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वर्ण, धर्म, जाति और सियासत

बाबा नानक की बाणी और समानता का उनका फलसफा गुरु गोविद सिंह के काल में एक समाज में तब्दील हुआ, जिसमें जाति-पाति का कोई स्थान नहीं था और जिसमें मर्द और औरत बराबर थे। यह फलसफा सियासत को धर्म का इस्तेमाल करने से रोकता है। परंतु, सिक्ख समुदाय के अन्दर जातियों पर आधारित डेरों का उभारना, पंथ में सियासत की घुसपैठ की ओर इंगित करता है। पढ़ें, रौनकी राम का यह आलेख

[यह लेख इंसान को इंसान ना मानने वाले जातपात के सामाजिक बंधनों के हजारों वर्षों (तीस से ज्यादा सदियों) के इतिहास पर केन्द्रित है। इसमें बताया गया है कि कैसे धर्म ने सियासत का और सियासत ने धर्म का इस्तेमाल किया। पहले वर्ण बने और फिर विभिन्न जातियां बनीं। इसमें तेरह सौ वर्ष लग गए। धर्मशास्त्रों का साफ़ कहना है कि जो भी अपने हाथ से श्रम करता है, वह शूद्र है। जातपात की सामाजिक बुराई आज भी हमारे समाज में मौजूद है]

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में धर्म का अहम स्थान है। धर्म के साथ जाति और सियासत का जुड़ाव इसे समझने में कठिनाई पैदा करता है। असल में जाति और धर्म आपस में इस तरह जुड़े हुए हैं कि सामान्य अर्थ में वे एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं। धर्म का संबंध मनुष्य के जीवन जीने के तरीके से ना जोड़कर उसके सामाजिक स्तर और उसकी दुनियावी हैसियत के साथ जोड़ा जाता है। धर्म और जाति मिल कर सियासत को जिस तरह प्रभावित करते हैं, उसे देखकर यह निर्णय करना मुश्किल हो जाता है कि धर्म और जाति, सियासत का धर्मिकरण / जातिकरण करते हैं या फिर सियासत, धर्म और जाति का राजनीतिकरण करती है। धर्म और जाति के उपासक अपनी अंदरूनी कमजोरियों को अक्सर सियासत के सिर मढ़ते हैं और सियासतदान यह कहते नहीं थकते कि धर्म और जाति एक दानव की तरह उनकी राह में रोड़े अटकाती है। धर्म, जाति और सियासत को अगर-अलग समझने की कोशिश किसी ठोस नतीजे पर पहुँचने में मददगार साबित नहीं होती क्योंकि इन तीनों का आपस में इस तरह घालमेल हो चुका है कि इन्हें अलग-अलग समझने पर इनके असली स्वरूप को हम समझ ही नहीं पाते। (कोठारी 1985)

 

हर धर्म और जाति की अलग-अलग पहचान, विचार और जीवनशैली होती है। और उनमें से हर एक अपना महिमामंडन करती है। अध्येता अक्सर अकसर धर्मो और जातियों को समाज की अलग-अलग इकाईयां मान कर इनका विश्लेषण करते हैं। असल में सियासत अकेले सियासतदान ही नहीं करते। यह केवल उनका व्यवसाय नहीं है। सियासत का इस्तेमाल तो जाति और धर्म के अनुयायी भी अपने-अपने तरीके से जाने-अनजाने अपनी हैसियत बरक़रार रखने के लिए करते हैं। यह स्थिति समाज में धर्म और जाति के तानेबाने को उलझाकर रखने के कारण पैदा होती है क्योंकि जाति, धर्म के साथ जुड़ कर केवल मनुष्य की पहचान ही नहीं बनाती बल्कि वह उसके सामाजिक रुतबे की निशानदेही भी करती है। दर्जावार रुतबे को बनाये रखने के लिए या फिर निचले स्तर पर धकेल दिए गए मनुष्यों के अन्यायपूर्ण और निम्न रुतबे के विरोध में संघर्ष ऐसे संगटनों को पैदा करते हैं जिनका मुख्य काम सियासत करना होता है। ऐसे हालात में क्या धर्म, सियासत को किसी विशिष्ट दिशा में धकेलता है या जाति, धर्म का अपने हित के लिए इस्तेमाल करती है? इन सवालों का जवाब पाना मुश्किल है। धर्म सियासत को प्रभावित करता है या फिर सियासत धर्म को प्रभावित करती है इस बारे में किसी ठोस निश्च्कर्ष पर पहुंचना कठिन है। 

धर्म, जाति और सियासत के आपसी संबंधों को समझने से पहले धर्म और जाति की समझ बनानी जरुरी है। पहले हम धर्म को समझने की कोशिश करते हैं। जाति और सियासत के साथ धर्म के नाते को हम उसके बाद परखेंगे। परंतु, यहां एक और नुक्ता विचारणीय है जिसका संबंध ‘वर्ण’ से है। धर्म से पहले वर्ण है, ऐसा धर्मशास्त्रों में वर्णित है। धर्मशास्त्र, धर्म का स्त्रोत्र मूलरूप से वेदों में स्थापित करते हैं। वेदों का रचनाकाल 3,500 ईसा पूर्व से 1,500 ईसा पूर्व के बीच का माना जाता है। इसी कालखंड में आर्यों का भारत में आगमन भी हुआ था। वर्ण और जाति के अस्तित्व में आने में तक़रीबन 1,300 वर्षों का फर्क माना जाता है। वर्ण व्यवस्था के जाति व्यवस्था में तब्दील होने के लंबे सफ़र में ही सियासत के पैदा होने की जटिल गाथा छिपी है। इसलिए सियासत को समझने के लिए धर्म और वर्ण की समझ आवश्यक है। यही समझ हमें जाति की जटिल बनावट और सियासत के साथ उसके गहरे अंतर्संबंधों का आलोचनात्मक विश्लेषण करने में सहायक होगी। (अलटेकर 1962; बंदोपाध्याय, 1927)

