां स्वतंत्र होती हैं। उनके सींग होते हैं। उनकी नाक मोटी होती है| आज भी आदिवासी सींग लगा कर नाचते हैं। सवर्ण आर्यों के मुकाबले आदिवासी स्त्रियां अधिक स्वतंत्र होती हैं। आदिवासियों की नाक आम तौर पर आर्यों के मुकाबले मोटी तथा रंग अमूमन काला या सांवला होता है| ब्राह्मणी ग्रंथों में देव-दानव युद्धों का वर्णन पढ़िए| उसमें लिखा गया है कि देवताओं के हमलों से राक्षस भागने लगे। उनकी स्त्रियों के गर्भ गिर गए। उनके गांव जला दिए गये। उनका समूल नाश कर दिया गया।

असल में यह भारत के मूल निवासियों के साथ हुए युद्धों का वर्णन है। इन युद्धों में जो पकड़ कर गुलाम बना लिए गये, वे दलित कहलाये और उन्हें निम्न श्रेणी का काम करने के लिए मजबूर किया गया और अलग बस्तियों में अछूत बनाकर रखा गया| इनकी ज़मीनों पर आर्यों तथा अन्य हमलावर कबीलों का कब्ज़ा हो गया। इसीलिये आज भी अस्सी प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं।  जो मूलनिवासी बचकर जंगलों में जाकर रहने लगे, वह आदिवासी बने रहे। भारत की जातियां दरअसल युद्धों का परिणाम हैं और अलग-अलग जातियां अधिकांशतः अलग अलग नस्लें हैं। भारत का जातिवाद भी एक तरह का नस्लवाद है।

आज़ादी के बाद नेहरु आदिवासियों के प्रति संवेदनशील थे। उन्होंने आदिवासी इलाकों में राज्य के आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप से मना किया था। उनका मानना था कि हम आदिवासियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सहूलियतों की व्यवस्था कर दें, लेकिन उनके जीवन और संस्कृति में हस्तक्षेप ना करें। 

वनाधिकार कानून लागू करने के लिए मांग करतीं आदिवासी महिलाएं

इंदिरा गांधी तक इस नीति पर चलती रहीं। लेकिन जब नब्बे के दशक में नई आर्थिक नीतियां लागू हुईं तथा उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण का दौर शुरू हुआ तब सबसे बड़ा हमला आदिवासियों पर ही हुआ। 

असल में इस नई आर्थिक नीतियों के दौर में अमीर देशों की पूंजी गरीब देशों की तरफ दौड़ने लगी। लैटिन अमेरिकी देश अफ्रीकी देशों, फिलीपींस और दक्षिण एशिया इस पूंजी के निशाने पर थे। असल में यह आवारा पूंजी दुनिया-भर के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिए दौड़ लगा रही थी।

कार्पोरेट के फायदे के लिए लड़ा जाने वाला यह युद्ध नए इलाकों में फैलता जा रहा है। अब इसकी चपेट में किसान और मजदूर भी आ गये हैं। मजदूर की पूरी मजदूरी की मांग को दबाने के लिए भी सैनिकों का इस्तेमाल किया जाता है और किसान के खिलाफ भी।

इसलिए, जहां कहीं भी प्राकृतिक संसाधन थे, वहां यह पूंजी जा रही थी। दुनिया भर के नेता पूंजीपतियों को अपने देश के प्रकृतिक संसाधन बेचने को अपनी सफलता और उपलब्धि बताने लगे। आज भी हमारे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी गर्व से कहते हैं कि हम हजारों-लाखों करोड़ का विदेशी निवेश लेकर आये हैं। 

जिन देशों की इस पूंजी को आने नहीं दिया गया, वहां पूंजीवादी देशों ने युद्ध थोप दिए| अमेरिका की अगुआई में तेल के क्षेत्रों और खनिज प्रचुर इलाकों में अन्तर्राष्ट्रीय संयुक्त सेनाएं भेजी गईं और हमें बताया गया कि हम वहां लोकतंत्र की स्थापना कर रहे हैं।

हकीकत यह है कि प्राकृतिक संसाधन जहां कहीं भी हैं, वहीं आदिवासी रहते हैं। तो अगर प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करना है तो आदिवासियों को वहां से हटाना पड़ेगा। लेकिन आदिवासी को हटा कर भेजा कहां जाय? अब ज़मीनें तो बची नहीं हैं, जहां नये गांव बसाये जा सकें। तो इस कारण सरकारें अब आदिवासियों के पुनर्वास के पचड़े में पडती ही नहीं हैं। सरकार अब सुरक्षाबलों का इस्तेमाल करके आदिवासियों को जबरन उस इलाके से खदेड़ देती है। कुछ ही समय पहले छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने सलवा जुडूम के नाम से ऐसा ही एक व्यापक अभियान चलाया था। इस अभियान में सरकार ने आदिवासियों के साढ़े छह सौ गावों में आगजनी की और हजारों आदिवासियों की हत्याएं, महिलाओं पर अत्याचार व उनका यौन शोषण तथा निर्दोष आदिवासियों को जेलों में ठूंसने का अभियान चलाया था। आज भी आदिवासी इलाकों में जेलें आदिवासियों से भरी हुई हैं। झारखंड के सामाजिक कार्यकर्ता रहे फादर स्टेन स्वामी ने तीन हज़ार आदिवासियों की सूची प्रकाशित की थी, जिनकी जेल में ही मौत अभी हाल की ही घटना है। 

