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यहूदियों और ब्राह्मणों के ईश्वर : विरोधाभासी परिकल्पनाएं

कम्युनिस्ट ब्राह्मणों को भी यह पता है कि उनकी प्राचीन सभ्यतागत जड़ों में कुछ मूलभूत समस्याएं हैं। उनमें से कई ने कार्ल मार्क्स, सिगमंड फ्रायड, आइंस्टीन और अन्य यहूदी चिंतकों, जिन्होंने वैश्विक सभ्यता की राह बदल दी, को पढ़ा है। परंतु उन्होंने कभी स्वयं के उत्पादन-विरोधी दैवीय, सामाजिक व सांस्कृतिक सिद्धांतों का अध्ययन नहीं किया। पढ़ें, कांचा इलैया शेपर्ड का यह विस्तृत आलेख

आज इक्कीसवीं सदी में भी वैश्विक मानव चेतना पर राज्य या संवैधानिक नियम-कानूनों की बनिस्बत ईश्वर के विचार का प्रभाव कहीं अधिक गहरा है। मनुष्यमात्र ईश्वर पर श्रद्धा ही नहीं रखता, वह ईश्वर से भय भी खाता है। यद्यपि तार्किकतावाद, धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद जैसी वैकल्पिक अवधारणाओं ने मनुष्य की चेतना पर खासा प्रभाव डाला है, परन्तु आज भी मनुष्यों के मन-मस्तिष्क पर ईश्वर-विरोधी या ईश्वर-निरपेक्ष विचारों की अपेक्षा, ईश्वर के विचार का कहीं अधिक असर है। दुनिया के चार प्रमुख धर्मों – ईसाई, इस्लाम, बौद्ध और हिन्दू – की ईश्वर के संबंध में अलग-अलग अवधारणाएं हैं। यद्यपि ईश्वर का विचार कई सहस्राब्दियों पुराना है, परन्तु इस विचार को धार्मिक पुस्तकों में लिखित स्वरुप में प्रस्तुत करने के बाद से ईश्वर के बारे में मनुष्यों की सोच का निर्धारण यही पुस्तकें करतीं आईं हैं। मानव सभ्यता के विमर्श लिखित शब्द से ही परिचालित हैं और आने वाली कई सदियों तक इस स्थिति में कोई परिवर्तन आने वाला नहीं है। 

इस लेख का विषय इजराइल के यहूदियों और भारत के ब्राह्मणों की ईश्वर की परिकल्पना और उसके संस्थागत स्वरुप तक सीमित है। 

यहूदियों और ब्राह्मणों के ईश्वर की परिकल्पना में विरोधाभास 

ईश्वर की यहूदी परिकल्पना का निरूपण सबसे पहला ओल्ड टेस्टामेंट (पुराना विधान) में किया गया और इसका परिष्कृत स्वरुप न्यू टेस्टामेंट (नव विधान) में सामने आया। ईश्वर की ब्राह्मण परिकल्पना सबसे पहले ऋग्वेद में प्रस्तुत की गई, जिसका विस्तार आगे चलकर पुराणों, उपनिषदों और भगवद्गीता में हुआ। दोनों परिकल्पनाओं में पहला अंतर यह है कि यहूदियों का ईश्वर अमूर्त है। उसका कोई स्वरुप नहीं है, उसका मनुष्यों से कोई नाता नहीं है और वह आदम और हव्वा सहित संपूर्ण सृष्टि का निर्माता है। वह न तो यहूदी है और ना ही इजरायली। उस ईश्वर ने आदि महिला और आदि पुरुष को किसी राष्ट्र-राज्य में नहीं रचा। उसने उनका निर्माण एक उद्यान में किया, जो दुनिया में कहीं भी हो सकता था। ये पुरुष और महिला न श्वेत थे और न अश्वेत, उनकी कोई नस्ल या जाति नहीं थी। वे केवल पुरुष और स्त्री थे – सार्वदेशिक मनुष्य। 

ईश्वर की ब्राह्मणों की परिकल्पना के अनुसार, ब्रह्मा और उनकी पत्नी सरस्वती, जो देवी-देवता थे, आदि पुरुष और महिला थे। उनके विशिष्ट नाम और विशिष्ट स्वरुप थे। उनके ऊपर कोई ईश्वर नहीं था। यह साफ़ है कि ब्रह्मा आर्य थे। प्राचीन संस्कृत पुस्तकों में भारत को भारतखंड या भारतवर्ष कहा गया है। ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्मा, अर्थात आदि पुरुष, के मुख से हुआ ना कि उनकी पत्नी की कोख से। इस प्रकार ब्राह्मणों का ईश्वर उन्हीं की जाति का था। सभी चित्रों और मूर्तियों में ब्रह्मा और सरस्वती को भूरे अर्थात आर्यों के रंग का दिखाया गया है। ब्रह्मा के चार सिर और चार हाथ हैं। ब्रह्मा की ऐसी मूर्तियाँ कई मंदिरों में देखी जा सकती हैं, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध है पुष्कर (राजस्थान) का ब्रह्मा मंदिर। 