वर्ण और धर्म

वर्ण और धर्म को समझने के लिए हम धर्मशास्त्रों की मदद लेंगे। धर्मशास्त्र ज्ञान के दो अलग-अलग स्रोतों के संगम से बने हैं– धर्मसूत्र और स्मृति। ‘सूत्र’ का अर्थ है किसी वस्तु या विचार के बारे में ज्ञान को कम शब्दों में व्यक्त करना। इस विधि को भी सूत्र ही कहा जाता है। यह माना जाता है कि वेदों का लिखित स्वरुप उनके अस्तित्व में आने के बहुत समय बाद समाज के सामने आया। उसके पहले वेदों को मौखिक रूप में स्मृतियों में सहेजा गया। जाहिर है कि वेदों को पूर्ण तौर पर उनकी जटिल व्याख्या सहित याद रखना बहुत कठिन काम था, जिस कारण उन्हें सूत्रों के रूप में कंठस्थ किया जाता था। वेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि नाम इसी कारण से पड़े। इसलिए वेद की व्याख्या सूत्रों के रूप में की जाती है। इससे ही सूत्र साहित्य का जन्म हुआ। (अधिक जानकारी के लिए देखें: घोशाल 1959)

हिंदू धर्म के नियमों का उल्लेख वेदों में तरतीब से नहीं मिलता। परंतु इन नियमों का मूल स्रोत वेद ही हैं। धर्मशास्त्रों में विवाह, पुत्रों के विभिन्न रूपों और विरासत संबंधित नियमों के बारे में जो जानकारी दी गई है वह वैदिक साहित्य पर ही आधारित है। धर्मसूत्रों के मुख्य रचनाकार गौतम, अपसतम्ब, वशिष्ठ, मनु, याज्ञवल्क्य सहित अन्य अनेक स्मृतिकार सहमत हैं कि वेद ही धर्म का असली स्रोत हैं (याज्ञवल्क्य उन वैदिक विद्वानों में से हैं जिन्हें यजुर्वेद का रचयिता माना जाता है)। धर्मसूत्र और स्मृतियों दोनों सूत्रों के रूप में हैं। धर्मसूत्रों में मुख्यतः टीकाएँ संकलित हैं जबकि स्मृतियां में टीकाएं तथा पद्य दोनों हैं। धर्मसूत्र और स्मृतियां प्राचीन भाषा में हैं। धर्मसूत्रों की भाषा स्मृतियों से ज्यादा पुरातन है। स्मृतियों के मुकाबले, धर्मसूत्रों में विषयवस्तु को तरतीब से प्रस्तुत करने और निरीक्षण विधि को कम तवज्जो दी गयी है। उल्लेखनीय है कि धर्मसूत्रों के लेखक, खास तौर से प्रमुख लेखक, अपने आप को धार्मिक व्यक्ति या महान संत के रूप में प्रस्तुत नहीं करते। जबकि स्मृतिकार, खासकर मनु और याज्ञवल्क्य, स्मृतियों को ‘ईश्वरीय ज्ञान’ मानते हैं। यही ईश्वरीय ज्ञान सियासत का मुखौटा है। इसके जरिए समाज की एकतरफा बंटवारे को वाजिब ठहराया गया है। (बनर्जी 1980) स्मृतियों धर्मसूत्रों के बाद आईं। बेशक स्मृतियां प्राचीन हैं परन्तु इन्हें दो भागों में बांटकर इनका अध्ययन करने से हम इनके बारे में बेहतर तरीके से जान सकेंगे। हम उन्हें बड़े दायरे में भी देख सकते हैं और छोटे दायरे में भी। बड़े दायरे में स्मृतियां में वेदों को छोड़कर संपूर्ण प्राचीन साहित्य शामिल है जैसे कि कल्प और याज्ञवल्क्य की कृतियाँ। सीमित दायरे में स्मृतियों को, जैसे कि मनु मानते हैं, धर्मसूत्रों का पूरक माना जाता है। गौतम और वशिष्ठ ऋषि भी स्मृतियों को धर्म के विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। इस दृष्टिकोण से धर्मसूत्रों और स्मृतियों के बीच का फर्क ख़त्म हो जाता है। ऋषि गौतम, जो कि धर्मसूत्रों के प्रमुख और आरंभिक लेखकों में से एक हैं, स्वयं को धर्मसूत्रकार और मनु को स्मृतिकार बताते हैं। ऋषि वशिष्ठ भी अपने आप को गौतम, प्रजापति, यम, हरिता और मनु के साथ स्मृतिकार मानते हैं। धर्मंसूत्रों और स्मृतियों के अलावा पुराणों में भी धर्म की चर्चा है। पुराण भी काफी पहले अस्तित्व में आये थे, जिनका हवाला चंडोक उपनिषद और गौतम धर्मसूत्र में मिलता है। बहुत से विद्वानों का विचार है कि बौद्ध और जैन मत की समाज पर पकड़ ढीली पड़ने और ब्राह्मणवाद के पुनरुथान के बाद पुराण काफी लोकप्रिय हुए। पुराणों की संख्या अठारह बताई जाती है, जिनमे मत्स्यपुराण में धर्म के बारे में काफी चर्चा मिलती है, खासकर श्राद्ध, व्रत और राजधर्म से संबंधित रीतिरिवाजों के बारे में। पुराणों में अलग-अलग वर्णाश्रम, नित्य और नैमित्तिक (खास अवसरों पर किये जाने वाले) कर्मकांडों के बारे में चर्चा मिलती है। जहां तक धर्म की व्याख्या का सवाल है, मनुस्मृति के बाद अगर किसी और ग्रंथ का जिक्र आता है तो वह है याज्ञवल्क्य की स्मृति। वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य को महान दार्शनिक के तौर पर पेश किया गया है, जिन्होंने अपनी पत्नी मैत्रेयी को ईश्वर और अनैतिकता से सम्बंधित सिद्धांतों की शिक्षा दी। (बनर्जी 1980)

