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भाजपा के ‘गणेश’

“हमें तो अपने लोगों से मतलब है। हम उनके काम आएं, उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाएं। एक जनप्रतिनिधि होने की यह जिम्मेदारियां हैं और जब मैं यह सब करता हूं तो मुझे बहुत खुशी मिलती है।” पढ़ें, सतना से सांसद और ओबीसी संसदीय समिति के पूर्व अध्यक्ष गणेश सिंह पर केंद्रित नवल किशोर कुमार का यह आलेख

भारत में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की वास्तविक आबादी का सटीक आंकड़ा फिलहाल भारत सरकार के पास भी नहीं है। अभी जिन आंकड़ों से काम चलाया जा रहा है, वे वर्ष 1931 में हुई जनगणना के हैं। इस जनगणना में ओबीसी की आबादी लगभग 52 फीसदी पाई गई थी। सनद रहे कि वह 1931 और अभी 2021 का अंत है। इस करीब सौ साल की अवधि में एक बार भी ओबीसी की गणना न होने से ही हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि इस देश के बहुसंख्यक वर्ग की हिस्सेदारी के सवाल को कैसे उपेक्षित रखा गया है। 

सवर्णों की पार्टी भाजपा में ओबीसी के हक-हुकूक के लिए खड़ा होने वालों में ओबीसी की हिस्सेदारी और भी कम है। उनमें से एक हैं गणेश सिंह। वे कहते हैं कि “इस सच्चाई को क्यों छिपाया जाय कि हम क्या हैं। हम ओबीसी समाज के लोग हैं। और मैं तो कुर्मी जाति का हूं। मेरे पिता कमलभान सिंह एक बेहद सामान्य किसान थे। मेरी मां का नाम फूलमती देवी है। मुझे मेरे माता-पिता का आर्शीवाद आज भी मिल रहा है। पिता पांचवीं या छठी कक्षा तक पढ़े। हम चार भाई और तीन बहनें हैं। भाइयों में मैं सबसे बड़ा हूं। मुझसे बड़ी एक बहन हैं– इंद्रावती सिंह। विमला सिंह और रेखा सिंह मुझसे छोटी बहनें हैं। मेरे भाइयों में गुलाब सिंह, संजय सिंह और उमेश प्रताप सिंह हैं। मेरे एक भाई संजय सिंह का निधन पिछले साल कोरोना के कारण हो गया। तो मैंने वह सब किया है जो कृषक समाज के लोग करते हैं। मैंने पिता के साथ मिलकर खेत जोता है। निराई-कटाई की है। मवेशियों को पाला है। यहां तक कि मवेशियों को चराया भी है। मैं नहीं करता तो मेरे पिता का हाथ कौन बंटाता। यह सब मैंने किया और पढ़ाई भी की।” 

दिल्ली से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक के 9 दिसंबर, 2017 के अंक में एक रपट प्रकाशित हुई थी। आरटीआई के आधार पर अखबार ने प्रकाशित किया कि “24 मंत्रालयों के कर्मचारियों में, 37 में से) 25 विभागों ( और आठ निकायाें (प्रधान मंत्री कार्यालय, राष्ट्रपति सचिवालय और भारत के निर्वाचन आयोग सहित) को मिलाकर भी ओबीसी की हिस्सेदारी चार समूहों ग्रुप-ए, ग्रुप-बी, ग्रुप-सी और ग्रुप-डी में क्रमश: केवल 14 प्रतिशत, 15 प्रतिशत, 17 प्रतिशत और 18 प्रतिशत है।”

ऑल इंडिया ओबीसी फेडरेशन के अध्यक्ष जी. करूणानिधि बताते हैं कि अभी भी ग्रुप ए सहित सभी समूहों में ओबीसी की हिस्सेदारी पर्याप्त नहीं है। यह स्थिति तब है जबकि देश में मंडल कमीशन की आरक्षण संबंधी अनुशंसा को लागू हुए तीन दशक बीत चुके हैं।

इसकी क्या वजहें हैं? इस पर विचार किया जाना आवश्यक है। करूणानिधि बताते हैं कि ओबीसी के मामले में सरकारों की नीतियां समावेशी नहीं रही हैं। हमेशा बहिष्करण की नीति को अपनाया गया है। इसका उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू ही ना हों, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में एक मामला दर्ज कराया गया। इसे इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार मामले के नाम से हम जानते हैं। यह मामला जैसे ही सुप्रीम कोर्ट में गया, उसने ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने संबंधी सरकार के फैसले के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी। यह स्थिति करीब ढाई साल तक बनी रही। फिर सात जजों की खंडपीठ ने इस मामले में अपना फैसला सुनाया और कुल आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर दी।