नस्लवाद और जातिवाद

नस्लवाद और जातिवाद की उत्पत्ति सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के साथ ही हो गई थी। भारत में जाति व्यवस्था का जन्म ब्रह्मा के साथ ही हुआ। आखिर वह भी एक जाति विशेष का था। तब से ही भारत जाति प्रथा का देश बन गया। आज भी दुनिया के किसी भी अन्य देश में भारत की तरह का जाति-आधारित समाज नहीं है। ब्राह्मणों के ईश्वर ने उन्हें शारीरिक श्रम से पूर्णतः मुक्त कर दिया। ब्रह्मा के बारे में कहीं यह नहीं कहा गया है कि उन्होंने कोई शारीरिक श्रम किया। 

यहूदियों का ईश्वर बहुत मेहनती था। उसने छह दिन तक श्रम कर धरती के सभी प्राणियों की रचना की। सातवें दिन ईश्वर ने विश्राम किया और मनुष्य मात्र को सन्देश दिया कि उसे भी काम और आराम दोनों करने हुए अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। अगर ईश्वर ने इस ब्रह्मांड और जीवन का निर्माण करने के लिए मेहनत की तो मनुष्यों को भी खाने-पीने और अपना जीवन जीने के लिए धरती और प्रकृति के साथ मिलकर काम करना होगा। यहूदी आध्यात्मिक परिकल्पना यह है कि मनुष्य काम करने के लिए बना है, परन्तु इसके साथ ही मानव शरीर को हर दिन रात में और सप्ताह में एक बार पूरे दिन का विश्राम चाहिए। ऐसा इसलिए ताकि मनुष्य जब तक जीवित रहे, तब तक उसमें श्रम करने की उर्जा बनी रहे। जहां तक ब्राह्मणों के ईश्वर के सवाल है, वह न तो काम करता है और ना ही विश्राम। ऋग्वेद हमें ब्रह्मा की कार्य संस्कृति के बारे में कुछ नहीं बताता। जाहिर है कि जब सृष्टि के निर्माण की प्रक्रिया में ही कार्य संस्कृति के लिए कोई जगह नहीं है, तब आराम की संस्कृति ही दिव्य जीवन का आधार हो सकती है। काम किए बगैर जीने की यह व्यवस्था आध्यात्मिकता और धर्म के मूल दार्शनिक आधारों के खिलाफ है।

जुलाई, 2017 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व इजरायल के तत्कालीन प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू

इसी ब्रह्मा ने एक अलग वर्ण – शूद्र – का निर्माण भी किया। ऋग्वेद की भाषा संस्कृत में वर्ण का अर्थ होता है रंग। शायद शूद्र काले या गहरे रंग के थे। ऐसा लगता है कि आर्यों के पूर्व जिन लोगों ने सिन्धु घाटी की सभ्यता का निर्माण किया था, उन्हें शूद्र घोषित कर दिया गया, क्योंकि उनकी त्वचा का रंग आर्यों की अपेक्षा गहरा था। शूद्रों का जन्म ब्रह्मा के पैरों से होना बताया गया। ब्राह्मण देवों ने शूद्रों को श्रमिक / गुलाम का जीवन जीने के लिए नामित कर दिया। सृष्टि के निर्माण की कथा में दो अन्य समूहों का भी जिक्र आता है – क्षत्रिय एवं वैश्य। कुछ स्त्रोतों में उनकी त्वचा का रंग नीला बताया गया है। बाद में विष्णु ने आकार लिया, जो नीले रंग और क्षत्रिय जाति का था। धीरे-धीरे ब्राह्मणवादी आख्यान में और देवी-देवता जुड़ते चले गए। उन्हें क्षत्रिय और ब्राह्मण पहचानें दी गईं। राम, जिसका एक मंदिर उस स्थान पर बन रहा है जिसे हिन्दू धर्म का वैटिकन बताया जा रहा है, क्षत्रिय जाति का है। ब्राह्मण लेखकों ने विभिन्न देवों को ब्राह्मणों और क्षत्रियों में से गढ़ा। ये देव मानते हैं कि शारीरिक श्रम प्रदूषण कारक होता है। जो लोग ब्राह्मण और क्षत्रिय देवों में विश्वास रखते हैं, उन्हें अपने हाथ काम करके गंदे नहीं करने चाहिए। ब्राह्मणों के आध्यात्मिक सिद्धांतों का निहितार्थ यह है कि धरती भी अछूत है क्योंकि उसमें धूल और मिट्टी के सिवा कुछ नहीं है। इस तरह के दर्शन के साथ मनुष्य भला कैसे जीवित रह सकते हैं।

यहूदी धार्मिक आख्यानों में मनुष्यों को आम आदमी और पैगम्बर दोनों के रूप में देखा गया। आदम और हव्वा की संतानें कैन और एबल आम लोगों की तरह हव्वा की कोख से जन्मीं। कैन किसान था और एबल चरवाहा। ब्राह्मणों की पवित्र पुस्तकों के हिसाब से दोनों शूद्र थे। कृषि और पशुपालन पर आधारित अर्थव्यवस्था यहूदियों की पवित्र पुस्तक तोराह या ओल्ड टेस्टामेंट का हिस्सा बन गई।

