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किसानों की भूमिका अहम, बदलनी चाहिए किसानी की परिभाषा : प्रेमकुमार मणि

यह पहली बार नहीं है जब किसानों ने इतिहास रचा है। कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा तब बनी जब कांग्रेस चंपारण गयी। गांधी के नेतृत्व में चंपारण किसान आंदोलन हुआ। परिणामस्वरूप किसान कांग्रेस से तेजी से जुड़ने लगे तब जाकर आजादी संभव हो पायी। नहीं तो सैकड़ों साल तक आप लड़ते रहते, जलसा करते रहते, कुछ नहीं होना था वकीलों एवं बड़े लोगों से! पढ़ें प्रेमकुमार मणि से यह विशेष साक्षात्कार

[करीब एक साल तीन महीने के बाद भारत सरकार ने कृषि विधि निरसन विधेयक के माध्यम से कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020, मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक, 2020 और आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम, 2020 को वापस ले लिया। लेकिन इसके लिए किसानों को एक साल तक दिल्ली की सीमाओं पर खूंटा गाड़कर खुले आसमान के नीचे रहना पड़ा। इस आंदोलन के निहितार्थ व भारत सरकार के संसदीय आचरण एवं व्यवहार को लेकर फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य, बहुजन चिंतक व साहित्यकार प्रेमकुमार मणि से दूरभाष पर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश]

भारत सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनों के निरस्त किये जाने पर आपकी प्राथमिक प्रतिक्रिया क्या है? 

तहेदिल से तो नहीं, लेकिन खुश हूं। सरकार को देर से ही सही, सद्बुद्धि आई। उस कानून का लाया जाना गलत था तो स्वाभाविक रूप से उसका वापस लिया जाना सही है। इस बिल के कारण पूरे देश में उथल-पुथल रही। भले ही संसद में इन कानूनों को लाने एवं वापस करने के समय बहस नहीं हुई, लेकिन पूरे साल भर इस पर राष्ट्रीय बहस हुई। सरकार को इस बात का एहसास हुआ कि संसद के बाहर साल भर इस बहस को रोकते हैं तो इसकी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है। संसद जनता की प्रतिनिधि सभा है इसलिए किसी बिल को लाने के समय यहां बहस होनी ही चाहिए। एक सुविचारित माहौल में इस बिल को वापस करना था, यह बिल पास ही नहीं हुआ था, हंगामे के बीच इस बिल को रख दिया गया और इसे घोषित कर दिया गया। उस समय सत्ताधारी दल के एक घटक अकाली दल ने इसका तुरंत विरोध भी किया था। मंत्रिपरिषद से अपने सदस्य को वापस भी बुला लिया। सरकार को उस समय ही समझ जाना चाहिए था कि यह कितना बड़ा विषय था। सरकार ने जो रवैया अपनाया था, उसका जवाबदेह कौन होगा? ठंड, गर्मी, बरसात सारा कुछ बर्दाश्त किया किसानों ने, इसकी जवाबदेही कौन लेगा? साल भर तक सरकार द्वारा प्रायोजित अराजकता चलती रही। सरकार के एजेंसियों को लगा कि ये झुकने वाले नहीं हैं, देश की उत्पादन प्रणाली प्रभावित हो रही है, सरकार की साख प्रभावित हो रही है, हमारा लोकतंत्र प्रभावित हो रहा है। इस कानून को वापस लेकर इन्होंने किसानों को भला नहीं किया है, बल्कि अपनी ही सुरक्षा की है। मैं इनको बधाई दूंगा कि इनको देर से ही सही, सद्बुद्धि आई।

कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार ने पांच राज्यों में चुनाव के मद्देनजर एक राजनीतिक फैसला लिया है। इस पर आप क्या कहेंगे?