आदिवासियों के दमन और उनके मानवाधिकारों की आवाज़ उठाने के कारण सोनी सोरी को भाजपा सरकार ने पुलिस थाने में ले जाकर बिजली के झटके दिए और उनके गुप्तांगों में पुलिस अधीक्षक ने पत्थर भरवा दिए। सोनी सोरी के भतीजे और आदिवासी पत्रकार लिंगा कोड़ोपी के गुदा में मिर्च में डुबाया हुआ डंडा घुसा दिया गया, जिससे उनकी आंत फट गई। और फिर उन्हें भी जेल में डाल दिया गया।

भारत के संविधान में आदिवासियों को विशेष संरक्षण दिया गया है। कोई भी कानून आदिवासियों के पांचवी और छठवीं अनुसूची इलाकों में ज्यों का त्यों लागू नहीं हो सकता। लेकिन जब झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों ने संविधान की यही बात पत्थर पर लिख कर अपने गावों के बाहर लगा दी तो झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की सरकार ने आदिवासियों पर राजद्रोह के मामले बना दिए और उन्हें जेलों में डाल दिया। 

यह भी पढ़ें – बहस-तलब : क्या आरएसएस का मुकाबला सनातन से किया जा सकता है?

गौर तलब है कि संविधान में भारत के राष्ट्रपति को आदिवासियों का संरक्षक नियुक्त किया गया है। लेकिन आज़ादी के बाद से आज तक किसी भी राष्ट्रपति ने आदिवासियों का दमन होने पर अपने उस अधिकार का इस्तेमाल नहीं किया। यहां तक कि जब आदिवासियों के सैंकड़ों गांव जलाये गये अथवा सोनी सोरी की गुप्तांग में पत्थर ठूंसे गये, तब भी राष्ट्रपति ने कुछ नहीं किया। इसे विपरीत सोनी सोरी को प्रताड़ित करने वाले अधिकारी को राष्ट्रपति द्वारा वीरता पुरस्कार दिया गया| 

यह कोई एक राज्य का मामला नहीं है। बिहार के कैमूर में आदिवासी महिलाओं को जेल में ठूंस दिया जाता है। उड़ीसा के नियमगिरि में वेदांता के लिए पूरे पहाड़ को सीआरपीएफ द्वारा घेरा गया था। झारखंड में सारंडा को बर्बाद कर दिया गया। टाटा के लिए पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम और सिंगुर में लोगों के घर जलाये जाते हैं। 2 जुलाई, 2006 को उड़ीसा के कलिंगनगर में 13 आदिवासियों की हत्या कर दी जाती है और पुलिस पर आरोप है कि लाश उनके परिवारों को देने से पहले उसने उनके पंजे काट लिये, जो आज भी दफनाये नहीं गये हैं, क्योंकि आदिवासियों को पता ही नहीं है कि कौन सा पंजा किसका है। भारत के मानवाधिकार आयोग ने भी यह माना है कि बस्तर की कम से कम सोलह आदिवासी महिलाओं के पास प्राथमिक साक्ष्य मौजूद हैं कि उनके साथ सुरक्षाबल के जवानों ने बलात्कार किया है।

आदिवासियों पर इतना सरकारी दमन और हमले होने के बाद भी भारत के राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायलय संसद या तथाकथित मुख्य धारा मीडिया को कोई फर्क नहीं पड़ता।

आज भी भारत के अर्द्धसैनिक बल के सिपाही कहां हैं? वे आदिवासी इलाकों में हैं। वे वहां क्या आदिवासियों को सुरक्षा देने गये हैं? नहीं वे वहां प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करने गये हैं। किसके लिए कब्ज़ा किया जा रहा है? क्या इस देश के गरीबों की गरीबी दूर करने के लिए? नहीं बल्कि पूंजीपतियों के लिए। 

यह संसाधनों पर कब्जे के लिए लड़ा जा रहा एक युद्ध है। कार्पोरेट के फायदे के लिए लड़ा जाने वाला यह युद्ध नए इलाकों में फैलता जा रहा है। अब इसकी चपेट में किसान और मजदूर भी आ गये हैं। मजदूर की पूरी मजदूरी की मांग को दबाने के लिए भी सैनिकों का इस्तेमाल किया जाता है और किसान के खिलाफ भी। आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर कुछ समय के बाद पंजाब, हरियाण और उत्तर प्रदेश के गावों में भी छत्तीसगढ़ और झारखंड की तरह सीआरपीएफ की टुकड़ियां दिखाई देने लगें।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

हिमांशु कुमार

हिमांशु कुमार प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता है। वे लंबे समय तक छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के जल जंगल जमीन के मुद्दे पर काम करते रहे हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में आदिवासियों के मुद्दे पर लिखी गई पुस्तक ‘विकास आदिवासी और हिंसा’ शामिल है।

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