यह वह समय था जब देश में पीवी नरसिम्हा राव की हुकूमत थी। ओबीसी की राजनीति तब जोर पकड़ चुकी थी और सरकार ने भी इसे भांप लिया था। उसने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। इसके सदस्यों में भारत सरकार के पूर्व सचिव पी. एस. कृष्णन भी थे। इस विशेषज्ञ समिति की अनुशंसा के बाद ही 1993 में डीओपीटी द्वारा 8 सितंबर को ऑफिस मेमोरेंडम जारी हुआ था कि क्रीमी लेयर के निर्धारण के लिए वार्षिक आय में वेतन व कृषि से प्राप्त आय को शामिल नहीं किया जाएगा। 

करुणानिधि बताते हैं कि अभी भी हालात बहुत बदतर हैं। दरअसल, वे जिन हालातों की चर्चा कर रहे हैं, उसे इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है। इसी साल 10 अगस्त, 2021 को लोकसभा ने सर्वसम्मति से 127वां संविधान संशोधन विधेयक पारित किया। इसके ज़रिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपनी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सूची तैयार करने का अधिकार दिया गया है। राज्यसभा ने इस विधेयक को 9 अगस्त, 2021 को ही पारित कर दिया था। हालांकि लोकसभा में मतविभाजन कराया गया, विधेयक के पक्ष में 385 वोट पड़े और विरोध में शून्य। चर्चा के दौरान जातिगत जनगणना करवाने और आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ाये जाने की मांग भी उठी। इस विधेयक की उद्देशिका में कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद 342क और अनुच्छेद 338 (ख) एवं अनुच्छेद 366 में संशोधन की ज़रुरत है।

दरअसल यह विधेयक केंद्र सरकार भूल सुधार के लिए आयी थी। इसके पहले भाजपा-नीत एनडीए सरकार ने 123वें संशोधन विधेयक के जरिए यह प्रावधान कर दिया था कि ओबीसी में कौन-सी जाति रहेगी अथवा नहीं रहेगी, इसके निर्धारण का अधिकार केंद्र के पास रहेगा। इसे लेकर सवाल उठाए जा रहे थे। इसी के आधार पर 5 मई, 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण के मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी और इसे मराठा आरक्षण को खारिज करने के कारणों में से एक बताया था। 

ओबीसी आरक्षण को लेकर सरकार की ढुलमुल नीतियाें का एक उदाहरण और है। यह उदाहरण है बी.पी. शर्मा कमेटी का। पिछले ही साल केंद्रीय कार्मिक, प्रशिक्षण एवं शिकायत निवारण मंत्रालय, भारत सरकार (डीओपीटी) द्वारा गठित बी. पी. शर्मा कमेटी ने अपनी रपट सरकार को दी। अपनी रपट में कमेटी ने अनुशंसा की कि क्रीमीलेयर की आय सीमा में बढ़ोत्तरी कर उसे 8 लाख से 12 लाख रुपए कर दिया जाय, लेकिन वार्षिक आय में कृषि व वेतन से प्राप्त आय भी शामिल हो। 

जब यह रपट आयी तब भारत के सियासी गलियारे में एक सीमित हलचल देखने को मिली। ओबीसी के कुछ नेताओं और बुद्धिजीवियों ने इसे लेकर सवाल उठाए। एक सवाल सतना से सांसद और संसद में ओबीसी से संबंधित स्थायी समिति के तत्कालीन अध्यक्ष गणेश सिंह ने भी उठाया। कई मायनों में यह खास था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खासमखास माने जानेवाले गणेश सिंह ने अपनी ही सरकार पर सवाल खड़ा कर दिया था और अप्रत्यक्ष रूप से डीओपीटी का प्रभार संभाल रहे मंत्री जितेंद्र सिंह की मंशा पर भी। सियासी गलियारों से मिली जानकारी के अनुसार जितेंद्र सिंह राजपूत (सवर्ण) जाति के हैं। 

नरेंद्र मोदी, जो कि सार्वजनिक रूप से खुद को घांची (ओबीसी) जाति का सदस्य बताते हैं, की सरकार की ओबीसी नीति पर एक बड़ा सवाल स्वयं बी.पी. शर्मा कमेटी के गठन से भी उठा। दरअसल, बीपी शर्मा, जो सवर्ण जाति (भूमिहार ब्राह्मण) से आते हैं और डीओपीटी के पूर्व सचिव भी रहे हैं, को कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया। यह ठीक वैसा ही था जैसा कि 1954 में नेहरू हुकूमत ने काका कालेलकर को पहले ओबीसी आयोग का अध्यक्ष बनाया था, जबकि वे ब्राह्मण थे।

