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बहस तलब : खुली आंखों से देखें भूख-गरीबी और क्रूरता की राजनीति

भारत के नौजवान को बदलाव से विमुख करने के लिए ही गर्व की राजनीति आरएसएस के गिरोह द्वारा इस देश पर थोपी गई है ताकि भारत का नौजवान देश में फैले अन्याय की तरफ ध्यान ना दे और वह धार्मिक और जातीय श्रेष्ठता के नशे में डूब जाय। इस राजनीति का दूसरा हिस्सा है घृणा की राजनीति। इसमें जहां देश के युवाओं पर फर्ज़ी गर्व थोपा गया है। पढ़ें, हिमांशु कुमार का यह आलेख

सामाजिक न्याय क्या है? सामाजिक न्याय का संबंध महज़ जातिवाद से आज़ादी पाना नहीं है। सामाजिक अन्याय एक व्यापक तौर पर मौजूद परिस्थितियां हैं, जो जीवन के हर कदम पर हैं। सामाजिक अन्याय को समग्र रूप से पहचानने और उसे चुनौती देने की ज़रूरत है।

सामाजिक अन्याय को पहचानना हो तो देखिये कि देश में अमीर कौन लोग हैं और गरीब कौन लोग हैं। झुग्गियों में रहने वाले लोगों की जाति क्या है और बंगलों में रहने वाले लोगों की जातियां क्या हैं। जेलों में बंद लोगों की जाति और धर्म कौन सा है? पागलखानों में कौन लोग हैं? मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में पढने वालों की कौन सी जाति है? देश में कंपनियों के सीईओ किन जातियों के लोग हैं? विश्वविद्यालयों के कुलपतियों में दलित-आदिवासी कितने हैं? जजों में दलित-आदिवासी कितने हैं?  

लेकिन जो सबसे भयानक है, वह यह जानना है कि देश में भूखा कौन है? जी हां, आपका अंदाज़ा बिलकुल सही है। देश में आदिवासियों, दलितों और महिलाएं भुखमरी की शिकार हैं। इसका पता इस बात से चलता है कि इनकी कुपोषण की हालत क्या है?  

वैश्विक पोषण रपट के मुताबिक भारत का हर तीसरा बच्चा और हर दूसरी महिला खून की कमी का शिकार है। इसका अर्थ है कि भारत की महिलाएं भयानक भेदभाव और पोषण की कमी से जूझ रही हैं। अगर बात की जाय कि किस समुदाय और किस जाति की महिलाएं और बच्चे भूख और कुपोषण का शिकार हैं, तो निश्चित तौर पर इसका जवाब यही कि ये सदियों से वंचित रखे गये समुदायों के हैं। एक वाल यह भी कि आप अगर भारत में घूमने निकल जाएं तो आपको भूख और कुपोषण कहां देखने को मिलेगा?

यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, कुपोषण की पहचान के तीन मुख्य लक्षण हैं– नाटापन, निर्बलता और कम वजन, जिसके आधार पर कुपोषण के स्तर की पहचान की जाती है।

  • यदि किसी बच्चे का कद उसकी आयु के अनुपात में कम रह जाता है, तो उसे नाटापन कहते हैं।
  • यदि किसी बच्चे का वजन उसके कद के अनुपात में कम होता है, तो उसे निर्बलता कहा जाता है।
  • वहीं यदि आयु के अनुपात में कम वजन वाले बच्चों को कम वजन का कहा जाता है।

तो आपको भूख और कुपोषण मिलेगा दलित बस्तियों में, आदिवासियों के गावों में, दलित मुस्लिम बस्तियों में। क्या हमें आज़ादी के चौहत्तर साल बाद यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि आखिर भारत के दलित, आदिवासी, पिछड़े मुसलमान और महिलाएं भूखी क्यों हैं? इनके हिस्से का खाना इन्हें क्यों नहीं मिल रहा?

ऐसा नहीं है कि भारत में अनाज की कमी है। सच्चाई तो यह है कि भारत आवश्यकता से अधिक उपज करनेवाला देश बहुत पहले ही बन गया था। 

तो सवाल यह उठता है कि फिर भी लोग भूखे क्यों हैं? क्यों भारत का हर तीसरा बच्चा और हर दूसरी महिला खून की कमी की शिकार है? और यह भी पूछा जाना चाहिए कि आखिर इनमें ज़्यादा अनुपात दलित आदिवासी का क्यों है?

