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ओबीसी के साथ विश्वासघात का ऐतिहासिक दस्तावेज (चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु का साहित्य – दूसरा भाग)

जब काका कालेलकर आयोग बना, तो उसकी उन्हें भारी प्रसन्नता हुई थी, पर जब सरकार ने उसकी रपट को खारिज किया, तो यह उनके लिए बहुत बड़ा आघात था। अतः उन्होंने सरकार की इस पिछड़ा वर्ग विरोधी राजनीति का पर्दाफाश करने के लिए इस किताब की रचना की। बता रहे हैं कंवल भारती

[भारतीय सामाजिक व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों में से एक जातिगत भेदभाव और छुआछूत तथा इसके धार्मिक संरक्षण को लेकर आवाजें उठती रही हैं। सत्य शोधन की इस परंपरा का आगाज जोतीराव फुले ने 19वीं सदी में किया। बीसवीं सदी में इस परंपरा को अनेक लोगों ने बढ़ाया, जिनमें मुख्य तौर पर डॉ. आंबेडकर का नाम भी शामिल है। चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु भी ऐसे ही सत्य शोधक थे। कंवल भारती उनकी किताबों की पुस्तकवार समीक्षा कर रहे हैं। इसके पहले अपने पढ़ा जिज्ञासु जी की पहली कृति ‘भारत के आदि-निवासियों की सभ्यता’ की समीक्षा। आज पढ़ें  उनके द्वारा लिखित  ‘पिछड़ा वर्ग कमीशन की रिपोर्ट और पिछड़े वर्ग के वैधानिक अधिकारों का सरकार द्वारा हनन तथा बाबासाहेब आंबेडकर का कर्तव्यादेश’ किताब की समीक्षा, जिसका प्रकाशन 1957 में हुआ।]

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु की दूसरी कृति : ‘पिछड़ा वर्ग कमीशन की रिपोर्ट और पिछड़े वर्ग के वैधानिक अधिकारों का सरकार द्वारा हनन तथा बाबासाहेब आंबेडकर का कर्तव्यादेश’

  • कंवल भारती

गतांक से आगे

भारत में पिछड़ी जातियों की पहचान और उनके उत्थान के लिए आवश्यक सिफारिशें सुझाने के लिए भारत सरकार ने 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में एक ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’ का गठन किया था। उसने दो वर्ष की जाॅंच-पड़ताल के बाद 1955 में अपनी रपट राष्ट्रपति को सौंपी। किन्तु सरकार ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की, और रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। सरकार का यह कदम निश्चित रूप से पिछड़ी जातियों के लिए एक बड़ा आघात था। चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ‘यू. पी. बैकवर्ड क्लासेज लीग’ के आयोजक थे, जिसके माध्यम से पिछड़े वर्गों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी गई थी। इसलिए जब काका कालेलकर आयोग बना, तो उसकी उन्हें भारी प्रसन्नता हुई थी, पर जब सरकार ने उसकी रपट को खारिज किया, तो यह उनके लिए बहुत बड़ा आघात था। अतः उन्होंने सरकार की इस पिछड़ा-वर्ग-विरोधी राजनीति का पर्दाफाश करने के लिए, ‘पिछड़ा वर्ग कमीशन की रिपोर्ट और पिछड़े वर्ग के वैधानिक अधिकारों का सरकार द्वारा हनन तथा बाबासाहेब आंबेडकर का कर्तव्यादेश’ नाम से एक महत्वपूर्ण किताब लिखी, जो उनके संस्थान ‘बहुजन कल्याण प्रकाशन’ से 1957 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की ‘भूमिका’ पिछड़े समुदाय के ही आयुर्वेदबृहस्पति राजवैद्य बदलूराम ‘रसिक’ ने लिखी थी। उन्होंने सरकार के विश्वासघात पर इस भूमिका में लिखा–

“आयोग की रपट को देखने से यह पता चला कि सैकड़ों जातियां, जो आयोग के पहले किसी भी वर्ग में सम्मिलित नहीं थीं, कमीशन ने उनको जिन वर्गों में उचित समझा, बढ़ा दिया। जब इन विभिन्न जातियों के नाम सूची में बढ़ गए, और रिपोर्ट प्रकाशित हुई, तो ये जातियां बड़ी प्रसन्न हुईं कि अब उन्हें भी अधिकार प्राप्त होंगे। परन्तु तत्कालीन गृहमंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत ने देश भर को पिछड़ा कहकर उस रपट को समाप्त प्रायः कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि जो पहले सूची-बद्ध रहे, वही रहे और जो बढ़े, वे पड़े रह गए, और कमीशन की रिपोर्ट रद्दी की टोकरी में डाल दी गई। कुछ दिन के बाद भारत सरकार ने पिछड़ेपन का मापदण्ड आर्थिक आधा पर मानकर जो वर्तमान वर्गीकरण था, उसको भी समाप्त करने की योजना बना दी, जिसके फलस्वरूप उच्च वर्ग के लोग पिछड़े बनकर और अधिक आर्थिक सहायता प्राप्त करने लग गए और पिछड़े वर्ग के लोग, जो पहले ही पीछे थे, और पीछे ढकेल दिए गए।” (पृष्ठ 5)

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने इस पुस्तक को 9 अध्यायों में लिखा है। पहले अध्याय में उन्होंने देश भर में पिछड़े वर्गों के आन्दोलनों के उद्भव पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है। उन्होंने लिखा है, पिछड़े वर्गों में जागृति अंग्रेजी राज्य में ही आ गई थी–

“उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में, सन 1919 में, इसकी चर्चा आरम्भ हुई और जहां-तहां बैठकें होने लगीं। कई साल अनियमित रूप में सभाएं होने के बाद सन् 1928 में बाकायदा ‘यू.पी. बैकवर्ड क्लासेज लीग’ की स्थापना हुई। इसी समय बिहार में ‘त्रिवेणी संघ’, बंगाल में ‘सप्रेस्ड कास्ट हिन्दू एसोसिएशन’, राजपूताने में ‘अजगर संघ’, पंजाब में ‘मध्यस्थ हिन्दू सभा’ तथा मध्यप्रदेश, मध्य भारत, बरार, बम्बई, मद्रास आदि में ‘बैकवर्ड क्लासेज लीग’ आदि संस्थाओं की स्थापना हुई, जिनके द्वारा इन जातियों की उन्नति के लिए अगणित मेमोरैंडम और प्रस्ताव पास होकर अंग्रेजी सरकार के पास भेजे गए। समय-समय पर पिछड़ी जातियों के कार्यकर्ताओं के डेपुटेशन भी ब्रिटिश पार्लमेंटरी डेलीगेशन, क्रिप्स मिशन, शिमला कांफ्रेंस, लार्ड माउण्टबेटन तथा देश के महान नेता महात्मा गांधी, मिस्टर जिन्ना तथा डाक्टर बी. आर. आंबेडकर से मिले और उनके सामने पिछड़ी जातियों की समस्या और मांगें रखीं।” (पृष्ठ 9)

जिज्ञासु ने लिखा कि मनु ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के सिवा पांचवां कोई वर्ण नहीं माना है। इनमें तीन वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – द्विजजातियां हैं। “चौथी एक जाति शूद्र ही पिछड़ी जातियों की क्राइटेरिया है, जिसकी बदौलत ये जातियां सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि समस्त क्षेत्रों में पिछड़ गईं।”

