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हरिद्वार धर्मसंसद प्रकरण : खूंखार दरिंदों के फकत नाम अलग हैं

हरिद्वार के धर्म संसद तथा देश की राजधानी दिल्ली और दूसरी जगहों पर खुलेआम कुछ लोग हिन्दू राष्ट्र के लिए शपथ दिलाकर मुसलमानों का कत्लेआम करने के लिए हिंदुओं को उकसा नहीं रहे हैं? क्या इनलोगों को सत्ता का खुला संरक्षण प्राप्त नहीं है? क्या इस देश में मुसलमानों के जान की कोई कीमत नहीं है? क्या देश का कोई संविधान नहीं है? जवाब तलब कर रहे हैं अली अनवर

नजरिया

जेहादी असली मुसलमान नहीं हैं और ना ही हिंदुत्ववादी असली हिंदू। दोनों सियासत (सत्ता सुख भोगने) के लिए मजहब का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं। दाढ़ी रखने, टोपी पहनने, अल्लाहोअकबर कहने भर से कोई सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता और ना ही गेरुआ वस्त्र धारण कर लेने, माथे पर टीका-चंदन लगाने तथा जय श्रीराम बोलने से कोई सच्चा हिंदू हो सकता है। धर्म तो विनम्रता सिखाता है। अकड़ना तो घमंड और गुरूर कहलाता है। फिर हम क्यों कहते हैं कि गर्व से कहो हम हिंदू हैं। फक्र से कहो हम मुसलमान हैं?

इस्लाम में जेहाद बुराई से बचने के लिए तथा खुद की इंद्रियों पर काबू करने का नाम है। लेकिन आज कई मुल्कों के कुछ मुसलमानों ने जेहाद का मतलब हल उल वहीद अल जेहाद अर्थात हर मसले का हल जेहाद बना दिया है। जेहाद का मतलब नाहक मारकाट मचाना कतई नहीं है। इस्लामी मान्यताओं के अनुसार दुनियाभर में 1,24000 नबी (पैगंबर) गुजरे हैं, लेकिन किसी ने ऐसा नारा नहीं दिया। आज के हालात से भी उस दौर के हालात खराब रहे होंगे, क्योंकि तब ना कोई राष्ट्र राज्य होगा ना कोई उसका लिखित संविधान तथा उसके नियम कानून। मगर उन नबियों का नारा तो था– हल उल वहीद अल दावा अर्थात हर मसले का हल दावतहै। दावत का मतलब होता है, एक इंसान को दूसरे इंसान से जोड़ना। सभी मुसलमान-हिंदू भाइयों को सोचना चाहिए कि क्या ये जेहादी और हिंदुत्ववादी एक इंसान को दूसरे इंसान से जोड़ने का काम कर रहे हैं या उन्हें बांटने का? क्या ये आपस में मेल मिलाप बढ़ा रहे हैं या नफरत और कटुता?  

इस्लाम मजहब के आखिरी पैगंबर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पूरी जिंदगी उकसावे से बचने की बात की और दावत पर जोर दिया। इनकी जिंदगी में कुल 27 जंगें हुईं, जिसमें हुजूर ने खुद हिस्सा लिया। इसमें से सिर्फ तीन में लड़ाई हुई– बदर की जंग, ओहद की जंग तथा हुनैन की जंग। इन 10 सालों के अंदर कुल 249 मुसलमान मरे और 750 विरोधी मारे गए। मैं मजहबी मामलों का तो बहुत जानकार नहीं हूं, लेकिन इतना तो जानता हूं कि कुरान पाक में जिन बातों पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया है वह है अखलाक। यानी इंसानियत-भाईचारा, मोहब्बत। 

धर्म आधारित राज्य पाकिस्तान का हश्र हमने देखा है। किसी भी मजहबी राष्ट्र में न अमन चैन रहता है और न प्रजातंत्र। न वह देश लम्बे समय तक एकजुट और खुद मोख्तार रह सकता है। पाकिस्तान न सिर्फ दो टुकड़ों में बंट गया बल्कि आज का जो पाकिस्तान है उसमें बलूच, सिंधी, पंजाबी सभी अपने को अलग कौम समझते हैं। कौम का मतलब बिरादरी नहीं, राष्ट्र होता है। सिया-सुन्नी के बीच अलग मारकाट है। बिहार और उत्तर प्रदेश से गए मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। क्या भारत की सरकार और यहां के लोग इससे सबक नहीं सिखना चाहते हैं?