डीओपीटी के बारे में भारत सरकार के भूतपूर्व सचिव पी. एस. कृष्णन ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी। वे लिखते हैं– “आरक्षण की व्यवस्था भारत सरकार में लागू करने, राज्यों को इस संबंध में मार्गनिर्देश जारी करने और राज्यों द्वारा आरक्षण की व्यवस्था ठीक ढंग से लागू की जा रही है या नहीं इसका पर्यवेक्षण करने की ज़िम्मेदारी केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय की है। यह मंत्रालय प्रधानमंत्री के अधीन रहता है। परंतु चूँकि प्रधानमंत्री को अनेक जिम्मेदारियों का निर्वहन करना होता है और वे सरकार के मुखिया भी होते हैं इसलिए परंपरा यही रही है कि इस विभाग का कामकाज देखने के लिए एक राज्यमंत्री की नियुक्ति कर दी जाती है, जो प्रधानमंत्री की देखरेख में काम करता है। इस विभाग का मंत्री और राज्य सरकारों में उसके समकक्ष एससी, एसटी या एसईडीबीसी (सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े) समुदायों के ऐसे व्यक्ति होने चाहिए जिनका राजनैतिक कद ऊंचा हो और जो संविधान के प्रति प्रतिबद्ध हों। 

“अगर मंत्री एससी या एसटी हो तो सचिव को एसईडीबीसी समुदाय से होना चाहिए और अगर मंत्री एसईडीबीसी समुदाय से हो तो सचिव को एससी या एसटी समुदाय से होना चाहिए। 

“कार्मिक मंत्रालय में आरक्षण से संबद्ध काम देखने वाले अतिरिक्त सचिवों, संयुक्त सचिवों, उप सचिवों, संचालकों, अवर सचिवों और कक्ष अधिकारियों और राज्य सरकारों में उनके समकक्ष अधिकारियों में से कम से कम 50 प्रतिशत इन समुदायों के होने चाहिए और इनमें इन समुदायों की महिलाएं भी शामिल होनी चाहिए। ये अधिकारी ऐसे होने चाहिए, जिन्हें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर काम करने के लिए जाना जाता हो। विभागों में इन तीन समुदायों में से प्रत्येक का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी एक या किन्हीं दो समुदायों के अधिकारियों से ही 50 प्रतिशत का लक्ष्य पूरा कर लिया जाए जैसा कि लोकपाल विधेयक के मामले में हुआ जिसमें 50 प्रतिशत पदों पर ‘एससी + एसटी + एसईडीबीसी + अल्पसंख्यकों + महिलाओं’ को नियुक्त करने का प्रावधान था। इस प्रावधान का लाभ उठाते हुए हाल में लोकपाल के सभी पदों को इस प्रकार भर दिया कि उनमें एसटी और एसईडीबीसी को कोई प्रतिनिधित्व नहीं था।” (भारतीय कार्यपालिका में सामाजिक न्याय का संघर्ष, अनकही कहानी, पी.एस. कृष्णन की जुबानी, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2020, पृष्ठ संख्या 412-413)

खैैर, बी.पी. शर्मा कमेटी के संबंध में फारवर्ड प्रेस ने जब गणेश सिंह से दूरभाष पर बातचीत की तब इस कमेटी की अनुशंसा के संबंध में उन्होंने कहा– “हां, यह मामला आया था। दरअसल राज्य और केन्द्र सरकार के पदों में समतुल्यता तय होनी चाहिए। लेकिन अभी तक यह समतुल्यता तय नहीं हुई है, जिसके कारण बड़ी संख्या में ओबीसी के लोग नौकरियों से वंचित हो रहे हैं। यह राज्य और केन्द्र सरकारों के अधीन पदों, खासतौर पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में कार्यरत ओबीसी लोगों के हक का मामला है। उन्हें लाभ मिलना चाहिए था, लेकिन उन्हें लाभ नहीं मिल पा रहा है। मेरे संज्ञान में अनेक मामले ऐसे आए हैं। इनमें संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) में चयनित ओबीसी अभ्यर्थियों का मामला भी है। चूंकि इन अभ्यर्थियों के पिता/माता सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में हैं और उनके पदों की समतुल्यता निर्धारित नहीं हुई है, इस कारण उन्हें क्रीमीलेयर में डाल दिया गया। जबकि उनमें ज्यादातर के पिता चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे। ऐसे ही कई मामले मेरे संज्ञान में आये थे तभी मेरी कमिटी ने प्रस्ताव किया था। मैंने सभी पक्षों को ध्यानपूर्वक सुनने के बाद ही यह प्रस्ताव तैयार किया था। मैंने बैठक में राज्य सरकारों को भी बुलाया था और उनको सुनने के बाद प्रस्ताव सरकार को भेजा था। उस पर ही बी. पी. शर्मा की कमिटी का गठन हुआ था। उसकी रिपोर्ट काफी दिनों तक पड़ी रही। फिर मैंने दुबारा प्रस्ताव भेजा। तत्पश्चात यह रिपोर्ट मंत्रिमंडल समूह में गई। मंत्रिमंडल में चर्चा होने के बाद ओबीसी क्रीमीलेयर की आय सीमा रुपए 8 से 12 लाख किये जाने का प्रस्ताव सामने आया है।”

