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बहस-तलब : अपने शोषकों को पहचाने बहुजन समाज

मुजफ्फरनगर दंगों को एक उदाहरण के रूप में देखें। दंगे में आपस में लड़ने वाले सभी बहुजन थे। वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा को प्रचंड बहुमत की प्राप्ति हुई। एक तरह से सत्ता ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी सवर्ण शक्तियों के हाथ में चली गयी। बदले हालात में बहुजनों की एकजुटता पर जोर दे रहे हैं हिमांशु कुमार

मुझे वर्ष 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद वहां काम करने का मौका मिला था। मैंने करीब 6 महीने वहां रहकर राहत, पुर्नवास, कानूनी मदद और चिकित्सा शिविर लगाया था। दंगे के दौरान वहां मुसलमानों की करीब 80 हजार आबादी को बेघर कर दिया गया था। मुजफ्फरनगर में जिनके उपर हमला किया गया, वह मुसलमानों की पसमांदा जातियां थीं। महत्वपूर्ण यह कि उनके उपर हमला करने वालों में जाट, काछी और वाल्मीकि समुदायों के थे। दंगे के दौरान जो मारे गए और बाद में जो जेल गए, वह सभी बहुजन थे।

यदि ध्यान से देखा जाए तो यह आपस में लड़ने वाले सभी लोग बहुजन थे। इन सभी को आपस में लड़वाकर सत्ता किसके हाथ में आई? वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा को प्रचंड बहुमत की प्राप्ति हुई। एक तरह से सत्ता ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी सवर्ण शक्तियों के हाथ में चली गयी।

दरअसल, शूद्र-अतिशूद्र और आदिवासी समुदाय के साथ-साथ अन्य वंचित लोग, जो दूसरे धार्मिक विश्वासों की शरण में बराबरी की तलाश में गये, उन्हें मिलाकर भारत का बहुजन बनता है। इसमें पसमांदा मुसलमान और दलित ईसाई भी शामिल हैं। ये पूरे भारत की आबादी के 85 फीसदी हैं। ये वे समुदाय हैं, जो परम्परागत रूप से मेहनतकश हैं। इसी मेहनतकश तबके को भारत के गैर मेहनतकश सवर्ण तबके ने नीच, अछूत और शूद्र घोषित किया था। 

भारत में जो जातिवाद है, वह असल में नस्लवाद है। जैसे दुनिया में काली नस्ल का गोरी नस्ल द्वारा शोषण और भेदभाव होता रहा है और आज भी उसके खिलाफ मुहिम जारी है। उसी तरह भारत में जो जातियां हैं, उनकी बुनियाद में भी अलग-अलग नस्लों का नस्लवाद ही है। भारत में मूल निवासियों पर बाहरी नस्लों द्वारा हमले किये गए। हारने वाली नस्लों को गुलाम बनाया गया। उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया गया। हारे हुई नस्लों की बस्तियां अलग बना दी गयीं। इसीलिए आज भी भारत के अस्सी प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं और उनकी अलग बस्तियां हैं।

एकजुटता ही विकल्प : दिल्ली में एक प्रदर्शन का दृश्य

वर्ण व्यवस्था की ब्राह्मणवादी व्याख्या है कि समाज में अलग-अलग योग्यता के आधार पर पहले से ही वर्ण तय होते थे। जैसे कि ज्ञान में रूचि रखने वाला ब्राह्मण, वीर वृत्ति वाला क्षत्रिय, आर्थिक उपार्जन में रूचि वाला वैश्य और इन सभी की सेवा के लिए शूद्र। 

आज आरएसएस के द्वारा कहा जा रहा है कि भारत में रहनेवाले सभी भारतीय हैं तो इसकी पोल तो इसी बात से खुल जाती है कि अगर ऐसा था तो शूद्रों की अलग बस्तियां कैसे बनी? अगर यह एक ही परिवारों के और एक ही समुदायों के लोग थे, तो शूद्रों के प्रति इतनी घृणा कैसे आ गई कि अगर कोई शूद्र युवक सवर्ण कन्या से प्रेम कर ले तो उसकी हत्या कर दी जाती थी? आज भी इस तरह की घटनाएं प्रकाश में आती रहती हैं। 

