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इस चुनावी बेला में मायावती कहां ग़ायब हो गई हैं?

जो लोग अस्सी और नब्बे के दशक की मायावती को जानते हैं, उनके लिए इस दलित नेत्री का इस तरह चुनावी सरगर्मियों से दूर रहना वाक़ई हैरत की बात है। अस्सी के दशक में लोगों ने मायावती को घर-घर जाकर स्थानीय निकाय प्रत्याशियों की तरह कुंडी खटखटा कर वोट मांगते देखा है। बता रहे हैं सैयद जै़गम मुर्तजा

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की प्रमुख मायावती इन दिनों कहां ग़ायब हैं? वह भी तब जबकि उत्तर प्रदेश सहित देश के पांच राज्यों में चुनावी सरगर्मियां ज़ोरों पर हैं। वह चुनावी रैलियों और सार्वजनिक मंचों से एकदम ग़ायब हैं। ऐसे में बसपा प्रमुख और देश में दलित राजनीति का प्रमुख स्तंभ मानी जाने वाली मायावती को लेकर तमाम सवाल उठना तय है। क्या मायावती सक्रिय राजनीति से जान-बूझकर दूरी बना रही हैं या फिर यह दूरी उनकी किसी सियासी रणनीति का हिस्सा है? 

जो लोग अस्सी और नब्बे के दशक की मायावती को जानते हैं, उनके लिए इस दलित नेत्री का इस तरह चुनावी सरगर्मियों से दूर रहना वाक़ई हैरत की बात है। अस्सी के दशक में लोगों ने मायावती को घर-घर जाकर स्थानीय निकाय प्रत्याशियों की तरह कुंडी खटखटा कर वोट मांगते देखा है। पश्चिम उत्तर प्रदेश, ख़ासकर बिजनौर, अमरोहा, मुरादाबाद के लोग अब भी याद करते हैं कि किस तरह वह पैदल गली-गली जाकर वोट मांगती थीं और कैसे वीर सिंह जैसे नेता उन्हें साइकिल पर बिठाकर गांव-गांव ले जाते थे। 

समय बदला और 3 जून, 1995 को मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। तमाम आलोचनाओं और विपक्षी दुष्प्रचार के बीच मायावती मज़बूत होती रहीं। उनकी पार्टी में लोग आते रहे और जाते रहे, लेकिन उनकी राजनीतिक सेहत पर इसका कभी कोई असर नहीं पड़ा। इस दौरान वह तीन बार और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। अपने कार्यकाल में उनकी पहचान बेहतरीन प्रशासक की बनी। दलित हितों की रक्षा, दलितों में राजनीतिक चेतना और बराबरी जैसे मुद्दों पर उन्होंने जो किया, शायद ही कोई दूसरा नेता कर पाया हो।

1980 के दशक में एक कार्यक्रम को संबोधित करतीं मायावती

इस बीच मायावती का यश उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रहा। कितनी ही आलोचना कर लीजिए, लेकिन मायावती आधुनिक भारत के बड़े नेताओं में गिनी जाती रहेंगी। लेकिन 2017 से 2022 के बीच ऐसा क्या हुआ है कि मायावती सार्वजनिक मंचों से ग़ायब हैं? उनके आलोचक कह रहे हैं कि मायावती ने ख़ुद को चारदीवारी में क़ैद कर लिया है और अब सिर्फ ट्विटर पर नज़र आती हैं। हाल ही में उनकी पार्टी छोड़कर निकले तमाम नेता दावा कर रहे हैं कि वह केंद्र सरकार और केंद्रीय एजेंसियों के दबाव में हैं अब खुलकर राजनीति नहीं करना चाहतीं। सपा सहित विपक्षी पार्टियां कह रही हैं कि वह भाजपा के साथ साठगांठ की राजनीति कर रही हैं। दलित राजनीति से जुड़े दूसरे दल कह रहे हैं कि बहनजी अब थक गई हैं और सक्रिय राजनीति उनके बस का नहीं है। लेकिन क्या ये आरोप सही हैं?

बसपा में रहे इंद्रजीत सरोज और वीर सिंह जैसे बड़े नेता कह रहे हैं कि बहनजी बीजेपी से खुलकर लड़ना नहीं चाहतीं। इंद्रजीत सरोज का कहना है कि बहनजी की दिलचस्पी अपनी सुविधाएं, अपना रुतबा और धन बचाए रखने में ज़्यादा है, वरना इस दौरान दलितों का तमाम तरीक़े से उत्पीड़न हुआ, लेकिन वह घर की चारदीवारी से नहीं निकलीं।

आने वाले कुछ महीनों में पांच राज्यों में चुनाव हैं। इनमें कम से कम उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में बसपा एक मज़ूबत ताक़त मानी जाती रही है। पंजाब में बसपा का अकाली दल के साथ गठबंधन है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बसपा फिल्हाल अकेले ही चुनाव लडने के मूड में है। लेकिन मायावती 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद चुनावी रैलियों से तक़रीबन दूर हैं। उनकी पार्टी के जितने कार्यक्रम हो रहे हैं, उनमें सतीश चंद्र मिश्रा नज़र आते हैं या फिऱ उनके भतीजे आकाश आनंद । मायावती प्रेस कान्फ्रेंस करती हैं, ट्वीट करती हैं, लेकिन रैली नहीं। यह शायद उनके सियासी करियर के दौरान शायद पहली बार हो रहा है।