वह तो वर्ष 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के पहले मोहन भागवत द्वारा आरक्षण की समीक्षा करने संबंधी बयान का परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं आने के बाद भागवत कह रहे हैं कि जब तक विषमता है तब तक आरक्षण जरूरी है। यह बात उन्होंने अपनी किताब ‘यशस्वी भारत’ में भी आधिकारिक रूप से कही है। लेकिन यह केवल कागजी बात है और मोहन भागवत ऐसा इसलिए कह रहे हैं ताकि वे पॉलिटिकली करेक्ट रहें। व्यवहार में आरएसएस आरक्षण का घोर विरोधी रहा है।

दरअसल, गणेश सिंह ओबीसी के हक-अधिकारों को लेकर सजग रहे हैं। उनसे जुड़े भोपाल के पप्पू यादव इसका उल्लेख करते हैं। पप्पू यादव रेलवे इम्पलॉयज यूनियन से जुड़े हैं। वे कहते हैं कि जितनी बार भी गणेश सिंह जी से मुलाकात हुई, उन्होंने धैर्यपूर्वक हमारे सवालों को सुना। हमने रेलवे में ओबीसी से जुड़े सवालों को उनके सामने रखा। उन्होंने आगे बढ़कर हमारे सवालों का निराकरण किया। यहां तक कि उन्होंने रेलवे में ओबीसी कर्मियों के संगठन को भी मान्यता दिलायी। ओबीसी के सवालों को उन्होंने कई बार राष्ट्रीय स्तर पर पहल की। वे हम लोगों को भी साथ लेकर गए और हमें मंच प्रदान किया।

गणेश सिंह के बारे में शशांक रत्नू की टिप्पणी बहुत खास है। शशांक ने वर्ष 2016 में यूपीएससी परीक्षा उत्तीर्ण की थी परन्तु आज तक उन्हें आईएएस अधिकारी नहीं बनने दिया गया है। मामला सार्वजनिक लोकउपक्रमों में काम करनेवाले ओबीसी कर्मियों के पदों समतुल्यता से जुड़ा है। शशांक वकील भी हैं और वे स्वयं यह कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। गणेश सिंह के संबंध में वे कहते हैं कि– “गणेश सिंह एक साहसी व्यक्तित्व के मालिक हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे ओबीसी के मसले को लेकर संवेदनशील रहते हैं। जब वे संसदीय कमेटी के अध्यक्ष थे, तब उन्होंने आगे बढ़कर ओबीसी के सवालों को लेकर काम किया। यहां तक कि कई बार उन्होंने नौकरशाहों को निशाने पर लिया। शायद यही वजह है कि भाजपा में उनकी छवि नौकरशाह विरोधी की है। वर्ना कोई वजह नहीं थी कि गणेश सिंह, जो कि ओबीसी के मुद्दों को लेकर सकारात्मक रूख रखते हैं, उन्हें नरेंद्र मोदी सरकार में जगह नहीं मिलती।”

गणेश सिंह, पूर्व अध्यक्ष, ओबीसी संसदीय समिति

शशांक यहीं नहीं रूकते। वे कहते हैं कि “गणेश सिंह के कार्यकाल [19 जुलाई, 2016 – 25 मई 2019] में ओबीसी से जुड़े अनेक काम हुए। एक तो यही कि उन्होंने केंद्रीय विद्यालयों, सैनिक स्कूलों और नवोदय विद्यालयों में ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान करवाया। यह एक ऐसी पहल थी, जिसके बारे में कभी सोचा ही नहीं गया था। लेकिन जिस तरह से गणेश सिंह ने यह करवाया, उसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। स्वयं गणेश सिंह प्रचार में विश्वास नहीं रखते । लेकिन उनमें कुछ कमियां भी हैं। एक तो यह कि उनके पास तकनीकी जानकारी का अभाव है और इसके लिए वे अपने सहयोगियों पर आश्रित रहते हैं। इसका एक दुष्परिणाम तब सामने आया जब उनकी अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने अपनी रपट संसद में रखी। यह उस संसदीय सत्र के अंतिम दिन हुआ। यदि नौकरशाहों/सहयोगियों ने उनका साथ दिया होता तो यह मुमकिन था कि वह रपट संसद में पहले रखी जाती और उस पर विचार किया जाता। और यदि ऐसा होता तो ओबीसी की राह के अनेक अवरोध खत्म हो जाते।”