यह बहुजन तबका सदियों से अन्याय और शोषण का शिकार है। सबसे ज्यादा मेहनत करनेवाला यह तबका आज भी गरीब है। जबकि इसी तबके ने देश में उत्पादन को संभाल रखा है। मतलब यह कि इसी तबके के लोग गाडियां चलाते हैं, कारखानों में काम करते हैं, खेतों में बुवाई, निराई और कटाई करते हैं। यही तबका मकान, कपड़े और जूते आदि बनाता है। लेकिन इसीसे सबसे ज्यादा नफरत की जाती है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि श्रमिक वर्ग को नीच की संज्ञा दी गयी है और इसे सत्ता से दूर रखने की साजिशें की जाती हैं। 

आज़ादी मिलते ही इस वर्ग बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दीं और मुस्लिम पसमांदा, हिन्दू दलित व ओबीसी को आपस में लड़वाने का प्रोजेक्ट लागू करने में जुट गई। इसका परिणाम यह हुआ कि आज ऐसे ही स्वनामधन्य हिंदूवादी भारत की गद्दी पर काबिज़ हैं।

इसे ही सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक अन्याय के रूप में पहचाना गया। डॉ. आंबेडकर के साथ अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने इस सदियों से चले आ रहे अन्याय को मिटाना आज़ाद भारत के लिए सबसे पहली प्राथमिकता माना और इसके लिए संविधान को न्याय और बराबरी के दो खंभों पर खड़ा किया गया। 

लेकिन यह लक्ष्य इतना आसान नहीं रहा। आज भी भारत का बहुजन उसी सदियों पुराने सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक दमन और शोषण का शिकार हो रहा है। वक्त के साथ ही उनके सामने अब नई चुनौतियां भी आ गई हैं। बहुजन समाज को बांटने के लिए उसे हिन्दू, मुसलमान और ईसाई के रूप में तोड़ने का हथकंडा अपनाया गया है। इसमें बंटकर बहुसंख्य बहुजन अपनी लड़ाई भूलकर अपना हक़ छीनने वाले समुदाय और वर्ग के हाथों में खेलकर अपने ही हितों को नुकसान पहुंचाते हैं।  

बहुजन समुदाय अपने अधिकार और बराबरी के लिए लड़ना छोड़कर आपस में ही लड़े, यह वर्चस्ववादी समुदाय के लिए बहुत ज़रूरी है, जो स्वयं मेहनत नहीं करता है, लेकिन सारी आर्थिक ताकत उसकी तिजोरी में है। ये वे हैं जो ना मकान बनाते हैं और कपड़े। और ना ही ये अनाज उगातें हैं। लेकिन सबसे बढ़िया अनाज, फल, रेशम, सोना और मकान इनके उपभोग के लिए ही जन्मना आरक्षित है। इन्हें सामाजिक न्याय पसंद नहीं है। ये जानते हैं कि 

अगर सभी मेहनतकश एकजुट हो जाएं और सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की स्थापना कर दी गयी तो यह वर्ग जो मेहनत करेगा, उसका फल उसे ही मिलेगा। एक असर यह भी होगा कि आज जो अपनी जन्म की जाति के कारण दबंग हैं या ऊंचे या सम्मानित बने हुए हैं, उनकी यह विशेषाधिकार वाली स्थिति बदल जाएगी। 

भारत में अमीरी और गरीबी का आधार जातिगत सामाजिक व्यवस्था है। इसे सामाजिक अर्थशास्त्र कहा गया है। इसमें लोग जातियों के आधार पर अमीर और गरीब बन जाते हैं। यह एतिहासिक तौर पर किया गया अन्याय है। इसलिए कहा जाता है कि भारत में वर्ण ही वर्ग भी है। इस प्रकार मार्क्सवादी विचारधारा जिस आर्थिक वर्ग की बात करती है, वह तो भारत में सैंकड़ों सालों से वर्ण के आधार पर चलती आ रही है। मार्क्सवादी चिंतकों ने दशकों तक इस वर्ण के आधार पर बने हुए वर्ग विभाजन को अपने अध्ययन और अपनी चिंता का विषय नहीं समझा। 

दूसरी ओर अपने आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक विशेषाधिकार को बचा कर रखने के लिए शासक वर्ग ने आज़ादी के पहले ही भारत के समानता आंदोलन को बांटने के लिए अपनी कोशिशें शुरू कर दी थीं। बहुजनों को ही अपने बीच के बहुजनों से लड़ने के लिए खड़ा किया गया। उन्हें हिन्दू, मुसलमान और ईसाई के रूप में बांटा गया। हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग और आरएसएस का गठन इन्हीं सवर्ण विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों व वर्णों के लोगों ने अंग्रेजों की मदद से किया था। एक तरफ ये वर्ग-वर्ण अंग्रेजों के राज को भारत में रखना चाहते थे, वहीं दूसरी तरफ ये बहुजनों को आपस में लड़ाकर बराबरी की तरफ बढ़ने वाले आंदोलनों को तोड़ने में लगे हुए थे। 