जिज्ञासु के अनुसार पिछड़ी जातियों की मांगों के साथ सरकार और डा. आंबेडकर ने सहानुभूति प्रकट की और सहायता का आश्वासन दिया, किन्तु महात्मा गांधी ने कहा: “इस समय हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न देश की आजादी है। आजादी हासिल होने पर हमारा पहला कर्तव्य देश की दबी, पिछड़ी, शोषित और अछूत जातियों को उन्नत करके समान स्तर पर लाना होगा। अभी हम सबका कर्तव्य है कि आजादी की लड़ाई में जुटकर पहले आजादी हासिल करें।” जिज्ञासु ने लिखा कि “चूॅंकि आजादी सभी को प्यारी थी, अतः सारा देश सब कुछ भुलाकर आजादी की लड़ाई में लग गया।” (पृष्ठ 10)

आगे जिज्ञासु ने लिखा कि आजादी के बाद डा. आंबेडकर कानून मंत्री बनाए गए और उनके द्वारा भारत का संविधान बनाया गया, जो 26 नवम्बर 1949 को लागू हुआ। उनके अनुसार, संविधान की धारा 340 में कहा गया कि “राष्ट्रपति एक कमीशन नियुक्त करेंगे, जिसके सदस्य (हरिजनों और आदिवासी वन्य जातियों के अतिरिक्त) उन अन्य जातियों की जांच करेंगे, जो शिक्षा और सामाजिक क्षेत्र में पिछड़ी हुई हैं, और कमीशन यह रिपोर्ट देगा कि किन-किन कठिनाइयों से होकर इन जातियों को गुजरना पड़ता है, तथा इनकी दशाओं में सुधार के लिए भारत सरकार एवं राज्य-सरकारों के लिए सुझाव देगा तथा उत्थान के लिए साधनों की सिफारिश करेगा। इस प्रकार कमीशन अपनी जाॅंच की जो रिपोर्ट राष्ट्रपति के सामने उपस्थित करेगा, राष्ट्रपति उसे अपने स्मृतिपत्र के साथ स्वीकृति के लिए पार्लिियामेंट के दोनों सदनों में उपस्थित करेंगे।” (पृष्ठ 12-13) 

जिज्ञासु लिखते हैं कि संविधान लागू होने के भी कई वर्षों के विलम्ब से 28 फरवरी 1953 को सरकार द्वारा संसद-सदस्य काका कालेलकर की अध्यक्षता में दस सदस्यों का एक पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त किया गया। उनके अनुसार विलम्ब का कारण यह बताया गया कि संविधान में लिखित ‘पिछड़ी हुई जाति’ शब्द का क्या अर्थ लगाया जाए, इस पर निर्णय नहीं हो पा रहा था। जिज्ञासु ने आयोग के उदघाटन के अवसर पर, राष्ट्रपति द्वारा दिए गए भाषण से कुछ अंश उद्धरित किए हैं। उनके अनुसार, राष्ट्रपति ने आशा प्रकट की कि “कमीशन अपने कार्य में सफल होगा और ऐसी रिपोर्ट प्रकाशित करेगा, जिसे सरकार लागू कर सके।” राष्ट्रपति के सिवा जिज्ञासु ने इस अवसर पर दिए गए कुछ अन्य नेताओं के भाषणों के भी कुछ अंश प्रस्तुत किए हैं, जिनमें तत्कालीन प्रधनमंत्राी जवाहरलाल नेहरू, गृहमंत्री डा. कैलाशनाथ काटजू एवं आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर मुख्य हैं। काका कालेलकर ने कहा कि पिछड़ी जातियों की संख्या 15 करोड़ है, जिनकी सहायता करने के लिए सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता है। 

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु की दूसरी कृति ‘पिछड़ा वर्ग कमीशन की रिपोर्ट और पिछड़े वर्ग के वैधानिक अधिकारों का सरकार द्वारा हनन तथा बाबासाहेब आंबेडकर का कर्तव्यादेश’का कवर पृष्ठ और जिज्ञासु जी की तस्वीर

जिज्ञासु के अनुसार आयोग ने अपनी जांच का काम एक प्रश्नावली से आरम्भ किया, जिसमें 182 प्रश्न थे। इस प्रश्नावली का पहला प्रश्न ‘कसौटी या मापदण्ड’ के संबंध में था। जिज्ञासु कहते हैं कि इन कसौटियों के पढ़ने से यही टपकता था, जैसे इनके लिखने वाले ऐसे लोग हैं, जिन्हें हिन्दू समाज की अंदरूनी बातों का पता ही नहीं है। किन्तु वे इसके लिए आयोग को धन्यवाद देते हैं कि इन कसौटियों के द्वारा पिछड़ी जातियों की पहचान का प्रयास किया। पिछड़ी जातियों की पहचान की जरूरत क्यों पड़ी? इस संबंध में जिज्ञासु का महत्वपूर्ण विश्लेषण है–

“आसमान पर उड़ने वाले जब जमीन का नक्शा बनाते हैं, तो हवाई जहाज से धरती का फोटो ले लेते हैं, इसी तरह विदेशी शासकों के विद्यालयों में शिक्षा लाभ करके विदेशी शासकों के साथ रहने वाले शिक्षित बाबू लोग, जो उपरी नजर से अथवा हिन्दू लेखकों की लिखी हुईं अंग्रेजी पुस्तकों के माध्यम से हिन्दू समाज देखते हैं, तो वे इतना ही देख पाते हैं कि ‘अछूत होना’ अनुसूचित जातियों की क्राइटेरिया है और समाज से दूर ‘जंगलों में रहना’ अनुसूचित जनजातियों की। इन शिक्षित बाबुओं को यह ज्ञात नहीं है कि इसी तरह पिछड़ी जातियों की भी एक क्राइटेरिया है, जिसे हिन्दू समाज के सर्वश्रेष्ठ विधायक तथा सर्वोत्तम स्मृतिकार ‘मनु भगवान’ अपनी स्मृति में लिख गए हैं तथा रामायण, महाभारत और पुराणादि समस्त हिन्दू-धर्मग्रन्थों में जिसे मान्यता दी गई है।” (पृष्ठ 20) 

जिज्ञासु ने लिखा कि मनु ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के सिवा पांचवां कोई वर्ण नहीं माना है। इनमें तीन वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – द्विजजातियां हैं। “चौथी एक जाति शूद्र ही पिछड़ी जातियों की क्राइटेरिया है, जिसकी बदौलत ये जातियां सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक आदि समस्त क्षेत्रों में पिछड़ गईं।” 

