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बहस-तलब : क्या आरएसएस का मुकाबला सनातन से किया जा सकता है?

परिभाषा के मुताबिक़ आर्यसमाजी जो अवतारवाद या मूर्ति पूजा के विरोधी रहे हैं, वे भी हिंदू नहीं हैं। यह अलग बात है कि अब आर्य समाजी पूरी तरह आरएसएस की गोद में बैठे हुए हैं और जोर-शोर से राम मन्दिर निर्माण में सहयोगी बने हुए हैं। बता रहे हैं हिमांशु कुमार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना 1925 में हुई। इसकी स्थापना का उद्देश्य भारत में परंपरागत तौर पर चले आ रहे वर्चस्व आधारित सामाजिक संरचना को बरकरार रखना था। इस संरचना में बहुसंख्यक मेहनत करने वालों को सामाजिक तौर पर शूद्र तथा नीच घोषित किया गया था। इतना ही नहीं, बल्कि इन नीच घोषित कर दिए गए मेहनतकश वर्ग को गरीब भी बना कर रखा गया था। मनुस्मृति में लिख दिया गया था कि शूद्र को धन कमाने का अधिकार नहीं है। यदि शूद्र धन कमा ले तो राजा का कर्तव्य है कि वह उसका धन छीन ले। इस मेहनत करने वाले समुदाय को समाज के बारे में निर्णय लेने की प्रक्रिया से भी अलग रखा गया था। यानी यह मेहनतकश समुदाय सदियों तक सामाजिक आर्थिक तथा राजनैतिक अन्याय का शिकार रहा। यह वर्ग मेहनत करता था लेकिन उसकी मेहनत का लाभ दूसरे वर्ग के लोग उठाते थे। भारत में वर्ग का आधार वर्ण था। यानी तथाकथित उच्च वर्ण में जन्म लेने के कारण ही कोई उस शासक वर्ग का सदस्य बन जाता था। यह लूट की व्यवस्था वर्ण व्यवस्था थी, जिसे वैदिक व ब्राह्मण धर्म का आधार मिला हुआ था।

राजा उसके सेना के अधिकारी तथा दरबारी व्यापारी तथा पुरोहित वर्ग ने खुद को शारीरिक श्रम से अलग कर लिया था। इस श्रम ना करने वाले वर्ग ने खुद को उच्च वर्ण का घोषित किया, बिना शारीरिक श्रम किये यह वर्ग धनवान था तथा समाज के बारे में फैसले लेने की राजनैतिक शक्ति पर भी इसका कब्ज़ा था। 

अंग्रेजों से आज़ादी की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। आदिवासियों ने बड़े पैमाने पर बार-बार अंग्रेज़ी साम्राज्य को चुनौती देना शुरू कर दिया था। 1857 के ग़दर से भी सत्तर साल पहले तिलका मांझी ने अंग्रेजों के खिलाफ़ बग़ावत का बिगुल फूंक दिया था। सिदो कान्हू, बिरसा मुंडा, बस्तर में गुंडा धुर आदि आदिवासी बागियों ने अंग्रेजों को तगड़ी चुनौती दे दी थी। राजस्थान के बांसवाडा में मानगढ़ की पहाड़ियों पर 1913 में विद्रोही आदिवासियों पर अंग्रेजों ने गोली चलवाई जिसमें ढाई हज़ार आदिवासियों की शहादत हुई थी। 

इससे पहले 1818 में, जिन शूद्रों को हथियार पकड़ने पर जातिगत पाबंदी थी, अंग्रेजों ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती किया और भीमा-कोरेगांव में पेशवा सेना को हरा दिया था। इससे उच्च जातियों में यह भय फ़ैल गया था कि इस तरह चलता रहा तो कहीं अंग्रेज शूद्रों को अपनी सत्ता में शामिल ना कर लें और भारत में जो आर्थिक और सामाजिक परंपरागत सत्ता सवर्णों के पास थी वह छिन ना जाय। बाद में पूना में चितपावन ब्राह्मणों के गढ़ में सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख और जोतीराव फुले महिला शिक्षा और अछूतों की शिक्षा का काम शुरू कर चुके थे।