नौजवानों को बदलाव से विमुख करने के लिए ही थोपी गयी है गर्व की राजनीति

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) की रिपोर्ट बताती है कि सबसे ज़्यादा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं। यह बताता है कि देश में पिछले सात दशक से लागू स्वतंत्र शासन में विकास और कल्याण की नीतियों का लाभ निचले स्तर के लोगों को नहीं मिला।

यह स्थिति साल-दर-साल सुधरने की जगह बिगड़ती ही जा रही है। सर्वेक्षण के मुताबिक–

  • अनुसूचित जनजातियों के बच्चों (पांच वर्ष से कम) के बीच 43.8 प्रतिशत अविकसित बच्चे हैं, 27.4 कमजोर हैं और 45.3 कम वजन वाले हैं
  • इन तीनों श्रेणियों में अनुसूचित जाति में अविकसित बच्चों की संख्या 42.8 प्रतिशत है, 21.2 प्रतिशत कमज़ोर हैं और 39.1 प्रतिशत कम वजन वाले हैं
  • वहीं सामान्य श्रेणी के बच्चों में यह औसत क्रमशः 31, 19 और 28 प्रतिशत है

समाज शास्त्र में एक शब्द है– सोशल इकोनोमी। इसे सरल अर्थ में समझना हो तो ऐसे समझिये कि समाज में कौन अमीर है और कौन गरीब है? और ज्यादातर अमीर किस समुदाय के हैं किस वर्ग के हैं? और ज्यादातर गरीब किस जाति वर्ण और समुदाय के हैं? 

यहां भी आप पाएंगे कि सवर्ण जातियों के कम मेहनत करनेवाले लोग अधिक अमीर हैं। और मेहनतकश जातियां परंपरागत रूप से गरीब बना कर रखी गई हैं। इतना ही नहीं आज भी जो मेहनतकश हैं, वो सबसे अधिक गरीब भूखे और वंचित हैं। इसकी तुलना में कम मेहनत करने वाले लोग ज्यादा बेहतर हालात में हैं। 

जो समाज परम्परागत तौर पर अन्याय पर आधारित हो और अपने इस अन्याय को धर्म परम्परा मान कर उसपर गर्व करता हो वह इसे बदलेगा कैसे?

यह बिलकुल साफ़ संदेश है। जो लोग भी सामाजिक न्याय लोकतंत्र वैज्ञानिक सोच और संविधान के मूल्यों को बढाने और उनकी रक्षा के लिए काम कर रहे हैं, उन्हें यह शत्रु घोषित कर रहे हैं। इनका मकसद साफ़ है।

भारत के नौजवानों को बदलाव से विमुख करने के लिए ही गर्व की राजनीति आरएसएस के गिरोह द्वारा इस देश पर थोपी गई है ताकि भारत का नौजवान देश में फैले अन्याय की तरफ ध्यान ना दे और वह धार्मिक और जातीय श्रेष्ठता के नशे में डूब जाय। इस राजनीति का दूसरा हिस्सा है घृणा की राजनीति। इसमें जहां देश के युवाओं पर फर्ज़ी गर्व थोपा गया है। वहीं देश के अल्पसंख्यकों, पड़ोसी देशों बुद्धिजीवियों के खिलाफ नफरत भी थोपी गई है। 

अभी हाल ही में भारत के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने एक भाषण में कहा है कि भारत का जो नागरिक समाज है, वह भारत का शत्रु है और उससे देशभक्तों को युद्ध करना पड़ेगा।

यह बिलकुल साफ़ संदेश है। जो लोग भी सामाजिक न्याय लोकतंत्र वैज्ञानिक सोच और संविधान के मूल्यों को बढाने और उनकी रक्षा के लिए काम कर रहे हैं, उन्हें यह शत्रु घोषित कर रहे हैं। इनका मकसद साफ़ है। यह पुरानी वर्णव्यवस्था, धार्मिक अंधविश्वास और महिलाओं की दोयम स्थिति को बनाये रखना चाहते हैं। ताकि देश का युवा नकली गर्व और नकली नफरत में फंसा रहे और सदियों से चला आ रहा जातिगत दमन ऐसे ही चलता रहे, महिलाओं की हालत वैसे ही बनी रहे और कोई बदलाव इस समाज में ना आ पाय।

अब इसे इस देश को समझना होगा और समाज में फैले अन्याय को पहचानना असली शत्रु को पहचानना और अपनी लड़ाई और संघर्ष खुद ही चुनने होंगे, क्योंकि क्रांति तब होती है जब आप अपनी चुनौतियों की खुद ही पहचान करते हैं। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

हिमांशु कुमार

हिमांशु कुमार प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता है। वे लंबे समय तक छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के जल जंगल जमीन के मुद्दे पर काम करते रहे हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में आदिवासियों के मुद्दे पर लिखी गई पुस्तक ‘विकास आदिवासी और हिंसा’ शामिल है।

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