जिज्ञासु ने पिछड़ेपन और ब्राह्मणी समाज-व्यवस्था के आधार पर पिछड़ी जातियों की 16 जातिगत पहचान बताई है। इनके आधा पर, उनके अनुसार, कुछ पहचानें इस तरह हैं– जिन जातियों में जातीय पंचायतें हैं, जातीय चौधरी और नायब हैं; जिन जातियों की उत्पत्ति हिन्दू स्मृतियों में अनुलोम-प्रतिलोम वर्ण-संकर लिखी है; जिन जातियों के उच्च कोटि के विद्वानों को भी धर्मकथा कहने, चरणामृत बांटने और धर्मोपदेशक करने का अधिकार नहीं है; जिन जातियों के कच्चे घड़ों का जल तथा जिनकी स्त्रिायों का बनाया कच्चा-पक्का भोजन आज भी कट्टर ब्राह्मण ग्रहण नहीं करते; जिन जातियों के विवाह आदि संस्कार सनातनी ब्राह्मण वेदमंत्रों द्वारा वैदिक विधि से न कराकर पौराणिक पद्धति से व कपोल कल्पित मंत्रों द्वारा कराते हैं; जिन जातियों ने अपमान से बचने के लिए अपनी असली जातियों का नाम छिपाकर वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण वर्ण-द्योतक नामों से अपनी जातीय महासभाएं बना ली हैं; जिन जातियों के घर गांव के बाहर प्रायः उत्तर-दक्खिन दिशा में पाए जाते हैं; जिन जातियों में बुजुर्ग के मरने पर बिरादरी को भोज देने की अनिवार्य प्रथा है; एवं जिन जातियों में सरकारी गजटेड अफसरों, ऊंचे नेताओं, मिनिस्टरों, बड़े-बड़े बैरिस्टरों, डाक्टरों, मिलिटरी अफसरों, प्रोफेसरों, इंजीनियरों, न्यायाधीशों, उद्योगपतियों और साहित्यकारों का अभाव है, वे सभी पिछड़ी हुई जातियां हैं। एक और पहचान जिज्ञासु ने आगे बताई– “भारत के विभिन्न राज्यों में बसी हुईं ब्राह्मण, गौड़, सारस्वत, सनाढड्ढ, सरयूपारी, कान्यकुब्ज, कश्मीरी, गुर्जर, नागर, नम्बूदरी, चटर्जी, बनर्जी, कोंकड़, तगा, वेदी, भुईंहार, भार्गव, राजपूत, क्षत्री, खत्री, वैश्य अग्रवाल, जैन, माहेश्वरी, मारवाड़ी, ओसवाल, कायस्थ, प्रभु, पारसी, आदि सत्ताधरी, सम्पन्न सब अगड़ी हिन्दू जातियां हैं, शेष सब पिछड़ी।” (पृष्ठ 27-31)

हिन्दू समाज की जातीय संरचना में शोषक और शोषित श्रेणी का इतना साफ विभाजन हिन्दी के किसी लेखक ने नहीं किया। जिज्ञासु का यह वर्ग-विभाजन शोषित वर्गों के समक्ष बहुत ही वास्तविक और वैध् प्रश्न खड़े करता है : आखिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थ-भूमिहार जातियों के लोग ही शासन-प्रशासन, न्यायपालिका और समस्त संसाधनों पर काबिज क्यों हैं? वे ही बैरिस्टर और प्रोफेसर क्यों हें? अगर इसका कारण यह है कि वे सुशिक्षित हैं, इसलिए उसके योग्य हैं, तो सवाल है कि वे ही क्यों सुशिक्षित हैं? गांवों तक में उन्हीें के मकान पक्के और दुमंजिले क्यों हैं? वे ही धनवान क्यों हैं? वे ही सुख से क्यों हैं? उन्हीं को भरपेट भोजन क्यों मिलता है? एक बहुत बड़ा प्रश्नवाचक ‘क्यों’ इन पहचानों के साथ जिज्ञासु ने खड़ा किया है, जिसने आजादी के बाद बहुजन समाज के लिए सोचने के लिए विवश किया, और वह इस भेदभाव के खिलाफ आन्दोलन-रत हुआ।

काका कालेलकर आयोग ने 31 अगस्त, 1955 को अपनी रपट राष्ट्रपति को पेश की, जो एक वर्ष बाद, केन्द्रीय गृहमंत्री के स्मृतिपत्र के साथ 31 अगस्त 1956 को प्रकाशित हुई। जिज्ञासु लिखते हैं कि आयोग के समय देश में 27 राज्य थे। जिज्ञासु के अनुसार, आयोग ने अपनी रिपोर्ट में विभिन्न राज्यों में पिछड़ी जातियों की संख्या अलग-अलग तय की: अजमेर में (जो बाद में राजस्थान में विलीन हुआ) 39, आसाम में 44, आंध्र में 124, भोपाल में (जो मध्यप्रदेश में विलीन हुआ) 61, बिहार में 126, बम्बई में 360, कुर्ग मैसूर (केरल में विलीन) में 26, दिल्ली में 73, हिमाचल प्रदेश में 27, हैदराबाद राज्य में 151, कच्छ (बम्बई में विलीन) में 66, मध्य भारत (मध्य प्रदेश में विलीन) में 83, मध्य प्रदेश में 110, मद्रास राज्य में 156, मणिपुर में 16, मैसूर राज्य में 64, उड़ीसा में 148, पटियाला (पंजाब में विलीन) में 44, पंजाब में 88, राजस्थान में 99, सौराष्ट्र (बम्बई में विलीन) में 93, त्रावनकोर-कोचीन (केरल में विलीन) 48, त्रिपुरा में 54, उत्तर प्रदेश में 120, विंध्य प्रदेश में 76 और पश्चिमी बंगाल में 105 पिछड़ी जातियां घोषित कीं। (पृष्ठ 32-54)

काका कालेलकर आयोग की ये सिफारिशें यदि वास्तव में लागू हो जातीं, तो पिछड़ी जातियों के जीवन में एक बड़ी क्रान्ति होती। किन्तु ये सिफारिशें सरकार ने लागू करना तो दूर, उन पर विचार करना भी स्वीकार नहीं किया।

जिज्ञासु के अनुसार, आयोग ने इसके सिवा मुस्लिम, ईसाई, यूरेशियन, गुरखा, सिख, परम्परागत भिखारी, अपराधशील आदि के आधा पर पिछड़ी जातियों के 12 विशेष समूह और बनाए। इन सबको मिलाकर पिछड़ी जातियों की कुल संख्या 2,399 हुई। किन्तु कुछ राज्यों ने इसमें भी खेल किया और अपने राज्य की संख्या को कम किया। इसके बावजूद गृहमंत्री पंत ने अपने स्मृतिपत्र में पिछड़ी जातियों की संख्या 11 करोड़ 21 लाख मानी। (पृष्ठ 54)

