h n

मांझी ने किया पंडितों के बहिष्कार का आह्वान, प्रेमकुमार मणि को छोड़ लालू-नीतीश अन्य सभी ने साधी चुप्पी

अपने संबोधन में जीतनराम मांझी ने कहा कि हमलोग बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के नालायक बच्चे हैं कि खाली नाम ले रहे हैं जय भीम। 1956 में बाबा आंबेडकर मरने के पहले हिंदू धर्म में नहीं रहे। बौद्ध धर्म में होकर उनकी मृत्यु हुई। इसके साथ ही मांझी ने पंडितों के बहिष्कार का आह्वान किया। इस संदर्भ में मचे बवाल पर एक नजर

जीतनराम मांझी 20 मई, 2014 को 23वें और दलित समुदाय से आनेवाले तीसरे मुख्यमंत्री बने। उनके मुख्यमंत्री बनने के पीछे की राजनीतिक पृष्ठभूमि यह रही कि उस साल हुए लोकसभा चुनाव में जनता दल एकीकृत (जदयू) ने अकेले चुनाव लड़ा था और उसे केवल एक सीट मिली थी। जदयू के नेता नीतीश कुमार ने इसे अपनी विफलता के रूप में लिया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। बिहार के सियासी गलियारे में संयोग से सीएम अथवा कामचलाऊ सीएम के रूप में उद्धृत जीतनराम मांझी एक बार फिर सुर्खियों में हैं। इस बार वजह यह कि उन्होंने भूईयां-मुसहर सम्मेलन में अपने लोगों को पंडितों के बहिष्कार करने का आह्वान किया तथा इस दौरान उन्होंने असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल किया। इसे लेकर वे ब्राह्मण वर्ग के निशाने पर हैं। सियासी गलियारे में भी उनके खिलाफ आवाजें उठी हैं। केवल पूर्व विधान पार्षद प्रेमकुमार मणि को छोड़कर अन्य किसी भी दलित-बहुजन नेता ने मांझी के बयान का समर्थन नहीं किया है। चुप्पी साधने वालों में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे नेता भी हैं, जो कि दलित-बहुजनों के नाम पर राजनीति करते हैं।

दरअसल, 19 दिसंबर, 2021 को पटना में आयोजित भूईयां-मुसहर मिलन सम्मेलन को संबोधित करते हुए जीतनराम मांझी ने अपना दर्द साझा किया कि वे बिहार में सत्तासीन एनडीए के घटक दल हैं, लेकिन जातिगत जनगणना आदि के सवाल पर हमारे बीच एकता नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि सब जानते हैं कि वे कौन लोग हैं जो जातिगत जनगणना नहीं कराना चाहते हैं। अपने संबोधन के क्रम में उन्होंने कहा कि “हमारे लोग जय भीम बोलते हैं। लेकिन जब कोई बोलता है तो हम अंदर ही अंदर गुस्सा करते हैं। हमलोग बाबा साहब डॉ. आंबेडकर के नालायक बच्चे हैं कि खाली नाम ले रहे हैं जय भीम। जय भीम कहने में दो बात आयी है। सरकार के लिए भी और हमारे लिए भी। सबसे पहले हमारे लिए। 1956 में बाबा आंबेडकर मरने के पहले हिंदू धर्म में नहीं हुए। बौद्ध धर्म में होकर उनकी मृत्यु हुई। उन्होंने कहा था कि हिंदू धर्म इतना खराब धर्म है। आप लोग माफ किजीएगा। हमारे अपने समाज के लोग धर्म परायण होते जा रहे हैं। हमारे समय में सत्यनारायण पूजा नहीं होता था। लेकिन अब यह हमारे टोलों में भी होने लगा है। [उन्होंने खुद को और अपने लोगों के लिए भी एक असंसदीय शब्द का इस्तेमाल करते हुए] हम इतने बेशर्म हो गए हैं कि पंडित [साथ में एक असंसदीय शब्द] हमारे यहां पूजा कराता है और हमें नीच समझकर हमारे यहां खाना तक नहीं खाता। केवल नकदी लेता है।”

