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संजय सहाय की ‘हंसवाणी’ से गो-भक्तों को चुभन

यह टिप्पणी मुझे इसलिए लिखनी पड़ रही है, क्योंकि इस विषय पर ‘हंस’ के संपादक संजय सहाय के खिलाफ जोधपुर में हिंदुत्ववादियों द्वारा एफआईआर दर्ज कराए जाने की सूचना मिली है। संजय जी ने ‘हंस’ के अक्टूबर 2021 अंक में ‘उवाच-ए-मिट्ठू’ शीर्षक से सम्पादकीय लिखा है। बता रहे हैं कंवल भारती

नजरिया 

गाय नहीं जानती कि उसके नाम पर सरकार बन चुकी है। वह यह भी नहीं जानती कि हिंदुओं ने उसे माता बना दिया है। वह बेचारी पहले की तरह प्लास्टिक और गंदगी खाती घूम रही है। लोग दूध के लिए गाय को पालते हैं, और जब वह दूध देना बंद कर देती है, तो उसे खुला छोड़ देते हैं। फिर किसी को उससे कोई मतलब नहीं। कहीं जाए, कुछ भी खाए, जिन्दा रहे या मरे। पहले लोग बूढ़ी गाय को कसाई को बेच देते थे। लेकिन अब संघियों के डर से कोई नहीं बेचता। इसलिए मारी-मारी फिरती हैं। पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू लाख कहते रहें कि एक जानवर हमारी माता कैसे हो सकता है? गाय को न वेद माता मानते हैं, न उपनिषद, न स्मृतियां, जिस मनुस्मृति को ब्राह्मण अपना पवित्र कानून मानते हैं, उसमें भी गाय को माता नहीं कहा गया है। लेकिन हिंदुत्ववादियों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनके लिए गाय माता है, तो है, और डंडे के बल पर वे पूरे देश को मनवाएंगे कि गाय माता है, जो नहीं मानेगा, उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करायेंगे, और इससे भी बात नहीं बनी, तो कानून अपने हाथ में लेकर खुलेआम हिंसा करेंगे।

यह टिप्पणी मुझे इसलिए लिखनी पड़ रही है, क्योंकि इस विषय पर ‘हंस’ के संपादक संजय सहाय के खिलाफ जोधपुर में हिंदुत्ववादियों द्वारा एफआईआर दर्ज कराए जाने की सूचना मिली है। संजय जी ने ‘हंस’ के अक्टूबर 2021 के अंक में ‘उवाच-ए-मिट्ठू’ शीर्षक से सम्पादकीय लिखा है। इसमें गाय को लेकर हिंदुत्ववादियों द्वारा फैलाए जा रहे अवैज्ञानिक और हास्यास्पद बातों का व्यंग्यात्मक शैली में जवाब दिया है। उन्होंने बहुत ही मजेदार शुरुआत की है– “प्रयागराज की अंतड़ियों से गोवंश पर एक आले दर्जे का निबंध प्रकाश में आया है, जिसमें विज्ञान, आध्यात्मिकता, अर्थशास्त्र, धर्म, दर्शन, संस्कृति सब पर इतने पते की बातें कही गई हैं कि हम जैसे छोटे-मोटे लोगों के तो सात तबके रौशन हो गए हैं। इस विलक्षण निबंध पर अपनी तुच्छ बुद्धि से अपना जोतिर्लिंग बार कर (जलाकर) हम प्रकाश डालने का पूरा प्रयास करेंगे। और उन्होंने अपनी पूरी तर्क-क्षमता और विज्ञान-दृष्टि से निबंधकार की बातों को रखते हुए, अपने पाठकों का ज्ञान-वर्द्धन किया है। जब निबंधकार लिखता है कि सूर्य को भी रौशनी गाय माता से ही मिल रही है, तो संजय जी सही टिप्पणी करते हैं कि “क्वांटम मेकैनिक्स वाले कहाँ छिप गए?” वे इस विभ्रम का खंडन क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि जो सूर्य सम्पूर्ण विश्व को प्रकाश दे रहा है, वह अपना प्रकाश गाय से ले रहा है?

