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नगालैंड का ‘सच’ छिपाने का निहितार्थ

फायरिंग की आवाज सुनकर घटनास्थल पर पहुंचने वाले ग्रामीणों और चश्मदीदों का दावा है कि सेना के जवानों ने मजदूरों को मारने के बाद उनके कपड़ों को बदलने की कोशिश की थी। फायरिंग में मारे गए मजदूर शोमवांग की बहन ने भी कहा है कि जब वो वहां पहुंची तो उन्होंने शोमवांग की लाश को अर्धनग्न अवस्था में पाया था। बता रहे हैं अश्विनी कुमार पंकज

नगालैंड हिंसा में 15 लोगों की मौत के बाद, जिनमें 14 आम नागरिक और एक सेना का जवान शामिल है, फिर से देश में आर्म्ड फोर्सेंस स्पेशल पावर एक्ट, 1958 (अफस्पा) कानून पर बहस उठ खड़ा हुआ है। नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफियू रियो सहित देश के अनेक मानवाधिकार और आदिवासी संगठनों ने ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार अफस्पा कानून को तुरंत वापस लेने की मांग की है। वहीं, केंद्रीय गृहमंत्री और सेना के उस बयान पर भी सवाल खड़े हो गए हैं, जिसमें कहा गया है कि गलत पहचान और चेतावनी के बावजूद भागने के कारण यह घटना हुई। लेकिन सेना के हमले में बचे एक घायल शीवांग का कहना है, “हमें रुकने का संकेत नहीं दिया गया था। हम पर सीधे गोली चलाई गई। हम भागने की कोशिश नहीं कर रहे थे।” जाहिर है कि नगालैंड फायरिंग की सच्चाई वह नहीं है जो सेना और सरकार बता रही है, क्योंकि इस फायरिंग से जुड़े जो तथ्य, अब धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं, उनसे कुछ और ही कहानी का संकेत मिल रहा है। 

सबसे पहला तथ्य है 23 वर्षीय शीवांग का बयान, जो उस पिकअप वैन में सवार आठ खनन मजदूरों में से एक है, जिस पर सुरक्षा बलों ने गोलीबारी की थी, जिससे वैन में सवार छह मजदूरों की मृत्यु हो गई थी। डिब्रुगढ़ के असम मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (एएमसीएच) में भर्ती घायल शीवांग ने एक अंग्रेजी दैनिक को दिए गए बयान में कहा है कि वे लोग हमेशा की तरह शनिवार को घर लौट रहे थे, जब सुरक्षा बलों ने बगैर किसी चेतावनी के उन पर अचानक से गोलीबारी कर दी। उसने कहा कि “हमें रुकने का संकेत नहीं दिया गया था। हम पर सीधे गोली चलाई गई। हम भागने की कोशिश नहीं कर रहे थे।” शीवांग को कोहनी और सीने पर गोली लगी है। जबकि गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में कहा था कि सुरक्षाबलों ने पहले लोगों को रुकने का इशारा किया था, लेकिन लोग भागने की कोशिश करते दिखे, जिसके बाद उनके उपर गोली चलाई गई। 

स्थानीय लोगों और घटना के चश्मदीदों के अनुसार कोयला खदान में काम करने वाले मजदूर शनिवार के दिन ही तिरु गांव से ओटिंग लौटते थे। 4 दिसंबर, 2021 को शनिवार की शाम भी उन सबका लौटना उनके रूटीन का हिस्सा था। आश्चर्य है कि इंटेलीजेंस से मिली ‘पुख्ता सूचना’ के बाद सुरक्षा बलों ने स्थानीय आवाजाही के इस रूटीन को जाने-समझे बिना यह कार्रवाई की, जिसके चलते मौके पर छह लोग और इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गुस्साई भीड़ को नियंत्रित करने की कार्रवाई के दौरान और आठ लोग सेना द्वारा मार डाले गए। इन आठ लोगों के मारे जाने पर सेना का कहना है कि जवानों ने आत्मरक्षा के चलते गोलियां चलाईं, जिसमें सेना के भी दो जवान घायल हुए हैं। 

