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क्यों अलग हुईं चंद्रशेखर-अखिलेश की राहें?

यदि 6 महीने पहले बात हुई होती तो शायद आज़ाद समाज पार्टी को आधा दर्जन सीटें मिल सकती थीं। लेकिन पिछले कुछ दिनों में राज्य के राजनीतिक हालात तेज़ी से बदले हैं। पहले इंद्रजीत सरोज और वीर सिंह, फिर स्वामी प्रसाद मौर्य और धर्म सिंह सैनी के आने से समाजवादी पार्टी में अब कई मज़बूत दलित-ओबीसी चेहरे हैं। सैयद जैगम मुर्तजा की त्वरित टिप्पणी

चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी का समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं हो पाया। सूबे की सियासत पर नज़र रखने वाले मान कर चल रहे थे कि अखिलेश यादव पश्चिम उत्तर प्रदेश में मायावती के दलित क़िले में सेंध लगाने के लिए चंद्रशेखर, उनकी भीम आर्मी और आज़ाद समाज पार्टी को इस्तेमाल कर सकते हैं। इस आलोक में 15 जनवरी, 2022 की सुबह तक सबकुछ योजना के मुताबिक़ चल रहा था, लेकिन दोपहर होते-होते गठबंधन धाराशायी हो गया। दोनों ही नेताओं ने एक-दूसरे के ख़िलाफ बयान दिए और अपनी राहें अलग कर लीं। सवाल यह है कि 14 जनवरी की शाम और 15 जनवरी की सुबह के बीच आख़िर ऐसा क्या हुआ जो चंद्रशेखर के लिए अपमानजनक और अखिलेश यादव के लिए साजिश का सबब था?

15 जनवरी की सुबह चंद्रशेखर आज़ाद समाजवादी पार्टी दफ्तर में जब अखिलेश यादव से मिले, उस वक़्त गठबंधन का ऐलान होना महज़ औपचारिकता माना जा रहा था। ख़ुद चंद्रशेखर आज़ाद के मुताबिक़, दोनों नेताओं के बीच पिछले 6 महीने से गठबंधन को लेकर बातचीत चल रही थी। सबकुछ तक़रीबन तय हो चुका था। लेकिन 11 बजे के क़रीब चंद्रशेखर आज़ाद समाजवादी पार्टी के दफ्तर से निकल कर बाहर आए, तबतक गठबंधन की योजना बिखर चुकी थी। इसके बाद हुई प्रेस कान्फ्रेंस में चंद्रशेखर आज़ाद ने आरोप लगाया कि अखिलेश यादव दलितों को अपने गठबंधन में शामिल करना नहीं चाहते हैं। चंद्रशेखर ने दावा किया कि वो पिछले 9 साल से दलितों को इकट्ठा कर रहे हैं और उनका मक़सद भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है। उन्होंने समाजवादी पार्टी अध्यक्ष पर अपमानित करने का आरोप लगाया और कहा कि उनकी प्रेस कान्फ्रेंस को रोकने की कोशिश की गई।

इसके कुछ देर बाद अखिलेश यादव प्रेस से मुख़ातिब हुए। उन्होंने कहा कि आज़ाद समाज पार्टी को दो सीट देने का प्रस्ताव रखा गया था। इसके बाद चंद्रशेखर आज़ाद ने किसी को फोन किया। फोन पर बात करके उन्होंने कहा कि मेरी पार्टी का संगठन दो सीट पर राज़ी नहीं है।अखिलेश यादव ने आगे कहा कि यह सब समाजवादी पार्टी गठबंधन के ख़िलाफ साजिश के तहत हुआ है। दोनों नेताओं की बात से यही नतीजा निकाला गया कि गठबंधन की गुंजाइश ख़त्म हो गई है और अब दोनों नेताओं की राहें अलग हैं। अब लोग सवाल कर रहे हैं, गठबंधन आख़िर क्यों टूटा और इसका पश्चिम उत्तर प्रदेश की राजनीति पर क्या असर पड़ने वाला है?