आरएसएस ने किया है भारत की विचार परंपरा का अपहरण

अपनी जाति आधारित आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक सत्ता को बनाये रखने के लिए चितपावन ब्राह्मणों ने आरएसएस की स्थापना की। हेडगेवार ने कहा कि मलेच्छों और शूद्रों की ओर से हिंदू धर्म को मिलने वाली चुनौती का सामना करने के लिए हमने इस संगठन का निर्माण किया है। 

आरएसएस ने कभी अंग्रेजों का विरोध नहीं किया। हेडगवार ने कहा कि हमारे शत्रु अंग्रेज़ नहीं, बल्कि मुसलमान ईसाई और कम्युनिस्ट हैं। 

आज़ादी की लड़ाई जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई, वैसे वैसे इसके उद्देश्य और ज्यादा साफ़ होते गये। आंबेडकर और गांधी के पूना पैक्ट के बाद यह साफ़ हो गया था कि आज़ाद भारत में अब जाति पर आधारित श्रेष्ठता और परंपरागत भेदभाव समाप्त कर दिया जाएगा। संविधान में जातिगत भेदभाव को अपराध घोषित किया गया। परंपरागत तौर पर जिनके साथ अन्याय हुए थे, उनके लिए आरक्षण जैसे सुधारात्मक पहल तय किये गये। 

इससे आरएसएस को धक्का लगा और उसने देश भर में संविधान को जलाया और उसे खारिज कर दिया। परंपरागत तौर पर सवर्ण शासक वर्ग ने अंग्रेजों के जाने के बाद अपने हाथ से सत्ता निकलते देख कर आरएसएस की अगुवाई में एक चाल चली। आरएसएस ने दुष्प्रचार किया कि भारत की जनता का लक्ष्य बराबरी जैसे कम्युनिस्ट विचार पर चलना नहीं होना चाहिए। बल्कि भारत की जनता के सामने चुनौती मुसलमान और ईसाई हैं, जो हमारे धर्म को मिटाना चाहते हैं। साथ ही, यह दुष्प्रचार किया कि नेहरु, गांधी तथा अन्य धर्मनिरपेक्ष नेता हिंदू धर्म के विरोधी हैं। आज़ादी मिलते ही आरएसएस ने गांधी की हत्या कर दी और बाबरी मस्जिद के ताले तोड़ कर उसमें मूर्तियाँ रख दी तथा कहना शुरू किया कि यह मुसलमान हमारे राम के जन्मस्थल को तोड़कर उस पर मस्जिद बना कर बैठे हुए हैं और हम सभी हिंदुओं का लक्ष्य यह होना चाहिए कि हम अपने राम को आज़ाद करवाएं और उनके जन्मस्थान पर बनाई गई मस्जिद को तोड़ कर वहाँ फिर से राम का मन्दिर बनाएं। 

इसी के साथ आरएसएस ने हिंदू शब्द की परिभाषा भी गढ़नी शुरू कर दी। राम कृष्ण को अवतार मानने वाले तथा मूर्तिपूजा को मानने वाले को हिंदू कहना रूढ़ कर दिया। इनकी परिभाषा के मुताबिक़ आर्यसमाजी जो अवतारवाद या मूर्ति पूजा के विरोधी रहे हैं, वे भी हिंदू नहीं हैं। यह अलग बात है कि अब आर्य समाजी पूरी तरह आरएसएस की गोद में बैठे हुए हैं और जोर-शोर से राम मन्दिर निर्माण में सहयोगी बने हुए हैं। 

हिंदू पहचान को इतना शक्तिशाली बनाया गया कि भारत की सभी जातियों के शोषित वर्ग के लोग अपनी हालत को पहचान कर उसे बदलने की बजाय शोषक वर्ग के उछाले गए नकली धार्मिक मुद्दे की चपेट में आ गया। हिंदू पहचान और दूसरे धर्म के लोगों को अपना शत्रु मानने को भारत का मुख्य राजनैतिक मुद्दा बनाने में आरएसएस ने पूरी तरह सफलता पा ली।