ऐसे में विपक्ष का दावा है कि मायावती ने पांच राज्यों में चुनाव से पहले ही अपनी हार मान ली है, लेकिन बसपा कार्यकर्ता ऐसा नहीं मानते। हाल ही में कौशांबी में हुए कार्यकर्ता सम्मेलन में पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा से पत्रकारों ने इस सिलसिले में सवाल पूछ लिया। हालांकि सतीश चंद्र मिश्रा भडके नहीं, लेकिन उन्होंने पत्रकारों से कहा, मुझे मालूम है कि आप किसके कहने पर ऐसा सवाल पूछ रहे हैं। जाइए, उनसे ही जवाब ले लीजिए। बहनजी अपने कार्यकर्ताओं के बीच हैं और जो काम करना चाहिए कर रही हैं।

चुप्पी से उठ रहे हैं सवाल

हाल ही में ख़ुद मायावती ने विपक्ष की चुनावी रैलियों की आलोचना की और कहा कि नपर सरकारी पैसों की गर्मी चढ़ी हुई है।मायावती ने आगे कहा, हमारी पार्टी गरीबों-मजलूमों की पार्टी है, दूसरी पार्टियों की तरह धन्नासेठों-पूंजीपतियों की पार्टी नहीं है। बसपा की कार्यशैली और चुनाव के तौर-तरीक़े अलग हैं और हम किसी दूसरी पार्टी की नकल नहीं करते हैं।

लेकिन बसपा में रहे इंद्रजीत सरोज और वीर सिंह जैसे बड़े नेता कह रहे हैं कि बहनजी बीजेपी से खुलकर लड़ना नहीं चाहतीं। इंद्रजीत सरोज का कहना है कि बहनजी की दिलचस्पी अपनी सुविधाएं, अपना रुतबा और धन बचाए रखने में ज़्यादा है, वरना इस दौरान दलितों का तमाम तरीक़े से उत्पीड़न हुआ, लेकिन वह घर की चारदीवारी से नहीं निकलीं।

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वहीं कांग्रेस नेता इसकी एक और वजह बताते हैं। उनका आरोप है कि 2014 में मायावती ने दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के ट्रांस्फर कराया। भाजपा सत्ता में आई तो वह वोट भाजपा के साथ चिपक कर रह गया। इसके बाद मायावती ने तमाम कोशिशें कीं, सपा के साथ गठबंधन किया, लेकिन अब दलित उनपर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। दूसरे तमाम विपक्षी दल भी इसी तरह के आरोप लगा रहे हैं। लेकिन बसपा के कार्यकर्ता दावा कर रहे हैं कि बहनजी हमेशा से ही चकाचौंध से दूर रहकर काम करती आई हैं। वह कार्यकर्ताओं से लगातार मिल रही हैं और उनका संगठन बूथ स्तर तक सक्रिय है।

हालांकि मायावती के इस सार्वजनिक मंचों से दूरी की एक और वजह हो सकती है। बसपा के संस्थापक और जनाधार वाले तमाम नेता इस दौरान पार्टी छोड़ कर गए हैं। हालांकि पहले भी पार्टी छोड़कर जाने वालों का इतिहास रहा है, लेकिन इस बार जो गए हैं वह पार्टी के आधार स्तंभ माने जाते थे। मसलन, राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, इंद्रजीत सरोज, वीर सिंह जैसे नेता अब उनके पास नहीं हैं। हाल के दिनों में एक-एक कर यूपी में उनके तमाम विधायक पार्टी छोड़ गए। 

इससे पहले स्वामी प्रसाद मौर्य, नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी, रामवीर उपाध्याय जैसे पार्टी के क़द्दावर नेता या तो पार्टी से निकाल दिए गए या दूसरे दलों की शरण में चले गए। अब पार्टी के पास सतीश चंद्र मिश्र के अलावा कोई बड़ा चेहरा नज़र नहीं आता। ऐसे में सबसे बड़ी चिंता दलित वोटरों की है, कि वह किधर जाएं। उत्तर प्रदेश क़रीब 20 फीसदी वोटर दलित हैं। इनमें 57 फीसद जाटव हैं। हालांकि जाटव वोटरों में मायावती अभी भी पहली पसंद हैं, लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद जैसे युवा नेता इन्हीं वोटरों मे सेंध लगा रहे हैं। ग़ैर जाटव वोटरों में एक हिस्सा बीजेपी के पास है और बाक़ी अभी अपना हिसाब किताब जोड़ रहे हैं कि कांग्रेस में जाएं या समाजवादी पार्टी की शरण में।

उत्तर प्रदेश चुनाव में मायावती को लेकर फैले भ्रम का फायदा समाजवादी पार्टी उठा सकती है। हाल के दिनों में अखिलेश समाजवादियों के साथ आंबेडकरवादियों को भी लुभाने की भरकस कोशिशों में हैं। उत्तराखंड और पंजाब में कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है। भाजपा के ख़िलाफ सत्ता विरोधी ग़ुस्सा है, लेकिन मुफ्त राशन जैसी योजनाओं से अभी भी पार्टी दलितों को अपने पाले में लाने के दावे कर रही है। लेकिन यह सब अभी सिर्फ अंदाज़ा भर हैं। सवाल अभी भी बाक़ी है कि मायावती को चुका हुआ मान लिया जाए या फिर उनकी सांगठनिक योग्यता पर यक़ीन रखते हुए माना जाए कि बसपा आगामी चुनावों में चौंकाने वाले नतीजे देगी?

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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