उपरोक्त स्रोतों में धर्म की व्याख्या के आधार पर, मनुस्मृति के प्रमुख व्याख्याकार विद्वान धर्म को पांच भागों में बांटते हैं। ये पांच भाग हैं– वर्णधर्म (चार वर्णों से संबंधित– ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र), आश्रमधर्म (चार आश्रम– ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास), वर्णाश्रम धर्म (विभिन्न जातियों के जीवन के अलग-अलग आश्रमों के दौरान कर्तव्य), नैमित्तिक धर्म (खास अवसरों पर जीवन से संबंधित बेहद जरुरी कर्तव्य जैसे कि तपस्या आदि) और गुण धर्म (जैसे कि राजा के अपनी जनता के पालन संबंधी कर्तव्य)। इस वर्गीकरण के अनुसार धर्म का नाता वर्ण और जाति व्यवस्था के अनुरूप, विभिन्न आश्रमों में कर्तव्यों से है। हर जाति के और जीवन के हर पड़ाव के कर्तव्य निर्धारित हैं। ये कर्तव्य जाति पर आधारित हैं। हर जाति के सामाजिक दर्जे के आधार पर ही उसके कर्तव्य निर्धारित किये गए हैं। इस तरह निर्धारित कर्तव्यों का पालन ही धर्म माना जाता है। धर्म का संबंध प्रभु की भक्ति या उससे संबंधित दर्शन से न होकर किसको भक्ति करने की इजाजत है या नहीं है, के साथ माना जाता है। दूसरे शब्दों में धर्म को नियमों का अनुपालन करने का पूरक माना जाता है।

इस विचार को कबीर इस तरह अभिव्यक्त करते है–

बेद की पुत्री सिम्रिति भाई || सांकल जेवरी लै है आई || 1 ||
आपन नगरु आप ते बाधिआ || मोह कै फाधि काल सरू सांधिआ ||1|| रहाऊ ||
कटी न कटै तूटि नह जाई || सा सापनि होइ जग को खाई || 2 ||
हम देखत जिनि सभु जग लुटिआ || कहु कबीर मैं राम कहि छुटिआ || (गुरुग्रंथ साहिब, पृष्ठ 327) 

यहाँ कबीर वेदों पर आधारित स्मृतियों को वर्णाश्रम और कर्मकांड की जंजीरों में जकड़ा हुआ बताते हैं। स्मृतियों को माननेवाले इनके नियमों से छुटकारा नहीं पा सकते। कबीर स्मृतियों की तुलना नागिन से करते हैं जो अपने बच्चों को भी खा जाती है। ठीक उसी तरह इन स्मृतियों के नियम इन्हें मानने वालों की बुद्धि को भ्रष्ट (मलिन) कर देते हैं। इस बाणी से यह समझ में आता है कि स्मृतियों का नाता मनुष्य के सामाजिक जीवन और वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित संरचना से है, जिसका आत्मिक ज्ञान से दूर-दूर तक का भी रिश्ता नहीं है। गुरु अर्जुन देव भी अपनी बाणी में स्मृतियों के संबंध में लिखते हैं–

 सिम्रति बेद पुराण पुकारनि पोथीआ ||
नाम बिना सभि कूडू गाहली होछीआ || 1 || (गुरुग्रंथ साहिब, पृष्ठ 761)

जो मनुष्य वेद, पुराण, स्मृति आदि धार्मिक पुस्तकें पढ़ कर और आत्मिक ज्ञान को एक तरफ रखकर कर्मकांड आदि का प्रचार करते हैं, वे बेसिरपैर की बातें करते हैं। परमात्मा के नाम के सिवाय यह सब प्रचार झूठ का आडंबर है। 

इसी तरह गुरु अमरदास अपनी बाणी में कहते हैं-

 पड़ि पड़ि पंडित जोतकी थके भेखी भरमि भुलाए ||
गुरु भेटे सहजु पाइआ आपणी किरपा करे रजाइ || 1 || (गुरुग्रंथ साहिब, पृष्ठ 68)

भावार्थ यह कि क्या पंडित, ज्योतिषी और अलग-अलग वेश धारण करनेवाले साधु, शास्त्र आदि धार्मिक पुस्तकों को पढ़कर गलत मार्ग पर चल रहे हैं जिससे वे सहज अवस्था नहीं प्राप्त कर पाते? जिन पर परमात्मा अपनी कृपा करता है, वे ही गुरु के जरिये सहज अवस्था और सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। वे आगे लिखते हैं–