चंद्रशेखर और अखिलेश : राहें हुईं अलग

समाजवादी पार्टी के सूत्रों की मानें तो भीम आर्मी मुखिया अति-आत्मविश्वास में हैं और ज़रूरत से ज़्यादा सीटें मांग रहे थे। अखिलेश यादव ने आज़ाद समाज पार्टी को ग़ाज़ियाबाद सदर और सहारनपुर ज़िले की रामपुर मनिहारन सीट देने का प्रस्ताव रखा था, मगर वह नहीं माने। आज़ाद पहले पंद्रह सीट मांग रहे थे, लेकिन आख़िर तक आठ सीट की मांग पर अड़े रहे। इनमें सहारनपुर, मेरठ, बुलंदशहर, अमरोहा और बिजनौर ज़िले की सीटें थीं। इनके अलावा ग़ाज़ियाबाद और साहिबाबाद सीट पर भी उनका दावा था। सपा के पास इन सीटों पर या तो पहले से ही जिताऊ उम्मीदवार या सीटिंग विधायक हैं, या फिर यह सीट गठबंधन में पहले ही जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल को दी जा चुकी हैं।

हालांकि यदि 6 महीने पहले बात हुई होती तो शायद आज़ाद समाज पार्टी को आधा दर्जन सीटें मिल सकती थीं। लेकिन पिछले कुछ दिनों में राज्य के राजनीतिक हालात तेज़ी से बदले हैं। पहले इंद्रजीत सरोज और वीर सिंह, फिर स्वामी प्रसाद मौर्य और धर्म सिंह सैनी के आने से समाजवादी पार्टी में अब कई मज़बूत दलित-ओबीसी चेहरे हैं। धर्म सिंह सैनी के आने के बाद तो सहारनपुर ज़िले की राजनीति ही बदल गई है। कल तक सहारनपुर का प्रमुख सियासी चेहरा माने जाने वाले इमरान मसूद जैसे नेता तक को सपा में टिकट के लिए मारामारी करनी पड़ रही है। सियासी सूत्रों का यहां तक कहना है कि गठबंधन टूटने की एक वजह इमरान मसूद भी हैं। अखिलेश यादव मान कर चल रहे हैं कि चुनाव का नॅरेटिव सेट हो चुका है और राज्य के दलित, पिछड़े, मुसलमान अब उनके साथ लामबंद हैं। ऐसे में किसी के आने या जाने से सपा की सेहत पर ज़्यादा असर नहीं पड़ रहा है। हालांकि यह समाजवादी ख़ेमे का अति-आत्मविश्वास हो सकता है।

लेकिन इस गठबंधन के टूटने का असर चंद्रशेखर की सियासत के लिए नुक़सान पहुंचाने वाला है। बसपा नेता मायावती से नाराज़ दलित युवाओं इकट्ठा करके उन्होंने एक सियासी पहचान तो बनाई है, लेकिन वह पश्चिम उत्तर प्रदेश में अभी कोई सियासी वजूद रखते हैं, इसे लेकर अभी भी लोगों को संशय है। लोग आरोप लगाते हैं कि उनके इर्द-गिर्द जो भीड़ थी, वह सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान इकट्ठा हुए मुसलमान थे। चुनावी राजनीति में अभी उनको बहुत कुछ करना है। पिछले दिनों हुए उपचुनाव और पंचायत चुनावों में उनकी पार्टी ने कुछ वोट ज़रुर हासिल किए, लेकिन वह इतने नहीं थे कि ओम प्रकाश राजभर की भारत समाज पार्टी या संजय निषाद की निषाद पार्टी जितनी हैसियत मान ली जाए। जिस गठबंधन में ओम प्रकाश राजभर को आठ सीट मिली हैं उसमें दो सीट के अलावा हद से हद एक एमएलसी पर शायद बात बन भी जाती। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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