कई इस्लामी धर्म गुरुओं द्वारा जेहाद के लिए कथित रूप से फतवा जारी किया जाता है। मगर, इस्लामी तरीका यह है कि फतवा जाती (व्यक्तिगत) तौर पर जिसको जरूरत हो उसके मांगने पर दी जानी चाहिए। फतवा देने वाले मुफ्ती को यह भी देखना चाहिए कि कहीं फतवा मांगने वाले का मकसद फितना-फसाद फैलाना तो नहीं है। ये मुफ्ती हसब-नसब (जातपात/ऊंच-नीच) खत्म करने के बारे में फतवा क्यों नहीं देते? हसब-नसब के खिलाफ पैगंबर मोहम्मद ताजिंदगी हिदायत करते रहे।

राम का नाम लेकर क्या हिन्दुत्ववादी सभी तरह की मर्यादाओं को तोड़ नहीं रहे हैं? दावा तो यह भी किया जाता है कि हिंदू धर्म अन्य धर्मों की तुलना में ज्यादा उदार है और वसुधैव कुटुम्बकम् की बात कही जाती है, लेकिन दूसरे धर्मों की बात तो छोड़ दीजिए अपने ही धर्म की एक बड़ी आबादी को अछूत मानकर उसकी परछाईं से भी नफरत करने का रिवाज भी रहा है। हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र की बात करने वाले लोगों ने भारत में किस तरह का कोहराम मचा रखा है। लव जेहाद, घर वापसी, गोरक्षा के नाम पर मॉबलिंचिंग की जो घटनाएं हो रही हैं, क्या इसी को हिंदुत्व कहते हैं? क्या ऐसा ही हिंदू राष्ट्र होगा? क्या प्रधानमंत्री मोदी जी का सबका साथ सबका विकास, सबका विश्वास’ का नारा शातिराना पाखंड नहीं है

हरिद्वार के धर्म संसद तथा देश की राजधानी दिल्ली और दूसरी जगहों पर खुलेआम कुछ लोग हिन्दू राष्ट्र के लिए शपथ दिलाकर मुसलमानों का कत्लेआम करने के लिए हिंदुओं को उकसा नहीं रहे हैं? क्या इनलोगों को सत्ता का खुला संरक्षण प्राप्त नहीं है? क्या इस देश में मुसलमानों के जान की कोई कीमत नहीं है? क्या देश का कोई संविधान नहीं है? क्या भारत एक जम्हूरी मुल्क नहीं है? क्या मोदी जी भारत को इस तरह दूसरा पाकिस्तान बनाना चाहते हैं? क्या इस देश में इस तरह की स्थिति के लिए सौ साल से लोगों को तैयार नहीं किया जा रहा था?

मगर भारत के आम लोग मेल-मिलाप के पक्षधर हैं। प्रेम मनुष्य का स्थायी भाव है। नफरत, घृणा तो अस्थाई और बनावटी है। इसे पंप कर फुलाया जाता है। बदलते समय के साथ सभी धर्मों की कुछ बातें अप्रासांगिक और गैरजरूरी लग सकती हैं लेकिन नफरत और हिंसा करना कोई धर्म नहीं सिखाता।

मजहबें नहीं सिखातीं आपस में बैर रखना

जेहाद और हिंदुत्व तो सियासी अल्फाज बन गए हैं। एक तरफ की धार्मिक कट्टरता दूसरे तरह की धार्मिक कट्टरता का पोषण करती है। हालांकि यह बात भी सही है कि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता फासीवाद-तानाशाही को जन्म दे सकती है, जिसमें संविधान और जम्हूरियत का गला घोट दिया जाता है। इसी के लिए भाजपा संघ परिवार धर्म आधारित राज्य बनाने के एजेंडा पर आगे बढ़ रहे हैं। धर्म आधारित राज्य पाकिस्तान का हश्र हमने देखा है। किसी भी मजहबी राष्ट्र में न अमन चैन रहता है और न प्रजातंत्र। न वह देश लम्बे समय तक एकजुट और खुद मोख्तार रह सकता है। पाकिस्तान न सिर्फ दो टुकड़ों में बंट गया बल्कि आज का जो पाकिस्तान है उसमें बलूच, सिंधी, पंजाबी सभी अपने को अलग कौम समझते हैं। कौम का मतलब बिरादरी नहीं, राष्ट्र होता है। सिया-सुन्नी के बीच अलग मारकाट है। बिहार और उत्तर प्रदेश से गए मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। क्या भारत की सरकार और यहां के लोग इससे सबक नहीं सिखना चाहते हैं?