पड़ि पड़ि पंडित मोनी थके चऊथे पद की सार न पावणिआ || 5 ||
आपे रंगे रंगु चड़ाए || (गुरुग्रन्थ साहिब, पृष्ठ 117)

अर्थात पंडित और विद्वान वेद आदि धार्मिक पुस्तकों को पढ़कर थक जाते हैं परंतु उन्हें आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं होती। वर्ण, जाति और धर्म की गाँठ को सुलझाते हुए बाबा नानक सभी में प्रभु की जोत का अस्तित्त्व बताते हैं।

जाणहु जोति न पूछहु जाति आगै जाति न हे // 1// रहाऊ || (गुरुग्रंथ साहिब, पृष्ठ 347) 

यहां यह बताना जरुरी है कि धर्मशास्त्रों में वर्ण और जाति को एक-दूसरे के पूरक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जो कि जाति के बारे में सही समझ बनाने में बाधक है। जैसा कि हमने शुरू में जिक्र किया है वर्ण और जाति के अस्तित्व में आने में तक़रीबन 1,300 वर्षों का अंतर था। चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के कर्तव्यों का संबंध जन्म से ना होकर उनके पेशे से जुड़ा हुआ माना जाता था। परंतु वर्ण से लेकर जाति तक के लम्बे सफ़र के दौरान यह नाता कर्म से हटकर जन्म के साथ जुड़ गया। जन्म के साथ नाता जोड़ने के लिए धर्म का सहारा लिया गया। वेदों व धर्मशास्त्रों ने धर्म को समाज के विभिन्न तबकों द्वारा उनके कर्तव्यों के अनुपालन से जोड़ दिया। आगे चलकर, कर्तव्यों को सामाजिक रुतबे के साथ जोड़ दिया गया। कर्तव्य का संबंध कर्म से स्थापित कर दिया गया। इसके बाद कर्म को धर्म से जोड़ दिया गया और इससे सामाजिक जागरूकता के विकास में एक बड़ी बाधा खड़ी हो गई। मेरा मानना है कि यह सब सियासत के कारण हुआ है। इसलिए सियासत को समझने के लिए वर्ण, धर्म और जाति के आपसी संबंधों को समझना जरुरी हो जाता है।

धर्म और जाति के परस्पर संबंधों पर चर्चा करने से पहले यह समझना ज़रूरी है कि वर्ण, जाति में कैसे तब्दील हो गया। इस प्रक्रिया के दौरान समाज पर सियासत की पकड़ और मज़बूत हुई। वर्ण व्यवस्था के जाति की संस्था में परिवर्तन में पुरुष-प्रधान समाज, वर्गीय विभाजनों और राज्य की अहम भूमिका थी। जाति व्यवस्था पूरे भारत में एक ही समय में अस्तित्व में नहीं आई बल्कि अलग-अलग काल में देश के विभिन्न हिस्सों में यह अपने उद्भव के अलग-अलग चरणों में थी। मर्द-प्रधान समाज की नींव सगोत्र विवाह के सिद्धांत पर डाली गई। इसने वर्ण को जाति में तब्दील करने में अहम योगदान दिया। कारोबारी ज़रूरतों, दर्जावार सामाजिक रुतबे की बुनावट और महिलाओं पर अत्याचार आदि का भी जाति-आधारित समाज के निर्माण में योगदान रहा है। ये सभी कारक अलग-अलग कबीलों और उनमें विकसित हुई जातियों के सामाजिक रिश्तों की ओर भी इशारा करते हैं। हैरानी की बात यह है कि इक्कीसवीं सदी में भी यही कारक भारतीय समाज में विद्यमान हैं, जिस कारण जाति का बंधन ढीला पड़ता नजर नहीं आता।

गुरु नानक की एक पेंटिंग

कुछ विद्वानो का मानना है कि महिलाओं के शरीर में कुदरती तब्दीलियों को वैदिक पुरोहितवाद ने एक समस्या के तौर पर पेशकर महिलाओं को वैदिक रीति-रिवाजों से बाहर कर दिया। माहवारी को अशुद्ध करार देना, मर्द-प्रधान समाज से उभरा एक कुत्सित विचार है। पुरातन साहित्य बताता है कि अनेक भारतीय कबीले, जाति-आधारित समाज के साथ जुड़ने से पहले तक यह नहीं मानते थे कि माहवारी की वजह से औरत अशुद्ध हो जाती है। इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था के जाति में तब्दील होने के दौरान औरत का दर्जा पुरुष से नीचा हो गया। इसलिए यह कहना तर्कसंगत होगा कि महिलाओं को दोयम दर्जा प्रदान करने में जातिवादी सामाजिक व्यवस्था का सीधा हाथ है। डॉ. आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में अपने पहले शोध प्रबंध “कास्ट्स इन इंडिया: देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट” में इसका उल्लेख किया है। उनका मानना है कि महिलाओं के प्रति इस दृष्टिकोण को समझने के लिए सगोत्र विवाह और वर्ण से बाहर विवाह के सिद्धांतों को समझना बेहद जरुरी है। इस शोध प्रबंध के अनुसार, मर्द-प्रधान समाज और महिलाओं के दमन ने जाति-आधारित समाज को आकार देने में अहम भूमिका निभाई। (आंबेडकर 1917)