पिछड़ा वर्ग आयोग ने अपनी रिपोर्ट में क्या सिफारिशें कीं? इसका संक्षिप्त विवरण जिज्ञासु ने चौथे अध्याय में किया है। उनके अनुसार: कृषि क्षेत्र में आयोग ने सिफारिश की कि बची-खुची जमींदारी समाप्त होनी चाहिए, और फालतू भूमि का वितरण गरीब जातियों को सरकारी अधिकारियों द्वारा कराया जाना चाहिए, क्योंकि ग्राम-प्रधानों द्वारा गरीबोें को भूमि नहीं दी जाती है। चकबन्दी होनी चाहिए। कुछ अपवादों को छोड़कर, कृषि मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी निश्चित की जानी चाहिए। न्यूनतम मजदूरी, आवास, पीने का पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य-सुविधाएं पिछड़े लोगों का वाजिब हक माना जाए। आयोग ने भूदान आन्दोलन की प्रशंसा की, और कहा कि विनोबा भावे सम्पन्न लोगों को गरीबों की सेवा करने की शिक्षा दे रहे हैं, जिससे गरीबों का पिछड़ापन दूर हो रहा है। उसने सिफारिश की कि इस आन्दोलन को देश के कोने-कोने में फैलाना चाहिए। आयोग ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन पर जोर दिया और कहा कि ऐसे लोगों को, जो स्वयं किसान नहीं हैं, भूमि में धन लगाकर आय प्राप्त करने से रोक दिया जाए, और ऐसे लोगों के हाथ में भूमि हस्तान्तरित किए जाने पर रोक लगाई जाए। ग्रामीण आवास-समस्या को हल करने के लिए आयोग ने सिफारिश की कि प्रकाशहीन कच्चे घरों या छप्परों में रहने वाले गरीब लोगों को घर बनाने के लिए कर्जा या अनुदान के रूप में सहायता दी जानी चाहिए। शैक्षिक पिछड़ापन दूर करने के लिए आयोग ने सिफारिश की कि 6 से 14 वर्ष की आयु के बालकों के लिए अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा तुरन्त लागू की जाए। प्रौढ़ शिक्षा का विस्तार होना चाहिए। उच्च शिक्षा के लिए अखिल भारतीय संस्थाएं बननी चाहिए और पिछड़ी जातियों के विद्यार्थियों को विदेशी उच्च शिक्षा के लिए सुविधाएं दी जानी चाहिए। आयोग ने विज्ञान, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कृषि, पशु-चिकित्सा, और उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए 70 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने की भी सिफारिश की। इसके सिवा, सरकारी नौकरियों में भी आयोग ने प्रथम श्रेणी में 25 प्रतिशत, द्वितीय श्रेणी में साढ़े 33 प्रतिशत तथा तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में 40 प्रतिशत स्थान सुरक्षित करने की सिफारिश की। एक महत्वपूर्ण सिफारिश आयोग ने यह भी की कि पुनर्वास मंत्रालय की तरह केन्द्र और राज्यों में पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए भी एक मंत्रालय बनाया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, आयोग ने पिछड़ी जातियों की मैट्रिक तक की शिक्षा के लिए अनुदान, छात्रावासों की स्थापना तथा उपेक्षित बच्चों के लिए गृहों और सेवा-संस्थाओं के निर्माण की व्यवस्था करने की भी सिफारिश की। (पृष्ठ 55-65)

काका कालेलकर आयोग की ये सिफारिशें यदि वास्तव में लागू हो जातीं, तो पिछड़ी जातियों के जीवन में एक बड़ी क्रान्ति होती। किन्तु ये सिफारिशें सरकार ने लागू करना तो दूर, उन पर विचार करना भी स्वीकार नहीं किया। इस संबंध में किताब का पांचवां अध्याय बहुत ही महत्वपूर्ण है, जिसमें जिज्ञासु ने आयोग की रिपोर्ट को खारिज करने के सरकारी षडयंत्र का पर्दाफाश किया है। यह षडयंत्र गृहमंत्री गोबिन्द वल्लभ पंत के द्वारा किया गया। जिज्ञासु के अनुसार, गृहमंत्री ने रिपोर्ट पर अपना स्मृति-पत्र लगाया और यह कहकर सरकार को रिपोर्ट वापिस कर दी कि यह विचार करने योग्य नहीं है। गृहमंत्री ने लिखा कि सामाजिक पिछड़ेपन के निर्विवाद मापदण्डों को ढूॅंढ़ने में आयोग के सदस्यों में मतभेद है। आयोग की रिपोर्ट से देश की अधिकांश जनता पिछड़े समाज के अन्तर्गत आ जाती है, जिससे कोई उपयोगी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। जिज्ञासु के अनुसार, गृहमंत्री ने यह भी लिखा कि आयोग की रिपोर्ट से तो ऐसा लगता है कि हमारा सारा देश ही पिछड़ा हुआ है। (पृष्ठ 66-67) गृहमंत्री ने रिपोर्ट को जातिवादी भी बताया। जिज्ञासु के अनुसार, उनका यह अंश इस प्रकार है–

“पिछड़े वर्गों की समस्या पर चिंतन करते समय इसके वास्तविक चित्र को भी दृष्टि से ओझल नहीं होने देना चाहिए। कमीशन के अधिकांश सदस्य यद्यपि सामाजिक ढांचे में (पिछड़ेपन की दृष्टि से) विभिन्न वर्गों व जातियों के व्यक्ति थे। परन्तु जातिवाद को महत्व देने के प्रश्न पर कई एक मतभेद पत्र की भाषा तथा भाव उस विभेद-मूलक खतरे की ओर यथेष्ट संकेत करते हैं, जो इस प्रकार के हल से उत्पन्न हो सकता है। इस बात से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता कि जातिवाद हमारे साम्यवादी समाज के ध्येय की प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक है। और कुछ विशेष जातियों को पिछड़ा मान लेना वर्तमान जातिभेद को अभय-दान देना है।” (पृष्ठ 68-69)

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जिज्ञासु के अनुसार, गृहमंत्री के स्मृति-पत्र में पिछड़ी जातियों में शैक्षिक विकास के अभाव, सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व के अभाव, व्यापार तथा उद्योगों में अपर्याप्त भागीदारी और उनमें कृषि भूमि के अभाव को अस्वीकार किया गया; और कहा गया– “इस प्रकार यदि कुछ को छोड़कर सारा समाज ही पिछड़ा मानना पड़ता है, तो वास्तविक आवश्यकताओं की इस भीड़भाड़ में उपेक्षा हो जायेगी और उसे मुश्किल से कोई सहायता देने या उस पर ध्यान देने का अवसर मिल जायेगा। इस प्रकार की अवस्था में संविधान की धारा 340 का उद्देश्य ही नष्ट हो जायेगा।” (पृष्ठ 69) 

जिज्ञासु के अनुसार, आयोग की रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज करने के लिए गृहमंत्री ने तर्क दिया–

“कुछ दूसरे वर्ग भी होंगे, जो समुचित प्रतिमानों के आधार पर जांचने से शैक्षिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़े होंगे, लेकिन विधिवत तथा विस्तृत रूप में कोई कार्यवाही तभी की जा सकती है, जबकि निश्चित परीक्षा तथा मापदण्ड निर्धारित हो जाएं, जिससे यह माना जा सके कि कौन-कौन से वर्ग या व्यक्ति-समूह वास्तव में सहायता के अधिकारी हैं। इस हेतु आगे छानबीन करनी पड़ेगी, ताकि इस कमीशन की जांच में जो कमियां दृष्टिगोचर हुई हैं, उन्हें दूर किया जा सके और संविधान की धारा 340 की आवश्यकतानुसार समस्या का समाधन किया जा सके। … राज्य सरकारों को निर्देश भेज दिए गए हैं कि … जो अपनी परिस्थितियों वश शैक्षिक तथा सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हों, उन्हें सभी सम्भव सहायता तथा उचित सुविधाएं देते रहें।” (पृष्ठ 70-71)