आखिर सवाल है कि क्या वाकई यह महज संयोग था कि गणेश सिंह कमेटी की रपट को सत्र के अंतिम दिन सदन के पटल पर रखा गया और उस पर कोई चर्चा नहीं हुई? सवाल यह भी है कि इस कमेटी ने जो अनुशंसाएं की हैं, उनका हश्र क्या हुआ? गणेश सिंह को एक दबंग सांसद माना जाता है। उनकी दबंगाई को परिभाषित करते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ओबीसी एसोसिएशन के अध्यक्ष ए. के. सरकार बताते हैं कि ओबीसी के सवालों को वे हर मंच पर उठाते हैं। संसदीय समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक को कटघरे में खड़ा किया।

ऐसे में एक सवाल यह भी उठता है कि भाजपा सरकार के सामाजिक तानेबाने में ओबीसी की भूमिका क्या केवल किंगमेकर की है? हालांकि भाजपा की रणनीति को देखें तो वह हमेशा ही ओबीसी को खंडित करने के फिराक में लगी रहती है। इसको यूं समझें कि बिहार में यादव, जो कि वहां के ओबीसी समूह के सबसे बड़े घटक हैं, को भाजपा ने अन्य ओबीसी जातियों यथा कोईरी व कुर्मी से अलग कर दिया। हालांकि इसका मुख्य श्रेय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जाना चाहिए, जिन्होंने ओबीसी को गैर-यादव ओबीसी समूह बनाने की सफल कोशिश की और 2005 में लालू प्रसाद को बिहार की सत्ता से बाहर कर दिया। उन्होंने ही पिछड़ी जातियों में अति पिछड़ी जातियों का फार्मूला लागू किया, जिसका अनुसरण अब भाजपा कर रही है। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा गैर-यादव ओबीसी को केंद्र में रखकर राजनीति कर रही है।

2 जुलाई 1962 को मध्य प्रदेश के सतना जिले के खमरिया गांव में एक कृषक परिवार में जन्में गणेश सिंह 2004 से सतना लोकसभा क्षेत्र से सांसद हैं। इसके पहले 1995 में वे जिला पंचायत के सदस्य व 1999 से लेकर 2004 तक अध्यक्ष भी रहे। वे उन लोगों में से हैं जिन्होंने अपने पर बूते स्थानीय निकायों में जनप्रतिनिधि से सांसद तक की यात्रा की । उनके बारे में उनके ही संसदीय क्षेत्र से जुड़े एक स्वतंत्र पत्रकार राकेश सिंह बताते हैं कि गणेश सिंह की राजनीति एकदम अलग तरह की रही है। वे लोगों से मेल-मुलाकात को प्राथमिकता देते हैं। जब वे सतना में रहते हैं तब शायद ही ऐसा कोई दिन होगा जब वे लोगों से नहीं मिलते । उनके यहां एक पूरा का पूरा सिस्टम काम करता है। लोग अपनी शिकायतें लेकर जाते हैं। उनकी शिकायतों को पहले दर्ज किया जाता है। फिर वे सीधे गणेश सिंह को इसके बारे में बताते हैं और गणेश सिंह ऑन द स्पॉट उनका निराकरण करने का प्रयास भी करते हैं। बात केवल यही खत्म नहीं होती। लोगों की शिकायतों का फॉलोअप भी गणेश सिंह खुद करते रहते हैं। जैसे मान लीजिये कि किसी व्यक्ति ने उनसे कहा कि उसकी जमीन किसी ने हड़प ली है तो वे स्वयं मामले की पहले तो तहकीकात करेंगे और फिर संबंधित अधिकारी से बात करेंगे। इसके बाद उस व्यक्ति की जमीन उसे वापस मिली या नहीं, इसका फॉलोअप भी वे खुद ही करेंगे।

लंबी कदकाठी और आकर्षक डीलडौल वाले गणेश सिंह की दिलचस्पी खेलों में रही है। वे वॉलीबॉल और बैडमिंटन खेलते हैं। अपने संसदीय क्षेत्र में सांसद ट्रॉफी का आयोजन करते हैं। यह आयोजन गांव से लेकर पंचायत और पंचायत से लेकर जिला स्तर तक होता है। गणेश सिंह के अनुसार सतना शहर में एक बड़ा स्टेडियम बनवाने की उनकी योजना है। उस पर काम चल रहा है। 

स्वयं गणेश सिंह भी बताते हैं कि उनके लिए दिल्ली से सतना अधिक महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि “मैं दिल्ली में तभी रहता हूं जब कोई बैठक होती है या फिर संसद का सत्र होता है। मैं अपने क्षेत्र में ही रहता हूं। आज ही संसद का शीतकालीन सत्र खत्म हुआ है और कल मैं सतना जा रहा हूं।”

एक एमपी, जिसका जुड़ाव आरएसएस से ना रहा हो, भाजपा में उसका घुलना-मिलना शायद आसान नहीं होगा। 