सगोत्र विवाह

जहां तक गोत्र से बाहर विवाह के सिद्धांत का सवाल है, इस बारे में समाज विज्ञानियों में काफी मतभेद हैं। एस. बी. करंदीकर (1950), इराबती कार्बे (1966) और जी. एस. घुर्ये (1972) कहते हैं कि भारत में आने से पूर्व आर्य गोत्र से बाहर विवाह के सिद्धांत से वाकिफ नहीं थे। उनको इसकी जानकारी यहां के मूलनिवासियों से हुई। (कोसंबी, 1956; हबीब 1995, हबीब 1985) इस विचार के उलट, बेनवेनिस्टे और जॉन ब्रौघहर्गुए जैसे जानेमाने विद्वानों का मानना है कि ऋग्वेद की रचना के दौरान ही सगोत्र विवाह का सिद्धांत प्रतिपादित हो चुका था। उनका यह भी मानना है कि गोत्र-सगोत्र विवाह के ब्राह्मणवादी सिद्धांत की शुरुआत भारतीय और इंडो-यूरोपियन (भारोपीय) कबीलों के परस्पर संपर्क में आने से हुई। कारण जो भी रहे हों, मर्द-प्रधान समाज, सगोत्र विवाह के सिद्धांत और औरतों की उत्पीडन ने जाति-आधारित समाज की बनावट में अहम योगदान दिया। हमें ऋग्वेद में इस परंपरा का संदर्भ मिलता है कि लड़की विवाह के उपरांत अपनी मां का घर त्यागकर ससुराल में निवास करती है। कुछ विद्वान् ‘जुन्ज’ (वर पक्ष की बारात) शब्द का संबंध ‘जन’ (रिश्तेदारों) से जोड़ते हैं। अथर्ववेद में जिक्र मिलता है कि वर का संबंध वधु के परिवार से भिन्न परिवार के साथ होता है। वर और वधु का संबंध अलग-अलग ‘जन’ से होता है। जन शब्द ‘जुन्ज’ से बना है और गोत्र से बाहर विवाह का प्रतीक है। इंडोलोजिस्ट हिस्टरमान का मानना है कि ‘जन मित्र’ से भाव है विवाह के संबंध से बना हुआ रिश्तेदार। इस नुक्ते को समेटते हुए हम यह कह सकते हैं कि सगोत्र विवाह और वर्ण से बाहर विवाह के सिद्धांत ने जहां औरत को मर्द से नीचा बना दिया वहीं उसने जाति प्रथा को मज़बूत करने में ठोस भूमिका निभाई। (जैसवाल जुलाई 1979 – जनवरी 1980) जैसा कि बाद के वैदिक स्रोतों से पता चलता है, पुरुष-प्रधान समाज ने वैदिक कबीलों को वर्णों और श्रेणियों में बांटने में अहम भूमिका निभाई। इस प्रक्रिया के अंतर्गत कुछ कबीलों को ऊंचा तो कुछ को नीचा दर्जा दिया गया। ऋग्वेद के काल में ‘राजन’ शब्द की व्यत्पुत्ति हुई जिसका उल्लेख ‘पुरुषसूक्त’ में मिलता है। उत्तर-वैदिक साहित्य के ब्राह्मण गंथों में ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच अंतर किया गया है। ब्राह्मणवादी रीति-रिवाजों, खासकर यज्ञोपवीत संस्कार, ने सामाजिक दूरी को कैसे बढ़ाया, इस बारे में रामशरण शर्मा कहते हैं कि इसने जाति प्रथा को और गहरा किया। वैदिक काल ने अंतिम दौर में वर्ण व्यवस्था अस्तित्व में आ चुकी थी। तब तक जाति की संस्था तीन मुख्य विशेषताओं से युक्त हो चुकी थी: यह थीं– (1) श्रेणीबद्ध असमानता (2) विरासत में मिले हुए काम में महारत और (3) सगोत्र विवाह। बौद्धायन धर्मसूत्र के अनुसार, ब्राह्मण कुल को विभिन्न उप-कुलों से सिलसिलेवार तरीके से उभरते दिखाया गया है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि क्षत्रिय का जन्म क्षत्रिय से, वैश्य का वैश्य से और शूद्र का शूद्र से होता है। वर्ण की जाति में तब्दीली का जिक्र ऋषि पतंजलि भी अपने ग्रंथ में करते हैं।

उपरोक्त चर्चा के आधार पर यह कहना तर्कसंगत होगा कि जाति-आधारित समाज की उत्पति, वर्णों के उप-विभाजन और समाज में नए कुलों और कबीलों के शामिल होने से हुई। इस विश्लेषण से यह भी साबित होता है कि वर्ण की जाति में तब्दीली के दौरान वर्ण व्यवस्था के संस्थागत और विचारधारात्मक आधारों को जाति-आधारित समाज के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया। कुछ विद्वानो का यह भी मानना है कि विभिन्न आर्य कबीलों में परस्पर टकराव, आर्यों और मूल बाशिंदों के बीच युद्धों तथा मूल रहवासियों को अपने अधीन करने के आर्यों के प्रयासों ने भी जाति-आधारित समाज के निर्माण में भूमिका निभाई। वैदिक काल के अंतिम दौर में वर्ण व्यवस्था ने अपना लचीलापन खो दिया और वह अपरिवर्तनीय पदक्रम पर आधारित व्यवस्था में तब्दील हो गई। जाति व्यवस्था के नियमों का लेख करते हुए ऋषि पतंजलि कहते हैं कि धातु के जो बर्तन अनिर्वासित शूद्र (गंडक, शाक, यवन आदि) इस्तेमाल करते थे, उन्हें आग में डालकर शुद्ध किया जा सकता है। परन्तु अगर ये बर्तन निर्वासित शूद्रों (जैसे कि चांडाल और मरतपा), जो शवों को श्मशान तक पहुंचाते हैं और मनुष्यों के कपडे धोते हैं, द्वारा इस्तेमाल किए जाते हों तो इस प्रक्रिया द्वारा भी उन्हें शुद्ध नहीं किया जा सकता। (जैसवाल 2000) शूद्रों के सामाजिक दर्जे से सम्बंधित विस्तृत नियमों का उल्लेख बाद के साहित्य में मिलता है। 