जिज्ञासु के अनुसार, गृहमंत्री के स्मृतिपत्र का देशव्यापी विरोध हुआ। जिज्ञासु ने इसे गोविन्दवल्लभ पंत की संविधान-विरोधी ब्राह्मणी नीति की संज्ञा दी, जो हिन्दू-शास्त्रों … द्वारा निर्मित समाज-व्यवस्था तथा वर्तमान पूंजीवादी नीति की रक्षा करने वाला था। उनके अनुसार, इसी वजह से हिन्दू अखबारों ने भी इसका समर्थन किया। पर “बहुसंख्यक पिछड़ा वर्ग ने एक स्वर से, देश के कोने-कोने से, उसका प्रबल विरोध किया।” जिज्ञासु ने लिखा– “पंतजी महाराज चूंकि कट्टर सनातनी ब्राह्मण थे, अतः उन्हें आशंका हो गई थी कि कहीं उनके प्रगति-विरोधी स्मृति-पत्र को संसद के उदार सदस्य रद्दी की टोकरी में न डाल दें, इसलिए अपने राष्ट्रघाती स्मृतिपत्र की जड़ें मजबूत करके उसे अचल-अटल बनाने तथा पिछड़ा वर्ग कमीशन की रिपोर्ट को रद्द करने के लिए कुछ अमली कार्यवाही भी कर दी, ताकि पार्लियामेंट के मेंबरों को उनके स्मृतिपत्र के विरुद्ध कुछ सोचने-समझने का मौका न रहे, पेश होते ही उस पर उनकी स्वीकृति हो जाए और देश में पिछड़ेपन को अमरता मिले तथा ब्राह्मणी प्रभुत्व एवं ब्राह्मणवाद का झंडा पूर्ववत शान से लहराता रहे।” (पृष्ठ 74)

काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को कूटनीतिक तरीके से निष्प्रभावी करने का जो खेल पंत द्वारा खेला गया, उसका वर्णन जिज्ञासु ने इस प्रकार किया– 

“उन्होंने [गोविन्द वल्लभ पंत ने] प्रान्तीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आदेश दिया कि वे अपने-अपने राज्यों की उन जातियों की सूची बनाकर भेजें, जो पिछड़े वर्ग में डाली जा सकती हैं। चेहरे का रुख देखकर तदनुरूप काम करने वाली राज्य-सरकारों ने आदेशानुसार सूचियां तैयार करके भेज दीं। जब ये सूचियां पहुंच गईं और देख ली गईं कि ठीक हैं, तो इस विषय पर विचार करने के लिए नई दिल्ली में राज्यों के मुख्यमंत्रियों की मीटिंग बुलाई गई और गृहमंत्री के मातहत इस मीटिंग में खूब विचार हुआ। इस विचार में सबसे पहला और प्रमुख प्रहार पिछड़ा वर्ग की क्राइटेरिया (पहचान) पर हुआ, क्योंकि यही काम खास खतरे की घंटी थी और उसे मिटा देना जरूरी था।” (पृष्ठ 74)

जिज्ञासु ने लिखा कि शासक वर्ग को खतरा यह था कि अगर पिछड़ी जातियां सरकारी सहायता से समुन्नत होकर समानता के स्तर पर आ गईं, तो उनमें राजनीतिक चेतना पैदा हो जायगी और वे अपने संगठित संख्या-बल से देश की शासक बन सकती हैं; इस आशंका से उच्च जातियों के लोग उनके अधीन हो जाने की आशंका से भयभीत थे। इसलिए, जिज्ञासु के अनुसार, शासक वर्ग ने सोचा कि संविधान की धारा 340 गलत बन गई और उसके अनुसार पिछड़ा वर्ग आयोग भी गलत बन गया। उसने सबसे आसान तरीका पिछड़ी जातियों की पहचान को जातिगत न रखकर, अर्थगत बनाने का निकाला। इससे संविधान की धारा 340 भी व्यर्थ हो जायेगी और आयोग की सिफारिशों का लाभ उनके लोगों को भी मिलने लगेगा। जिज्ञासु ने लिखा कि इस महाकूटनीतिक बुद्धि से यह ठहराया गया कि जाति के आधार पर पिछड़ापन मानने से देश में जातिभेद पैदा होगा। इसलिए जिज्ञासु के अनुसार, यह कहकर कि जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं, वे सभी पिछड़े हैं, संविधान की धारा 340 का उद्देश्य समाप्त कर दिया गया। (पृष्ठ 74-75)

अध्याय के अन्त में जिज्ञासु ने उन प्रस्तावों को प्रस्तुत किया है कि जो देश भर में गृहमंत्री के स्मृतिपत्र के विरोध में पिछड़े वर्गों द्वारा पारित किए गए थे। हालाॅंकि जिज्ञासु द्वारा प्रस्ताव पारित करने वालीं पिछड़े वर्ग की संस्थाओं के नाम नहीं दिए गए हैं, पर अधिकांश प्रस्तावों में पंत और उनके स्मृतिपत्र की कटु शब्दों में आलोचना की गई है। एक प्रस्ताव में कहा गया है, “गृहमंत्री का स्मृतिपत्र 18वीं शताब्दी की मनोवृत्ति का परिचायक है, उसमें बीसवीं शताब्दी के विश्वव्यापी जन-जागरण का लेश मात्र भी नहीं पाया जाता।” किसी ने उसे ‘लोकतंत्र का उपहास’, किसी ने ‘राष्ट्रघाती’, किसी ने ‘संविधान-विरोधी’, किसी ने ‘शुष्क वितंडावाद’, किसी ने ‘अपमानजनक’, किसी ने ‘पिछड़ी जातियों के उत्थान में बाधक’ और ‘सत्य की हत्या’, किसी ने ‘जल्लादों वाला काम’, तो किसी ने उसे ‘पिछड़ी जातियों को युद्ध का खुला अल्टीमेटम’ कहा। एक मत, जिज्ञासु ने, प्रमुख साहित्यकार डा. नन्दकिशोर देवराज का भी उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया है– “मेरा अनुमान है कि इस देश में दूसरी क्रान्ति होने वाली है, जो आर्थिक क्रान्ति से भी भीषण होगी, अर्थात, ब्राह्मणवाद के विरुद्ध मानववाद की क्रान्ति, तथाकथित ऊंची जातियों के विरुद्ध दलित व पिछड़ी जातियों का खुला विद्रोह। यदि सवर्ण हिन्दुओं ने सहज भाव से उक्त जातियों को अधिकार न दिए, तो रक्तभरी क्रान्ति अनिवार्य है।” (पृष्ठ 77-83)  