मुझे जौनपुर की एक घटना याद आती है। इस बात को बीस साल से भी ज्यादा हो गए। मैं उन दिनों सरकारी सेवा में जौनपुर में तैनात था और माताप्रसाद जी के घर में रहता था, जो उस समय अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल थे। उनके बेटे कर्मवीर भारती (वकील साहब) से मिलने के लिए कोई महाशय आए, जिनके सिर पर एक मोटी शिखा (चोटी) थी। मैंने उन्हें अपने कमरे में बिठा लिया। कुछ ही देर में वकील साहब भी आ गए। जब उन्होंने उन महाशय से चाय के लिए पूछा, तो वह बोले, “मैं तो दूध भी नहीं पीता, चाय कैसे पी लूँगा?” मैंने पूछा, “दूध में क्या परेशानी है?” तो बोले, “दूध मांसाहारी है। यह सफ़ेद खून है। आप लोग भी मत पिया करो?” मैंने कहा, “हम तो हैं ही मांसाहारी। हमें दूध से कोई परेशानी नहीं है।” आज यह बात इसलिए याद आई कि संजय सहाय ने उसी का संज्ञान लेकर अच्छा व्यंग किया है– “इस घटिया नॉन-वेजीटेरियन पेय पर गोमांस की तरह ही तत्काल प्रतिबंध लगा देना चाहिए।” जब गोमांस वर्जित है, तो गोरस क्यों पिया जा रहा है?

संजय सहाय, संपादक, मासिक साहित्यिक पत्रिका हंस

गाय की आध्यात्मिकता को लेकर हिंदुत्ववादियों द्वारा इतना अंधविश्वास फैलाया जा रहा है कि गाय न हो गई, पूरा आयुर्विज्ञान हो गई। गाय की पूजा से तैंतीस करोड़ देवताओं की पूजा का फल बताया जा रहा है। संजय सहाय ने अपने घर का उदाहरण देकर ठीक ही हिंदुत्ववादियों पर तमाचा मारा है। उनके घर में अन्य पक्षी-पशुओं के साथ-साथ एक गाय भी पलती थी। उनकी माँ गाय की बहुत सेवा करती थीं। उन्होंने लिखा है– “किन्तु एक दिन वह बीमार पड़ गई। अपने गोमूत्र और गोबर से विश्वभर की पवित्र और पतित व्याधियों का उपचार करती, नासा के वैज्ञानिकों को चाँद और मंगल पर पहुंचाती, एटमी विकिरण से जगत को बचाती, गोवंश की वह महान आत्मा तमाम इलाजों के बावजूद खुद को ही न बचा सकी।”

कुछ तो कारण रहा होगा, जो हिंदू ऋषि-मुनियों ने गाय को विष्णु का अवतार नहीं बताया, जबकि उन्होंने वराह (सूअर) को अवतार लिखा। किन्तु संघी हिंदुत्ववादियों से यह चूक कैसे हो गई? जब उन्होंने गाय में तैंतीस करोड देवता देख लिए, तो विष्णु के अवतार की कल्पना भी उसमें कर लेनी चाहिए थी। लेकिन संजय जी ने गलत नहीं पूछा है कि “महान वराह जी ने मनुष्य-कल्याण में भोजन बनने के अतिरिक्त और क्या भूमिका निभाई है?” वह अभी भी रोज काटे जाते हैं और खाए जाते हैं।

प्रयागराज के निबंधकार गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करवाना चाहते हैं। इस पर संजय जी का व्यंग्य आपत्तिजनक नहीं है, बल्कि गौरतलब है– “जब बाघ के साथ गाय को संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पशु पद पर बिठाने में किंचित व्यावहारिक कठिनाइयाँ तो आ ही सकती हैं। जैसे पल भर को नजर हटी और गाय गायब। जाहिर है बाघ से त्यागपत्र ले लेना ही श्रेयष्कर होगा।” किन्तु हिंदुत्ववादियों की कोई भी योजना दलितों और मुसलमानों के इर्दगिर्द ही घूमती है, चाहे वह धर्मान्तरण का कानून हो, लव-जिहाद हो, घर-वापसी हो, और चाहे गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का मामला हो। इन सबके पीछे उनका मकसद दलितों और मुसलमानों को सबक सिखाना होता है। अगर गाय भी राष्ट्रीय पशु घोषित हो गई, तो गाय के साथ कुछ भी जोड़कर वे आसानी से किसी भी दलित और मुसलमान को राष्ट्र-द्रोह के आरोप में जेल में सड़ा सकते हैं।