एक सवाल यह उठता है कि क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में रहते हुए कोई सामाजिक न्याय और आरक्षण आदि का पक्षधर हो सकता है? क्या आरएसएस, दलित और ओबीसी पृष्ठभूमि के अपने सदस्यों को इसकी इजाजत देता है? इस संबंध में भंवर मेघवंशी, जो कि पूर्व में आरएसएस से जुड़े रहे हैं तथा बाद में संघ में जातिवाद/भेदभाव के कारण उससे अलग हो गए, बताते हैं कि “आरएसएस प्रारंभ से ही सामाजिक न्याय और समता का विरोधी रहा है। हालांकि आरएसएस के लोग सामाजिक समरसता के नाम पर लोगों को गुमराह करते रहे हैं। आप गोलवलकर और हेडगेवार सहित सभी को देख-पढ़ लें तो आप पाएंगे कि किसी ने भी आरक्षण का समर्थन नहीं किया है। वह तो वर्ष 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के पहले मोहन भागवत द्वारा आरक्षण की समीक्षा करने संबंधी बयान का परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं आने के बाद भागवत कह रहे हैं कि जब तक विषमता है तब तक आरक्षण जरूरी है। यह बात उन्होंने अपनी किताब ‘यशस्वी भारत’ में भी आधिकारिक रूप से कही है। लेकिन यह केवल कागजी बात है और मोहन भागवत ऐसा इसलिए कह रहे हैं ताकि वे पॉलिटिकली करेक्ट रहें। व्यवहार में आरएसएस आरक्षण का घोर विरोधी रहा है। रही बात आरएसएस से जुड़े दलितों और ओबीसी की तो आप खुद ही देखें कितने दलित और ओबीसी को आरएसएस के संगठन में प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया जाता है। उनका तो ढांचा ही इसके खिलाफ है।” 

हालांकि प्रारंभ में गणेश सिंह का आरएसएस से संबंध नहीं था। 1992 में जब शरद यादव ने केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार के पतन के बाद देश भर में मंडल रथयात्रा निकाली थी, तो मध्य प्रदेश में इस यात्रा के प्रभारी युवा नेता गणेश सिंह ही थे। मंडल कमीशन को लेकर जोशीला भाषण देने वाले गणेश सिंह ने आयोग की सिफारिशें लागू करने को क्रांतिकारी कदम बढ़ाते हुए, पूरे प्रदेश में युवा जनता दल के संगठन को मजबूत करने में काफी जोर लगाया। फारवर्ड प्रेस से बातचीत में वे कहते हैं कि “मेरा झुकाव समाजवाद के प्रति रहा है। एक समय मैं युवा जनता दल का प्रांतीय अध्यक्ष था।” फिर भाजपा से आपका जुड़ाव कब और कैसे हुआ? यह पूछने पर वे बताते हैं कि “वह 2000 का समय था। तब मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह के खिलाफ माहौल बनने लगा था। उन दिनों उमा भारती के नेतृत्व में सरकार के खिलाफ तेज लहर थी। उन दिनों ही पार्टी (भाजपा) के नेताओं ने मुझे पार्टी में आने को कहा। मुझे यह प्रस्ताव ठीक लगा । मैंने भाजपा की सदस्यता ले ली। पार्टी ने भी मुझे सम्मान दिया। पहले मुझे विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए कहा गया। लेकिन मैंने यह प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि पहले मुझे पार्टी के लोगों और आम लोगों से जुड़ना है। फिर 2004 में पार्टी ने मुझे सतना लोकसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया। तब मेरे मुकाबले कांग्रेस के सतेंद्र सिंह थे। लेकिन जनता ने मुझे मौका दिया।”

गणेश सिंह की युवावस्था की तस्वीर

गणेश सिंह भाजपा में अकेले नहीं हैं, जिनमें ओबीसी के हक-हुकूक को लेकर कुछ अलग करने का जज्बा रहा है। पूर्व सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत भी इनमें से एक हैं। बतौर मंत्री उन्होंने भी कई अहम प्रयास किये । वर्तमान में गहलोत कर्नाटक के राज्यपाल हैं। हालांकि वे गणेश सिंह जैसे मुखर कभी नहीं रहे। 

संतोष खरे ने सतना के लॉ कॉलेज में गणेश सिंह को तब पढ़ाया था जब वे एमए एलएलबी के छात्र थे। वामपंथी विचारधारा के प्रति झुकाव रखनेवाले खरे बताते हैं कि एक छात्र के रूप में गणेश सिंह बेहद अनुशासित थे। अपने सवालों को लेकर सजग रहते थे। सवाल पूछना उनकी खासियत थी। जब वे सांसद बने तब भी उनके व्यवहार में कोई फर्क नहीं पड़ा। उनकी पार्टी की नीतियां चाहे पू्ंजीवादी और संप्रदायवादी है, गणेश सिंह अलग रहे हैं। एक घटना सुनाते हुए संतोष खरे कहते हैं कि सतना में ही एक कार्यक्रम के दौरान उनसे मुलाकात हो गई। गणेश सिंह मुख्य अतिथि थे। लेकिन उन्होंने जैसे ही मुझे देखा, आगे बढ़कर मेरा अभिवादन किया और मेरी बारे में अपनी स्मृतियों को साझा किया।