आर्यों के आगमन से पहले हड़प्पा के निवासियों ने कृषि और पशुपालन पर आधारित जिस महान सभ्यता का निर्माण किया था, उसके आध्यात्मिक दर्शन को विस्मृत करवा दिया गया। ऋग्वेद के पूर्व की यह सभ्यता अपने पीछे कुछ भी लिखित नहीं छोड़ गई। हो सकता है कि उस सभ्यता का ईश्वर उत्पादक रहा हो। बाद में ब्राह्मणों ने सिन्धु घाटी के श्रम करने वालों निवासियों को शूद्र करार दे दिया और उनके आध्यात्मिक दर्शन को ख़ारिज कर दिया। शूद्रों को गुलाम बना दिया गया, जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों और बनियों की चाकरी के लिए थे। आज जो दलित कहलाते हैं, उन्हें न सिर्फ अन्य शूद्रों सहित गुलामी का जीवन स्वीकार करना पड़ा वरन् उन पर अछूत होने का ठप्पा अतिरिक्त रूप से लगा दिया गया। ब्राह्मण देवों ने इस अत्यंत बर्बर सभ्यतागत प्रथा को औचित्यपूर्ण ठहराया और अन्य शूद्रों को भी इसका पालन करने पर मजबूर किया। सन् 1947 तक राज्य का प्रशासन क्षत्रिय और शूद्र (जिन्हें शासक बनने के बाद क्षत्रिय का दर्जा दे दिया गया था; यह सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक कि स्वाधीनता के बाद राजे-रजवाड़ों को समाप्त नहीं कर दिया गया) शासकों के हाथों में था, जिन्हें मनु, जो स्वयं ब्राह्मण था, की संहिता को लागू करने पर मजबूर किया गया। विभिन्न रजवाड़ों में ब्राह्मण मुख्य पुरोहित और प्रधानमंत्री जातिगत नियमों का पालन सुनिश्चित करते थे। जाति से जुड़ी हर प्रथा का संहिताकरण कर दिया गया। यह कहा गया कि संहिताएं दैवीय आदेश हैं। ये दैवीय आदेश उन देवों के थे जो स्वयं जाति प्रथा से बंधे हुए थे। इन संहिताओं की पुनर्व्याख्या करने की अनुमति किसी को नहीं थी। इस तरह, भारत को जातिगत ढांचे पर आधारित एक जेल में तब्दील कर दिया गया और इस जेल का प्रमुख हमेशा एक ब्राह्मण होता था। इस जेल में शूद्र और दलित खाद्यान्नों और अन्य ज़रूरी सामानों का उत्पादन करते थे और अन्य तीन जातियां – ब्राह्मण, क्षत्रिय और बनिए – इन उत्पादों का उपभोग करते थे। 

निर्धारित कर दिए गए नियमों में किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंजाइश नहीं थी। दूसरी ओर, यहूदी आध्यात्मिक साहित्य की व्याख्या और पुनर्व्याख्या की गुंजाइश थी। जैसे-जैसे यहूदियों का धर्म वैश्विक बनता गया, उसके विभिन्न पैगम्बरों ने देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक ज्ञान प्रणालियों में परिवर्तन किये। 

चूँकि ब्राह्मण आध्यात्मिक पुस्तकों के दर्शन के केंद्रीय तत्व से हम पहले से वाकिफ हैं, इसलिए हमें इन पुस्तकों को पढ़ने और उनमें सकारात्मक, नकारात्मक और विरोधाभासी विचारों की तलाश करने का श्रम करने की ज़रुरत नहीं है। उनका मूल भाव श्रम-विरोधी और जाति-केन्द्रित है और यह अपने आप में मानव सभ्यता के विकास में बाधक है। भारत के महान आध्यात्मिक, विधिक और सामाजिक-राजनैतिक चिंतक डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अत्यंत परिश्रम से इन पुस्तकों का परीक्षण किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि ये ग्रन्थ भारत की आध्यात्मिक और सामाजिक व्यवस्था में किसी प्रकार के परिवर्तन की अनुमति नहीं देते और इस प्रकार वे मनुष्यों के बीच समानता और आर्थिक विकास के वाहक नहीं बन सकते। जिस चीज़ का अध्ययन अत्यंत ध्यानपूर्वक किया जाना चाहिए, वह है भारत के शूद्रों / दलितों और आदिवासियों में अब भी विद्यमान एक वैकल्पिक आध्यात्मिक दर्शन। ब्राह्मण साहित्य – चाहे वह सामाजिक हो या आध्यात्मिक – भारत में एक समार सकारात्मक आध्यात्मिक दर्शन के अस्तित्व के बारे में हमें नहीं बताता। परन्तु यह दर्शन कहीं न कहीं है अवश्य, क्योंकि यदि वह नहीं होता तो भारत के निवासी भुखमरी का शिकार होकर कब के धरती से गायब हो चुके होते।

इससे यह भी पता चलता है कि शुरूआती यहूदी आध्यात्मिक साहित्य जैसे बाइबिल का उत्पत्ति (जेनेसिस) अध्याय, ऋग्वेद से काफी पहले लिखा गया होगा, क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो उस पर भी इस ब्राह्मण आध्यात्मिक विचार का प्रभाव पड़ता कि ईश्वर श्रम-विरोधी है। यहूदियों की आध्यात्मिक पुस्तकों के विचार दुनिया के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक फैल गए, जबकि ब्राह्मण आध्यात्मिक साहित्य का प्रभाव केवल भारत तक सीमित रहा। 