इस आशय से संबंधित वीडियो जैसे ही सोशल मीडिया के जरिए लोगों के सामने आया तो आम जन से लेकर सियासी गलियारे तक चर्चा तेज हो गयी। बीबीसी से संबद्ध रहे वरिष्ठ पत्रकार समीरात्मज मिश्र ने टिप्पणी की– “जीतनराम मांझी को अचानक ज्ञान की प्राप्ति हो गई, लगता है। अध्यात्म से लेकर समाजशास्त्र तक पर अद्भुत ज्ञान दे रहे हैं। शुरुआत ‘शराब कैसे पिएँ, कितना पिएँ और किसकी तरह पिएँ’ से की और अब भगवान राम के अस्तित्व और ब्राह्मणों की ग़रीबी पर ज्ञान दे रहे हैं। ज्ञान दें, अच्छा है। लेकिन भाषाई मर्यादा न भूलें। उनकी साफ़गोई अच्छा लगती है लेकिन बेहूदगी नहीं।”

इसी तरह की एक टिप्पणी बिहार की राजनीति दरबदर किए जा चुके पूर्व उपमुख्यमंत्री व राज्यसभा सांसद सुशील कुमार मोदी ने भी की। उन्होंने फेसबुक व ट्वीटर पर लिखा– “ब्राह्मण समाज के लिए जीतनराम मांझी की कथित टिप्पणी अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। संवैधानिक पदों पर रह चुके उनके जैसे वरिष्ठ व्यक्ति को अपने शब्दों की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए और ऐसा कुछ नहीं बोलना चाहिए, जिससे समाज का सद्भाव बिगड़े।”

जीतनराम मांझी पर हमलावर होते हुए बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष मदन मोहन झा ने ट्वीट किया – “अनुचित शब्दों का प्रयोग करने और जाति विशेष पर टिप्पणी करने से बचें। इस बयान के लिए जीतनराम मांझी को सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए।” यहां तक कि राजद प्रवक्ता चितरंजन गगन ने भी जीतनराम मांझी के बयान को आपराधिक कृत्य करार दिया। लोजपा की ओर से भी जीतनराम मांझी की निंदा उसके प्रदेश प्रवक्ता चंदन सिंह ने की है। कांग्रेस के विधान पार्षद प्रेमचंद मिश्रा ने राज्य सरकार से मांग किया है कि वह मांझी के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज कराए।

जीतनराम मांझी, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री

बहरहाल, बिहार के सियासी गलियारे में मचे बवाल के बाद जीतनराम मांझी ने कहा कि उन्होंने जो बातें कही हैं, वह अपने समाज के लोगों के लिए कही है। पंडितों के लिए नहीं कही है। हमारे समाज के लोग ऐसे लोगों से पूजा करा रहे हैं जो हमारे यहां खाना खाना तक पसंद नहीं करते हैं। हालांकि मांझी ने यह भी कहा कि यदि उनके संबोधन से पंडितों को कष्ट हुआ तो इसके लिए वे माफी मांगते हैं।

हालांकि, जीतनराम मांझी पहले भी हिंदू धर्म और उसकी कुरीतियों को लेकर मुखर रहे हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब उन्होंने राम के संबंध में टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि राम कोई ऐतिहासिक पुरुष थे, इसका साक्ष्य नहीं मिलता है। जो कुछ भी रामायण में लिखा गया है, वह काल्पनिक बात है। राम को खारिज करते हुए जीतनराम मांझी ने यह भी कहा कि राम से बड़े वाल्मीकि थे, जिन्होंने रामकथा की रचना की। मांझी की इस टिप्पणी को लेकर भी तब बिहार के सियासी गलियारे में लोग खूंटा उखाड़ने लगे थे।

दरअसल, बीते 19 दिसंबर को जो उन्होंने कुछ कहा है, वह बिहार में बदलते हुए समाज और मनोदशा को बयां करता है। बिहार के दलित और ओबीसी परिवारों के रस्म-रिवाजों व अनुष्ठान आदि में ब्राह्मणों की घुसपैठ जबरदस्त तरीके से बढ़ी है और सत्यनारायण पूजा, जिसकी बात मांझी ने अपने संबोधन में कही है, वह बीते दो दशकों में बढ़ा है। इसी तरह का एक व्रत है जिसे संतोषी मां का व्रत कहा जाता है, जो कि 1975 में ‘जय संतोषी मां’ नामक फिल्म के आने के बाद लोकप्रिय हुआ है। 

