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सोचिए भूमिहीन बहुजनों के बारे में

वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब, पेरिस द्वारा हाल ही में जारी वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट-2022 में यह बात सामने आयी है कि भारत विश्व के उन देशों में अग्रणी है, जहां सबसे अधिक असमानताएं हैं। इन असमानताओं में एक वजह भूमि का समुचित वितरण नहीं होना है। इसकी आवश्यकता व तकनीकी पहलू के बारे में बता रहे हैं सुमित चहल

नजरिया

भारतीय संविधान में उल्लिखित राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत राज्य को जवाबदेही देते हैं कि वह अपनी नीतियों से लोगों के कल्याण तथा सुविधाओं, अवसर प्रदान और आय में असमानताओं को कम करे। लेकिन आजादी के 75 साल बीतने के बाद भी असमानताओं की दृष्टि से भारत दुनिया के सबसे अधिक असमानता वालेदेशों में अग्रणी है। इसे वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब, पेरिस द्वारा हाल ही में जारी वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट-2022 में देखा जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आजादी के बाद अभी तक की सभी सरकारों ने इस असमानता को मिटाने के पर्याप्त प्रयास न करके हमारे संविधान को धोखा दिया है।

भूमि पर अधिकार का इंसान की आजीविका, आर्थिक और सामाजिक विकास पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। भूमिहीन व्यक्ति के लिए सम्मानजनक जीवन जीना लगभग असंभव है। आवास का अधिकार संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में भी शामिल है। मानव जीवन में भूमि के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि मानव इतिहास में लगभग सभी युद्ध भूमि पर अधिकार के लिए लड़े गए हैं।

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 17.7 लाख लोग बेघर और 14.43 करोड़ भूमिहीन कृषि श्रमिक हैं। सभी जानते हैं कि इनमे से ज्यादातर अनुसुचित जाति/ जनजाति (एससी/ एसटी) व गैर अधिसूचित घूमंतू जनजाति समुदायों से संबंधित हैं। ये बेघर/भूमिहीन लोग अपने ही देश में घर/जमीन के मालिक होने के बारे में सोच भी नहीं सकते क्योंकि इस देश की व्यवस्था ने इस जमीन को उनके लिए इतना महंगा बना दिया है कि उनका जीवन जमीन के एक छोटे से टुकड़े से भी सस्ता प्रतीत होता है।

हमारे देश में, यह एक प्रथा के साथ-साथ एक कानून भी है कि किसी भूमि या किसी अन्य संपत्ति का स्वामित्व, उसके मालिक की मृत्यु के बाद उसकी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित हो जाता है। यानी संपत्ति का स्वामित्व विशेष रूप से भूमि का (एक अपवाद कि कोई भी इसे खरीद सकता है) वंशानुगत है। आज हमारे देश में लगभग सभी भू-सम्पत्ति, चाहे आवास हो या खेती, के मालिकों को यह विरासत में मिली है। इस तरह के स्वामित्व अधिकार प्राप्त करने के लिए उन्हें कुछ औपचारिकताओं के अलावा कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है।

अगर सरकार जमीन के लेन-देन तथा हस्तांतरण पर उचित दर से कर लगाना शुरू कर देती है तो उस ऐतिहासिक भेदभाव, जो भूमिहीन लोगो के साथ हुआ है, को ठीक करने के अलावा, सरकार को भारी राजस्व के रूप मे लाभ भी होगा।

केंद्रीय आर्थिक सर्वेक्षण, 2017-18 के अनुसार, 28 प्रतिशत शहरी भारत किराए के मकानों में रहता हैइसका अर्थ है लगभग 2 करोड़ परिवार। आर्थिक विशेषज्ञ आय का 30 प्रतिशत से अधिक किराए पर खर्च करने की सलाह नहीं देते हैं। चूंकि गांवों और छोटे शहरों में नौकरियां कम हैं, आजीविका कमाने के लिये शहरों में प्रवास करना एकमात्र उपाय है और शहरों के मकान मालिकों (जिनमें से ज्यादातर को वह जमीन विरासत में ही मिली है) को आय का 30 प्रतिशत देना, बढ़ती असमानताओं के मुख्य कारणों में से एक है। हालांकि प्रवासियों को भी उनके माता-पिता से जमीन विरासत में मिलती है, लेकिन मुख्य अंतर स्थान का है। किसी को दक्षिण मुंबई जैसी आलीशान क्षेत्र में जमीन विरासत में मिलती है तो किसी को बुंदेलखंड के गांव में, दोनों को ही बस संयोग से। संयोग से यह भाग्य दक्षिण मुंबईकरों की आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बड़ा विशेषाधिकार है और प्रवासियों के बच्चों के लिए, लगभग शून्य मूल्य का है, जो हो सकता है दक्षिण मुंबई में ही काम कर रहे हों और जब दोनों को भविष्य में एक-दूसरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी, तो तथाकथित “योग्यता” परिणाम तय करेगी। और सबसे अधिक संभावना है कि प्रवासियों के बच्चे भी अपने विशेषाधिकार प्राप्त प्रतिस्पर्धियों के घरों में किरायेदारों के रूप में रहेंगे। एक परिवार अपनी 30 प्रतिशत आय का भुगतान दूसरे को सिर्फ इसलिए करना जारी रखेगा, क्योंकि उनको किसी अच्छे स्थान पर “विरासत में” जमीन नहीं मिली थी।