उत्पादक और पैगम्बर 

यहूदी धार्मिक आख्यानों में मनुष्यों को आम आदमी और पैगम्बर दोनों के रूप में देखा गया। आदम और हव्वा की संतानें कैन और एबल आम लोगों की तरह हव्वा की कोख से जन्मीं। कैन किसान था और एबल चरवाहा। ब्राह्मणों की पवित्र पुस्तकों के हिसाब से दोनों शूद्र थे। कृषि और पशुपालन पर आधारित अर्थव्यवस्था यहूदियों की पवित्र पुस्तक तोराह या ओल्ड टेस्टामेंट का हिस्सा बन गई। यह, दरअसल, मानव सभ्यता के विकास की कहानी है – मनुष्यों के उत्पादक श्रम और उनके संघर्ष की कहानी – जो मानव इतिहास के सभी समाजों पर लागू होती है। 

अब्राहम, जो कि चरवाहा (भारतीय संदर्भ में शूद्र) था, एक पैगम्बर और नेता के रूप में उभरा, जिसने सृष्टि के प्रथम समाज या राष्ट्र का निर्माण किया। वह एक मनुष्य था और आदम और हव्वा के कुल का सदस्य था। मवेशियों को चराना और कृषि उसके और उसकी संतानों के जीवन का अंग बने रहे। उत्पादन और वंश-वृद्धि की इस प्रक्रिया से जनसंख्या बढ़ने लगी। श्रम, मनुष्यों और पशुओं के बीच सकारात्मक रिश्ते, टकराव और समाज की प्रगति – ये सभी बाइबिल का भाग हैं। 

अपनी सभी रचनाओं में ब्राह्मणों ने स्वयं को सभी उत्पादक कार्यों से मुक्त घोषित कर दिया। एक अन्य जाति समूह – क्षत्रिय – को ब्राह्मणों के मार्गदर्शन में समाज और राज्य पर शासन करने की भूमिका सौंपी गई। शूद्रों को कोई आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकार नहीं थे। प्रारंभ में वैश्य समुदाय को कृषि और व्यवसाय का काम सौंपा गया। परन्तु समय के साथ बनियों ने भी उत्पादक कार्यों से किनारा कर स्वयं को व्यापार-व्यवसाय और धन-संचय तक सीमित कर लिया। शूद्रों को सभी प्रकार के खाद्यान्नों के उत्पादन का काम सौंपा गया, परन्तु ब्राह्मणों के देवों तक उन्हें पहुँचने नहीं दिया गया। यहूदी आध्यात्मिकता ने हर प्रकार के भोजन के उत्पादन का काम पैगम्बरों सहित सभी लोगों को सौंपा। इस तरह, उसने समाज में सामाजिक वर्गों के उदय की गुंजाइश तो छोड़ी, परन्तु सामाजिक जातियों के उदय की नहीं। इससे उत्पादन के विज्ञान के बारे में रचनात्मक सोच के विकास में मदद मिली। इतिहास बताता है कि सामाजिक वर्गों ने अलग-अलग खोजें करने में परस्पर प्रतिस्पर्धा की, परन्तु सामाजिक जातियों में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी। ब्राह्मणों के आध्यात्मिक सिद्धांत ने मनुष्यों को जाति की सीमाओं में कैद कर दिया। जाति, ब्राह्मणों द्वारा निर्मित सामाजिक व्यवस्था का मूल ढांचा और आधार बन गई। 

ब्राह्मणों की पुस्तकों के केवल दो सरोकार थे। पहला यह कि ब्राह्मणों को कोई श्रम न करना पड़े और दूसरा यह कि अन्य भारतीयों पर उनका वर्चस्व बना रहे। त्वचा के रंग से जुड़े मुद्दों से निपटने के लिए ब्राह्मणों ने अपने देवों को भी काले और नीले रंगों में गढ़ा। तीसरे मुख्य देव शिव का रंग काला दिखाया गया है जबकि उनकी पत्नी पार्वती का भूरा आर्य रंग बताया गया है।