सावरकर ने सबसे पहले पितृभूमि, पुण्यभूमि की बात कर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात की। सावरकर के इस फार्मूला के अनुसार मुसलमान और इसाई भारतीय नहीं माने जाएंगे। इनको ज्यादा से ज्यादा दोयम दर्जे का शहरी बना दिया जाएगा। इसकी प्रतिक्रया में जल्द ही जिन्ना ने दो कौमी नजरिया की बात कर पाकिस्तान बनाने की मांग कर डाली। उस समय भी आम हिन्दूओं ने हिन्दू राष्ट्र की बात को तरजीह नहीं दी और ना हीं आम मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाने का समर्थन किया। मगर दोनों ही तरह के सांप्रदायिक विचारों के उफान और उस पर ब्रिटिश सरकार की फूट डालो राज करो की पुरानी नीति के चलते मुल्क का बंटवारा हो गया। फिर भी महात्मा गांधी हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करते हुए देश का भ्रमण करते रहे तभी तो सावरकर और संघ की विचारधारा में रचे-बसे गोडसे ने गोली मारकर गांधी की हत्या कर दी। गांधी की हत्या के बाद भी हमारे देश के गांधीवादी, समाजवादी, अंबेडकरवादी, सांप्रदायिकता के जहर को समूल नष्ट करने के लिए कोई मुकम्मल तथा अनवरत वैचारिक संघर्ष नहीं चला सके। यही नहीं ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करने और उस पर बने रहने के लिए सिद्धांत विहीनता का प्रदर्शन करते रहे। मार्क्सवादियों ने कुछ हद वैचारिक संघर्ष चलाया, लेकिन कई टुकड़ों में बंटने के कारण वे प्रभावहीन हो गए। लिहाजा, आज संप्रदायिकता रूपी नाग एक बार फिर अपना फन फैलाकर फूंफकार रहा है। चुनाव के वक्त तो इसका रूप और भी भयावह हो जाता है। अब तो शायद जनता ही मालिक है। वही इसके जहर को कम कर सकती है। अगर वह चूक गई तो कहने के लिए तो चुनाव होंगे, लेकिन संविधान में उलटफेर, जिसकी शुरूआत हो चुकी है, के जरिए चुनाव बेमानी हो जाएगा। तब 2022 व 2024 का चुनाव देश का अंतिम चुनाव साबित होगा। गनीमत है कि हमारे मुल्क में पाकिस्तान तालिबान की तरह अभी तक एलानिया तौर पर संगठित रूप में कोई जेहादी संगठन नहीं है। मगर किसी को यह मानकर नहीं चलना चाहीए कि गैर मुल्की जेहादी संगठन भारत में भी अपना स्लीपर सेल बनाने का प्रयास नहीं कर रहे होंगे। इसलिए सतर्क रहने की भी जरूरत है। अलबत्ता भारत में लीगी जेहनीयत वाली कुछ पार्टी और नेता हैं। उनमें से एक की तो भाजपा से नूरा कुश्ती और चोंच लड़ाई भी चल रही है। जनता को इस खेल को ज़रूर समझना चाहीए।  

आखिर में हम निदा फाजली की इस नज़्म से अपनी बात खत्म करना चाहते हैं। इस नज्म को उन्होंने पाकिस्तान जाकर फौजी हुकूमत के दौरान एक मुशायरे में सुनाया था– 

इंसान में हैवान यहां भी हैं वहां भी, अल्लाह निगेहवान हैं यहां भी वहां भी, खूंखार दरिंदों के फकत नाम अलग हैं, हर शहर में बयाबान वहां भी हैं यहां भी, रहमान की कुदरत हो कि भगवान की मूरत, हर खेल का मैदान वहां भी है यहां भी

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अली अनवर

लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद तथा ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक अध्यक्ष हैं

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