जीतनराम मांझी के बयान के संबंध में पूर्व विधान पार्षद प्रेमकुमार मणि ने अपनी टिप्पणी में लिखा है– “सोशल मीडिया पर [जीतनराम मांझी के खिलाफ] पांडे, त्रिवेदी-चतुर्वेदियों के गाली-गलौच देख कर मैं केवल क्षुब्ध हो रहा हूं। उनके नफरत का संचित गुबार फूट पड़ा है। हमारे नागरिक समाज में अभिव्यक्ति और विवेक की जगह लगातार संक्षिप्त होती जा रही है। हम एक जाहिलिया ज़माने की तरफ समृद्ध गति से बढ़ रहे हैं। जिस पटना और काशी में कभी बुद्ध और कबीर ने धार्मिक पाखंडों की पोलपट्टी खोली थी, वही आज जीतनराम को मुआफी क्यों मांगनी पड़ रही है? दरअसल यह हमारे सामाजिक पतन का परिचायक है। जो गलत है, उसे गलत कहना पड़ेगा। जीतनराम ने ब्राह्मणवादी पाखंड पर हल्ला बोल कर स्वागत योग्य काम किया है। हालांकि यह सब को मालूम है कि वह परउपदेशी ही अधिक हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन में वह भी उन्ही पाखंडियों से घिरे रहते हैं। अन्यथा भाजपा की राजनीतिक जमात में वह क्या कर रहे हैं? 

दलित-पिछड़े तबके के लोग अपने मित्रों और शत्रुओं को पहचानने लगे हैं। वह किसी जाति विशेष के विरोधी नहीं हैं। कुसंस्कारों और कुप्रवृत्तियों के विरोधी हैं। जवाहरलाल नेहरू कहते थे कि दो तरह के अंग्रेज हिंदुस्तान आए। एक तो वे, जिन्होंने यूरोप का ज्ञान-विज्ञान, लोकतांत्रिक विचार और आधुनिक साहित्य लाया। दूसरे वे, जिन्होंने भारत को गुलामी दी और यहां की जनता का दमन किया। हम पहले तबके के अंग्रेजों का स्वागत करेंगे, लेकिन दूसरे तबके के अंग्रेजों को कभी नहीं बर्दाश्त करेंगे। ब्राह्मणों के भी दो तबके हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, राहुल सांकृत्यायन और डीडी कोसंबी जैसे लोग भी ब्राह्मण थे। वे हमारे कंठहार हैं, उनसे हम सीखते हैं। वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं। लेकिन पाण्डे-पुरोहितों को कोई कैसे बर्दाश्त कर सकता है। उनके लिए तो कठोर से कठोर शब्दों का प्रयोग करना ही होगा।”

 (संपादन : अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

उत्तर प्रदेश में लड़ रही हैं मायावती, लेकिन सवाल शेष
कई चुनावों के बाद लग रहा है कि मायावती गंभीरता से चुनाव लड़ रही हैं। चुनाव विश्लेषक इसकी अलग-अलग वजह बता रहे हैं। पढ़ें,...
वोट देने के पहले देखें कांग्रेस और भाजपा के घोषणापत्रों में फर्क
भाजपा का घोषणापत्र कभी 2047 की तो कभी 2070 की स्थिति के बारे में उल्लेख करता है, लेकिन पिछले दस साल के कार्यों के...
शीर्ष नेतृत्व की उपेक्षा के बावजूद उत्तराखंड में कमजोर नहीं है कांग्रेस
इन चुनावों में उत्तराखंड के पास अवसर है सवाल पूछने का। सबसे बड़ा सवाल यही है कि विकास के नाम पर उत्तराखंड के विनाश...
‘आत्मपॅम्फ्लेट’ : दलित-बहुजन विमर्श की एक अलहदा फिल्म
मराठी फिल्म ‘आत्मपॅम्फलेट’ उन चुनिंदा फिल्मों में से एक है, जो बच्चों के नजरिए से भारतीय समाज पर एक दिलचस्प टिप्पणी करती है। यह...
मोदी के दस साल के राज में ऐसे कमजोर किया गया संविधान
भाजपा ने इस बार 400 पार का नारा दिया है, जिसे संविधान बदलने के लिए ज़रूरी संख्या बल से जोड़कर देखा जा रहा है।...