जिज्ञासु ने इस अध्याय में गोविन्दवल्लभ पंत की मृत्यु पर अत्यन्त दुख और विक्षोभ के साथ बहुत तीखी टिप्पणी लिखी है, जो पिछड़ों के अधिकारों के प्रति उनकी संवेदनशील आलोचना थी। उन्होंने लिखा– ‘श्री पंत जी महाराज शक्तिशाली ब्राह्मण थे। उन्होंने जो चाहा, किया।… मगर एक बात बड़ी ही सनसनीखेज और अद्भुत हुई, जिसे दुनिया की आंखों ने देखा। सम्भव है, उन आंखों ने न देखा हो, जिन पर अहंकार, सत्तामद और स्वार्थान्धता की चर्बी चढ़ी हो और जो लोग अपनी बुद्धि और अपनी चतुराई-चालाकी के आगे ईश्वर को भी अंधा समझते एवं कर्मफल को ठेंगे पर मारते हैं। श्री पंतजी महाराज ने कोटि-कोटि असहाय मूक-मानवों के अभ्युत्थान के उगते पौधे का उत्पाटन कर दिया, हजारों-हजारों साल दुर्दशा और देन्य-दुख भोगने के बाद स्वतंत्र भारत में संविधान के द्वारा उन्हें पनपने का अधिकार मिला था, उसकी उन्होंने हत्या कर दी। ठीक ही किया। अपने पूर्वर्जों की बांधी मर्यादा की रक्षा करना उनके उत्तराधिकारी का कर्तव्य है। परन्तु कर्मफल होता है। उससे बचाव नहीं होता। दुनिया ने देखा, कोटि-कोटि मानवों के अभिशाप का फल उन्हें यहीं मिल गया। श्री पंत महाराज के प्राण जिस भयंकर नारकीय यंत्रणा को सहकर निकले, वह अत्यन्त लोमहर्षक है।” जिज्ञासु ने आगे लिखा, “श्री पंतजी महाराज के प्राण निकलने में 18 दिन लग गए। कितनी भयंकर पीड़ा उन्हें हुई होगी, इसकी अनुभूति कौन कर सकता है? शुद्धात्मा और पापात्मा की परख प्रायः मृत्यु के समय ही की जाती है।” (पृष्ठ 76-77)

 किताब का अगला अध्याय विनोबा भावे के ‘सर्वोदय’ और ‘भूदान’ आन्दोलन पर है। जिज्ञासु ने इस विषय को इसलिए लिया, क्योंकि काका कालेलकर आयोग से इसका गहरा संंबंध है। आयोग की सिफारिशों के संबंध में जिज्ञासु का मत है कि उसके अध्यक्ष की भाषा दोमुॅंही है। “एक मुॅंह से वह पिछड़ी जातियों की दुर्गति पर दया का प्रकाश करता है, तो दूसरे मुॅंह से उलझनें और ठेंगा दिखाने के रुख और सुझाव पेश करता है। सिफारिशें करते-करते बीच में श्री विनोबा भावे के सर्वोदय और भूदान का गुणगान करने लगता है। क्या मज़ाक बनाया है। कमीशन का अध्यक्ष विनोबा का गुणगान करता है, और गृहमंत्री अपने स्मृतिपत्र में विमर्दन करता हुआ नेहरूजी की पंचवर्षीय योजना का राग अलापता है। चारों ब्राह्मण। कमीशन का अध्यक्ष ब्राह्मण, गृहमंत्री ब्राह्मण, पंचवर्षीय योजना का उदभावक ब्राह्मण और सर्वोदय का आचार्य ब्राह्मण।” (पृष्ठ 85)

विनोबा भावे का सर्वोदय आन्दोलन समाजवादी आन्दोलन नहीं था, बल्कि पूंजीवादी और ब्राह्मणवादी उपक्रम था। जिज्ञासु ने लिखा कि काका कालेलकर ने सर्वोदय का पचड़ा ठोककर एक बिलबिलाहट पैदा कर दी, जो उनकी दृष्टि में ‘अहिंसात्मक आध्यात्मिक क्रान्ति’ थी। लेकिन यह किस तरह की ‘आध्यात्मिक क्रान्ति’ थी, इस बारे में जिज्ञासु ने राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में उसे ‘पागलों का प्रलाप’ कहा। उन्होंने कहा कि “सर्वोदय का अर्थ है सबका उदय; अर्थात, ‘सब का उदय’। साह का उदय और चोर का भी उदय। शोषक का उदय और शोषित का भी उदय।” जिज्ञासु का मत है कि “संसार के किसी भी विचारक महापुरुष ने ऐसा निरर्थक और बेहूदा शब्द नहीं कहा।” (पृष्ठ 86-87) 

जिज्ञासु ने सर्वोदय की अत्यन्त कटु आलोचना की– “इस कलियुगी ब्राह्मणाचार्य ने सर्वोदय का प्रचार करके दुष्टों, पापियों, लुटेरों, ठगों, चोरों, डकैतों, भोगियों, हरामखोरों और शोषषकों के भी उदय का फतवा दे दिया।” (पृष्ठ 88)

जिज्ञासु ने विनोबा भावे के “भूुदान” की भी तीखी आलोचना की। उन्होंने कहा कि भूदान सरकार द्वारा स्वीकृत होकर इतना प्रचार पा गया, कि उसे देखकर हैरानी होती है। उन्होंने कहा कि भूमि किसी की बपौती नहीं है, इस पर उसी का अधिकार होना चाहिए, जो इसे जोत-बोकर मानवों के लिए खाद्य का उत्पादन करे। किन्तु भूमि के मालिक वे हैं, जो खेती नहीं करते और भूमि का लाभ खाते हैं। उन्होंने मत व्यक्त किया कि आजादी मिलने के बाद सरकार का कर्तव्य था कि वह भूमि का पुनर्वितरण करके खाद्य-उत्पादन में देश को आत्मनिर्भर बनाती, लेकिन सरकार भूमि का पुनर्वितरण नहीं कर सकी। भारत सरकार द्वारा कानूनी रूप से भूमि का पुनर्वितरण क्यों नहीं हो सका? उन्होंने इसका सबसे बड़ा कारण विनोबा भावे के ‘भूदान’ को बताया। उन्होंने बहुत ही रोचक प्रहसन के द्वारा लिखा– 

“भावेजी भूमिपतियों के एजेंट के रूप में बीच में आकर अड़ गए और भूमिपतियों से अनाधिकार रूप से ‘भूदान’ मांगने लगे। पूछा गया, आप कौन हैं? क्या राजा बलि को छलने वाले ‘बावन’ के अवतार हैं? आखिर दान में लेकर यह भूमि आप क्या करेंगे?

“बोले, मैं इसे भूमिहीनों में वितरण करूंगा।

“पूछा गया, यह काम तो सरकार का है। सरकार इसकी जिम्मेदार है, और सरकार करेगी, जैसे कि पड़ोसी चीन ने आजाद होते ही दो साल में भूमि का पुनर्वितरण कर दिया।

“बोले, बहस न करो। मन में समझो। कानून कोई चीज नहीं। यह तुम्हारे हित की बात है। सरकारी कानून द्वारा भूमि-वितरण से तुम दरिद्र हो जाओगे। हमें भूदान करने लगोगे, तो शायद कानूनी भूमि-वितरण हमेशा के लिए रुक भी जायगा और तुम बहुत काल तक भूस्वामी रहकर सुख-भोग करते रहोगे।

“चतुर भूस्वामी इस महामंत्र को समझ गए, क्योंकि उनके मतलब की बात थी। दनादन अड़ती-बड़ती, उसर-बंजर और झगड़े की जमीनों का भूदान होने लगा। भूदान आन्दोलन खड़ा हो गया। अखबारों में तारीफें होने लगीं। कितने ही बेकार कांग्रेसी लीडर भूदानी-नेता बनकर जनता के सामने अपना चेहरा चमकाने लगे और सरकार ने भी भू-वितरण के झंझट से अपना पिंड छुड़ाकर भूदानी-आन्दोलन को कानूनी बनाकर उसमें चार चांद लगा दिए। इस तरह ‘भूदान’ के प्रताप से सरकार द्वारा होने वाला कानूनी भूमि का पुनर्वितरण रुक गया।” (पृष्ठ 89-90)