संजय सहाय ने जिस निबंध की चर्चा अपने सम्पादकीय में की है, वह आरएसएस का पुराना राग है। यह आरएसएस के उसी अभियान का हिस्सा है, जो उसने अपने ‘राष्ट्र जागरण अभियान, युगाब्द 5102’ के अंतर्गत चलाया था। जिन्होंने मेरी किताब ‘आरएसएस और बहुजन चिंतन’ नहीं पढ़ी है, उनसे मैं उसे पढ़ने का आग्रह करूँगा। उसमें आरएसएस के इस अभियान की पूरी शव-परीक्षा की गई है। इसी अभियान की छठी कड़ी में ‘गोवंश, रक्षण, पालन तथा संवर्धन’ नाम से पुस्तिका जारी हुई थी, जिसमें गाय के ऐसे-ऐसे वैज्ञानिक महत्व बताए गए हैं, कि अगर कोई वास्तव में वैज्ञानिक है, तो वह उसे पढ़कर अपना सिर फोड़ लेगा। ये सारे महत्व हवाई कल्पना से गढ़े गए हैं। इस पुस्तिका के लेखक कोई डा. प्रेमचन्द जैन हैं। संभव है, प्रयागराज से प्राप्त कथित निबंध भी इसी पुस्तिका का चरबा हो। इसमें लिखा है, “गाय के दूध में नाभिकीय विकिरण (एटामिक रेडिएशन) से रक्षा करने की सर्वाधिक शक्ति होती है, ऐसा रूसी वैज्ञानिक शिरोविच कहते हैं।” हो सकता है, कोई संघी रूस में जाकर शिरोविच बन गया हो। और अगर वास्तव में कोई शिरोविच हुआ है, तो उसके जिस शोध-ग्रन्थ में इस महान खोज का वर्णन किया गया है, उसका संदर्भ पुस्तिका में क्यों नहीं दिया गया? डा. प्रेमचंद जैन को उस ग्रन्थ का पूरा विवरण देना चाहिए था। पर वह दें तो तब, जब वह ग्रन्थ अस्तित्व में हो?

गाय का दूसरा वैज्ञानिक महत्व यह बताया गया है कि “जिन घरों में गाय के गोबर से लिपाई-पुताई होती है, वे घर रेडियो विकिरणों से सुरक्षित रहते हैं।” यह भी हवाई गप है, इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। हालाँकि न आरएसएस के मोहन भागवत और न भाजपा के नरेंद्र मोदी अपने आवास में गाय के गोबर से लिपाई-पुताई कराते होंगे। ब्राह्मण-ठाकुर तो वैसे भी गोबर को हाथ नहीं लगाते। लेकिन सच यह है कि गरीबों के जिन घरों में आज भी गोबर से लिपाई-पुताई होती है, उन घरों के लोग ज्यादा बीमार और अस्वस्थ रहते हैं।

गाय के वैज्ञानिक महत्व की तीसरी गप यह हांकी गई है कि “गाय और उसकी संतान के रम्भाने की आवाज से मनुष्य की मानसिक विकृतियाँ एवं रोग दूर हो जाते हैं।” मतलब यह कि अस्पतालों की जरूरत ही नहीं है। बस मानसिक रोगियों के बीच गायों और बछड़ों को बाँध दिया जाए, और भूखा रखा जाए, ताकि वे दिन भर रंभाते रहें और रोगी ठीक हो जाएँ।

गाय के वैज्ञानिक महत्व की एक गप यह भी लिखी है, “क्षय रोगियों को गाय के बाड़े या गोशाला में रखने से गोबर और गोमूत्र की गंध से क्षय रोग के कीटाणु मर जाते हैं।” जब इतना महत्व है, तो सभी गोशालाओं को क्षय रोग के अस्पताल क्यों नहीं बनाया जा रहा है? न डाक्टरों की जरूरत पडेगी, और न दवाइयों की। यही लोग आज सत्ता में भी हैं, तो वे गोशालाओं में ही क्षय रोगियों को रखने का काम क्यों नहीं कर रहे हैं?

एक और वैज्ञानिक महत्व का राग यह अलापा गया है कि “एक तोला गाय के घी से यज्ञ करने पर एक टन आक्सीजन बनती है।” अगर ऐसा होता, तो सबसे पहले गाय के घी से आक्सीजन बनाने का धंधा बाबा रामदेव ही करते, और सारे संत-महात्माओं के आश्रमों में गाय के घी से आक्सीजन बनती होती। आरएसएस के उन महान वैज्ञानिक खोजियों ने कोरोना काल में इस विधि से आक्सीजन का उत्पादन क्यों नहीं किया? क्यों आक्सीजन की कमी से लोगों को मरने दिया? जब आरएसएस के इन महान वैज्ञानिकों के पास आक्सीजन बनाने की इतनी आसान विधि है, तो उनकी सरकार करोड़ों रुपए आक्सीजन प्लांट लगाने में क्यों खर्च कर रही है?

विचारणीय बात यह है कि गाय के नाम पर इतनी गप्पें गढ़ने और पाखंड रचने से भी वे कुछ हासिल नहीं कर पाए। आखिर वे क्या करना चाहते हैं? अगर सर्वे कराया जाए तो आरएसएस के एक भी नेता के घर में गाय नहीं मिलेगी। लेकिन गाय के नाम पर राजनीति करेंगे। गाय को माता मानेंगे, मगर मरी हुई गाय को उठाने में पाप मानेंगे। यह गो-भक्ति है या गो-पाखंड?

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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