बाइबिल में मूसा, यिर्मयाह, यशायाह और अंत में ईसा मसीह के जन्म और जीवन की कथा दी गई है। बाइबिल में अब्राहम से लेकर ईसा तक सभी की राष्ट्रीयता इजराइली बताई गई है और इजराइल को ईश्वर द्वारा चुनी गई भूमि बताया गया है। परन्तु इसी के साथ, यह भी कहा गया है कि इजराइली, मिस्त्र के निवासियों के गुलाम थे और इसलिए ईश्वर ने उन्हें गुलामी से मुक्त करवाने का बीड़ा उठाया। परन्तु पैगम्बरों का व्यवहार और आचरण मनुष्यों जैसा था और उनकी शिक्षाओं को पैगम्बरों की शिक्षाएं कहा जाता है, ना कि ईश्वर की।. पैगम्बरों ने लोगों को ईश्वर के आदेशों या शिक्षाओं के बारे में बताया ताकि मनुष्यों का नैतिक व्यवहार इस प्रकार का हो सके, जिससे मानव समाज में परस्पर रिश्ते शिष्टता और सभ्यता पर आधारित हों। मूसा और ईसा मसीह की शिक्षाओं से पता चलता है कि मानवता और समाज को किस प्रकार नैतिक बनाया गया। हर मनुष्य गरीबी और संघर्ष के बीच भी अन्य मनुष्यों से अपना सब कुछ साझा करने को तैयार था, और यहीं से समाज सम्पन्नता की ओर बढ़ा। श्रम लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा था। उस समय की कई कथाएँ आधुनिक दुनिया की कहानियों से मिलती-जुलती हैं। इन कहानियों और नीति कथाओं में ज़मीन जोतने और फसल बोने, अति वर्षा और सूखा, मनुष्यों के बीच विवाद और उनके निराकरण आदि की चर्चा है। स्त्रियां और पुरुष अपना सब कुछ साझा करते हैं। इन आध्यात्मिक आख्यानों में एक तरह का समाज विज्ञान छुपा हुआ है। ईश्वर या पैगम्बर किसी विशेष नस्ल को तरजीह नहीं देते। परन्तु हाँ, लैंगिक असमानता यहूदी आध्यात्मिक पुस्तकों का हिस्सा है। बाइबिल में सामान्य लोग राजा और पैगम्बर बन जाते हैं। मूसा एक साधारण चरवाहा था। राजा दाउद भी चरवाहा था, जो अपने साहस और त्याग से शासक बना। ये दोनों असाधारण उदाहरण हैं। यहूदी आध्यात्मिक प्रणाली के विपरीत, ब्राह्मण आध्यात्मिक प्रणाली में ईश्वर शुरुआत से ही शूद्रों को गुलाम बना लेता है। इस तरह, ब्राह्मण आध्यात्मिक आख्यान में ईश्वर गुलाम बनाने वाला है, गुलामों को मुक्ति दिलवाने वाला नहीं। इसमें आम लोगों की ज़िन्दगी के संघर्षों, उनके दर्द और उनके सुख की कोई चर्चा नहीं है। इस आख्यान से शूद्र और दलित गायब हैं। उनका इतिहास इसमें दर्ज नहीं है। 

पुरोहित और श्रम

ब्राह्मणों की पुस्तकों के केवल दो सरोकार थे। पहला यह कि ब्राह्मणों को कोई श्रम न करना पड़े और दूसरा यह कि अन्य भारतीयों पर उनका वर्चस्व बना रहे। त्वचा के रंग से जुड़े मुद्दों से निपटने के लिए ब्राह्मणों ने अपने देवों को भी काले और नीले रंगों में गढ़ा। तीसरे मुख्य देव शिव का रंग काला दिखाया गया है जबकि उनकी पत्नी पार्वती का भूरा आर्य रंग बताया गया है। सभी ब्राह्मण पुस्तकों में महिलाओं को भूरे रंग का दिखाया गया है। इससे यह साफ है कि काली या नीली महिलाएं विवाह करने योग्य नहीं मानी गईं। यहूदी चित्रों में महिलाओं और पुरूषों दोनों का रंग इजराइल के निवासियों की तरह श्वेत दिखाया गया है। 

विष्णु के चित्रों में राम का रंग नीला बताया गया है, परंतु न तो विष्णु और ना ही राम ने कभी जाति प्रथा का विरोध किया। 

ब्राह्मण आध्यात्मिक साहित्य में जाति, व्यक्ति के रक्त, उसकी वंशावली, उसकी हड्डियों और उसके शरीर के हर हिस्से में समाहित है। जाति को दैवीय शक्तियों ने ऐसा दर्जा दे दिया है कि उससे मुक्ति संभव ही नहीं है। श्रम को मनुष्यों के जीवन के लिए आवश्यक नहीं बताया गया है, परंतु शूद्र / दलित तबकों पर श्रम करने की जिम्मेदारी लाद दी गई।

ब्राह्मण साहित्य में शूद्रों / दलितों की आध्यात्मिक समानता और मुक्ति की चाह पर कोई चर्चा नहीं है। वह तो हमें उन शूद्रों की प्रताड़ना और हत्या के किस्से सुनाता है, जिन्होंने अपने धार्मिक अधिकारों की मांग की।

आदिवासी समुदायों को अकेला छोड़ दिया गया, परंतु उन्हें भी ब्राह्मणों के आध्यात्मिक जगत में प्रवेश की इजाजत नहीं थी। यही कारण है कि भारत के वन क्षेत्रों में आज भी आदिवासी समुदाय का अस्तित्व बना हुआ है। अफ्रीका और लातिनी अमरीका में यहूदी बाइबिल के प्रसार के कारण आदिवासी समाज नहीं है। यहूदी आध्यात्मिक साहित्य किसी भी मनुष्य को ईश्वर से जुड़ने की अनुमति देता है। कोई भी आदिवासी धर्म को अपनाकर पुरोहित बन सकता है। उसकी राह में कोई सामाजिक बाधाएं नहीं हैं। ब्राह्मण साहित्य और धर्माचरण में बाहरी लोगों के प्रवेश पर सख्त पाबंदी है। वह इस डर के कारण कि कहीं नए प्रवेशकर्ता समानता का दावा न करने लगें और कहीं वे उस आध्यात्मिक और सामाजिक ढ़ांचे को बदल न दें, जिसे ब्राह्मणों ने आकार दिया है। यही कारण है कि उनकी आध्यात्मिक पुस्तकें ऐसे किलों का निर्माण करती हैं, जो उनकी अनुत्पादक जीवन प्रणाली को हर प्रकार के खतरों से दूर रखे। 