इस प्रहसन के बाद जिज्ञासु ने डॉ. आंबेडकर के एक ऐतिहासिक और क्रांतिकारी भाषण से एक महत्वपूर्ण उद्धरण प्रस्तुत किया है, जो उन्होंने 6 सितम्बर 1954 को अनुसूचित जाति आयुक्त की रपट पर दिया था। यह भाषण जब दिया गया था, तब कांग्रेस सरकार संविधान में अपने अनुकूल हर हफ्ते संशोधन कर रही थी। इसका उल्लेख करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था– 

“संविधन में, हर शनिवार को संशोधन करने की प्रथा को छोड़ देना चाहिए। संविधन में एक ही संशोधन करने की आवश्यकता है और वह यह कि सारी बंजर और बेकार पड़ी भूमि को भूमिहीनों में बांट देना चाहिए और गांधी-ट्रस्ट के सारे फंड को भूमिहीन लोगों में बंजर जमीन के बाॅंटने के काम पर खर्च करना चाहिए। भूमिहीनों को भूमि खरीदने के लिए आर्थिक सहायता भी दी जाए।”

जिज्ञासु ने आगे लिखा कि भूदान आन्दोलन के शोर-गुल में डॉ. आंबेडकर की यह बात किसी को सुनाई नहीं दी। यह काम की बात क्यों नहीं सुनी गई? इसका कारण जिज्ञासु बताते हैं कि अगर खेतिहर मजदूरों को भूमि मिल जाती, तो वे अपनी भूमि को जोतते-बोतते, “फिर उन निठल्ले भूस्वामियों को खेतिहर मजदूर और बटाई पर जमीन लेने वाले किसान कहां मिलते, जो आराम से बैठकर मुनाफा खाते हैं।” (पृष्ठ 91)

काका कालेलकर की रपट में जिस ‘श्रम-दान’ पर जोर दिए जाने की बात कही गई, उसे जिज्ञासु ने ‘स्वेच्छा से बेगार’ का नाम दिया है। उन्होंने व्यंग्यात्मक शैली में लिखा– “काका कालेलकर द्वारा संकेतित भूदान का बच्चा ‘श्रम-दान’ तो पैदा हो गया, किन्तु सम्पत्ति-दान और जीवन-दान माॅं के गर्भ में ही रह गए? श्रम-दान इसलिए जल्दी पैदा हो गया, क्योंकि इसके द्वारा गरीब श्रमिकों के श्रम का शोषण होता है, सम्पत्ति-दान इसलिए गर्भ में छिपा पड़ा है, क्योंकि उससे सम्पत्ति वालों की हानि होती। और जीवन-दान तो ठीक वैसा ही है, जैसे धूर्त-लम्पटों का सती-साध्वियों से यह कहना कि ‘हम तुम्हारे लिए जान दे देंगे।’ श्रम-दान का अर्थ है, स्वेच्छा से बेगार।” (पृष्ठ वही)

सातवें अध्याय में जिज्ञासु ने गृहमंत्री के स्मृति-पत्र के विरुद्ध एक लायर (अधिवक्ता) का वक्तव्य प्रस्तुत किया है। लेकिन उन्होंने उस अधिवक्ता का नाम नहीं दिया है, और ना ही इस वक्तव्य का स्रोत बताया है। यह इस किताब की अकादमिक भूल प्रतीत होती है। आठवें अध्याय में ‘गृहमंत्री के विरोध का पिछड़े वर्ग के आन्दोलन का प्रभाव’ है। हालांकि यह सिर्फ दो पृष्ठों का अध्याय है, लेकिन महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने गृहमंत्री के विरोध पर देश के पिछड़ा वर्ग आन्दोलन में जो बिखराव आया, उसे रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा कि पिछड़ा वर्ग कमीशन की रपट पर पंतजी के स्मृतिपत्र का यह परिणाम हुआ कि पिछड़े वर्ग में निराशा छा गई, और इतने दिनों से चल रहा आन्दोलन छिन्न-भिन्न हो गया। “पिछड़ा वर्ग के आन्दोलन के कुछ कार्यकर्ता कम्युनिस्ट हो गए, कुछ सोशलिस्टों में शामिल हो गए और कुछ डाक्टर आंबेडकर की रिपब्लिकन पार्टी में काम करने लगे। जो लोग कांग्रेस में अटके थे, खासकर पिछड़ी जातियों के एम.एल.ए. लोग, वे बेचारे कहां जाते? वे (कांग्रेस में ही रहकर) पिछड़ा वर्ग आन्दोलन की नाव को खेते रहे।”

कांग्रेस के इन पिछड़े वर्ग के नेताओं के साथ कांग्रेस ने क्या नाटक किया, इसका खुलासा भी जिज्ञासु ने अच्छी तरह किया है। उनके अनुसार, इन कांग्रेसी नेताओं को पिछड़े वर्ग की सभाएं करने के लिए सरकार से अनुदान मिलने लगा, जिससे समय-समय पर पिछड़े वर्ग की सभाएं होने लगीं। इन सभाओं में कांग्रेस सरकार की स्तुति होती थी और जलसों को रौनक देने के लिए सूचना विभाग की लॉरी पहुॅंच जाती थी, जिससे रात में जनता को सिनेमा वगैरह दिखाकर सरकारी कामों का सचित्र विज्ञापन किया जाता था। उन्होंने लिखा कि सभाओं में तो सौ-पचास से ज्यादा लोग नहीं होते थे, पर रात को सिनेमा देखने के लिए तमाम तमाशाई और लड़के जमा हो जाते थे। उन्होंने लिखा कि उनका काम अंग्रेजी जमाने की ‘अमन-सभाओं’ जैसा था, जिनमें कभी-कभी लड़कों को वजीफा दिलाने और एकाध उम्मीदवार को छोटी-मोटी नौकरी दिलाने की बातें भी होती थीं।

कांग्रेस के पिछड़े वर्ग के नेताओं ने पिछड़ा वर्ग आंदोलन की किस तरह जान निकाली और प्रतिरोध के लिए किस तरह अपने मुंह सिल लिए थे, इसका वर्णन जिज्ञासु ने इस प्रकार किया– ‘सभाओं में नेता लोग कभी-कभी सामाजिक सुधार की निरर्थक और बेजान बातें भी किया करते हैं। व्यर्थ इसलिए कि हिन्दू-धर्म और हिन्दू-संस्कृति के खिलाफ वे बेचारे कुछ बोल नहीं सकते। तब सामाजिक सुधार में और धरा ही क्या है? ऐसा सुधार तो दिन-रात सरकारी रेडियो, सिनेमा, पंडितों की कथाओं, रामलीला, नौटंकी और मेले-तमाशों आदि सांस्कृतिक कार्यों के द्वारा होता ही रहता है। जोश और जीवन तो राजनीति में है, सो राजनीति की वहां चर्चा नहीं हो सकती। राजनीति की कौन कहे, वर्तमान मंहगाई, घूसखोरी, चोरबाजारी, मुनाफाखोरी, कुनवापरवरी (परिवारवाद) वगैरह के खिलाफ भी वहां कोई कुछ बोल नहीं सकता।’ (पृष्ठ 97)

