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वर्तमान संदर्भ में फुले की गुलामगिरी और पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन

जोतीराव फुले ने 1873 में गुलामगिरी की रचना की और बहुजनों को उनकी गुलामी की मानसिकता से परिचित कराया ताकि उनके अंदर आत्मसम्मान की भावना जगे। यह युग परिवर्तनकारी पहल थी। पेरियार ने भी बहुजनों में आत्मसम्मान भरने के लिए बाक़ायदा 1925 से आत्मसम्मान आंदोलन चलाया। बता रहे हैं डॉ. सिद्धार्थ

“तिलक का दावा है कि स्वराज उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। चूंकि, वर्ण-व्यवस्था के अनुसार वे ब्राह्मण हैं, ऐसे मनुष्य मानते हैं कि बाकी लोग उनसे हीन हैं, यह भावना ही अपने आप में उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। ….मगर हम दूसरों को भरमाकर जीवित रहने के अभ्यस्त नहीं हैं। बजाय इसके हम मनुष्यता को उसके वास्तविक अर्थों में खोजने के इच्छुक हैं। इसलिए हम कहेंगे कि ‘आत्मसम्मान हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’। हमें यह मानना होगा कि स्वराज तभी संभव है, जब पर्याप्त आत्मसम्मान हो, अन्यथा यह अपने आप में संदिग्ध मसला है।” 

– पेरियार ( कुदी आरसु, 9 जनवरी, 1927, स्रोत, ई. वी. रामासामी, पेरियार, दर्शन-चिंतन और सच्ची रामायण, फारवर्ड प्रेस, पृ. 19)

भले ही पेरियार के लेखन में बहुजन शब्द का इस्तेमाल न हुआ हो, लेकिन उनके लिए सामाजिक समूह के तौर पर अनार्य, गैर-ब्राह्मण, गैर-द्विज एवं महिलाएं, सांस्कृतिक-भाषीय समूह के तौर पर द्रविड़ संस्कृति के अनुयायी एवं द्रविड़ भाषा-भाषी और आर्थिक समूह के तौर पर उत्पादक एवं मेहनतकश वर्ग एक समूह का निर्माण करते थे, जिसे हम आज बहुजन समाज कहते हैं। इस बहुसंख्यक बहुजनों पर सामाजिक समूह के तौर पर आर्यों, ब्राह्मणों, द्विजों, पुरूषों, सांस्कृतिक-भाषायीय समूह के तौर वेदों के अनुयायियों एवं संस्कृत भाषा-भाषियों और आर्थिक समूह के तौर पर अनुत्पादक एवं परजीवियों ने प्रभुत्व व वर्चस्व कायम कर रखा था, उन्हें दासता एवं गुलामी के बंधन में बांध रखा था, उन्हें दोयम दर्जे का ठहरा रखा था और उनका शोषण-उत्पीड़न कर रहे थे। पेरियार (17 सितंबर, 1879 – 24 दिसंबर, 1973) आजीवन बहुसंख्यक बहुजनों को इन अल्पसंख्यक अभिजनों से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष करते रहे, उनके जीवन का एकमात्र यही लक्ष्य था। तमिलनाडु में वे काफी हद तक इसमें सफल भी हुए।

 

अनार्यों पर आर्य, गैर-ब्राह्मणों पर ब्राह्मण, गैर-द्विजों पर द्विज, द्रविड़ों पर संस्कृत भाषा-भाषी और महिलाओं पर पुरूष, लंबे समय के लिए अपना वर्चस्व कायम नहीं रख सकते थे जब तक कि वे उनका आत्मसम्मान न तोड़ देते और बहुजन दासता को अपनी नियति न स्वीकार कर लेते। इस तथ्य को आधुनिक भारत में सबसे पहले जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 दिसंबर, 1890) ने समझा और गुलामगिरी (1873) लिखकर बहुजनों को उनकी गुलामगिरी की मानसिकता से परिचित कराया तथा उन्हें इस गुलामगिरी से मुक्त करने का पहला प्रयास किया। गुलामगिरी जो कि सत्यशोधक समाज का घोषणापत्र बना। यह सत्यशोधक समाज असल में एक आंदोलन था जिसकी शुरूआत गुलामगिरी के प्रकाशन के कुछ महीने बाद ही किया गया और इस आंदोलन का असर पूरे महाराष्ट्र में रहा है। 

दरअसल, फुले ने सबसे पहले यह प्रश्न उठाया कि आखिर कैसे और क्यों बहुसंख्यक गैर-ब्राह्मण बहुजन समाज मुट्ठीभर अल्पसंख्यक ब्राह्मणों का गुलाम बना। इसका मूल कारण उन्होंने बहुजनों की दासता (गुलामी) की मानसिकता और उनके बीच विभाजन बताया। फुले ने बहुजनों को महान योद्धाओं का वंशज ठहराकर और गौरवशाली बहुजन संस्कृति का वारिस बताकर उनके भीतर आत्मसम्मान भरा । पेरियार ने भी बहुजनों में आत्मसम्मान भरने के लिए बाक़ायदा 1925 से आत्मसम्मान आंदोलन (सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट) चलाया। कुछ अध्येता इसकी औपचारिक शुरूआत 1926 मानते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि पेरियार के लेखन और संघर्ष का केंद्रीय तत्व बहुजनों में आत्मसम्मान भरना था। पेरियार इस तथ्य से अच्छी तरह अवगत थे कि यदि किसी व्यक्ति या समुदाय में लेशमात्र भी दासता, गुलामी या खुद को दोयम दर्जे का समझने का भाव है, तो वह पूरी तरह आत्मसम्मान हासिल नहीं कर सकता है। पूरी तरह आत्मसम्मान हासिल करने का मतलब है, खुद को मानवीय गरिमा के संदर्भ में किसी से भी कमतर न समझना। इसके लिए जरूरी है कि हर इंसान खुद को और दूसरे इंसान को समान रूप से स्वतंत्र और बराबर का समझे और उसे अपना बंधु स्वीकार करे। वही व्यक्ति या समुदाय पूरी तरह आत्मसम्मान की स्थिति हासिल कर सकता है, जो सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक तौर किसी के अधीन न हो और ना ही किसी के प्रभुत्व वव वर्चस्व को स्वीकार करता हो।