ईसा मसीह और शंबूक

यहूदी व्यवस्था में ईश्वर पर धनी और शक्तिशाली लोगों के नियंत्रण और निर्धनों के धार्मिक ढ़ांचे के उच्च स्तर पर प्रवेश को रोके जाने की प्रथा का ईसा मसीह ने अंत किया। वे एक साधारण गडेरिया (भारत में शूद्र) महिला के पुत्र थे। वे अपने पिता जोसफ, जो कि बढ़ई था, की उसके काम में मदद किया करते थे। जोसफ ने उन्हें गोद लिया था, क्योंकि उनका जन्म मैरी और जोसफ के विवाह के पूर्व हुआ था। ईसा मसीह ने आध्यात्मिक व्यवस्था पर शक्तिशाली वर्गों के नियंत्रण को एक सामाजिक व आध्यात्मिक क्रांति के जरिए समाप्त कर दिया। ऐसा करने के लिए उन्होंने अपने आपको ईश्वर का पुत्र घोषित किया। वे अधिकांशतः नंगे पांव पैदल चला करते थे या फिर गधे पर सवारी करते थे। उनके कपड़े फटे-चिथड़े होते थे। उनके पास न तो रथ था और ना ही हथियारबंद सेना। वे मछुआरों, गड़ेरियों और दुःखी महिलाओं के बीच रहते थे। ब्राह्मण साहित्य में कभी कोई शूद्र यह घोषणा नहीं कर सका कि वह ब्रम्हा, विष्णु या राम का पुत्र अथवा पुत्री है। कोई ब्राह्मण संत मछुआरों और गड़ेरियों के बीच नहीं रहा और ना ही उसने कभी परित्यक्त महिलाओं या निर्धनता और शोषण के कारण परेशान और दुःखी लोगों की मदद की। किसी ब्राम्हण संत ने ऐसे लोगों की सहायता नहीं की, जो खानपान की एक विशिष्ट संस्कृति (विशुद्ध शाकाहार) के कारण परेशानियां भोग रहे थे। 

ईसा मसीह ने गरीबों का दर्जा धनिकों के समकक्ष और धनिकों का गरीबों के बराबर कर दिया। वे गरीब लोगों के घरों में रहते थे और जो भोजन उनके सामने परोसा जाता, उसे प्रेम से खाते थे। वे किसी पेशे या किसी खाद्य पदार्थ को पवित्र या अपवित्र नहीं मानते थे। क्रांतिकारी परिवर्तनों की इस प्रक्रिया का वर्णन नव विधान में देखा जा सकता है। 

यहूदियों के इस तरह के आचरण के विपरीत ब्राम्हण धार्मिक प्रणाली में किसी भी प्रकार के परिवर्तन के प्रयास को हिंसात्मक तरीकों से रोका जाता था। इसका एक उदाहरण है– शंबूक, जो कि रामायण का एक शूद्र पात्र है। वह तपस्या के जरिए ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है। राम के ब्राह्मण सलाहकार उन्हें बताते हैं कि चूंकि शंबूक शूद्र है, अतः उसे ईश्वर से सीधे संवाद करने की इजाजत नहीं है और ऐसा करने का प्रयास कर उसने अपराध किया है, जिसकी सजा केवल मौत है। इस पर राम शंबूक की हत्या कर देते हैं। ब्राह्मण साहित्य में शूद्रों / दलितों की आध्यात्मिक समानता और मुक्ति की चाह पर कोई चर्चा नहीं है। वह तो हमें उन शूद्रों की प्रताड़ना और हत्या के किस्से सुनाता है, जिन्होंने अपने धार्मिक अधिकारों की मांग की। अगर ईसा मसीह भारत में जन्में होते तो उन्हें अपने जीवन के शुरूआती दौर में ही मार डाला गया होता। कोई ब्राह्मण उनका अनुयायी नहीं होता। परंतु कई यहूदी, जिनमें राजसी परिवार का पॉल शामिल था, ईसा के अनुयायी बने और उन्होंने ईसा के संदेश को पूरी दुनिया में फैलाया। ईसा के अनुयायी के रूप में भारत आने वाले सेंट थामस भी यहूदी थे और एक ब्राह्मण ने उनकी हत्या कर दी थी। 