दैवीय सिद्धांत

कट्टर ब्राह्मणों की नजर में वे सभी, जो ब्राह्मण नहीं हैं और हाशिये पर धकेल दिए गए हैं, शू्द्रों में शामिल हैं। उनका मानना है कि किसी व्यक्ति की जाति ही यह तय करती है कि वह क्या काम करेगा और उसका सामाजिक दर्जा क्या होगा। वर्ण को जाति में तब्दील करने के लिए दैवीय सिद्धांत का उपयोग किया गया। चार वर्णों और अनगिनत जातियों में समाज के विभाजन और बहुसंख्यक हिन्दुओं जे मानवाधिकारों के हनन को सही ठहराने के लिए दैवीय सिद्धांत का उपयोग, राजनैतिक चालबाजी के अतिरिक्त कुछ नहीं था। यह घोषित कर दिया गया कि किसी व्यक्ति का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र श्रेणियों में जन्म ईश्वर की इच्छा होती है। यह इसलिए किया गया ताकि अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को स्थायी बनाया जा सके। इसके पीछे सियासत थी और इसका उद्देश्य बहुसंख्यक शूद्रों के श्रम पर तीनों उच्च वर्णों के लोगों का मौज-मज़ा करना संभव बनाना था। दैवीय सिद्धांत का एक अन्य उद्देश्य शूद्रों को यह समझाना था कि उनका जन्म ही सेवा करने के लिए हुआ है और अपनी सेवा के द्वारा वे अपने पूर्व जन्म के पापों का परिमार्जन कर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति पा सकते हैं। वर्ण-व्यवस्था के आलोचनात्मक अध्ययन से यह साफ़ हो जायेगा कि सामाजिक पदक्रम को ईश्वर की इच्छा से जोड़ कर न केवल इसके मूलतः अन्यायपूर्ण चरित्र को छुपाने का प्रयास किया गया वरन यह दिखाने की कोशिश भी की गई कि इस व्यवस्था में ही समाज का व्यापक हित निहित है। वर्ण व्यवस्था के समर्थक अक्सर यह तर्क देते हैं कि इससे लोग विभिन्न काम-धंधों में विशेषज्ञता हासिल कर लेते हैं जिससे अंततः समाज में समृद्धि आती है। यह भी कहा जाता है कि जाति प्रथा, वर्ण व्यवस्था का बिगड़ा हुआ स्वरुप है और अगर इसमें से घृणा के तत्त्व को निकाल दिया जाए तो जाति व्यवस्था समाज कल्याण का एक सृजनात्मक औज़ार बन सकती है। परंतु ऐसा होता नजर नहीं आता। अगर वेदों का काल 1,500 ईसा पूर्व मान लिया जाय तो अब तक तक़रीबन पौने चार हजार साल का समय बीत चुका है और इतनी लम्बी अवधि गुजरने के बाद भी गैरबराबरी के खात्मे का कोई संकेत कहीं नजर नहीं आता। 

वर्ण व्यवस्था से जाति तक का सफ़र धर्म के कंधे पर चढ़कर पूरा किया गया मालूम होता है। धर्म का संबंध सिद्धांतों रीति-रिवाजों, नैतिकता, कर्तव्य और आचरण आदि के नियमों से होता है। धर्म को ऐसे नियमों और सिद्धांतों के संग्रह के तौर पर पेश किया जाता रहा है, जो मानव के निजी हैसियत से और समाज और समुदाय के सदस्य बतौर आचरण का नियमन करते हैं। धर्म का दायरा इतना विस्तृत है कि वह मानव और मानव समाज की तमाम श्रेणियों की सभी गतिविधियों को अपने में समाहित कर लेता है। धर्म के नियमों का प्रयोग यह जानने के लिए भी किया जाता है कि क्या गलत है और क्या सही है। परन्तु धर्मशास्त्र, धर्म को केवल मनुष्यों के कर्तव्यों से जोड़ते हैं। धर्म केवल वर्ण व्यवस्था और जाति आधारित समाज को बनाये रखने का माध्यम बन गया है। धर्म का अनुपालन करने वाले व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि कि वह उसके लिए निर्धारित सीमओं को पार न करे और ये सीमाएं उसके वर्ण के साथ जुडी होतीं हैं। वर्ण और जाति की सीमा के उल्लंघन को धर्म विरुद्ध माना जाता है।  