गणेश सिंह जनता से जीवंत संबंध रखते हैं और वंचित तबके के मुद्दों के प्रति संवेदनशील रहते हैं। लेकिन उनकी अपनी पढ़ाई-लिखाई किस कदर चुनौतीपूर्ण रही, इस बारे में वे कहते हैं– “मोना सिंह से मेरी शादी तभी हो गयी थी जब मैं छठी कक्षा का छात्र था। गौना तब हुआ जब मैं इंटर में प़ढ़ रहा था। जिम्मेदारियां थीं। लेकिन मैं पढ़ना चाहता था। एक बार सूखा की स्थिति थी तो खेती-बाड़ी ठप्प थी। तो एक दिन मैंने कुछ रुपए मां से और कुछ रुपए अपनी पत्नी से मांगे और अपने गांव खमरिया से 23 किलोमीटर दूर पैदल ही सतना के लिए निकल पड़ा। उन दिनों साधन तो था, लेकिन मेरे पास इतने रुपए नहीं थे कि मैं किराए में खर्च कर सकता। सतना पहुंचकर मैंने अपने दो दोस्तों चक्रभाान सिंह और महिपाल सिंह के साथ मिलकर एक कमरा किराए पर लिया। अवधेश प्रसाद सिंह विश्वविद्यालय, रीवा और लॉ कॉलेज, सतना से मैंने कानून की पढ़ाई की। चक्रभान और महिपाल मेरे तब के दोस्त थे जब हम कोटर में हाई स्कूल में पढ़ते थे। वे दोनों भी कोटर गांव के ही रहनेवाले थे। कोटर मेरे गांव खमरिया से साढ़े सात किलोमीटर दूर था और बीच में एक नदी पड़ती थी। कई बार मुझे तैरकर जाना पड़ता था। सतना में हम तीनों मित्र खुद ही चूल्हा जलाते और रोटियां पकाते। यह तो बहुत कम लोगों को पता है कि मैंने वन विभाग में दिहाड़ी मजदूर के रूप में भी काम किया है। तब मुझे महीने में करीब ढाई हजार मिल जाते थे। इससे मेरा खर्च चलता था।” 

अपने परिजनों के बारे में बताते हुए गणेश सिंह भावुक हो जाते हैं। कहते हैं– “हम सभी भाई-बहनों ने कष्टमय स्थितियों में बचपन जिया है। मैंने अपने भाई-बहनों को पढ़ाया और उनकी शादी की… अब हमारा पूरा परिवार आगे बढ़ गया है। मेरी एक पतोहू सतना जिला पंचायत की अध्यक्ष है। वहीं एक भतीजा आईएएस अधिकारी है। यह सब शिक्षा के कारण हुआ है।”

गणेश सिंह के बारे में दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के असिस्टेंट प्रोफेसर सुधांशु कहते हैं “संसद में ओबीसी को लेकर जितनी स्थायी समितियां बनीं, उनमें सबसे अच्छी समिति गणेश सिंह की अध्यक्षता वाली समिति रही। क्रीमेीलेयर को लेकर एक बेहतरीन रपट गणेश सिंह वाली कमिटी ने सरकार को दी है। यहां तक कि सार्वजनिक लोक उपक्रमों में कार्यरत ओबीसी कर्मियों के क्रीमीलेयर निर्धारण के लिए पदों की समतुल्यता को लेकर जो काम 1993 में ही हो जाना चाहिए था, उसके बारे में भी गणेश सिंह की कमेटी ने पूरा खाका सरकार के समक्ष रखा। गणेश सिंह के योगदानों में केंद्रीय विद्यालयों व सैनिक स्कूलों में ओबीसी को आरक्षण दिया जाना भी शामिल है। साथ ही नवोदय विद्यालय, जिसकी शुरुआत राजीव गांधी ने की थी, उसमें भी ओबीसी के छात्रों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता था। लेकिन गणेश सिंह ने मेहनत करके इसे लागू करवाया। डीयू में भी जब प्रोफेसरों की बहाली हो रही थी तब ओबीसी के अभ्यर्थियों को “नॉट फाऊंड सूटेबिल” करके खारिज किया जा रहा था तब गणेश सिंह ने आगे बढ़कर इस मामले में संज्ञान लिया।”

नई दिल्ली के 8, रकाबगंज रोड स्थित गणेश सिंह के सरकारी आवासीय कार्यालय में नरेंद्र मोदी के साथ उनकी तस्वीर