यूरोप में यहूदी 

ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाए जाने और उनके पुनरूज्जीवन के बाद ईसाई धर्म अस्तित्व में आया। कुछ यहूदियों ने उसे स्वीकार किया और कुछ ने नहीं। यहूदी पूर्व विधान (ओल्ड टेस्टामेंट) ही इस्लाम के उदय का आधार था। इसके बाद इस्लाम और ईसाई व यहूदी धर्मों के बीच टकराव तेज हो गया। अंततः इजराइल के यहूदी अपना देश खो बैठे। यहूदी पूरे यूरोप में फैल गए। उनके पास श्रम करने की क्षमता और उनकी धार्मिक पुस्तकों के अलावा कुछ नहीं था। सन् 1948 में इजराइल में उनके पुनर्वसन के पूर्व तक यूरोप ने कई क्षेत्रों में उनकी मेधा और क्षमताओं का उपयोग किया। अपने कठिनाईयों भरे जीवन के बाद भी कई यहूदी महान बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक और अविष्कारक के रूप में उभरे। कार्ल मार्क्स और अल्बर्ट आइंस्टीन ऐसे ही दो असाधारण उदाहरण हैं। यहूदियों ने दुनिया को बदलने, मानवता में ज्ञान का प्रकाश फ़ैलाने और विश्व की उन्नति के लिए काम किया। इजराइल में पुनः बसने के बाद उन्होंने बहुत कम समय में कठिन श्रम और अपनी रचनात्मकता के बल पर एक नए राष्ट्र का निर्माण किया। आज इजराइल केवल 92 लाख नागरिकों का एक शक्तिशाली देश है। अपनी मेहनत और बुद्धिमत्ता से और विज्ञान का भरपूर उपयोग करते हुए यहूदियों ने मात्र 70 वर्षों में इजराइल को एक आधुनिक व शक्तिशाली देश बना दिया। आज भारत कई वैज्ञानिक मसलों में इजराइल पर निर्भर है।

यह भी पढ़ें : वर्ण, धर्म, जाति और सियासत

ब्राह्मणों को कभी भारत भूमि से विस्थापित नहीं किया गया। वे शूद्रों, दलितों और आदिवासियों की पीठ पर सवार होकर आरामदायाक जीवन बिताते रहे। एक मोटे अनुमान के अनुसार वर्तमान में ब्राह्मण भारत की कुल आबादी का लगभग 4 प्रतिशत हैं। दूसरे शब्दों में भारत में करीब पांच करोड़ ब्राम्हण रहते हैं। भारत में कृषि और उत्पादक अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका न्यूनतम है। उन्होंने खेत जोतने वालों को शिक्षित नहीं होने दिया, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर शूद्र शिक्षित हो जाएंगे तो वे उनके अधीन गुलामी का जीवन स्वीकार नहीं करेंगे। शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करने की इजाजत न देने की पीछे यह आशंका थी कि कहीं आम किसानों में से निपुण बुद्धिजीवी न उभरने लगें। ऐसा होने पर ब्राह्मणों के आरामदायक आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन के विरूद्ध संगठित विद्रोह की संभावना थी। कोई यहूदी नेता इस तरह की रणनीति के बारे में सोच भी नहीं सका, क्योंकि यहूदी समुदाय में हर व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में काम कर सकता था। एक यहूदी परिवार में एक भाई जूता बनाने वाला, दूसरा रब्बी और तीसरा गड़ेरिया हो सकता था। क्या किसी ब्राह्मण परिवार में जूता बनाने वाले, गड़ेरिए या खेत में काम करने वाले सदस्य होने की हम कल्पना भी कर सकते हैं?

क्या ब्राम्हण राष्ट्र बना रह सकता था?

ब्राम्हणों ने धूल-मिट्टी में अपने हाथ गंदे करना कभी स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनका मानना था कि वैदिक देव मिट्टी को हाथों और शरीर के लिए प्रदूषण कारक मानते हैं। इसलिए शुरूआत से ही उत्पादन का कार्य शूद्रों पर लाद दिया गया। आज भी इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है और अब यह व्यवस्था दैवीय आज्ञा से जारी है। अपने विस्तृत आध्यात्मिक साहित्य के बावजूद ब्राह्मण कभी यहूदी बुद्धिजीवियों के कद का बुद्धिजीवी पैदा नहीं कर सके। वे हमेशा से शारीरिक और मानसिक श्रम को बराबरी का दर्जा देने के खिलाफ थे। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है वे शारीरिक श्रम को आध्यात्मिक दृष्टि से प्रदूषणकारक मानते थे। हम एक काल्पनिक प्रश्न पूछते हैं। अगर ये पांच करोड़ ब्राह्मण एक राष्ट्र होते तो क्या वे अपने देश का उसी तरह निर्माण कर पाते जैसा कि यहूदियों ने इजराइल का किया? क्या वे अपने राष्ट्र को यहूदी राष्ट्र की तरह विकसित और पूरी दुनिया में प्रसिद्ध बना पाते? यहूदियों ने शारीरिक और मानसिक श्रम के संगम से और अपने सामाजिक और आध्यात्मिक अतीत से प्रेरणा लेकर अपने में जबरदस्त ऊर्जा और उत्साह का संचार किया। ब्राह्मणों ने बौद्धिक कार्य अपने लिए आरक्षित कर लिये, परंतु शारीरिक और बौद्धिक श्रम के बीच विभेद करने के कारण वे बौद्धिक दृष्टि से भी आगे नहीं बढ़ सके। न तो आध्यात्मिक और ना ही प्राकृतिक क्षेत्र में इस तरह का पृथ्थकरण स्वीकार्य या उचित हो सकता है। 