किसका फायदा, किसका नुकसान

अब जो प्रमुख सवाल उठता है वह यह है कि धर्मशास्त्रीय विधानों के अनुपालन से किन लोगों को लाभ और किन्हें नुकसान है। वर्ण और जाति व्यवस्था निस्संदेह तीन उच्च वर्णों के हक़ में है। निम्नतम वर्ण, अर्थात शूद्रों के हिस्से में सिवाय दूसरों की सेवा करने और शोषित होने के अलावा कुछ भी नहीं आता। अगर ध्यान से पता लगाया जाए कि ये शूद्र लोग कौन हैं, इनकी कितनी आबादी है और रोजमर्रा के जीवन में उनके क्या हालात हैं, तो उपरोक्त सवाल का जवाब हासिल करना मुश्किल नहीं है। शूद्र श्रेणी में उन सभी लोगों को शामिल किया जाता है जो हाथ से काम करते हैं। जहां तक तीनों उच्च वर्गों का संबंध है, वे शासक, शासक के सलाहकार, राज्य के रक्षण और वाणिज्य-व्यापार का काम करते हैं। शासन के अधिकारी और सलाहकार कलम का इस्तेमाल करते हैं और व्यपारी तराजू आदि का। परंतु वे उत्पादक नहीं होते। उत्पादन का कार्य तो शूद्र ही करते हैं। शूद्रों में से जिन लोगो का पारंपरिक काम मनुष्यों के मल-मूत्र और मरे हुए जानवरों को ठिकाने लगाना और साफ़-सफाई करना है उन्हें अतिशूद्र या फिर अछूत के नाम से पुकारा जाता है। ये वही लोग हैं जिन्हें भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों के रूप में अनुसूचित किया गया है। शूद्रों और अतिशूद्रों की जनसंख्या, कुल आबादी का 85 प्रतिशत मानी जाती है और तीन उच्च वर्णों से सम्बंधित लोगों की 15 प्रतिशत के आसपास। परन्तु 15 प्रतिशत लोगों की खातिर 85 प्रतिशत लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा को जो क्षति पहुंचाई गई है उस पर उंगली उठाना, धर्म को चुनौती देना माना जाता है। इन सभी मुद्दों का गहराई से अध्ययन करने पर धर्म, जाति और सियासत के परस्पर संबंध उजागर होते हैं। धर्मशास्त्र, धर्म का नाता नैतिकता के साथ ना जोड़कर केवल यह बताते हैं कि क्या ठीक है और क्या गलत है। और गलत और सही का फैसला पूर्व-निर्धारित नियमों के आधार पर किया जाता है। इन नियमों का अच्छे तरीके से अनुपालन करना उचित और सही माना जाता है और उल्लंघन करना गलत और बुरा। नैतिकता का संबंध नियमों से नहीं बल्कि सिद्धांतों से होता है। नियम हमें केवल यह बताते हैं कि क्या ठीक है और क्या गलत है, क्या किया जाना है और किस तरह से किया जाना है। नियम इन्सान को आज्ञाकारी बनाते हैं। सिद्धांत मनुष्य में रचनात्मकता और पवित्रता पैदा करते हैं। नियम मानव कर्तव्य को निर्धारित करने की बात करते हैं जबकि सिद्धांत जिम्मेवारी और आजादी की बात करते हैं। इसलिए सही मायनो में धर्म का संबंध सिद्धांतों से होना चाहिए ना कि नियमों से। डॉ. आंबेडकर का मानना है कि सिद्धांत गलत हो सकते हैं परंतु सिद्धांतों के तहत किया हुआ कर्म फलदायक हो सकता है। इसी तरह कोई नियम तो ठीक हो सकता है परन्तु उसके तहत किया गया कार्य गलत हो सकता है। नियम आज्ञाकारिता की अपेक्षा करते हैं। सिद्धांतों का संबंध मनुष्य की अंतरात्मा के साथ होता है और वे मनुष्य को सही और गलत की पहचान करने के लिए मजबूर करते हैं। धर्मशास्त्रों के नियम क्या गलत है और क्या सही है इसकी पहचान नहीं करवाते। वे तो वर्ण और जाति व्यवस्था के नियमों के पालन की बात करते हैं।

जब किसी धर्म का आंकलन, नियमों के नजरीये से होता है तो आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों से उसका संबंध नहीं रह जाता। धर्म का संबंध केवल क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसकी व्याख्या से जुड़ जाता है। उपरोक्त नियम वर्ण और जाति आधारित समाज की पैरवी करते हैं और अलग-अलग जातियों की सामाजिक और आर्थिक भूमिका का निर्धारण करते हैं। मिसाल के तौर पर मोची का बेटा मोची ही रहेगा और उसका सामाजिक दर्जा, जूते बनाने और उनकी मरम्मत करने के उसके विशिष्ट कर्तव्य से निर्धारित होगा। भेदभाव पर आधारित इस अंधनीति ने न केवल लोगों को उनके सामाजिक दर्जे के आधार पर बांट दिया है बल्कि उसके बंधुत्व के भाव – जो कि किसी समाज की रूह होता है – को बुरी तरह प्रभावित किया है। जातिवादी समाज में परोपकार के कार्य भी जाति विशेष तक ही सीमित रहते हैं। मिसाल के तौर पर अलग-अलग जातियां और समुदाय अपने अलग-अलग भवन बना कर उनमे अपने समुदाय के लोगों को सहूलियतें देते हैं। यह दस्तूर शहरों में जातियों के नाम पर निर्मित धर्मशालाओं और भवनों में देखा जा सकता है। इन हालातों से जो सियासत उपजती है वह समाज को जोड़ने की बजाए उसे बांटती और तोडती है। इस तरह, धर्म और सियासत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जातिगत समाज बहुत लम्बे समय से अपने अस्तित्व को धर्मग्रंथों में उल्लिखित नियमों के सहारे बरकरार रखता आ रहा है। ये नियम महज नियम ना रह कर धर्म का ही स्थान हासिल कर चुके हैं। इन नियमों द्वारा ही अछूत समाज को धार्मिक स्थानों में आने-जाने और प्रभु की भक्ति करने से रोका जाता है। यह अपने आप में विरोधाभास है कि अतिशूद्र, हिंदू समाज का अंग तो माने जाते हैं परंतु उन्हें अपने ही धर्म के धार्मिक कार्यों के शामिल नहीं होने दिया जाता। अछूत लोगों का इस्लाम, ईसाई और सिक्ख धर्म की तरफ झुकाव उनके उत्पीड़न का ही नतीजा है। अछूत लोगों के दूसरे धर्म अपनाने से जातिवादी राजनीति और भी गहरी हो जाती है। जातिगत तनाव, सांप्रदायिक तनाव का रूप अख्तियार कर लेते हैं। लव जिहाद आदि इसी के परिणाम हैं। 