आपने यह सब कैसे किया? यह पूछने पर गणेश सिंह मुस्कुराते हुए कहते हैं कि “काम तो करना ही था। पार्टी ने जिम्मेदारी दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिम्मेदारी दी थी तो काम तो करना ही था। लेकिन यह भी सही है कि नौकरशाह मुद्दों को लेकर संवेदनशील नहीं रहते हैं। तो कभी-कभार उन्हें कुछ सुना भी देता था। हालांकि उनके साथ मेरे अच्छे ताल्लुकात रहे हैं। मैं तो अपनी उस कमेटी के सभी सदस्यों के प्रति आभार प्रकट करता हूं जो भले ही अलग-अलग राजनीतिक दलों के रहे, लेकिन ओबीसी के लगभग हर मुद्दे पर एक राय रखी।” 

लेकिन आपको बुरा नहीं लगा जब आपकी अध्यक्षता वाली कमेटी की रिपोर्ट पर कार्यवाही न करके सरकार ने बीपी शर्मा कमेटी का गठन कर दिया? इस प्रश्न के उत्तर में गणेश सिंह कहते हैं– “नहीं ऐसा नहीं है कि सरकार ने कार्यवाही नहीं की। मैंने अपनी रपट में क्रीमीलेयर 15 लाख करने की बात कही। अब इसे बढ़ाकर [8 लाख से] 12 लाख किया जा रहा है। मैंने सैनिक स्कूलों में आरक्षण के लिए पहल की। इसके लिए हर स्तर पर काम किया। माननीय प्रधानमंत्री जी से भी मिला। उन्होंने हमारा प्रस्ताव माना। यही नवोदय विद्यालय वाले मामले में भी यही हुआ। प्रधानमंत्री जी ने सहमति दी। तो यह नहीं कहा जाना चाहिए कि सरकार ने हमारी रिपोर्ट पर काम नहीं किया। शर्मा कमेटी का गठन डीओपीटी ने किया। यह विभाग का काम था। उसने किया। अब उसमें जो उसने टिप्पणी की कि आय में कृषि और वेतन से प्राप्त आय को भी जोड़ा जाय तो मैंने इसका विरोध किया। मैंने माननीय प्रधानमंत्री जी को पत्र लिखा और अन्य लोगों को भी आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया। आप ही सोचिए ना कि यदि वार्षिक आय में कृषि और वेतन से प्राप्त आय जोड़ दिया जायेगा तो ओबीसी का आरक्षण तो ऐसे ही खत्म हो जाएगा। खैर अभी तक तो यह प्रस्ताव ही है। सरकार ने इसे लागू नहीं किया है।”

जाति जनगणना के सवाल पर गणेश सिंह मध्यमार्गी रूख अख्तियार करते हैं। हालांकि उनकी पार्टी भाजपा जाति जनगणना के खिलाफ है। लेकिन गणेश सिंह कहते हैं कि जाति नहीं बल्कि वर्ग के आधार पर जनगणना हो। वे कहते हैं कि “मेरे हिसाब से विभिन्न जातियों के बजाय वर्गवार गणना हो। जैसे कि जनगणना प्रपत्र में कॉलम हो और जाति के बजाय ओबीसी लिख दिया जाय।” 

गणेश सिंह के बारे में महाराष्ट्र के युवा ओबीसी सामाजिक कार्यकर्ता सचिन राजुरकर कहते हैं कि “ओबीसी संसदीय समिति के अध्यक्ष के रूप में गणेश सिंह जो किया, वह ऐतिहासिक है। खासकर जिस तरह से उन्होंने बीपी शर्मा कमेटी की अनुशंसाओं का विरोध किया, प्रधानमंत्री को पत्र लिखा, वह उन्हें ओबीसी का संवेदनशील प्रतिनिधि साबित करता है। लेकिन जाति जनगणना का विरोध करने का उनका तर्क आधारहीन है। आज शेड्यूल्ड कास्ट के लोगों की जनगणना होती है तो उनकी जाति भी दर्ज की जाती है ताकि यह पता चल सके कि किस जाति के लोगों की कितनी आबादी है। तो ओबीसी के मामले में केवल ओबीसी क्यों? गणेश सिंह का यह कहना उनकी ही पार्टी की उस नीति के विपरीत है, जिसके तहत केंद्र सरकार ने रोहिणी कमीशन का गठन ओबीसी उपवर्गीकरण करने के लिए किया है।” 

बहरहाल, 8, रकाबगंज रोड, नई दिल्ली अवस्थित गणेश सिंह के सरकारी आवास के दफ्तर में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की तस्वीरें प्रमुखता से लगायी गयी है। वे कहते हैं कि “हमें तो अपने लोगों से मतलब है। हम उनके काम आएं, उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाएं। एक जनप्रतिनिधि होने की यह जिम्मेदारियां हैं और जब मैं यह सब करता हूं तो मुझे बहुत खुशी मिलती है।” 

(संपादन : अनिल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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