पूर्वी दिल्ली में एक स्लम का दृश्य

क्या होता अगर संविधान निर्माण के समय उत्तराधिकार के नियम को राजनीतिक मामलों में भी शामिल कर लिया गया होता? क्या होता अगर किसी पार्टी के वोट, जो पहले के चुनावों में उसे मिले थे, भविष्य के चुनावों में भी गिने जाते? तब कांग्रेस को हराना लगभग नामुमकिन होता? दूसरी पार्टियों ने मतदाताओं के सामने चाहे कितने भी बेहतर विकल्प क्यों न होते। हमारे देश में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को भूमि हस्तांतरण के लिए यही हास्यास्पद प्रक्रिया अपनाई जा रही है। संविधान की प्रस्तावना में, हम, भारत के लोगों ने अपने सभी नागरिकों को स्थिति और अवसर की समानता सुरक्षित करने का निर्णय लिया था; उस संकल्प को प्राप्त करने के बजाय हमने इसके विपरीत को हासिल किया है।

एक अरबपति से लेकर दैनिक वेतन भोगी तक प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी शहर/गांव में (जहां वह काम कर रहा हो) एक उपयुक्त घर खरीदने में सक्षम होना चाहिए। आवास बिना किसी अपवाद के सभी के लिए उपलब्द होना चाहिए। वर्तमान में, सरकार गरीबों को सस्ती आवास प्रदान करने के उद्देश्य से एक योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना चला रही है, जिसके तहत निम्न/मध्यम आय वाले परिवारों को नए निर्माण और मौजूदा आवासों के विस्तार के लिए रियायती आवास ऋण प्रदान किए जाते हैं। इस योजना के तहत 12 लाख रुपये तक सब्सिडी वाला आवास ऋण दिया जा राहा है। लेकिन लगभग सभी शहरों में 1 कमरे के फ्लैट की कीमत भी इस राशि से कहीं अधिक है। और गांवों में बिना जमीन के कोई इस कर्ज से घर कैसे बना सकता है

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भूमिहीन लोग इतने गरीब हैं कि वे कर्ज चुकाने में सक्षम नहीं हैं। सबसे पहले उन्हें जमीन दी जानी चाहिए और अगर सरकार जमीन नहीं दे सकती है, तो उन्हें कोई भी संभावित आवास प्रदान किया जाना चाहिए।

कुछ अध्ययनों के अनुसार, अचल संपत्ति का हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद मे 11 प्रतिशत हिस्सा है और इसका देश की कुल काली पूंजी (काला धन अर्थात अवैध तरीकों से अर्जित किया गया धन) में सबसे बड़ा योगदान है। काले धन की भागीदारी के कारण, भारत में जमीन की कीमत अत्यधिक बढ़ गई है। हमारे देश में अधिकांश व्यापारी, खुदरा विक्रेता हजारों रुपये मासिक किराया दे रहे हैं और इस वजह से वस्तुओं की कीमत में भी वृद्धि हो रही है। इस महंगी जमीन के कारण सब कुछ महंगा हो जाता है। अगर किसी तरह सरकार ज़मीन को सस्ती बना देती है, तो इससे हमारे देश में करोड़ों लोगों की जीवनशैली में सुधार होगा।