वर्ण और जाति व्यवस्था से पैदा हुई सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अलग-अलग समय में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक लहरें उठतीं रहती हैं। ऐसी बहुत सी लहरों का संबंध अति शूद्र जातियों के साथ रहा है। इन सभी लहरों में से भक्ति लहर का योगदान अहम है। भक्ति लहर सातवीं सदी में दक्षिण से शुरू हुई और पंद्रहवीं सदी में उसने उत्तर भारत में बहुत ही प्रभावशाली रूप अख्तियार कर लिया। कबीर और रविदास मानव को जातिपाति से निजात दिला कर उन्हें वास्तविक आध्यात्मिक धर्म का पाठ पढ़ाते हैं। असल में भक्ति लहर, धर्मशास्त्रों पर आधारित धर्म और उससे उपजी सियासत के प्रतिरोध से पैदा हुई थी। गुरु साहिबान का सिक्ख फलसफा भी जाति से मुक्त और मैत्री भाव से भरपूर समाज के निर्माण की तरफ ठोस कदम था। गुरु साहिबान का फलसफा महज फलसफा ना रहकर एक नए समाज की स्थापना करता है, जिसकी नींव बाबा नानक ने करतारपुर में डाली थी। बाबा नानक की बाणी “नीचा अन्दर नीच जाति नीची हु अति नीच || नानकु तिन कै संगि साथि वडियां सिओ किया रीस || जिथै नीच समालीअनि तिथै नदरि तेरी बखसीस”, जाति-आधारित समाज की असलीयत को उजागर करती है। बाबा नानक ने अपनी बाणी में ईश्वर की प्राप्ति का रास्ता पूजा-पाठ की बजाय सदियों से दबे-कुचले समाज के बड़े समूह को गले लगाने से निकलता दर्शाया है। “जिथै नीच समालीअनि तिथै नदरि तेरी बखसीस”, यह पंक्ति उनकी शिक्षाओं की परिपक्वता को दर्शाती है। बाबा नानक की बाणी और समानता का उनका फलसफा गुरु गोविद सिंह के काल में एक समाज में तब्दील हुआ जिसमें जातिपाति का कोई स्थान नहीं था और जिसमें मर्द और औरत बराबर थे। यह फलसफा सियासत को धर्म का इस्तेमाल करने से रोकता है। सिक्ख समुदाय के अन्दर जातियों पर आधारित डेरों का उभारना, पंथ में सियासत की घुसपैठ की ओर इंगित करता है। सियासत धर्म के असली स्वरुप को सामने ही नहीं आने देती। अगर धर्म में ऐसी कोई बुराई है जिससे सियासत को हवा मिलती है तो उसमे उपजी सियासत और वह धर्म दोनों विनाशकारी हो जाते हैं। इसलिए वर्ण, धर्म, जाति और सियासत के आपसी संबंधों को समझकर इस बारे किसी निष्पक्ष निष्कर्ष पर पहुंचना काफी जटिल काम है। यह लेख इस दिशा में एक छोटा सी कोशिश है। इस मसले की संपूर्ण पड़ताल के लिए अधिक गहरे और व्यापक अध्ययन की ज़रुरत है। 

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(मूल पंजाबी से हिंदी अनुवाद : डॉ. गुरप्रीत सिंह भामरा, संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

रौनकी राम

रौनकी राम पंजाब विश्वविद्यालय,चंडीगढ़ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं। उनके द्वारा रचित और संपादित पुस्तकों में ‘दलित पहचान, मुक्ति, अतेय शक्तिकरण’, (दलित आइडेंटिटी, इमॅनिशिपेशन एंड ऍमपॉवरमेंट, पटियाला, पंजाब विश्वविद्यालय पब्लिकेशन ब्यूरो, 2012), ‘दलित चेतना : सरोत ते साररूप’ (दलित कॉन्सशनेस : सोर्सेए एंड फॉर्म; चंडीगढ़, लोकगीत प्रकाशन, 2010) और ‘ग्लोबलाइजेशन एंड द पॉलिटिक्स ऑफ आइडेंटिटी इन इंडिया’, दिल्ली, पियर्सन लॉंगमैन, 2008, (भूपिंदर बरार और आशुतोष कुमार के साथ सह संपादन) शामिल हैं।

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