उत्तर प्रदेश के चुनाव के बारे में सरकार को साल भर से मालूम है। महत्वपूर्ण यह है कि सरकार ने इसका आकलन ही नहीं किया था। देश में बहुमत किसानों का है। 68-70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। इतनी बड़ी आबादी आखिर किसानी पर निर्भर क्यों होने चाहिए? इस बात को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कभी बहस नहीं हुई। इतना बड़ा किसानों का आंदोलन कभी नहीं हुआ। जिस तरीके से भारत में औद्योगीकरण होना चाहिए था, नहीं हुआ बल्कि अराजक या आवारा औद्योगीकरण हुआ है। आज भी गांव और किसान देश के मुख्य आधार हैं। यह गांवों और किसानों का देश है। असल में देश के उत्पादन प्रणाली से जुड़े हुए यही लोग हैं। उत्पादन से जुड़ी हुई इतनी बड़ी आबादी को आप हाशिये पर रखकर लोकतंत्र चला लेंगे, यह कैसे संभव हो सकता है? सरकार के तीन कृषि कानून के प्रति रवैये से दिन-प्रतिदिन कानून और व्यवस्था भी प्रभावित हो रहा था। सरकार की जनता पर पकड़ धीरे-धीरे कमजोर हो रही थी। किसानों ने अपनी ताकत कोई पहली बार नहीं दिखाई है। अगर आप राष्ट्रीय आंदोलन का अध्ययन करें तो आप पायेंगे कि कांग्रेस वकीलों की पार्टी थी, जिसमें पढ़े-लिखे वकील एवं बड़े जमींदार लोग सलाना जलसा करते थे। वे नरम दल एवं गरम दल में विभक्त थे। दोनों अपने-अपने तरीके से काम कर रहे थे। कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा तब बनी जब कांग्रेस चंपारण गयी। गांधी के नेतृत्व में चंपारण किसान आंदोलन हुआ। परिणामस्वरूप किसान कांग्रेस से तेजी से जुड़ने लगे तब जाकर आजादी संभव हो पायी। नहीं तो सैकड़ों साल तक आप लड़ते रहते, जलसा करते रहते, कुछ नहीं होना था वकीलों एवं बड़े लोगों से! वास्तविकता यही है कि किसानों ने हमें आजादी दिलायी। आज कहा जाता है कि किसान राजनीति एवं लोकतंत्र से दूर हो गये हैं, गलत बात है। सब किसानों ने बिना किसी दल के निर्दल अपनी आवाज उठाई और अपनी ताकत का प्रदर्शन किया, और ऐसा प्रदर्शन किया कि सरकार को झुकना पड़ा। किसानों के साथ कोई पार्टी नहीं थी। किसानों ने किसी पार्टी का समर्थन भी नहीं किया। सरकार को किसानों के मनोभावों को समझना चाहिए था। उन भावों को अपने राजनीति में शामिल करना चाहिए। क्या वर्तमान समय में ऐसा है? किसी भी राजनीतिक दल में मुख्यधारा के विचार के केंद्र में किसान नहीं है। कोई व्यापार की बात कर रहा है तो कोई कुछ। सबसे ज्यादा उत्पादन करनेवाला – अनाज, दूध, फल, सब्जियां, कपड़ा आदि सभी कुछ उपजाने वाले किसान हैं। हम किसानों की परिभाषा इस रूप में देते हैं। औद्योगिक उत्पादन में भी किसान शामिल है। क्या नमक के उत्पादन का कार्य किसान नहीं करता? क्या दूध उत्पादन करने वाले किसान नहीं हैं? हम किसानों की परिभाषा संकुचित अर्थों में लेते हैं जबकि इसकी परिभाषा व्यापक है। फल, सब्जियां, अनाज किसान उपजाता है, लेकिन उसको दाम नहीं मिलता है। दूध उत्पादन करने वाले को भी दाम नहीं निकलता। आज पेट्रोल 100 रुपये बिकता है और दूध 40 रुपये लीटर। आखिर क्या बात है? इसके उत्पादन में कितनी मेहनत लगती है। प्याज, आलू और सब चीजों का भाव को ही देख लें…।

किसान भी न्यूनतम खरीद मूल्य को लेकर गारंटी कानून बनाने की मांग कर रहे हैं? उनकी इस मांग के संबंध में आप क्या कहेंगे? 