एक तरफ सरकार ने ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर) आरक्षण देने के लिए आय सीमा को 8 लाख प्रति वर्ष निर्धारित किया है और दूसरी तरफ सरकार 5 लाख प्रति वर्ष से अधिक आय वाले व्यक्तियों पर आयकर लगा रही है। जब सरकार दवाओं जैसी आवश्यक वस्तुओं पर भी जीएसटी लगा रही है, तो सरकार इन भूमि सम्पदाओं पर उचित दर पर कर क्यों नहीं लगा रही है? हालांकि सरकार नगरपालिकाओ के माध्यम से संपत्ति कर लगाती है, लेकिन यह उचित दर पर नही लगाया जा रहा है और भारत में वास्तविक क्षमता के अनुरूप संपत्ति कर की वसूली नही होती है। 

एक अध्ययन के अनुसार, भारत में सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में संपत्ति कर से प्राप्त औसत राजस्व विश्व में सबसे कम है। कई कारकों जैसे अवमूल्यन, संपत्तियों के बारे में अधूरा डेटा और अप्रभावी प्रशासन के कारण भारत मे संपत्ति कर राजस्व वास्तविक क्षमता से बहुत कम वसूल किया जाता है। हर साल संपत्ति कर एकत्र करने की बजाय, यदि सरकार, जीएसटी के समान जो कि किसी वस्तु या सेवा की आपूर्ति पर लगाये जाने वाला कर है, भूमि लेन-देन तथा स्थानांतरण पर कर एकत्र करना शुरू कर देती है, तो इसे सुदृढ तरीके से लागू करना बहुत आसान हो जायेगा, क्योंकि एक भूमि का हस्तांतरण एक दशक में औसतन एक बार ही होता है।

हम जानते हैं कि इतनी बड़ी काली अर्थव्यवस्था पर टैक्स लगाने की राजनीतिक मंशा नहीं है। लेकिन अगर सरकार जमीन के लेन-देन तथा हस्तांतरण पर उचित दर से कर लगाना शुरू कर देती है तो उस ऐतिहासिक भेदभाव, जो भूमिहीन लोगो के साथ हुआ है, को ठीक करने के अलावा, सरकार को भारी राजस्व के रूप मे लाभ भी होगा। और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे जुड़े काले धन के कम हो जाने से भूमि / आवास आम लोगों के लिए वहनीय हो जायेगा, क्योंकि यदि कर अधिक होगा तो कोई भी अपने काले धन को जमींनी संपत्तियों में निवेश नहीं करेगा।

सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह भूमि लेन-देन कर विरासत में मिली जमीन पर भी लागू हो। बेहतर तो यह हो कि विरासत में मिली जमीन पर कम से कम 33 से 50 फीसदी टैक्स लगना चाहिए। जब भी भूमि अगली पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती है, भू-स्वामी की मृत्यु के बाद भी, भूमि लेन-देन कर लगाया जाना चाहिए। केवल एकल घर वाले परिवारों को छूट दी जानी चाहिए जिनकी संपत्ति का मूल्य 50 लाख रुपये से कम है और जो यह साबित कर सके कि उन्होंने अपने कानूनी रूप से अर्जित धन के माध्यम से संपत्ति अर्जित की है (इसके लिये पिछले आयकर रिटर्न / ऋण पत्रों को सत्यापित करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है)। 

सरकार को जिला समाहर्ताओं को निर्देश देने चाहिए कि भू-सम्पत्तियों का मूल्य बाजार दर के समीप ही निर्धारित किया जाय। यदि संभावित करदाता राशि का भुगतान करने में असमर्थ है, तो सरकार को उस भूमि पर अधिकार कर लेना चाहिए और संपत्ति की राशि (विरासत कर/ भूमि लेन-देन कर काटने के बाद) का भुगतान करना चाहिए, फिर सरकार संपत्ति को भूमिहीन लोगों के बीच वितरित कर सकती है। 

एक सवाल और है। आजादी के बाद, जिस आधार पर कृषि भूमि का स्वामित्व “वास्तविक किसानों” को देने की बात कही गयी थी, उसी आधार पर वन भूमि का स्वामित्व “वास्तविक वनवासियों” (आदिवासियों) को क्यों नहीं दिया गया? कारखानों का स्वामित्व “वास्तविक श्रमिकों” को क्यों नहीं दिया गया? नदी/समुद्री क्षेत्र का स्वामित्व “वास्तविक मछुआरों” को क्यों नहीं दिया गया?