आज़ादी मिलते ही इस वर्ग बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दीं और मुस्लिम पसमांदा, हिन्दू दलित व ओबीसी को आपस में लड़वाने का प्रोजेक्ट लागू करने में जुट गई। इसका परिणाम यह हुआ कि आज ऐसे ही स्वनामधन्य हिंदूवादी भारत की गद्दी पर काबिज़ हैं। 

इसका क्या परिणाम हुआ है, यह जानना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि इसे समझे बिना इसे तोड़ने का रास्ता नहीं मिलेगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत का संगठित और असंगठित क्षेत्र का पूरा मजदूर वर्ग बहुजन समुदाय से आता है। इन श्रमिकों को कुछ कानूनी अधिकार मिले हुए थे। यह अधिकार इन्हें लंबी लड़ाइयों के कारण मिले थे। फिर चाहे वह काम के आठ घंटे का अधिकार हो, सप्ताह में छह दिन काम का अधिकार हो, चाहे एक साप्ताहिक छुट्टी का अधिकार हो या फिर ओवर टाइम का अधिकार हो। आज इन कानूनों को शिथिल किया जा रहा है। अब मजूरों से बारह बारह घंटे काम लिया जा रहा है। उन्हें हफ्ते में सातों दिन काम करना पड़ता है। हफ्ते में एक भी छुट्टी का पैसा काट लिया जाता है। न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करने वाला कोई विभाग अब कोई हस्तक्षेप नहीं करता है। एक तरह से कहा जाय तो मजदूरों को खुले बाज़ार में आर्थिक मगरमच्छों के जबड़े में मरने के लिए छोड़ दिया गया है।

लेकिन जिन्होनें मंडल कमीशन की सिफारिशों के खिलाफ आत्मदाह और तोड़-फोड़ के आंदोलन चलाये थे, आज वही कार्पोरेट समर्थित हिन्दुत्ववादी सवर्ण ताकतें सत्ता में बैठी हैं। 

इसी तरह आदिवासियों को उनके गावों से विस्थापित करके उनकी ज़मीनों जंगलों को छीन कर बड़ी कंपनियों को देने का काम जारी है। इस दौरान बड़ी संख्या में आदिवासियों के उपर जुल्म ढाहा गया। आदिवासियों की ज़मीनों में छिपे हुए खनिजों पर कब्ज़ा करने के लिए इनके इलाकों में अर्द्धसैनिक बलों को तैनात कर दिया गया है। जहां रोज़-ब-रोज़ आदिवासियों और सैन्य बलों के बीच संघर्ष चल रहा है। बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। लेकिन यहां कोई सुननेवाला और कार्यवाही करनेवाला कोई नहीं है। 

जाहिर तौर पर शासक वर्ग के निशाने पर बहुजन हैं। उसका आरक्षण, श्रम और संसाधन है। अब सवाल उठता है कि क्या बहुजन इस हमले को समझ रहे हैं? हो यह रहा है कि आज साम्प्रदायिकता फ़ैलाने वाले संगठनों में चुन-चुन कर दलितों और ओबीसी को जोड़ा जा रहा है और उन्हें अपनों के खिलाफ ही खड़ा किया जा रहा है।

ऐसे में बहुजन चिन्तकों और सामाजिक न्याय के लिए काम करने वाले लोगों को सोचना होगा कि वे कैसे इस चुनौती का सामना करेंगे और बहुजन एकता को वास्तविकता बनाने के लिए कौन सा कार्यक्रम शुरू करेंगे, जो साम्रदायिक षड्यंत्र का सामना कर सके और बहुजनों के आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक न्याय के लक्ष्य को हासिल कर सके, जिसका सपना आज़ादी से पहले देखा गया था।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

हिमांशु कुमार

हिमांशु कुमार प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता है। वे लंबे समय तक छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के जल जंगल जमीन के मुद्दे पर काम करते रहे हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में आदिवासियों के मुद्दे पर लिखी गई पुस्तक ‘विकास आदिवासी और हिंसा’ शामिल है।

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