किसानों की न्यूनतम खरीद मूल्य की बात बिल्कुल वाजिब बात है। उत्पादन भी करें और वितरण भी करें। सरकार ने ऐसा चक्र बना दिया है कि किसानों को इससे दिक्कत होती है। दूध को स्टोर नहीं किया जा सकता है। गुजरात में दूध दोपहर के बाद खराब हो जाता है एवं फट जाता था। इससे किसका शोषण होता था? दूध पैदा करने वाली महिलायें बाजार में ग्राहकों को ढूंढती रहती थी। सेठिया लोग कहते थे कि दूध की जरूरत नहीं है। जैसे ही दोपहर होने वाला होता था, महिलाएं दूध का दाम आधा कर देती थीं तब यही लोग दूध खरीद लेते थे। तब वर्गीज कूरियन ने दूध का बैंक बनाने की बात की। दूध को स्टोर करके दूसरे रूपों में ढालने का उपाय किया। तब जाकर उनका शोषण बंद हुआ। औद्योगीकरण को कृषि से जोड़ा जाए ताकि श्रमिकों का पलायन न हो। किसान गांव में ही रहें, यही सरकार कहती है और हम भी यही कहते हैं। इसका आशय श्रम के विरोधी होने से कदापि नहीं है। किसानों को मशीनों से जोड़ा जाना चाहिए। किसानों के उत्पादन के औजार बहुत पुराने जमाने के हैं। ये बदलने चाहिए। तभी किसान बदलेंगे। इस प्रक्रिया में पूंजीपति नहीं आने चाहिए। पूरे देश भर में अडाणी गोदाम बना करके किस लिए रखे हुए थे? पूरे देश को भूखों मारना चाहते थे। वे ताला लगाकर रख लेंगे और चाबी लेकर घूमेंगे, फिर कहेंगे कि गेहूं इस दाम में है। जो गेहूं हम 10 रुपए में खरीदते थे, उसे हम 100 रुपए में खरीदेंगे। आप पूछेंगे क्यों? अडाणी कहेगा क्योंकि उसमें हमने जादू कर दिया है। अब गेहूं 100 रुपए में बिकेगा। अब जब अनाज गोदाम में रहेगा तो जाहिर सी बात है कि वे मनमानी दाम में बेचेंगे। जब चाहे वे हम लोगों को भूखों मार देंगे। एमएसपी नहीं रहेगा तो जरूरतमंद लोगों को मिल रहा अनाज दिया जाना कैसे संभव होगा? ऐसे बहुत सारे पेंचोखम हैं। सरकार किसानों से कोई बात नहीं करती है। विकास में इनकी कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए क्या? सरकार किसानों को चार बार मुआवजा देने की बात करती है लेकिन उन्हें एक ही बार मुआवजा देती हैं। अडाणी-अम्बानी फैक्ट्रियों में माल उत्पादित कर करोड़ों रुपये का मुनाफा कमा रहे हैं। आप किसानों को उसमें हमेशा के लिए शामिल कीजिए। उन्हें लाभांश में हिस्सेदार बनाइये। नहीं तो गारंटी करिये कि लाभांश का इतना हिस्सा उन्हें मिलेगा। किसान अपनी कमाई का कीमती हिस्सा बेटी की ब्याह आदि में खर्च कर देते हैं, फिर मजदूर हो जाते हैं, भिखमंगा हो जाते हैं। ऐसी बहुत सारी बातें हैं। जब किसानों के नजरिये से विकास को सोचेंगे तब सारी बातें अपने आप सुलझ जाएंगी। कृषि कानूनों के खिलाफ किसान जब सड़कों पर था, तब पढ़े-लिखे लोग घरों में बैठे हुए थे। कुछ लोगों ने टीवी के सामने अपनी छाती जरूर पिटी, लेकिन उनके साथ सड़कों पर कोई नहीं आया। उल्टा वे बार-बार कहते हैं कि किसान समझते नहीं हैं! आज प्रधानमंत्री कहते हैं कि हम किसानों को समझा नहीं पाये। आप [सरकार] किसानों को कभी नहीं समझा पायेंगे और न ही किसानों को आप समझ भी नहीं पाइयेगा, क्योंकि उनकी पीड़ा में आप शामिल नहीं है।

प्रेमकुमार मणि, वरिष्ठ बहुजन चिंतक व साहित्यकार

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन. वी. रमन ने कहा है कि कार्यपालिका कोई भी कानून बनाने के पहले उसके प्रभाव का आकलन नहीं करती है। वहीं राष्ट्रपति ने कहा कि न्यायाधीश को कोई भी फैसला देने से पहले अत्यधिक विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। इन दोनों बातों को आप वर्तमान के संदर्भों से जोड़कर कैसे देखते हैं? 