अफस्पा पर सवाल उठाती आंखें

दूसरा, जो तथ्य है, वह सेना और गृह मंत्री की ‘स्टोरी’ को एक सिरे से खारिज कर देता है कि यह घटना गलत पहचान, चेतावनी के बाद नहीं रुकने और भागने के कारण हुई है। फायरिंग की आवाज सुनकर घटनास्थल पर पहुंचने वाले ग्रामीणों और चश्मदीदों का दावा है कि सेना के जवानों ने मजदूरों को मारने के बाद उनके कपड़ों को बदलने की कोशिश की थी। फायरिंग में मारे गए मजदूर शोमवांग की बहन ने भी कहा है कि जब वो वहां पहुंची तो उन्होंने शोमवांग की लाश को अर्धनग्न अवस्था में पाया था। उन्होंने कहा कि फायरिंग के बाद मृतकों के कपड़े बदले गए थे।

यह भी पढ़ें : हम नगालैंड के ‘संहार’ के ख़िलाफ़ खामोश क्यों हैं?

फायरिंग की आवाज सुन घटनास्थल पर पहुंचने वालों में से एक प्रमुख चश्मदीद गवाह हैं कीपवांग कोन्याक। कीपवांग ने मीडिया वालों को बताया है कि जब वो मौके पर पहुंचे तो उन्होंने एक तेज रफ्तार पिक अप वैन को वहां से जाते देखा। जब स्थानीय लोगों ने उस वैन का पीछा किया तो पाया कि सेना के जवानों की तीन और गाड़ियां वहां थीं। उन्होंने बताया कि वो लोग कपड़े बदलने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने सवाल उठाया कि जब ये गलत पहचान का मामला था तो सेना के लोग उन लोगों के कपड़े बदलने की कोशिश क्यों कर रहे थे जो मर गए थे? सवाल यह भी कि क्या सेना के जवान उनके कपड़े बदलकर उन्हें ‘उग्रवादी’ साबित करना चाहते थे? 

स्थानीय लोगों का कहना है कि जब उन्होंने शोमवांग की पिकअप वैन में गोलियों के निशान और खून के धब्बे देखे तो उन्हें शक हुआ कि कुछ गड़बड़ है। इसके बाद उन लोगों ने गाड़ियों को चेक करने का फैसला लिया। तभी उन्हें वहां एक और पिकअप वैन मिली जिसमें लाशों को तिरपाल से ढककर रखा गया था। इस तथ्य की पुष्टि करने वाला एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें सेना की पिकअप वैन के नंबर दिख रहे हैं, जिसमें मारे गए छह मजदूरों की लाशों को रखा गया था। नगालैंड पुलिस ने भी अपनी रपट में सेना द्वारा “शवों को एक पिकअप ट्रक में लपेटकर और रखकर छिपाने की कोशिश” करने की बात दर्ज की है।  

साफ है कि कहानी वह नहीं जो सेना और सरकार द्वारा देश और दुनिया को बतायी जा रही है, उसमें कई पेंच हैं। इसके कारणउपजी हिंसा में और जानें गईं व अनेक लोग घायल हुए। नगालैंड के नागरिकों में आक्रोश व्याप्त है और समूचा मोन जिला हिंसा की चपेट में है। पर यह कोई नई घटना नहीं है। अफस्पा कानून की आड़ में और देश की सुरक्षा तथा आंतक विरोधी कार्रवाइयों के फलस्वरूप उत्तर-पूर्व के नागरिकों के जीवन के साथ खिलवाड़ 1958 के बाद से ही होता रहा है। 4 दिसंबर की शाम ओटिंग के तिरु गांव में हुई सेना की फायरिंग अफस्पा का ही परिणाम है जो सेना को इस तरह की कार्रवाइयों की खुली छूट देता है। इसलिए मोन फायरिंग के बाद नगालैंड के सीएम नेफियू रियो ने अपने पहले ही बयान में जहां इसकी निंदा की है, वहीं उन्होंने अफस्पा को वापस लेने की मांग भी रखी है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अश्विनी कुमार पंकज

कहानीकार व कवि अश्विनी कुमार पंकज पाक्षिक बहुभाषी आदिवासी अखबार ‘जोहार दिसुम खबर’ तथा रंगमंच प्रदशर्नी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका ‘रंग वार्ता’ के संपादक हैं।

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