मेरी राय में ब्राह्मण कभी इजराइल की तरह का राष्ट्र नहीं बना सकते थे, क्योंकि उनकी श्रम-विरोधी और जातिवादी मानसिकता ने उन्हें खुलकर और रचनात्मक दृष्टि से विचार करने की क्षमता से वंचित कर दिया था। न तो उनका ज्ञान और ना ही उनका साहित्य सकारात्मक है। इक्कीसवीं सदी में बड़ी संख्या में ब्राह्मण दुनिया के अलग-अलग देशों में गए। परंतु वे श्रमिक के रूप में नहीं वरन् मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों के रूप में वहां गए और उनकी मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं आया। वे आध्यात्मिक साहित्य को अपनी बपौती मानते रहे। क्या पश्चिमी दुनिया उन्हें उतना ही महत्वपूर्ण और कीमती समझती है, जितना कि यहूदियों को समझती थी? मुझे ऐसा नहीं लगता। यहूदियों को जर्मनी की फासिस्ट सरकार के हाथों कत्लेआम का सामना करना पड़ा। उन्हें हर तरह से अपमानित किया गया। उन्हें लेबर कैम्पों में रखा गया। परंतु फिर भी उन्होंने अपने सभ्यतागत गुणों को संरक्षित रखा। वे सकारात्मक और जीवन के प्रति वैज्ञानिक और मानवीय दृष्टिकोण से ओतप्रोत बने रहे। उन्होंने श्रम के महत्व को नकारा नहीं। यदि ब्राह्मण इस तरह के कत्लेआम के शिकार हुए होते तो क्या वे उससे उबरकर अपने राष्ट्र का निर्माण कर पाते? मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो सकता था। जाति, अछूत प्रथा और श्रम के निषेध पर आधारित उनकी नकारात्मक आध्यात्मिक विरासत के चलते वे अपना अस्तित्व ही खो बैठते। जब तक किसी समुदाय की आध्यात्मिक पुस्तकें उसे काम करने की, दुख भोगने की और भोजन और आराम करके फिर से काम में जुट जाने की शक्ति और सकारात्मक इच्छा नहीं देते तब तक कोई मानव समाज अपने आपको उस तरह से पुनःसृजित नहीं कर सकता जैसा कि यहूदियों ने किया।

उन्हत्तर वर्षों के अपने जीवन में मैंने कई ब्राह्मणों के साथ काम किया है। मैं ऐसे ब्राह्मणों से मिला हूं, जो आध्यात्मिक, वामपंथी, उदारवादी आदि के रूप में जाने जाते हैं। उनमें से कुछ यह दावा करते हैं कि वे धर्मनिरपेक्ष, प्रजातांत्रिक, तार्किकतावादी, क्रांतिकारी आदि हैं, परंतु मैंने उनमें कभी उनके आध्यात्मिक और सामाजिक इतिहास की ईमानदार समीक्षा करने की ललक नहीं पायी। मेरा एक भी यहूदी से व्यक्तिगत परिचय नहीं है। परंतु मैंने यहूदियों का लेखन और उनका इतिहास पढ़ा है। मैंने यह पाया है कि वे शारीरिक श्रम, बौद्धिक ईमानदारी और मनुष्यों के बीच समानता के पैरोकार हैं और सकारात्मकता से लैस हैं। 

कम्युनिस्ट ब्राह्मणों को भी यह पता है कि उनकी प्राचीन सभ्यतागत जड़ों में कुछ मूलभूत समस्याएं हैं। उनमें से कई ने कार्ल मार्क्स, सिगमंड फ्रायड, आइंस्टीन और अन्य यहूदी चिंतकों, जिन्होंने वैश्विक सभ्यता की राह बदल दी, को पढ़ा है। परंतु उन्होंने कभी स्वयं के उत्पादन-विरोधी दैवीय, सामाजिक व सांस्कृतिक सिद्धांतों का अध्ययन नहीं किया। वे यह जानते हैं कि कई यहूदी अध्येताओं और चिंतकों ने उनके ही दर्शन को चुनौती दी। यह इस तथ्य के बावजूद कि उनकी संस्कृति समावेशी थी और श्रम और उत्पादन के संबंध में सकारात्मक दृष्टिकोण रखती थी, परंतु इतना लंबा समय गुजरने के बाद भी किसी ब्राह्मण ने ब्राह्मणों के जीवन जीने के तरीके और जिस आध्यात्मिक और सामाजिक दर्शन का निर्माण उन्होंने किया है, उसका विरोध नहीं किया। इस तरह भारत एक ठहरा हुआ, रुका हुआ देश बन गया। ब्राह्मण अपने देश से प्रेम नहीं करते। वे केवल अपने समुदाय से प्रेम करते हैं। उनकी प्राचीन सभ्यता और उनके राष्ट्र का निर्माण शूद्रों, दलितों और आदिवासियों के श्रम से हुआ है, परंतु उन्होंने कभी इन वर्गों के सदस्यों चिंतकों, दार्शनिकों और पैगम्बरों के रूप में उभरने नहीं दिया। अब समय आ गया है कि यह वर्ग सकारात्मक आध्यात्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक सोच के जरिए और पूरे विश्व में समझी जाने वाली अंग्रेजी भाषा में लेखन कर दुनिया और अपने देश को बदलने के काम में जुट जाएं।

(अंग्रेजी में राऊंड टेबुल वेब पत्रिका द्वारा पूर्व में प्रकाशित।मूल आलेख का हिंदी अनुवाद लेखक की अनुमति से यहां प्रकाशित )

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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