विचार और विमर्श होना बहुत जरूरी है। न्यायपालिका कानून की व्याख्या करने वाली संस्था है। कार्यपालिका ने कानून बनाया कि सबको रोटी मिले, लेकिन सबको रोटी नहीं मिल रही है। क्या इसके लिए न्यायपालिका जिम्मेदार है? वह तो व्याख्या करने वाली समिति है। जब आप कोई भी कानून लाने से पहले विमर्श नहीं करेंगे तो उसके परिणाम आपको भुगतने ही पड़ेंगे। पहली बार जब दल-बदल विधेयक आया था, उस समय संसद में बिना बहस के, बिना राष्ट्रीय स्तर पर बहस के इसको पास कर दिया गया। आखिर इसका क्या असर हुआ? कभी इस पर बहस हुई। आज दल-बदल विधेयक का ही असर है कि पार्टियों में सुप्रीमोवाद विकसित हुआ है। जो भी पार्टी का अध्यक्ष होता है, उसे इतनी ताकत मिल जाती है कि उसका सदस्य इधर-उधर जायेगा तो उसकी सदस्यता खत्म हो जाएगी। इससे प्रकारांतर से चली आ रही प्राकृतिक स्वतंत्रता को बाधित कर दिया गया है, लेकिन इस पर विचार नहीं किया गया। इसी तरह आप किसानों के मामले में आप कोई विचार नहीं करते। तीन कृषि कानूनों को लाने की इतनी जल्दबाजी क्या थी? आप किसानों के मामले के 20-25 विशेषज्ञों से बात करके उसका आकलन कर लेते तो शायद बेहतर कानून आते, काले कानून नहीं आते। किसान साल भर से संघर्ष कर रहे हैं कि आप इन कानूनों को हटाओ एमएसपी लाओ, लेकिन सरकार कह रही है कि ये कानून किसानों के फायदे के लिए है। वे एमएसपी समाप्त करने की बात करते हैं, कानूनों को ढीला करके पूंजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा अधिकार देते हैं। आप संसद में बैठे जनता के प्रतिनिधियों एवं राजनीति के विशेषज्ञों को विमर्श में न्यूनतम स्थान देते हैं। यही कारण है कि हमारी डेमोक्रेसी लगातार कमजोर होती जा रही है। टिकट के मामले में भी यही बात देखने को मिलती है। पहले कांग्रेस निचले स्तर से आने वाले लोगों को टिकट देती थी। जब तक जिला समिति, प्रांतीय समिति एवं राष्ट्रीय समिति की मोहर नहीं लगती थी, तब तक टिकट नहीं दिया जाता था। आज संसद की कमेटियां नाममात्र की रह गयी हैं। आज पार्टी के सुप्रीमो को टिकट देने के लिए अधिकृत कर दिया जाता है। पार्टी का सुप्रीमो तानाशाह की तरह टिकट बांटता रहता है। हर पार्टी का यही हाल है। जनतंत्र में ही बहस की स्थिति कमजोर हो गयी है। इसलिए हम एक पार्टी को दोष नहीं देंगे। कांग्रेस ने भी वही किया है जो भाजपा अभी कर रही है। सभी पार्टियों में कोई भी विषय लेने से पहले ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं को विमर्श से बाहर कर दिया जाता है। इन कार्यकर्ताओं का बस एक ही काम है चापलूसी करना या चरण वंदना करना। उनका ज्यादा-से-ज्यादा समय दरबार लगाने में व्यतीत होता है। इसीलिए विमर्श का सामाजिक अभाव हो गया है। पूरे समाज में विमर्श गायब हो गया है, जिसका असर राजनीति पर पड़ रहा है। अडाणी के गोदाम कृषि कानून कानून बनने के पहले से चल रहे हैं। सरकार ने अडाणी के प्रभाव में आकर कानून बनाने का फैसला लिया था न कि किसानों से बात करके। जब आप अडाणी के प्रभाव में आकर कानून बनायेंगे तो देश अस्त-व्यस्त होगा ही, जुडिशियरी भी प्रभावित होगा।

बीते 19 नवंबर, 2021 को देश के प्रधानमंत्री ने अपने कैबिनेट में बिना सर्वसम्मति के कृषि कानूनों को हटाने का फैसला लिया। यह कार्य उन्होंने संबोधन के जरिये किया? ऐसा ही तब भी हुआ था जब कानून बनाए गए थे। इसे किस रूप में देखा-समझा जाय? 

तानाशाही व्यवस्था में यही होता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री घोषणा करते हैं। मंत्रिपरिषद किसलिए है? पहले मंत्रिपरिषद में बात कर लीजिए तब फैसला लीजिए। आप कौन होते हैं फैसला लेने वाले। जनतांत्रिक रिवाजों को लगातार तिलांजलि दी जा रही है। जनतंत्र में डेमोक्रेटिक कल्चर होता है, यह सरकार अनडेमोक्रेटिक है। वह अजनतांत्रिक रिवाजों पर चल रही है। दुर्भाग्यपूर्ण है, इस मामले पर कोई संपादकीय नहीं लिखी गयी, कोई बहस नहीं हुई। सभी पार्टियों में यही स्थिति है। यह शोध का विषय है। सभी पार्टियों में काम पहले कर लेते हैं, मोहर बाद में लगाते हैं। घर में कोई बात होती है तो पहले विमर्श होता है। विवाह-शादी में भी यही होता है। लेकिल जनतंत्र में मंत्रिपरिषद, संसद और जनता क्या सूचना देने के लिए है? प्रधानमंत्री क्या सूचना देने के लिए है? इससे बड़ी क्या तानाशाह हो सकती है? यह सब इतने बड़े मसले हैं कि कोई इस पर सवाल नहीं उठाता।

(संपादन : इमानुद्दीन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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