अन्त में, जिज्ञासु ने पिछड़े वर्ग की जनता को बाबासाहेब आंबेडकर का कर्तव्यादेश बताया है कि उसे क्या करना है। किन्तु, इससे पहले वे पिछड़े वर्ग को यह बोध कराते हैं कि “सोए हुए जाग पड़े। सब अपनी प्रगति के मार्ग पर चल पड़े। तुम्हीं क्यों सबके पीछे रह जाते हो? तुम्हारा देश आजाद हो गया। तुम भी आजाद हो। तुम अपने को दास क्यों समझ रहे हो? तुम्हारा स्वामी अब कौन है? तुम अपने स्वामी अपने आप हो। कोई दूसरा तुम्हारा स्वामी नहीं नहीं। तुम्हारी प्रगति तुम्हारी मुट्ठी में है। मुटठी खोलो। देखो, उसमें लिखा है, ‘मताधिकार’। और तुम दबे-पिछड़े लोगों की संख्या 80 प्रतिशत है। पता नहीं, इतना विशाल बहुमत रखते हुए, तुम एकमत होकर, इस भारत-भूमि पर अपना राज्य क्यों नहीं स्थापित करते?” (पृष्ठ 98)

जिज्ञासु ने दलित-पिछड़ों को बड़े पते का ज्ञान दिया। पर, यह विशाल बहुजन समाज हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवादी संस्कारों का इस कदर गुलाम बना हुआ है, कि उसी को अपना परम धर्म समझता है। वह उससे मुक्त होना चाहता ही नहीं। यही कारण है कि उसकी मूर्खता पर मुट्ठी-भर ब्राह्मण आज देश पर राज कर रहे हैं। ब्राह्मणों के संगठन, नेता और धर्मगुरु सेठों के धन और अपनी सत्ता के बल पर बहुजन समाज में उन धार्मिक प्रपंचों, आडंबरों और जातिभेद को सदैव मजबूत करने में लगे रहते हैं, और उनमें लोकतांत्रिक जागरण नहीं होने देते। इस ब्राह्मणी जाल में दलित-पिछड़ी जातियां हमेशा फंसी रहती हैं, राजनीतिक चेतना से दूर रहती हैं।

जब-जब बहुजन समाज के संतों, नायकों और बुद्धिजीवियों ने बहुजन समाज को वर्णव्यवस्था और जातिभेद के खिलाफ जगाने, और अपने हित में संगठित होने तथा संघर्ष करने को प्रेरित किया, तब-तब ब्राह्मणों ने उनके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रान्ति करके प्रतिरोध की धारा को रोकने में अपनी सारी शक्ति झोंक दी। इस काम के लिए हिन्दू सेठों ने ब्राह्मणों को कभी धन की कमी नहीं होने दी, और सत्ता उनके पास हमेशा से ही थी। इसे जिज्ञासु ने ‘अंधेर’ कहा। अस्सी को बीस नचा रहे हैं, यह अंधेर नहीं है, तो और क्या है? (पृष्ठ 99)

25 अप्रैल 1948 को लखनऊ में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन कांफ्रेंस में बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने कहा था कि दलित जातियां काॅंग्रेस में शामिल होकर राजनीतिक शक्ति प्राप्त नहीं कर सकतीं। कांग्रेस एक विशाल संगठन है, जिसमें दलितों की हैसियत समुद्र में एक बूंद के बराबर होगी। आज यही बात भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बारे में कही जा सकती है। बाबासाहेब ने कहा कि दलितों में यह मिथ्या विश्वास भरा हुआ है कि कांग्रेस हमेशा सत्ता में बनी रहेगी। उन्होंने कहा कि यह गलत विश्वास है, कोई भी सरकार हमेशा नहीं रह सकती। बाबासाहेब की बात सच साबित हुई। आज कांग्रेस न केवल सत्ता में नहीं है, बल्कि सबसे कमजोर पार्टी भी है। लेकिन आज दलित-पिछड़ी जातियों के लोग जिस जोश से भाजपा में शामिल हो रहे हैं, वे भी उसमें घुसकर अपने को ऊंचा नहीं कर सकते, वहां भी उन्हें हमेशा दबकर रहना होगा। बाबासाहेब ने बहुजनों को स्वयं एक स्वतंत्र पार्टी के रूप में संगठित होने की सलाह दी थी। 

जिज्ञासु के अनुसार, बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने अपने भाषण में, पिछड़ा वर्ग को भी महत्वपूर्ण सलाह दी थी। उन्होंने कहा था– “पिछड़ा वर्ग के भाइयों से मेरा यही कहना है कि हमेशा बिल्कुल अलग-अलग रहने से पिछड़ा वर्ग के लोगों की बड़ी हानि हुई है। मेरी राय में यदि यू.पी. के डेढ़ करोड़ दलित और दो करोड़ पिछड़ा वर्ग के लोग एक साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर संघर्ष करें तो वे विधनसभाओं में आधे से अधिक सीटों पर अपने लोगों को बिठाकर अपनी सरकार बना सकते हैं।” उन्होंने आगे कहा कि उन्हें इस बात में कोई आपत्ति नहीं है, यदि पिछड़ा वर्ग अपना अलग मोर्चा बना ले। उन्होंने कहा कि दलित और पिछड़े दोनों वर्गों को ही अपनी शक्ति का ज्ञान नहीं है। इसी का परिणाम है कि उच्च वर्गीय लोग शासन पर अपना अधिकार जमाए बैठे हैं।

आम तौर से पिछड़ी जातियां दलित जातियों के साथ अस्पृश्यता का बर्ताव करती हैं। इस वजह से वे दलितों से जुड़ने में परेशानी अनुभव करती हैं। जिज्ञासु के अनुसार, इस सच्चाई को ध्यान में रखकर, बाबासाहेब ने आगे कहा कि वे दलितों और पिछड़ों के बीच रोटी-बेटी का चलन करने को नहीं कह रहे हैं, “पिछड़े वर्ग के लोग अपनी सामाजिक पृथकता बनाए रख सकते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे लोग अपनी गिरी हुई हालत से उपर उठने के लिए परस्पर मिलकर एक राजनीतिक पार्टी (या शक्ति) नहीं बन सकते?” (पृष्ठ 100-101)

बाबासाहेब का कथन आज भी मायने रखता है, क्योंकि आज भी दलित और पिछड़ी जातियां राजनीतिक रूप से एक पृथक शक्ति नहीं बनी हैं, वरन्, अपने योगदान से ब्राह्मणवादी तत्वों को ही मजबूत बना रही हैं। 

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु की साठ के दशक में आई यह पुस्तक सचमुच एक ऐसा दस्तावेज है, जिसमें पिछड़ा वर्ग ब्राह्मणवादी शक्तियों के द्वारा किए गए अपने वैधानिक अधिकारों के हनन को साफ-साफ देख सकता है। इसे पढ़कर वह यह भी समझ सकता है कि चालीस साल बाद मंडल आयोग की सिफारिशें तो लागू हो गईं थीं, पर असल में पिछड़े वर्गों का विकास भी चालीस साल पीछे चला गया था।

(क्रमशः जारी)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

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कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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