कृषि भूमि के मामले में, स्वतंत्रता के बाद, विभिन्न सरकारो ने भूमि सुधार के लिए कई अधिनियम पारित किए। जमींदारी और बिचौलियों का उन्मूलन पहले ऐसे अधिनियम थे जिनमें वास्तविक किसानों को भुमि के स्वामित्व अधिकार दिए गए थे। लेकिन तब से अब तक समय बदल गया है और अब उन “वास्तविक किसानों” की पीढ़ियां जमीन की मालिक हैंलेकिन ये नई पीढ़ियां असल मे वास्तविक किसान नहीं हैं। अब अधिकांश मामलों में भूमिहीन कृषि श्रमिक वास्तविक किसान हैं। भू-मालिकों की इन पीढ़ियों में से कई ने अपनी जमीन का हिस्सा बेच दिया है और अब वे कृषि से जुड़े नहीं हैं। इसलिए, सरकार द्वारा बिचौलियों के उन्मूलन का नया कानून पारित किया जाना चाहिए ताकि सरकार, कृषि के अलावा अन्य स्रोतों से काफी आय अर्जित करने वाले भू-मालिकों से भूमि, वापिस ले सके। 

कृषि भूमि का स्वामित्व केवल वास्तविक कृषक ही होना चाहिएअन्य कोई नहीं। हमारे देश में लोगो को कृषि भूमि के मालिक होने पर आयकर मे छूट मिल रही है, हालांकि वे खुद कोई खेती का काम नहीं कर रहे हैं। वही दूसरी तरफ, जो वास्तव में खेती करना चाहते हैं, वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि जमीन खरीदना उनके दायरे से बाहर है। कृषि को एक उद्योग के रूप में माना जाना चाहिए और जो लोग खेती मे अपनी मेहनत, समय, तन, मन और धन का निवेश करना चाहते हैं, उन्हें खेती के लिए भूमि प्राप्त करने का मौका मिलना चाहिए और जो खेती नहीं कर रहे हैं, उनकी कृषि भूमि सरकार द्वारा छीन ली जानी चाहिए। 

हमारे देश में असंख्य उच्च आय वाले परिवार हैं, जिनके पास कृषि भूमि का बड़ा हिस्सा है, जो सदियों पुरानी जमींदारी व्यवस्था को जारी रखते है। सरकार को चाहिए कि वह उस जमीन पर कब्जा कर ले और उसे भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को बांट दे, ताकि उन्हें अपनी गुरबत भरी  जीवन को उन्नत करने का मौका मिल सके। यह एक सतत प्रक्रिया होनी चाहिए। एक को जमीन मिल गई और अब उसका परिवार आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर नहीं है तो दूसरे को अपना जीवन सुधारने का मौका मिलना चाहिए। 

हमारे देश में भूमिहीन श्रमिकों को किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना में अधिक सरकारी सहायता की आवश्यकता होती है। भले ही कुछ के पास अव्यवहार्य भूमि हो, वह जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए भूमिहीन श्रमिकों की तुलना में बहुत अधिक सक्षम है। सरकार ने सामान्य वर्ग के लिए बिना किसी प्रासंगिक अध्ययन के सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण (ईडब्ल्यूएस) का प्रावधान किया हैहोना तो यह चाहिए कि सभी भूमिहीन श्रमिकों के बच्चों को ईडब्ल्यूएस आरक्षण में प्राथमिकता दी जानी चाहिए और इसे केवल सामान्य श्रेणी तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, क्योंकि अधिकांश भूमिहीन श्रमिक वंचित वर्ग से आते हैं।

एक सवाल और है। आजादी के बाद, जिस आधार पर कृषि भूमि का स्वामित्व “वास्तविक किसानों” को देने की बात कही गयी थी, उसी आधार पर वन भूमि का स्वामित्व “वास्तविक वनवासियों” (आदिवासियों) को क्यों नहीं दिया गया? कारखानों का स्वामित्व “वास्तविक श्रमिकों” को क्यों नहीं दिया गया? नदी/समुद्री क्षेत्र का स्वामित्व “वास्तविक मछुआरों” को क्यों नहीं दिया गया? बागान सम्पदा का स्वामित्व “वास्तविक बागान श्रमिकों” को क्यों नहीं दिया गया? शहरों और गांवों की सफ़ाई व्यवस्था का स्वामित्व “उनके वास्तविक सफ़ाईकारो” को क्यों नहीं दिया गया? हालांकि आजादी और संविधान ने वोटिंग के अधिकार के मामले में वंचित वर्ग (एससी/एसटी) को समानता दी है, लेकिन सदियो के जातिगत शोषण का वंचित वर्ग के दिमाग पर इतना गहरा असर है कि आर्थिक समानता पाने का सपना भी, उनके सपनों में मौजूद नहीं है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुमित चहल

लेखक सामाजिक-आर्थिक विषयों पर लिखनेवाले स्वतंत्र पत्रकार हैं

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