बहुजनों के आत्मसम्मान के उद्घोषक जोतीराव फुले और पेरियार

क्या आज जब ब्रिटिश साम्राज्य से भारत की आजादी के 75 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं, बहुजन समाज अपने लिए पूरी तरह आत्मसम्मान की जिंदगी हासिल कर पाया है, जैसा कि पेरियार ने ‘भविष्य की दुनिया’ में परिकल्पना की थी? क्या वह दुनिया कायम हो पाई है? क्या आर्य संस्कृति का वर्चस्व अनार्य संस्कृति पर से खत्म हुआ और अनार्य संस्कृति ने वह मुकाम एवं प्रतिष्ठा हासिल कर ली, जिसकी वह हकदार है? क्या सिंधु-हड़प्पा संस्कृति के वारिस अनार्य संस्कृति के लोग आर्य वर्चस्व से मुक्त होकर आत्मसम्मान हासिल कर पाए? क्या गैर-ब्राह्मण, ब्राह्मणों के प्रभुत्व व वर्चस्व से मुक्त हो पाए और आत्मसम्मान हासिल कर पाए? क्या महिलाएं पुरूषों के वर्चस्व से मुक्त हो पाईं और अपने लिए पूरी तरह आत्मसम्मान की जिंदगी हासिल कर पाईं? क्या उत्पादक और मेहनतकश वर्ग, अनुत्पादक एवं परवीजी वर्ग के शोषण-उत्पीड़न से मुक्त हो आत्मसम्मान की जिंदगी हासिल कर पाया? 

इन प्रश्नों का उत्तर पूरे भारत के संदर्भ में ना है। एक हद तक तमिलनाडु एवं केरल में बहुजनों, विशेषकर पिछड़ों (शूद्रों) को आत्मसम्मान हासिल हुआ है, लेकिन बहुजनों के बड़े हिस्से दलितों (अतिशूद्रों-अन्त्यजों), महिलाओं और उत्पादकों-मेहनतकशों द्वारा पूरी तरह आत्मसम्मान की जिंदगी हासिल करना आज भी स्वप्न ही बना हुआ है। पूरे भारत, विशेषकर हिंदी पट्टी में बहुजनों की बहुलांश आबादी को आत्मसम्मान की जिंदगी नसीब नहीं हुई है। हालांकि दासता के बंधनों से सापेक्षिक तौर पर थोड़ी मुक्ति जरूर मिली है, लेकिन उसे पूरी तरह आत्मसम्मान या पूरी तरह से मानवीय गरिमा के साथ जीने की स्थिति नहीं कह सकते हैं। आज गैर-ब्राह्मणों पर जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व कायम है, महिलाओं पर पुरूषों का वर्चस्व कायम है, उत्पादक-मेहनकशों पर अनुत्पादक-परजीवियों का वर्चस्व कायम है। कुछ हद तक अपवाद के रूप में तमिलनाडु और केरल को छोड़कर शेष भारत में धार्मिक जीवन पर पूरी तरह से ब्राह्मण काबिज हैं। संस्कृति एवं साहित्य पर द्विजों का वर्चस्व बदस्तूर जारी है। आर्थिक संसाधनों का कार्पोरेट के नाम पर द्विजों के उच्च वर्ग (मुख्यत: बनिया और ब्राह्मणों) का कब्जा है। आज की राजनीति पर मुख्यत: ब्राह्मणों-द्विजों के संगठन आरएसएस और कार्पोरेट का नियंत्रण है। मीडिया ब्राह्मण-द्विजों के पूरी तरह कब्जे में है। न्यायपालिका पर ब्राह्मण-द्विजों के कुछ परिवारों का एकाधिकार है। नौकरशाही पर कमोवेश आज भी द्विजों का वर्चस्व एवं नियंत्रण है। बौद्धिक जगत पर अब भी कमोवेश उनका एकाधिकार बना हुआ है। संस्कृति एवं मूल्यों के नाम पर आर्य-ब्राह्मण-द्विज और पुरूष प्रधान संस्कृति का वर्चस्व शासन-सत्ता के सहयोग से बढ़ रहा है। परजीवी-अनुत्पादक संस्कृति उत्पादक एवं मेहनकश संस्कृति को अपने मातहत किए हुए है।

जब तक समतावादी अनार्य संस्कृति के वाहक वर्चस्ववादी आर्य संस्कृति को पदस्थापित नहीं कर देते, जब तक गैर-ब्राह्मण, ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ नहीं देते, जबतक गैर-द्विज द्विजों को प्रभुत्व का विनाश नहीं कर देते, जब तक महिलाएं, पुरूषवादी संस्कृति को नेस्तनाबूद नहीं कर देती और उत्पादक एवं मेहनतकश वर्ग शोषण-उत्पीड़न से मुक्त नहीं हो जाते, तब तक बहुसंख्यक बहुजनों को पूरी तरत आत्मसम्मान की जिंदगी हासिल नहीं हो सकती और बहुजनों के लिए चलाया गया, पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन अपनी मंजिल हासिल नहीं कर पाएगा।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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