लेकिन जब कोई तर्क के आधार पर यह मुद्दा उठाता है कि हिंदू तो कोई धर्म ही नहीं है। भारत के किसी धर्मग्रन्थ में हिंदू शब्द का कोई ज़िक्र ही नहीं है। तब आरएसएस खुद के धर्म को सनातन धर्म कहने लगता है। इस तरह आरएसएस चालाकी से हिंदू जो कि एक नकली पहचान है, उसे तुरंत सनातन में बदल देता है। 

हिंदू पहचान नकली पहचान इसलिए है क्योंकि भारत में कोई एक धर्म कभी नहीं था। भारत में अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग स्थानीय देवी देवता पूजा पद्धातियाँ मौजूद थे तथा इनमें से कोई भी खुद को हिंदू नहीं कहता था। हिंदू एक कृत्रिम रूप से बनाई गई पहचान है। वहीं सनातन शब्द ना तो ब्राह्मणों का दिया हुआ है ना ही यह वैदिक शब्द है। 

असल में सनातन बुद्ध का दिया हुआ शब्द है। बुद्ध कहते हैं–

नहीं वेरेन वेरानि सम्मंतीध कुदाचनं
अविरेन च संमंति एस धम्मो सनन्तनो 

अर्थात वैर से वैर नहीं मिटता, मित्रता से वैर मिटता है यही सनातन धर्म है। सनातन का अर्थ है जो सदा से था और जो सदा रहेगा।

इस परिभाषा के मुताबिक़ भारत में पहले मूर्तिपूजा नहीं थी, अवतार वाद भी नहीं था। बुद्ध से पहले भारत में किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती थी। 

आरएसएस बड़ी होशियारी से वैदिक ब्राह्मणी धर्म को भारत का एकमात्र धर्म घोषित कर देता है और उसे ही सनातन बोलता है। लेकिन भारत के सनातन विचार में बौद्ध दर्शन भी है, जहां ना ईश्वर है ना आत्मा है ना पुनर्जन्म है। इसी तरह सनातन परंपरा में जैन दर्शन भी शामिल है, जिसमें पुनर्जन्म आत्मा और ईश्वर नहीं है। भारत में विचार परंपरा में नास्तिक दर्शन है, जिसे चार्वाक या लोकायत परंपरा भी कहते हैं, जो ईश्वर को नहीं मानता। 

इसके अलावा भारत में षडदर्शन है, जिसमें सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक मीमांसा और वेदान्त शामिल हैं। इन्हें वैदिक दर्शन माना गया है और ब्राह्मणी परंपरा का आधार हैं।

आरएसएस ने भारत की विचार परंपरा का अपहरण किया है और हिंदू के नाम पर बनावटी धर्म का निर्माण किया है, जो दूसरे धर्म व विचारों से नफरत करने, हिंसा करने और राजनैतिक सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए किया गया है।

कहा जा सकता है कि अगर आरएसएस को वैचारिक तौर पर बेनकाब करना है तो उससे भारत की विचार परंपरा के आधार पर लड़ा जा सकता है। भारत की जनता धर्म छोड़ कर नास्तिक नहीं बन सकती। लेकिन जनता को असल धर्म विचार समझाकर आरएसएस के नकली हिंसक धर्म से मुक्त कराया जाना ज़रूरी है। धर्म का अर्थ दूसरे धर्म व विचार मानने वालों से नफरत करना नहीं हो सकता। 

इसलिए आरएसएस से सनातन शब्द छीन कर हिंदू शब्द के बनावटीपन की पोल खोल कर धर्म व विचार को नफरत और हिंसा से आज़ाद करके आरएसएस के पैरों के नीचे से ज़मीन सरकाई जा सकती है। इसकी वजह बेहद साफ है कि नास्तिकता अथवा धर्महीनता के आधार पर आरएसएस का मुकाबला नहीं किया जा सकता और आरएसएस के रहते भारत में जाति और नफरत को समाप्त कर समतामूलक प्रेमपूर्ण समाज नहीं बनाया जा सकता क्योंकि आरएसएस वर्चस्ववाद का पोषक है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

हिमांशु कुमार

हिमांशु कुमार प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता है। वे लंबे समय तक छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के जल जंगल जमीन के मुद्दे पर काम करते रहे हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में आदिवासियों के मुद्दे पर लिखी गई पुस्तक ‘विकास आदिवासी और हिंसा’ शामिल है।

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